नामदेव : आचार्य रामचंद्र शुक्ल की दृष्टि में
महाराष्ट्र देश के प्रसिद्ध भक्त नामदेव (संवत् 1328-1408)
ने हिंदू मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग का भी आभास दिया।
(हिंदी साहित्य का इतिहास : भक्तिकाल : प्रकरण-1 : सामान्य परिचय)
यह सामान्य भक्तिमार्ग एकेश्वरवाद का एक निश्चित स्वरूप
लेकर खड़ा हुआ, जो कभी ब्रह्मवाद की ओर ढलता था और कभी पैगंबरी खुदावाद
की ओर। यह 'निर्गुणपंथ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसकी ओर ले जानेवाली सबसे पहली प्रवृत्ति जो लक्षित हुई
वह ऊँच नीच और जाति-पाँति के भाव का त्याग और ईश्वर की भक्ति के लिए मनुष्य मात्र के
समान अधिकार का स्वीकार था। इस भाव का सूत्रपात भक्तिमार्ग के भीतर महाराष्ट्र और मध्य
देश में नामदेव और रामानंद जी द्वारा हुआ। महाराष्ट्र देश में नामदेव का जन्मकाल शक
संवत् 1192 और मृत्युकाल शक संवत् 1272 प्रसिद्ध है। ये दक्षिण के नरुसीबमनी (सतारा जिला) के दरजी थे। पीछे पंढरपुर के
विठोबा (विष्णु भगवान) के मंदिर में भगवद्भजन करते हुए अपना दिन बिताते थे।
महाराष्ट्र के भक्तों में नामदेव का नाम सबसे पहले आता
है। मराठी भाषा के अभंगों के अतिरिक्त इनकी हिन्दी रचनाएँ भी प्रचुर परिमाण में मिलती
हैं। इन हिन्दी रचनाओं में एक विशेष बात यह पाई जाती है कि कुछ तो सगुणोपासना से संबंध
रखती हैं और कुछ निर्गुणोपासना से। इसके समाधन के लिए इनके समय की परिस्थिति की ओर
ध्यान देना आवश्यक है। आदिकाल के अन्तर्गत यह कहा जा चुका है कि मुसलमानों के आने पर
पठानों के समय में गोरखपंथी योगियों का देश में बहुत प्रभाव था। नामदेव के ही समय में
प्रसिद्ध ज्ञानयोगी ज्ञानदेव हुए हैं जिन्होंने अपने को गोरख की शिष्य परंपरा में बताया
है। ज्ञानदेव का परलोकवास बहुत थोड़ी अवस्था में ही हुआ, पर नामदेव उनके उपरांत बहुत दिनों तक जीवित रहे। नामदेव सीधे सादे सगुण भक्ति मार्ग
पर चले जा रहे थे, पर पीछे उस नाथपंथ के प्रभाव
के भीतर भी ये लाए गए, जो अंतर्मुख साधना द्वारा सर्वव्यापक
निर्गुणब्रह्म के साक्षात्कार को ही मोक्ष का मार्ग मानता था। लाने वाले थे ज्ञानदेव।
एक बार ज्ञानदेव इन्हें साथ लेकर तीर्थयात्रा को निकले।
मार्ग में ये अपने प्रिय विग्रह विठोबा (भगवान) के वियोग में व्याकुल रहा करते थे।
ज्ञानदेव इन्हें बराबर समझाते जाते थे कि 'भगवान क्या एक ही जगह हैं; वे तो सर्वत्र हैं, सर्वव्यापक हैं। यह मोह छोड़ो। तुम्हारी भक्ति अभी एकांगी है, जब तक निर्गुण पक्ष की भी अनुभूति तुम्हें न होगी, तब तक तुम पक्के न होगे'। ज्ञानदेव की बहन मुक्ताबाई
के कहने पर एक दिन 'संतपरीक्षा' हुई। जिस गाँव में यह संत मंडली उतरी थी, उसमें एक कुम्हार रहता था। मंडली के सब संत चुपचाप बैठ गए। कुम्हार घड़ा पीटने का
