शनिवार, 2 जून 2018

कुंवर नारायण की रचनाएँ

कुंवर नारायण की रचनाएँ

कुंवर नारायण

जन्म : 19 सितम्बर 1927
निधन : 15 नवम्बर 2017
जन्म-स्थान : फ़ैज़ाबाद (उत्तर प्रदेश)
नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर।
कुँवर नारायण के काव्य-संसार में नैतिकता की केन्द्रीयता को लक्ष्य किया गया है। वह कविता में मानवीय गरिमा को बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। वे कविता में अहिंसा दृष्टि के साथ दिखते हैं। ౼डॉक्टर कुसुम राय
रचनाएँ
कविता-संग्रह : चक्रव्यूह (1956), तीसरा सप्तक (1959), परिवेश : हम-तुम (1961), अपने सामने (1979), कोई दूसरा नहीं (1993 ई.), इन दिनों (2002 ई.), हाशिये का गवाह, कुमारजीव (कुमारजीव अर्ध-भारतीय मूल के अनुवादक और विद्वान हैं, जो चौथी शताब्दी में हुए। उन्होंने संस्कृत-पालि बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में किया था।)
खंड-काव्य : आत्मजयी (1965 ई,) और वाजश्रवा के बहाने (2008 ई.)।
कुँवर नारायण को रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के ज़रिये वर्तमान को देखने के लिए जाना जाता है। उनकी मूल विधा कविता रही है, पर इसके अलावा उन्होंने कहानी, लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा, रंगमंच एवं अन्य कलाओं पर भी बखूबी लेखनी चलायी है।
खण्ड-काव्य 'आत्मजयी' में मृत्यु-संबंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ प्रस्तुत किया। इसमें नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, 'मृत्य वे त्वा ददामीति' अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँ, को शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता है, जहाँ वह तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहकर यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है। उसकी इस साधना से प्रसन्न होकर यमराज उसे तीन वरदान माँगने की अनुमति देते हैं। नचिकेता इनमें से पहला वरदान यह माँगता है कि उसके पिता वाजश्रवा का क्रोध समाप्त हो जाए।
नचिकेता के इसी कथन को आधार बनाकर कुँवर नारायणजी ने 2008 में एक अन्य कृति 'वाजश्रवा के बहाने' की रचना की, जिसमें उन्होंने पिता वाजश्रवा के मन में जो उद्वेलन चलता रहा, उसे अत्यन्त सात्विक शब्दावली में काव्य-बद्ध किया है। जहाँ एक ओर 'आत्मजयी' में कुँवर नारायण ने मृत्यु जैसे विषय का वर्णन किया है, वहीं इसके ठीक विपरीत 'वाजश्रवा के बहाने' कृति में अपनी विधायक संवेदना के साथ जीवन के आलोक को रेखांकित किया है। यह कृति आज के इस बर्बर समय में भटकती हुई मानसिकता को न केवल राहत देती है, बल्कि यह प्रेरणा भी देती है कि दो पीढ़ियों के बीच समन्वय बनाए रखने का समझदार ढंग क्या हो सकता है। 'आत्मजयी' का 1989 में इतालवी अनुवाद रोम से प्रकाशित हो चुका है।
उनकी चर्चित रचना आत्मजयी (1965) में वाजश्रवा और नचिकेता औपनिषदिक कथानक के ऊपर स्थापित दो ऐसे तनावग्रस्त चरित्र हैं जिनके तर्क, विषाद, प्रलोभन, इच्छा, कामना सब कुछ आज के पीड़ित और परेशान मनुष्य के जीवन के चित्र बन जाते हैं। 'आत्मजयी' और 'वाजश्रवा के बहाने' उपनिषद की परंपरा का आख्यान है, तो 'कुमारजीव' बौद्ध परंपरा का स्वीकार। कुँवर नारायण ने 'सरहपा' नाम के सिद्ध पर कविता लिखी। वे वृहत्तर भारतीयता के मानवतावादी कवि थे.
कहानी-संग्रह : आकारों के आसपास (1973 ई.)।
समीक्षा : आज और आज से पहले (1998 ई.), मेरे साक्षात्कार (1999 ई.), साहित्य के कुछ अन्तर्विषयक संदर्भ (2003 ई.), तट पर हूँ पर तटस्थ नहीं (2010 ई.)।
संकलन : कुंवर नारायण-संसार (चुने हुए लेखों का संग्रह, 2002 ई.) कुँवर नारायण : उपस्थिति (चुने हुए लेखों का संग्रह, 2002 ई.), कुँवर नारायण : चुनी हुई कविताएँ (2007 ई.), कुँवर नारायण : प्रतिनिधि कविताएँ (2008 ई.)
सम्पादन : 'युगचेतना' और 'नया प्रतीक' तथा 'छायानट' के संपादक-मण्डल में भी कुंवर नारायण रहे हैं। वे 1975 ई. से 1078 ई. तक अज्ञेय द्वारा संपादित मासिक पत्रिका 'नया प्रतीक' के संपादक मंडल के सदस्य भी रहे और ‘तनाव‘ पत्रिका के लिए उन्होंने कवाफी तथा ब्रोर्खेस की कविताओं का भी अनुवाद किया है।
पुरस्कार और सम्मान
'कोई दूसरा नहीं' (कविता-संग्रह) पर 1995 ई. का साहित्य अकादमी पुरस्कार, शलाका सम्मान (2006 ई., हिंदी अकादेमी दिल्ली), वर्ष 2005 का ज्ञानपीठ पुरस्कार 2009 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा और 2009 में ही पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित। इनके अतिरिक्त व्यास सम्मान, केरल का कुमार आशान पुरस्कार, हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार, प्रेमचंद पुरस्कार, 'तुलसी पुरस्कार', 'उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान पुरस्कार', राष्ट्रीय कबीर सम्मान, मेडल ऑफ़ वॉरसा यूनिवर्सिटी, पोलैंड और रोम के अन्तर्राष्ट्रीय प्रीमियो फ़ेरेनिया सम्मान भी कुँवर नारायण को मिले।

