शनिवार, 31 अगस्त 2019

मज़दूरी और प्रेम (सरदार पूर्ण सिंह, NTA/UGCNET/JRF के नए पाठ्यक्रम में शामिल) : Hindi Sahitya Vimarsh


मज़दूरी और प्रेम (सरदार पूर्ण सिंह, NTA/UGCNET/JRF के नए पाठ्यक्रम में शामिल) : Hindi Sahitya Vimarsh

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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास

निबंध : सच्ची वीरता (प्रथम निबन्ध, फ़रवरी 1909 ई. में सरस्वती में प्रकाशित), कन्यादान (अक्टूबर 1909 ई. में सरस्वती में प्रकाशित), पवित्रता (1910 ई. भाग्योदय पत्रिका में प्रकाशित, अधूरा), आचरण की सभ्यता (1912 ई.), मज़दूरी और प्रेम (1912 ई.), अमरीका का मस्ताना योगी वाल्ट विटमैन (अन्तिम निबन्ध, मई 1913 ई. में सरस्वती में प्रकाशित)।

हल चलाने वाले का जीवन
हल चलाने वाले और भेड़ चराने वाले प्रायः स्वभाव से ही साधु होते हैं। हल चलाने वाले अपने शरीर का हवन किया करते हैं। खेत उनकी हवनशाला है। उनके हवनकुंड की ज्वाला की किरणें चावल के लंबे और सुफ़ेद दानों के रूप में निकलती हैं। गेहूँ के लाल-लाल दाने इस अग्नि की चिनगारियों की डालियों-सी हैं। मैं जब कभी अनार के फूल और फल देखता हूँ तब मुझे बाग़ के माली का रुधिर याद आ जाता है। उसकी मेहनत के कण ज़मीन में गिरकर उगे हैं और हवा तथा प्रकाश की सहायता से मीठे फलों के रूप में नज़र आ रहे हैं। किसान मुझे अन्न में, फूल में, फल में आहुति हुआ सा दिखाई पड़ता है। कहते हैं, ब्रह्माहुति से जगत् पैदा हुआ है। अन्न पैदा करने में किसान भी ब्रह्मा के समान है। खेती उसके ईश्वरी प्रेम का केंद्र है। उसका सारा जीवन पत्ते-पत्ते में, फूल-फूल में, फल-फल में बिखर रहा है। वृक्षों की तरह उसका भी जीवन एक प्रकार का मौन जीवन है। वायु, जल, पृथ्वी, तेज और आकाश की नीरोगता इसी के हिस्से में है। विद्या यह नहीं पढ़ा; जप और तप यह नहीं करता; संध्या-वंदनादि इसे नहीं आते; ज्ञान, ध्यान का इसे पता नहीं; मंदिर, मस्जिद, गिरजे से इसे कोई सरोकार नहीं नहीं; केवल साग-पात खाकर ही यह अपनी भूख निवारण कर लेता है। ठंडे चश्मों और बहती हुई नदियों के शीतल जल से यह अपनी प्यास बुझा लेता है। प्रातःकाल उठकर यह अपने हल-बैलों को नमस्कार करता है और खेत जोतने चल देता है। दोपहर की धूप इसे भाती है। इसके बच्चे मिट्टी ही में खेल-खेलकर बड़े हो जाते हैं। इसको और इसके परिवार को बैल और गाँवों से प्रेम है। उनकी यह सेवा करता है। पानी बरसाने वाले के दर्शनार्थ आँखें नीले आकाश की ओर उठती हैं। नयनों की भाषा में यह प्रार्थना करता है। सायं और प्रातः दिन और रात विधाता इसके हृदय में अचिंतनीय और अद्भुत आध्यात्मिक भावों की वृष्टि करता है। यदि कोई इसके घर आ जाता है तो यह उसको मृदु वचन, मीठे जल और अन्न से तृप्त करता है। धोखा यह किसी को नहीं देता। यदि इसको कोई धोखा दे भी दे, तो इसका इसे ज्ञान नहीं होता; क्योंकि इसकी खेती हरी-भरी है; गाय इसकी दूध देती है; स्त्री