पिटना लेकर सबके सिर पर जमाने लगा। चोट पर चोट खाकर भी कोई विचलित न हुआ। पर जब नामदेव
की ओर बढ़ा तब वे बिगड़ खड़े हुए। इस पर वह कुम्हार बोला, 'नामदेव को छोड़ और सब घड़े पक्के हैं'। बेचारे नामदेव कच्चे घड़े ठहराए गए। इस कथा से यह स्पष्ट लक्षित हो जाता है कि
नामदेव को नाथपंथ के योगमार्ग की ओर प्रवृत्त करने के लिए ज्ञानदेव की ओर से तरह-तरह
के प्रयत्न होते रहे।
सिद्ध और योगी निरंतर अभ्यास द्वारा अपने शरीर को विलक्षण
बना लेते थे। खोपड़ी पर चोटें खा खाकर उसे पक्की करना उनके लिए कोई कठिन बात न थी। अब
भी एक प्रकार के मुसलमान फकीर अपने शरीर पर जोर-जोर से डंडे जमाकर भिक्षा माँगते हैं।
नामदेव किसी गुरु से दीक्षा लेकर अपनी सगुण भक्ति में प्रवृत्त नहीं हुए थे, अपने ही हृदय की स्वाभाविक प्रेरणा से हुए थे। ज्ञानदेव बराबर उन्हें 'बिनु गुरु होइ न ज्ञान' समझाते आते थे। संतों के बीच निर्गुण ब्रह्म के संबंध में जो कुछ कहा-सुना जाता है और ईश्वरप्राप्ति की जो साधना बताई जाती है, वह किसी गुरु की सिखाई हुई होती है। परमात्मा के शुद्ध निर्गुणस्वरूप के ज्ञान के लिए ज्ञानदेव का आग्रह बराबर बढ़ता गया। गुरु के अभाव के कारण किस प्रकार नामदेव में परमात्मा की सर्वव्यापकता का उदार भाव नहीं जम पाया था और भेदभाव बना था, इस पर भी एक कथा चली आती है। कहते हैं कि एक दिन स्वयं विठोबा (भगवान) एक मुसलमान फकीर का रूप धरकर नामदेव के सामने आए। नामदेव ने उन्हें नहीं पहचाना। तब उनसे कहा गया कि वे तो परब्रह्म भगवान ही थे। अंत में बेचारे नामदेव ने नागनाथ नामक शिव के स्थान पर जाकर बिसोबा खेचर या खेचरनाथ नामक एक नाथपंथी कनफटे से दीक्षा ली।
यह बात समझ रखनी चाहिए कि नामदेव के समय में ही देवगिरि
पर पठानों की चढ़ाइयाँ हो चुकी थीं और मुसलमान महाराष्ट्र में भी फैल गए थे। इसके पहले
से ही गोरखनाथ के अनुयायी हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए अंतस्साधना के एक सामान्य
मार्ग का उपदेश देते आ रहे थे।
इनकी भक्ति के अनेक चमत्कार भक्तमाल में लिखे हैं, जैसे विठोबा (ठाकुर जी) की मूर्ति का इनके हाथ से दूध पीना, अविंद नागनाथ के शिवमंदिर के द्वार का इनकी ओर घूम जाना इत्यादि। इनके माहात्म्य ने यह सिद्ध कर दिखाया कि 'जाति-पाँति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।'
धनि धनि बनखंड वृंदावना, जहँ खेलै श्रीनारायना।
बेनु बजावै, गोधन चारै, नामे का स्वामि आनंद करै
यह तो हुई नामदेव की व्यक्तोपासना संबंधी हृदयप्रेरित
रचना। आगे गुरु से सीखे हुए ज्ञान की उद्धरणी अर्थात् 'निर्गुन बानी' भी कुछ देखिए
माइ न होती, बाप न होते, कर्म्म न होता काया।