कथन एवं काव्य-पंक्कियाँ

कुंवर नारायण के कहते हैं౼
"मृत्यु का यह साक्षात्कार व्यक्तिगत स्तर पर तो था ही सामूहिक स्तर पर भी था। द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद सन् पचपन में मैं पौलेंड गया था। विश्वनाथ प्रताप सिंह भी गए थे मेरे साथ। वहाँ मैंने युद्ध के विध्वंस को देखा। तब मैं सत्ताइस साल का था। इसीलिए मैं अपने लेखन में जिजीविषा की तलाश करता हूँ। मनुष्य की जो जिजीविषा है, जो जीवन है, वह बहुत बड़ा यथार्थ है।"
'आत्मजयी में उठाई गई समस्या मुख्यतः एक विचारशील व्यक्ति की समस्या है ౼केवल ऐसे प्राणी की नहीं जो दैनिक आवश्यकताओं के आगे नहीं सोचता।' उनके लिए नचिकेता की कल्पना एक ऐसे मनुष्य की कल्पना है जिसके लिए, उन्हीं के शब्दों में, 'केवल सुखी जीना काफ़ी नहीं, सार्थक जीना ज़रूरी है.' ('आत्मजयी' की भूमिका)
कुँवर नारायण कहते हैं, ''बदलते संदर्भों में मनुष्‍य के सबसे कम उद्घाटित या विलुप्‍त होते, जीवन-स्रोतों की खोज और भाषा में उनका संरक्षण शायद आज भी कविता की सबसे बड़ी ताक़त है।''
''साहित्‍य सिर्फ अपनी जमीन या जगह से ही नहीं अपने समय से भी जुड़े रहने की कोशिश है। अपने समय से जुड़े रहने का मतलब है अपने समय के प्रमुख विचारों से जुड़ना। इसके बिना हम अपने जमीन से जुड़े रहने को भी वह अतिरिक्‍त और जरूरी आयाम नहीं दे पाएंगे जो एक साहित्‍य को सार्वभौमिक और सार्वकालिक बनाता है।'' (कुँवर नारायण)
''सम्‍प्रेषण की तकनीकों का विकास शब्‍दों की दुनिया के लिए किसी प्रकार का खतरा नहीं है। शब्‍दों का बहुत बड़ा संसार है : कविता की उसमें एक छोटी-सी लेकिन अनिवार्य जगह बनती है – कहीं हमारे दिल, दिमाग और आत्‍मा के बहुत नजदीक .......कविता का उत्‍स जैविक है : उसके लक्षण हमारे जीवाश्‍मों में बसे हैं, हमारे हृदय की गति और लय की तरह।......भाषा के पर्यावरण में कविता की मौजूदगी का तर्क जीवन-सापेक्ष है : उसके प्रेमी और प्रशंसक हमेशा रहेंगे౼ बहुत ज्‍यादा नहीं लेकिन बहुत समर्पित।''   (कुँवर नारायण)