इसकी आज्ञाकारिणी है; मकान इसका पुण्य और आनंद का स्थान है। पशुओं को चराना, नहलाना, खिलाना, पिलाना, उसके बच्चों की अपने बच्चों की तरह सेवा करना, खुले आकाश के नीचे उसके साथ रातें गुज़ार देना क्या स्वाध्याय से कम है? दया, वीरता और प्रेम जैसा इन किसानों में देखा जाता है, अन्यत्र मिलने का नहीं। गुरु नानक ने ठीक कहा है ''भोले भाव मिलें रघुराई'', भोले-भाले किसानों को ईश्वर अपने खुले दीदार का दर्शन देता है। उनकी फूस की छतों में से सूर्य और चंद्रमा छन-छनकर उनके बिस्तरों पर पड़ते हैं। ये प्रकृति के जवान साधु हैं। जब कभी मैं इन बे-मुकुट के गोपालों के दर्शन करता हूँ, मेरा सिर स्वयं ही झुक जाता है। जब मुझे किसी के दर्शन होते हैं तब मुझे मालूम होता है कि नंगे सिर, नंगे पाँव, एक टोपी सिर पर, एक लँगोटी कमर में, एक काली कमली कंधे पर, एक लंबी लाठी हाथ में लिए हुए गौवों का मित्र, बैलों का हमजोली, पक्षियों का हमराज, महाराजाओं का अन्नदाता, बादशाहों को ताज पहनाने और सिंहासन पर बिठाने वाला, भूखों और नंगों को पालने वाला, समाज के पुष्पोद्यान का माली और खेतों का वाली जा रहा है।
गड़रिये का जीवन
एक बार मैंने एक बुड्ढे गड़रिये को देखा। घना जंगल है। हरे-हरे वृक्षों के नीचे उसकी सफेद ऊन वाली भेड़ें अपना मुँह नीचे किए हुए कोमल-कोमल पत्तियाँ खा रही हैं। गड़रिया बैठा आकाश की ओर देख रहा है। ऊन कातता जाता है। उसकी आँखों में प्रेम-लाली छाई हुई है। वह निरोगता की पवित्र मदिरा से मस्त हो रहा है। बाल उसके सारे सुफ़ेद हैं और क्यों न सुफ़ेद हों? सुफ़ेद भेड़ों का मालिक जो ठहरा। परंतु उसके कपोलों से लाली फूट रही है। बरफानी देशों में वह मानो विष्णु के समान क्षीरसागर में लेटा है। उसकी प्यारी स्त्री उसके पास रोटी पका रही है। उसकी दो जवान कन्याएँ उसके साथ जंगल-जंगल भेड़ चराती घूमती हैं। अपने माता-पिता और भेड़ों को छोड़कर उन्होंने किसी और को नहीं देखा। मकान इनका बेमकान है, घर इनका बेघर हे, ये लोग बेनाम और बेपता हैं।
किसी के घर कर मैं न घर कर बैठना इस दारे फ़ानी में।
ठिकाना बेठिकाना और मकाँ वर ला-मकाँ रखना॥
इस दिव्य परिवार को कुटी की ज़रूरत नहीं। जहाँ जाते हैं, एक घास की झोपड़ी बना लेते हैं। दिन को सूर्य रात को तारागण इनके सखा हैं।
गड़रिये की कन्या पर्वत के शिखर के ऊपर खड़ी सूर्य का अस्त होना देख रही है। उनकी सुनहली किरणें इसके लिए लावण्यमय मुख पर पड़ रही हैं। यह सूर्य को को देख रही है और वह इसको देख रहा है।
हुए थे आँखों के कल इशारे इधर हमारे उधर तुम्हारे।
चले थे अश्क़ों के क्या फ़वारे इधर हमारे उधर तुम्हारे॥

बोलता कोई भी नहीं। सूर्य उसकी युवावस्था की पवित्रता पर मुग्ध है और वह आश्चर्य के अवतार सूर्य की महिमा के तूफान में पड़ी नाच रही है।
इनका जीवन बर्फ़ की पवित्रता से पूर्ण और वन की सुगंधि से सुगंधित है। इनके मुख, शरीर और अंतःकरण सुफ़ेद, इनकी बर्फ़, पर्वत और भेड़ें सुफ़ेद। अपनी सुफ़ेद भेड़ों में यह परिवार शुद्ध सुफ़ेद ईश्वर के दर्शन करता है।