हम नहिं होते, तुम नहिं होते, कौन कहाँ ते आया।
चंद न होता, सूर न होता, पानी पवन मिलाया।
शास्त्र न होता, वेद न होता, करम कहाँ ते आया
पांडे तुम्हरी गायत्री लोधो का खेत खाती थी।
लै करि ठेंगा टँगरी तारी लंगत लंगत आती थी
पांडे तुम्हरा महादेव धौल बलद चढ़ा आवत देखा था।
पांडे तुम्हारा रामचंद सो भी आवत देखा था
रावन सेंती सरबर होई, घर की जोय गँवाई थी।
हिंदू अंध तुरुकौ काना, दुहौ ते ज्ञानी सयाना
हिंदू पूजै देहरा, मुसलमान मसीद।
नामा सोई सेविया जहँ देहरा न मसीद
सगुणोपासक भक्त भगवान के सगुण और निर्गुण दोनों रूप
मानता है, पर भक्ति के लिए सगुण रूप ही स्वीकार करता है, निर्गुण रूप ज्ञानमार्गियों के लिए छोड़ देता है। सब सगुणमार्गी भक्त भगवान के व्यक्त
रूप के साथ-साथ उनके अव्यक्त और निर्विशेष रूप का भी निर्देश करते आए हैं जो बोधगम्य
नहीं। वे अव्यक्त की ओर संकेत भर करते हैं, उसके विवरण में प्रवृत्त नहीं होते। नामदेव क्यों प्रवृत्त हुए, यह ऊपर दिखाया जा चुका है। जबकि उन्होंने एक गुरु से ज्ञानोपदेश लिया तब शिष्यधर्मानुसार
उसकी उद्धरणी आवश्यक हुई।
नामदेव की रचनाओं में यह बात साफ दिखाई पड़ती है कि सगुण
भक्ति पदों की भाषा तो ब्रज या परंपरागत काव्य भाषा है, पर 'निर्गुण बानी' की भाषा नाथपंथियों द्वारा ग्रहीत खड़ी बोली या सधुक्कड़ी भाषा।
नामदेव की रचना के आधर पर यह कहा जा सकता है कि 'निर्गुणपंथ' के लिए मार्ग निकालनेवाले नाथपंथ के योगी और भक्त नामदेव
थे। जहाँ तक पता चलता है, 'निर्गुण मार्ग' के निर्दिष्ट प्रवर्तक कबीरदास ही थे जिन्होंने एक ओर तो स्वामी रामानंद जी के
शिष्य होकर भारतीय अद्वैतवाद की कुछ स्थूल बातें ग्रहण कीं और दूसरी ओर योगियों और
सूफी फकीरों के संस्कार प्राप्त किए। वैष्णवों से उन्होंने अहिंसावाद और प्रपत्तिवाद
लिए। इसी से उनके तथा 'निर्गुणवाद' वाले और दूसरे संतों के वचनों में कहीं भारतीय अद्वैतवाद की झलक मिलती है तो कहीं
योगियों के नाड़ीचक्र की, कहीं सूफियों के प्रेमतत्व की, कहीं पैगंबरी कट्टर खुदावाद की और कहीं अहिंसावाद की। अत: तात्विक दृष्टि से न
तो हम इन्हें पूरे अद्वैतवादी कह सकते हैं और न एकेश्वरवादी। दोनों का मिलाजुला भाव
इनकी बानी में मिलता है। इनका लक्ष्य एक ऐसी सामान्य भक्ति पद्धति का प्रचार था जिसमें
हिंदू और मुसलमान दोनों योग दे सकें और भेदभाव का कुछ परिहार हो। बहुदेवोपासना, अवतार और मूर्तिपूजा का खंडन ये मुसलमानी जोश के साथ करते थे और मुसलमानों की कुरबानी
(हिंसा), नमाज, रोजा आदि की असारता दिखाते हुए ब्रह्म, माया, जीव, अनहद नाद, सृष्टि, प्रलय आदि की चर्चा पूरे हिंदू ब्रह्मज्ञानी बनकर करते थे। सारांश यह कि ईश्वरपूजा