नचिकेता प्रलाप करता है౼
आह, तुम नहीं समझते पिता, नहीं समझना चाह रहे,
कि एक-एक शील पाने के लिए
कितनी महान आत्माओं ने कितना कष्ट सहा है...
सत्य, जिसे हम सब इतनी आसानी से
अपनी-अपनी तरफ़ मान लेते हैं, सदैव
विद्रोही-सा रहा है।
नचिकेता पिता से तर्क करता है। वह अपने लिए उनसे असहमति का अवसर मांगता है౼
'असहमति को अवसर दो
सहिष्णुता को आचरण दो
कि बुद्धि सिर ऊंचा रख सके।'
वह कहता है ౼
'मैं जिन परिस्थितियों में ज़िन्दा हूं
उन्हें समझना चाहता हूं౼ वे उतनी ही नहीं
जितनी संसार और स्वर्ग की कल्पना से बनती हैं
क्योंकि व्यक्ति मरता है
और अपनी मृत्यु में वह बिल्कुल अकेला है,
विवश असांत्वनीय।'
नचिकेता अपने पिता से कहता है౼
तुम्हारे इरादों में हिंसा
खंग पर रक्त౼
तुम्हारे इच्छा करते ही हत्या होती है!
तुम समृद्ध होगे
लेकिन उससे पहले
समझाओ मुझे अपने कल्याण का आधार
ये निरीह आहुतियां, यह रक्त, यह हिंसा।
ये अबोध तड़पनें, बीमार गायों-सा जन-समूह
‘मेरी आस्था को बल दो’౼ कहते ही
तुम्हारा हाथ ऊपर उठता है ౼एक वध और
यह अंतिम है. इसके बाद वरदान…
मेरी आस्था कांप उठती है।
मैं उसे वापस लेता हूं।
नहीं चाहिए तुम्हारा यह आश्वासन
जो केवल हिंसा से अपने को सिद्ध सकता है।
नहीं चाहिए वह विश्वास जिसकी चरम परिणति हत्या हो
मैं अपनी अनास्था में अधिक सहिष्णु हूं।
अपनी नास्तिकता में अधिक धार्मिक।
अपने अकेलेपन में अधिक मुक्त।
अपनी उदासी में अधिक उदार।

'अकेला कवि सरहपा
भटकता है राज्ञी से श्रीपर्वत तक
खोजता मुक्ति का अर्थ।'  (सरहपा)

मेरे और तुम्हारे बीच एक मौन है
जो किसी अखंडता में हमको मिलाता है। (माध्यम)

नहीं चाहिए तुम्हारा यह आश्वासन
जो केवल हिंसा से अपने को सिद्ध कर सकता है।
नहीं चाहिए वह विश्वास, जिसकी चरम परिणति हत्या हो।
मैं अपनी अनास्था में अधिक सहिष्णु हूँष
मैं अपनी नास्तिकता में अधिक धार्मिक।
अपने अकेलेपन में अधिक युक्त।
अपनी उदासी में अधिक उदार।    (आत्मजयी)

कैसा होना चाहिए था
फूल-सी सुनयना की आँखों में
अपने प्रेम में विश्वास का रंग।   (सुनयना)

"अभी-अभी आया हूँ दुनिया से
थका-माँदा
अपने हिस्से की पूरी सजा काट कर..."
"आपके लिए पुष्पक-विमान
बस अभी आता ही होगा।"   (अगली यात्रा)

'घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएंगे
समय होगा, हम अचानक बीत जाएंगे।
और चलते भीड़ में कन्धे रगड़कर हम
अचानक जा रहे होंगे कहीं सदियों अलग होके।     (घर रहेंगे : तीसरा सप्तक 1959 ई.)

अब की अगर लौटा तो
बृहत्तर लौटूँगा
अबकी अगर लौटा तो
मनुष्यतर लौटूँगा
अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूँगा     (अब की अगर लौटा तो)

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं
चुनाव का डंका है !
हे राम, कहाँ यह समय
कहाँ तुम्हारा त्रेता युग,
कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहाँ यह नेता-युग !
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीकि !    (अयोध्या, 1992)

इस देश में हर एक को अफसोस के साथ जीने का
पैदाइशी हक है वरना
कोई माने नहीं रखते हमारी आजादी और प्रजातंत्र
हम सब एक नाजुक दौर से गुजर रहे
और मैं आँकड़ों का काटा
चीखता चला जा रहा था
कि हम आँकड़े नहीं आदमी हैं       (आँकड़ों की बीमारी)