जो ख़ुदा को देखना हो तो मैं देखता हूँ तुमको।
मैं देखता हूँ तुमको जो ख़ुदा को देखना हो॥
भेड़ों की सेवा ही इनकी पूजा है। जरा एक भेड़ बीमार हुई, सब परिवार पर विपत्ति आई। दिन-रात उसके पास बैठे काट देते हैं। उसे अधिक पीड़ा हुई तो इन सब की आँखें शून्य आकाश में किसी को देखने लग गईं। पता नहीं ये किसे बुलाती हैं। हाथ जोड़ने तक की इन्हें फ़ुरसत नहीं। पर हाँ, इन सब की आँखें किसी के आगे शब्द-रहित संकल्प-रहित मौन प्रार्थन में खुली हैं। दो रातें इसी तरह गुज़र गईं। इनकी भेड़ अब अच्छी है। इनके घर मंगल हो रहा है। सारा परिवार मिलकर गा रहा है। इतने में नीले आकाश पर बादल घिरे और झम-झम बरसने लगे। मानो प्रकृति के देवता भी इनके आनंद से आनंदित हुए। बूढ़ा गड़रिया आनंद-मत्त होकर नाचने लगा। वह कहता कुछ नहीं, रग-रग उसकी नाच रही है। पिता को ऐसा सुखी देख दोनों कन्याओं ने एक-दूसरे का हाथ पकड़कर पहाड़ी राग अलापना आरंभ कर दिया। साथ ही धम-धम थम-थम नाच की उन्होंने धूम मचा दी। मेरी आँखों के सामने ब्रह्मानंद का समाँ बाँध दिया। मेरे पास मेरा भाई खड़ा था। मैंने उससे कहा — ''भाई, अब मुझे भी भेड़ें ले दो।'' ऐसे ही मूक जीवन से मेरा भी कल्याण होगा। विद्या को भूल जाऊॅँ तो अच्छा है। मेरी पुस्तकें खो जायँ तो उत्तम है। ऐसा होने से कदाचित इस वनवासी परिवार की तरह मेरे दिल के नेत्र खुल जायँ और मैं ईश्वरीय झलक देख सकूँ। चंद्र और सूर्य की विस्तृत ज्योति में जो वेदगान हो रहा है उसे इस गड़रिये की कन्याओं की तरह मैं सुन तो न सकूँ, परंतु कदाचित प्रत्यक्ष देख सकूँ। कहते हैं, ऋषियों ने भी इनको देखा ही था, सुना न था। पंडितों की ऊटपटाँग बातों से मेरा जी उकता गया है। प्रकृति की मंद-मंद हँसी में ये अनपढ़ लोग ईश्वर के हँसते हुए ओंठ देख रहे हैं। पशुओं के अज्ञान में गंभीर ज्ञान छिपा हुआ है। इन लोगों के जीवन में अद्भुत आत्मानुभव भरा हुआ है। गड़रिये के परिवार की प्रेम-मज़दूरी का मूल्य कौन दे सकता है?
मज़दूर की मज़दूरी
आपने चार आने पैसे मज़दूर के हाथ में रखकर कहा — ''यह लो दिन भर की अपनी मज़दूरी।'' वाह क्या दिल्लगी है! हाथ, पाँव, सिर, आँखें इत्यादि सब के सब अवयव उसने आपको अर्पण कर दिए। ये सब चीजें उसकी तो थीं ही नहीं, ये तो ईश्वरीय पदार्थ थे। जो पैसे आपने उसको दिए वे भी आपके न थे। वे तो पृथ्वी से निकली हुई धातु के टुकड़े थे; अतएव ईश्वर के निर्मित थे। मज़दूरी का ऋण तो परस्पर की प्रेम-सेवा से चुकता होता है। अन्न-धन देने से नहीं। वे तो दोनों ही ईश्वर के हैं। अन्न-धन वही बनाता है, जल भी वही देता है। एक जिल्दसाज ने मेरी एक पुस्तक की जिल्द बाँध दी। मैं तो इस मज़दूर को कुछ भी न दे सका। परंतु उसने उम्र भर के लिए एक विचित्र वस्तु मुझे दे डाली। जब कभी मैंने उस पुस्तक को उठाया, मेरे हाथ जिल्दसाज़ के हाथ पर जा पड़े। पुस्तक देखते ही मुझे जिल्दसाज़ याद आ जाता है। वह मेरा आमरण मित्र हो गया है, पुस्तक हाथ में आते ही मेरे अंतःकरण में रोज भरतमिलाप का सा समाँ बँध जाता है।