की उन भिन्न भिन्न बाह्य विधियों पर से ध्यान हटाकर, जिनके कारण धर्म में भेदभाव फैला हुआ था, ये शुद्ध ईश्वर प्रेम और सात्विक जीवन का प्रचार करना चाहते थे।
इस प्रकार देश में सगुण और निर्गुण के नाम से भक्तिकाव्य
की दो धराएँ विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी के अंतिम भाग से लेकर सत्रहवीं शताब्दी के
अंत तक समानांतर चलती रहीं। भक्ति के उत्थान काल के भीतर हिन्दी भाषा की कुछ विस्तृत
रचना पहले पहल कबीर ही की मिलती है। अत: पहले निर्गुण मत के संतों का उल्लेख उचित ठहरता
है। यह निर्गुण धरा दो शाखाओं में विभक्त हुई एक तो ज्ञानाश्रयी शाखा और दूसरी शुद्ध
प्रेममार्गी शाखा (सूफियों की)।
पहली शाखा भारतीय ब्रह्मज्ञान और योगसाधना को लेकर तथा
उसमें सूफियों के प्रेमतत्व को मिलाकर उपासना के क्षेत्र में अग्रसर हुई और सगुण के
खंडन में उसी जोश के साथ तत्पर रही जिस जोश के साथ पैगंबरी मत बहुदेवोपासना और मूर्तिपूजा
आदि के खंडन में रहते हैं। इस शाखा की रचनाएँ साहित्यिक नहीं हैं फुटकल दोहों या पदों
के रूप में हैं जिनकी भाषा और शैली अधिकतर अव्यवस्थित और ऊटपटाँग है। कबीर आदि दो एक
प्रतिभासंपन्न संतों को छोड़ औरों में ज्ञानमार्ग की सुनी सुनाई बातों का पिष्टपेषण
तथा हठयोग की बातों के कुछ रूपक भद्दी तुकबंदियों में हैं। भक्तिरस में मग्न करने वाली
सरसता भी बहुत कम पाई जाती है। बात यह है कि इस पंथ का प्रभाव शिष्ट और शिक्षित जनता
पर नहीं पड़ा, क्योंकि उसके लिए न तो इस पंथ में कोई नई बात थी, न नया आकर्षण। संस्कृत बुद्धि , संस्कृत हृदय और संस्कृत वाणी का वह विकास इस शाखा में नहीं पाया जाता जो शिक्षित
समाज को अपनी ओर आकर्षित करता। पर अशिक्षित और निम्न श्रेणी की जनता पर इन संत महात्माओं
का बड़ा भारी उपकार है। उच्च विषयों का कुछ आभास देकर, आचरण की शुद्ध ता पर जोर देकर, आडंबरों का तिरस्कार करके, आत्मगौरव का भाव उत्पन्न करके, इन्होंने इसे ऊपर उठाने का स्तुत्य प्रयत्न किया। पाश्चात्यों ने इन्हें जो 'धर्मसुधरक' की उपाधि दी है, वह इसी बात को ध्यान में रखकर।
(हिंदी साहित्य का इतिहास : भक्तिकाल : प्रकरण-1 : सामान्य परिचय)
नामदेव और कबीर आदि की
तो बात ही क्या, तुलसीदास ने भी गनी, गरीब, साहब, इताति, उमरदराज आदि बहुत से शब्दों का प्रयोग किया।
(हिंदी साहित्य का इतिहास : रीतिकाल : प्रकरण-1 : सामान्य परिचय)
नामदेव और कबीर की रचना में हम खड़ी बोली का पूरा स्वरूप
दिखा आए हैं और यह सूचित कर चुके हैं कि उसका व्यवहार अधिकतर सधुक्कड़ी भाषा के भीतर
हुआ करता था। शिष्ट साहित्य के भीतर परंपरागत काव्यभाषा का ही चलन रहा।
(हिंदी साहित्य का इतिहास : आधुनिक काल : प्रकरण-2 : नई धारा : प्रथम)