मनुष्य के मष्तिष्क से
अनुभवों से उत्पन्न हुई स्मृतियाँ
और जन्म-जन्मांतर तक
खिंचती चली गईं       (उजास)

मैं जिंदगी से भागना नहीं
उससे जुड़ना चाहता हूँ।     (उत्केंद्रित)

उदासी भी
एक पक्का रंग है जीवन का    (उदासी के रंग)

तुम्हारे आँचल में आग...
चाहता हूँ झपटकर अलग कर दूँ तुम्हें

लपटें
एक नए तट की शीतल सदाशयता को छूकर
लौट जायें।      (एक हरा जंगल)

दूरियों का भूगोल नहीं
उनका समय बदलता है।
कितना ऐतिहासिक लगता है आज
तुमसे उस दिन मिलना।
पानी पर लिखता एक छंद       (कभी पाना मुझे)

हवा और दरवाजों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।
सोचते-सोचते न जाने कब सो गई,
आँख खुली तो देखा सुबह हो गई।     (कमरे में धूप)

कविता वक्तव्य नहीं गवाह है
कभी हमारे सामने
कभी हमसे पहले
कभी हमारे बाद
कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता
भाषा में उसका बयान
जिसका पूरा मतलब है सचाई
जिसकी पूरी कोशिश है बेहतर इन्सान            (कविता)

बहुत कुछ दे सकती है कविता
क्यों कि बहुत कुछ हो सकती है कविता
जिंदगी में
वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
एक नितांत कवितारहित जिंदगी
कर सकता है
कवितारहित प्रेम          (कविता की जरूरत)

सुबह से ढूँढ़ रहा हूँ
अपनी व्यस्त दिनचर्या में
सुकून का वह कोना
जहाँ बैठ कर तुम्हारे साथ
महसूस कर सकूँ सिर्फ अपना होना
बदल गए हैं मौसम,
बदल गए हैं मल्हार के प्रकार ౼
न उनमें अमराइयों की महक
न बौरायी कोयल की बहक
एक अजनबी की तरह भटकता कवि-मन
अपनी ही जीवनी में
खोजता एक अनुपस्थिति को
कविता की मधुबनी में                 (कविता की मधुबनी में)

बार-बार लौटता है
कोलंबस का जहाज
खोज कर एक नई दुनिया,
नई-नई माल-मंडियाँ,
हवा में झूमते मस्तूल
लहराती झंडियाँ।
पृथ्वी पर लौटा है अभी-अभी
अंतरिक्ष यान
खोज कर एक ऐसी दुनिया
जिसमें न जीवन है - न हवा - न पानी              (कोलंबस का जहाज)

मेले से लाया हूँ इसको
छोटी सी प्‍यारी गुड़िया,
बेच रही थी इसे भीड़ में
बैठी नुक्‍कड़ पर बुढ़िया
नए-नए कपड़े-गहनों से
तुझको रोज सजाऊँगा,
खेल-खिलौनों की दुनिया में
तुझको परी बनाऊँगा।             (गुड़िया)

शब्द रख सकता हूँ वहाँ
जहाँ केवल निःशब्द बैचैनी है
दे सकूँ एक वैकल्पिक शरीर
तो दुनिया से करोड़ों गुना बड़ा हो सकता है
एक आदमकद विचार।     (गले तक धरती में)

खतरनाक तो दो चार ही होते लाखों में
लेकिन उनका आतंक चौंकता रहता हमारी आँखों में।          (घबरा कर)

मुझे समझने की कोशिश मत करो
केवल सुरभि और रंगों से बना
मैं एक बहुत नाजुक ख्वाब हूँ
काँटों में पला
मैं एक जंगली गुलाब हूँ            (जंगली गुलाब)

दीवारें न हों
तो दुनिया से भी बड़ा हो जाता है घर।     (दीवारें)

प्यार की और भी भाषाएँ हैं दुनिया में
देशी-विदेशी
और विश्वास किया कि प्यार की भाषा
सब जगह एक ही है
ऐसी भाषा में जिसमें शब्द नहीं होते
केवल कुछ अधमिटे अक्षर
कुछ अस्फुट ध्वनियाँ भर बचती हैं
जिन्हें किसी तरह जोड़कर
हम बनाते हैं
प्यार की भाषा             (प्यार की भाषाएँ)