गाढ़े की एक कमीज़ को एक अनाथ विधवा सारी रात बैठकर सीती है, साथ ही साथ वह अपने दुख पर रोती भी है — एक दिन को खाना न मिला। रात को भी कुछ मयस्सर न हुआ। अब वह एक-एक टाँके पर आशा करती है कि कमीज कल तैयार हो जायेगी; तब कुछ तो खाने के लिए मिलेगा। जब वह थक जाती हे तब ठहर जाती है। सुई हाथ में लिए हुए है, कमीज घुटने पर बिछी हुई है, उसकी आँखों की दशा उस आकाश की जैसी है जिसमें बादल बरसकर अभी-अभी बिखर गए हैं। खुली आँखें ईश्वर के ध्यान में लीन हो रही हैं। कुछ काल के उपरांत 'हे राम' कहकर उसने फिर सीना शुरू कर दिया। इस माता और इस बहन की सिली हुई कमीज़ मेरे लिए मेरे शरीर का नहीं — मेरी आत्मा का वस्त्र है। इसका पहनना मेरी तीर्थ-यात्रा है। इस कमीज़ में उस विधवा के सुख-दुःख, प्रेम और पवित्रता के मिश्रण से मिली हुई जीवन-रूपिणी गंगा की बाढ़ चली जा रही है। ऐसी मज़दूरी और ऐसा काम-प्रार्थना, संध्या और नमाज़ से क्या कम है? शब्दों से तो प्रार्थना हुआ नहीं करती। ईश्वर तो कुछ ऐसी ही मूक प्रार्थनाएँ सुनता है और तत्काल सुनता है।
प्रेम-मज़दूरी
मुझे तो मनुष्य के हाथ से बने हुए कामों में उनकी प्रेममय पवित्र आत्मा की सुगंध आती है। राफेल आदि के चित्रित चित्रों में उनकी कला-कुशलता को देख इतनी सदियों के बाद भी उनके अंतःकरण के सारे भावों का अनुभव होने लगता है। केवल चित्र का ही दर्शन नहीं, किंतु साथ ही उसमें छिपी हुई चित्रकार की आत्मा तक के दर्शन हो जाते हैं। परंतु यंत्रों की सहायता से बने हुए फोटो निर्जीव से प्रतीत होते हैं। उनमें और हाथ के चित्रों में उतना ही भेद है जितना कि बस्ती ओर श्मशान में। हाथ की मेहनत से चित्रों में जो रस भर जाता है वह भला लोहे के द्वारा बनाई हुई चीज़ में कहाँ! जिस आलू को मैं स्वयं बोता हूँ, मैं स्वयं पानी देता हूँ, जिसके इर्द-गिर्द की घास-पात खोदकर मैं साफ़ करता हूँ, उस आलू में जो रस मुझे आता है वह टीन में बंद किए हुए अचार मुरब्बे में नहीं आता। मेरा विश्वास है कि जिस चीज़ में मनुष्य के प्यारे हाथ लगते हैं, उसमें उसके हृदय का प्रेम और मन की पवित्रता सूक्ष्म रूप से मिल जाती है और उसमें मुर्दे को ज़िन्दा करने की शक्ति आ जाती है। होटल में बने हुए भोजन यहाँ नीरस होते हैं, क्योंकि वहाँ मनुष्य मशीन बना दिया जाता है। परंतु अपनी प्रियतमा के हाथ से बने हुए रूखे-सूखे भोजन में कितना रस होता है जिस मिट्टी के घड़े को कंधों पर उठाकर, मीलों दूर से उसमें मेरी प्रेममग्न प्रियतमा ठंडा जल भर लाती है, उस लाल घड़े का जल जब मैं पीता हूँ तब जल क्या पीता हूँ, अपनी प्रेयसी के प्रेमामृत को पान करता हूँ। जो ऐसा प्रेम-प्याला पीता हो, उसके लिए शराब क्या वस्तु है? प्रेम से जीवन सदा गदगद रहता है। मैं अपनी प्रेयसी की ऐसी प्रेम-भरी, रस-भरी, दिल-भरी सेवा का बदला क्या कभी दे सकता हूँ?
