गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

नासिरा शर्मा की रचनाएँ

जन्म : 1941 ई., इलाहाबाद (उ. प्र.)
उपन्यास : सात नदियाँ एक समंदर (1984), शाल्मली (1987), ठीकरे की मंगनी (1989), जिंदा मुहावरे (1993), अक्षयवट (2003), कुइयाँजान (2005), जीरो रोड (2008), बहिश्ते ज़ाहिरा (2009), पारिजात (2010), अजनबी जज़ीरा (2012), काग़ज़ की नाव।
कहानी संग्रह : शामी कागज (1980), पत्थरगली (1986), संगसार (1993), इब्ने मरियम (1994), सबीना के चालीस चोर (1997), खुदा की वापसी (1998), इंसानी नस्ल (2001), गूंगा, बुतखाना, दूसरा ताजमहल (2002), आसमान।
नाटक :  दहलीज, पत्थर गली
निबंध संग्रह : किताब के बहाने (2001), औरत के लिए औरत, राष्ट्र और मुसलमान
रिपोर्ताज : जहां फ़ौव्वारे लहू रोते हैं
अनुवाद : शाहनामा-ए- फ़िरदौसी, गुलस्ता-ए-सादी, क़िस्सा जाम का, काली छोटी मछली, फारसी की रोचक कहानियाँ इत्यादि
साहित्य अकादमी के इतिहास में हिंदी साहित्य में नासिरा शर्मा चौथी महिला हैं जिन्हें साहित्य अकादमी (2016) पुरस्कार मिला। इसके पहले कृष्णा सोबती, अलका सरावगी और मृदुला गर्ग को यह सम्मान मिल चुका है। साथ ही नासिरा शर्मा पहली मुस्लिम लेखिका हैं जिन्हें हिंदी का साहित्य अकादमी सम्मान मिला।
पारिजात एक फूल का नाम है, जिसकी स्मृतियां स्वर्ग से जुड़ती हैं और वही पारिजात इस धरती पर भी कहीं बचा पड़ा है।
सात नदियां एक समंदर (1984) ईरानी क्रांति पर लिखा दुनिया का पहला उपन्यास है।  ठीकरे की मंगनी (1989) में आजादी के बाद की संघर्षशील लड़की जो अपनी मेहनत और काबिलियत से साबित करती है कि पितृसत्ता में औरत की एक अपनी पहचान भी होती है। नासिरा शर्मा का शाल्मली दाम्पत्य जीवन में अनबन को लेकर लिखा गया उपन्यास है । उपन्यास की नायिका ऊँचे पद पर कार्यरत एक अफ़सर है जिसका विवाह उसके अफ़सर होने के पूर्व नरेश से हुआ था, जो उस समय एक क्लर्क था। शाल्मली अफ़सरी की परीक्षा पास करने के बाद लगातार तरक़्क़ी करती चली गई और नरेश जहाँ का तहाँ रह जाता है। यह अलग बात है कि शाल्मली को अफ़सर बनाने में नरेश की भी भूमिका रही थी। परन्तु बाद में नरेश हीनता ग्रंथी से पीड़ित हो जाता है। नासिरा शर्मा का अक्षयवट हिन्दु-मुस्लिम समस्या को जड़ों में जाकर पड़तालता एक महत्वपूर्ण उपन्यास है। कुँइयाजान में कुँइयाजान में वर्णित जल समस्या और पारिवारिक तथा सामाजिक संबंधो में आए आर्द्रता के संकट की हक़ीकत को लेखिका ने अपने कथा-विन्यास में गूँथा है।  एक तरफ़ पानी का खरा सच और दूसरी तरफ़ संबंधों का सच है। उपन्यास के अंत में जब समीना भी मर जाती है, अपने जुड़वाँ बच्चों को जन्म देने के बाद, तो डॉ. कमाल दुखी तो होते हैं पर निराश और हताश नहीं। इसका कलेवर हमारे विखंडित होते समाज का चित्र है, जिसे वह अपने अर्जित सामाजिक एवं सांस्कृतिक विश्वासों के आधार पर संभवतः बचा लेना चाहती हैं।

" कुआं पुलिंग है, कुईं स्त्रीलिंग। कुईं केवल अपने व्यास में छोटी होती है, गहराई में नहीं। कुईं एक अर्थ में कुएं से बिल्कुल अलग है। कुआं भूजल तक पहुँचने या पाने के लिए बनता है, पर कुईं भूजल से ठीक वैसे नहीं जुड़ती जैसे कुआं, बल्कि कुईं वर्षा के जल को बड़े विचित्र ढंग से समेटती और सँजोती है। तब भी जब वर्षा नहीं होती। यानी कुईं में न तो सतह पर बहने वाला पानी है, न भूजल है। यह तो नेति-नेति जैसा कुछ पेचीदा मामला है।" (कुँइयाजान)

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