कुछ शब्द हैं जो अपमानित होने पर
स्वयं ही जीवन और भाषा से
बाहर चले जाते हैं
ऐसा ही एक शब्द था 'शांति'।
अब विलिप्त हो चुका उसका वंश;
कहीं नहीं दिखाई देती वह౼
न आदमी के अंदर न बाहर !
शायद 'प्रेम' भी ऐसा ही एक शब्द है, जिसकी अब
यादें भर बची हैं कविता की भाषा में...
जिंदगी से पलायन करते जा रहे हैं
ऐसे तमाम तिरस्कृत शब्द           (पवित्रता)

बाक़ी कविता
शब्दों से नहीं लिखी जाती,
पूरे अस्तित्व को खींचकर एक विराम की तरह
कहीं भी छोड़ दी जाती है...            (बाक़ी कविता)

बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी,
मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा౼
"क्या तुमने भाषा को
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा ?"    (बात सीधी थी पर)

मैं कहीं और भी होता हूँ
जब कविता लिखता हूँ
बिलकुल मामूली जिंदगी जीते हुए भी
लोग चुपचाप शहीद होते देखे गए हैं असंख्य तरंगें।      (मैं कहीं और भी होता हूँ)

वहीं कहीं ठहरी रह गयी है एक कविता
जहाँ हमने वादा किया था कि फिर मिलेंगे
ये शब्द वही हैं
जिनमें कभी मैंने जिया होगा एक अधूरा जीवन
इस जीवन से पहले।          (ये शब्द वही हैं)

एक बार खबर उड़ी
कि कविता अब कविता नहीं रही
और यूँ फैली
कि कविता अब नहीं रही !
(यकीनों की जल्दबाजी से)
जो सोता है उसे सोने दो
वह सुखी है,
जो जगता है उसे जगने दो
उसे जगना है
जो भोग चुके उसे भूल जाओ
वह नहीं है,
जो दुखता है उसे दुखने दो
उसे पकना है ...             (तीसरा सप्तक : 1959)

'एक अजीब सी मुश्किल में हूं इन दिनों౼
मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताकत
दिनों-दिन क्षीण पड़ती जा रही,
मुसलमानों से नफ़रत करने चलता
तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते
अब आप ही बताइए किसी की कुछ चलती है
उनके सामने?
अंग्रेजों से नफ़रत करना चाहता
जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया
तो शेक्सपियर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने अहसान हैं
और वह प्रेमिका
जिससे मुझे पहला धोखा हुआ था
मिल जाए तो उसका खून कर दूं!
मिलती भी है, मगर
कभी मित्र, कभी मां, कभी बहन की तरह
तो प्यार का घूंट पीकर रह जाता ....            (इन दिनों : 2002)

कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ

सुबह हो रही थी
अंग अंग उसे लौटाया जा रहा था
बीमार नहीं है वह
और जीवन बीत गया
मौत ने कहा
अलविदा श्रद्धेय!
उजास
एक हरा जंगल
कमरे में धूप
घंटी
इतना कुछ था
अच्छा लगा
अयोध्या, 1992
कभी पाना मुझे
जिस समय में
दीवारें
संत की एक लहर
उत्केंद्रित?
जन्म-कुंडली
अबकी बार लौटा तो
घर पहुँचना
कविता
कविता की ज़रूरत
यक़ीनों की जल्दबाज़ी से
उनके पश्चात्
दूसरी तरफ़ उसकी उपस्थिति
किसी पवित्र इच्छा की घड़ी में
आँकड़ों की बीमारी
घबरा कर
बात सीधी थी पर
भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में
गले तक धरती में
शब्दों की तरफ़ से
गुड़िया
एक यात्रा के दौरान
आदमी का चेहरा
ये शब्द वही हैं
ये पंक्तियाँ मेरे निकट
एक अजीब दिन
सवेरे-सवेरे
उदासी के रंग
लापता का हुलिया
बाक़ी कविता
प्यार के बदले
रोते-हँसते
ऐतिहासिक फ़ासले
अगली यात्रा
प्रस्थान के बाद
कोलम्बस का जहाज
सृजन के क्षण
प्यार की भाषाएँ
मामूली ज़िन्दगी जीते हुए
मैं कहीं और भी होता हूँ
नई किताबें

कुँवर नारायण पर सम्भावित प्रश्न UGCNET/JRF के लिए

1. 'वाजश्रवा के बहाने' खंडकाव्य के रचनाकार हैं :
(1) भवानी प्रसाद मिश्र (2) नरेश मेहता
(3) श्रीकान्त वर्मा (4) कुंवर नारायण
               1. (i) कुंवर नारायण