उधर प्रभात ने अपनी सुफ़ेद किरणों से अँधेरी रात पर सुफेदी-सी छिटकाई इधर मेरी प्रेयसी, मैना अथवा कोयल की तरह अपने बिस्तर से उठी। उसने गाय का बछड़ा खोला; दूध की धारा से अपना कटोरा भर लिया। गाते-गाते अन्न को अपने हाथों से पीसकर सुफ़ेद आटा बना लिया। इस सुफ़ेद आटे से भरी हुई छोटी-सी टोकरी सिर पर; एक हाथ में दूध से भरा हुआ लाल मिट्टी का कटोरा, दूसरे हाथ में मक्खन की हाँड़ी। जब मेरी प्रिया घर की छत के नीचे इस तरह खड़ी होती है तब वह छत के ऊपर की श्वेत प्रभा से भी अधिक आनंददायक, बलदायक, बुद्धिदायक जान पड़ती है। उस समय वह उस प्रभा से अधिक रसीली, अधिक रँगीली, जीती-जागती, चैतन्य और आनंदमयी प्रातःकालीन शोभा-सी लगती है। मेरी प्रिया अपने हाथ से चुनी हुई लकड़ियों को अपने दिल से चुराई हुई एक चिनगारी से लाल अग्नि में बदल देती है। जब वह आटे को छलनी से छानती है तब मुझे उसकी छलनी के नीचे एक अद्भुत ज्योति की लौ नज़र आती है। जब वह उस अग्नि के ऊपर मेरे लिए रोटी बनाती है तब उसके चूल्हे के भीतर मुझे तो पूर्व दिशा की नभोलालिमा से भी अधिक आनंददायिनी लालिमा देख पड़ती है। यह रोटी नहीं, कोई अमूल्य पदार्थ है। मेरे गुरु ने इसी प्रेम से संयम करने का नाम योग रखा है। मेरा यही योग है।
मज़दूरी और कला
आदमियों की तिजारत करना मूर्खों का काम है। सोने और लोहे के बदले मनुष्य को बेचना मना है। आजकल भाप की कलों का दाम तो हज़ारों रुपया है; परंतु मनुष्य कौड़ी के सौ-सौ बिकते हैं! सोने और चाँदी की प्राप्ति से जीवन का आनंद नहीं मिल सकता। सच्चा आनंद तो मुझे मेरे काम से मिलता है। मुझे अपना काम मिल जाय तो फिर स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा नहीं, मनुष्य-पूजा ही सच्ची ईश्वर-पूजा है। मंदिर और गिरजे में क्या रखा है? ईंट, पत्थर, चूना कुछ ही कहो — आज से हम अपने ईश्वर की तलाश मंदिर, मस्जिद, गिरजा और पोथी में न करेंगे। अब तो यही इरादा है कि मनुष्य की अनमोल आत्मा में ईश्वर के दर्शन करेंगे यही आर्ट है — यही धर्म है। मनुष्य के हाथ से ही ईश्वर के दर्शन कराने वाले निकलते हैं। बिना काम, बिना मज़दूरी, बिना हाथ के कला-कौशल के विचार और चिंतन किस काम के! सभी देशों के इतिहासों से सिद्ध है कि निकम्मे पादड़ियों, मौलवियों, पंडितों और साधुओं का, दान के अन्न पर पला हुआ ईश्वर-चिंतन, अंत में पाप, आलस्य और भ्रष्टाचार में परिवर्तित हो जाता है। जिन देशों में हाथ और मुँह पर मज़दूरी की धूल नहीं पड़ने पाती वे धर्म और कला-कौशल में कभी उन्नति नहीं कर सकते। पद्यासन निकम्मे सिद्ध हो चुके हैं। यही आसन ईश्वर-प्रप्ति करा सकते हैं जिनसे जोतने, बोने, काटने और मज़दूरी का काम लिया जाता है। लकड़ी, ईंट और पत्थर को मूर्तिमान करने वाले लुहार, बढ़ई, मेमार तथा किसान आदि वैसे ही पुरुष हैं जैसे कवि, महात्मा और योगी आदि। उत्तम से उत्तम और नीच से नीच काम, सबके सब प्रेम-शरीर के अंग हैं।