2. इनमें से कौन 'तीसरा सप्तक' के कवि नहीं हैं :
(1) प्रभाकर माचवे (2) कुंवर नारायण
(3) सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (4) विजयदेव नारायण साही
                2. (2) प्रभाकर माचवे

3. जन्मवर्ष के अनुसार निम्नलिखित कवियों का सही अनुक्रम है :
(A) कुँवर नारायण, भवानी प्रसाद मिश्र, लक्ष्मीकान्त वर्मा, श्रीकान्त वर्मा
(B) भवानी प्रसाद मिश्र, लक्ष्मीकान्त वर्मा, कुँवर नारायण, श्रीकान्त वर्मा
(C) लक्ष्मीकान्त वर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र, कुँवर नारायण, श्रीकान्त वर्मा
(D) श्रीकान्त वर्मा, लक्ष्मीकान्त वर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र, कुँवर नारायण
  3. (B) भवानी प्रसाद मिश्र (1913), लक्ष्मीकान्त वर्मा (1922), कुँवर नारायण (1927), श्रीकान्त वर्मा (1931)

4. प्रकाशनवर्ष के अनुसार निम्नलिखित कृतियों का सही अनुक्रम है :
(A) संशय की एक रात, कनुप्रिया, आत्मजयी, कालजयी
(B) संशय की एक रात, आत्मजयी, कालजयी, कनुप्रिया
(C) आत्मजयी, कालजयी, कनुप्रिया, संशय की एक रात
(D) कनुप्रिया, संशय की एक रात, आत्मजयी, कालजयी
            4. (D) कनुप्रिया (1959 ई., धर्मवीर भारती), संशय की एक रात (1962 ई., नरेश मेहता), आत्मजयी (1965 ई., कुँवर नारायण), कालजयी (1978 ई., भवानी प्रसाद मिश्र)

5. प्रकाशनवर्ष के अनुसार कुँवर नारायण की कृतियों का सही अनुक्रम है :
(A) आत्मजयी, चक्रव्यूह, कोई दूसरा नहीं, वाजश्रवा के बहाने
(B) कोई दूसरा नहीं, वाजश्रवा के बहाने, आत्मजयी, चक्रव्यूह
(C) चक्रव्यूह, आत्मजयी, कोई दूसरा नहीं, वाजश्रवा के बहाने
(D) आत्मजयी, चक्रव्यूह, कोई दूसरा नहीं, वाजश्रवा के बहाने
      5. (C) चक्रव्यूह (1956 ई.), आत्मजयी (1965 ई.), कोई दूसरा नहीं (1993 ई.), वाजश्रवा के बहाने (2008 ई.)

6. निम्नलिखित काव्य-कृतियों को उनके कवियों के साथ सुमेलित कीजिए:
(1) आत्मजयी    (i) भवानी प्रसाद मिश्र
(2) कालजयी     (ii) धर्मवीर भारती
(3) महाप्रस्थान    (iii) कुँवर नारायण
(4) कनुप्रिया        (iv) नरेश मेहता
                           (v) भवानी प्रसाद मिश्र
कूट :

       (a) (b) (c) (d)
(A) (ii) (i) (iii) (v)
(B) (iii) (v) (iv) (ii)
(C) (iv) (iii) (i) (ii)
(D) (v) (iv) (ii) (iii)
     6. (B)
(1) आत्मजयी कुँवर नारायण
(2) कालजयी भवानी प्रसाद मिश्र
(3) महाप्रस्थान नरेश मेहता
(4) कनुप्रिया धर्मवीर भारती

7. औपनिषदिक (कठोपनिषद) दर्शन पर आधारित 'आत्मजयी' और 'वाजश्रवा के बहाने' खंडकाव्य के रचनाकार हैं :
(1) भवानी प्रसाद मिश्र (2) नरेश मेहता
(3) केदारनाथ सिंह (4) कुँवर नारायण
      7.  (i) कुँवर नारायण

8. 'नचिकेता' और 'वाजश्रवा' किस काव्य-ग्रंथ के पात्र हैं :
(1) चक्रव्यूह (2) कोई दूसरा नहीं
(3) आत्मजयी (4) इन गिनों
        8. (3) आत्मजयी

Hindi Sahitya Vimarsh
UGCNET/JRF/SLET/PGT (हिन्दी भाषा एवं साहित्य) के परीक्षार्थियों के लिए सर्वोत्तम मार्गदर्शक
hindisahityavimarsh.blogspot.in
iliyashussain1966@gmail.com
Mobile : 9717324769

सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास



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