निकम्मे रहकर मनुष्यों की चिंतन-शक्ति थक गई है। बिस्तरों और आसनों पर सोते और बैठे-बैठे मन के घोड़े हार गए हैं। सारा जीवन निचुड़ चुका है। स्वप्न पुराने हो चुके हैं। आजकल की कविता में नयापन नहीं। उसमें पुराने ज़माने की कविता की पुनरावृत्ति मात्र है। इस नक़ल में असल की पवित्रता और कुँवारेपन का अभाव है। अब तो एक नए प्रकार का कला-कौशल-पूर्ण संगीत साहित्य संसार में प्रचलित होने वाला है। यदि वह न प्रचलित हुआ तो मशीनों के पहियों के नीचे दबकर हमें मरा समझिए। यह नया साहित्य मज़दूरों के हृदय से निकलेगा। उन मज़दूरों के कंठ से यह नई कविता निकलेगी जो अपना जीवन आनंद के साथ खेत की मेड़ों का, कपड़े के तागों का, जूते के टाँकों का, लकड़ी की रगों का, पत्थर की नसों का भेदभाव दूर करेंगे। हाथ में कुल्हाड़ी, सिर पर टोकरी नंगे सिर और नंगे पाँव, धूल से लिपटे और कीचड़ से रंगे हुए ये बेज़बान कवि जब जंगल में लकड़ी काटेंगे तब लकड़ी काटने का शब्द इनके असभ्य स्वरों से मिश्रित होकर वायुयान पर चढ़ दसों दिशाओं में ऐसा अद्भुत गान करेगा कि भविष्य के कलावंतों के लिए वही ध्रुपद और मल्हार का काम देगा। चरखा कातने वाली स्त्रियों के गीत संसार के सभी देशों के कौमी गीत होंगे। मज़दूरों की मज़दूरी ही यथार्थ पूजा होगी। कलारूपी धर्म की तभी वृद्धि होगी। तभी नए कवि पैदा होंगे, तभी नए औलियों का उद्भव होगा। परंतु ये सब के सब मज़दूरी के दूध से पलेंगे। धर्म, योग, शुद्धाचरण, सभ्यता और कविता आदि के फूल इन्हीं मज़दूर-ऋषियों के उद्यान में प्रफुल्लित होंगे।
मज़दूरी और फ़क़ीरी
मज़दूरी और फ़क़ीरी का महत्व थोड़ा नहीं। मज़दूरी और फ़क़ीरी मनुष्य के विकास के लिए परमावश्यक है। बिना मज़दूरी किए फ़क़ीरी का उच्च भाव शिथिल हो जाता है; फ़क़ीरी भी अपने आसन से गिर जाती है; बुद्धि बासी पड़ जाती है। बासी चीजें अच्छी नहीं होतीं। कितने ही, उम्र भर बासी बुद्धि और बासी फ़क़ीरी में मग्न रहते हैं; परंतु इस तरह मग्न होना किस काम का? हवा चल रही है; जल बह रहा है; बादल बरस रहा है; पक्षी नहा रहे हैं; फूल खिल रहे हैं; घास नई, पेड़ नए, पत्ते नए — मनुष्य की बुद्धि और फ़क़ीरी ही बासी! ऐसा दृश्य तभी तक रहता है जब तक बिस्तर पर पड़े-पड़े मनुष्य प्रभात का आलस्य सुख मनाता है। बिस्तर से उठकर ज़रा बाग़ की सैर करो, फूल की सुगंध लो, ठंडी वायु में भ्रमण करो, वृक्षों के कोमल पल्लवों का नृत्य देखो तो पता लगे कि प्रभात-समय जागना बुद्धि और अंतःकरण को तरोताजा करना है और बिस्तर पर पड़े रहना उन्हें बासी कर देना है। निकम्मे बैठै हुए चिंतन करते रहना, अथवा बिना काम किए शुद्ध विचार का दावा करना, मानो सोते-सोते खर्राटे मारना है। जब तक जीवन के अरण्य में पादड़ी, मौलवी, पंडित और साधु, संन्यासी, हल, कुदाल और खुरपा लेकर मज़दूरी न करेंगे तब तक उनका आलस्य जाने का नहीं, तब तक उनका मन और उनकी बुद्धि, अनंत काल बीत जाने तक, मलिन मानसिक जुआ खेलती ही रहेगी। उनका चिंतन बासी, उनका ध्यान बासी, उनकी पुस्तकें बासी, उनका लेख बासी, उनका विश्वास बासी और उनका ख़ुदा भी बासी हो गया है। इसमें संदेह नहीं कि इस साल के गुलाब के फूल भी वैसे ही हैं जैसे पिछले साल के थे। परंतु इस साल वाले ताज़े हैं। इनकी लाली नई है, इनकी सुगंध भी इन्हीं की अपनी है। जीवन के नियम नहीं पलटते; वे सदा एक ही से रहते हैं। परंतु मज़दूरी करने से मनुष्य को एक नया और ताजा ख़ुदा नज़र आने लगता है।

गेरुए वस्त्रों की पूजा क्यों करते हो? गिरजे की घंटी क्यों सुनते हो? रविवार क्यों मनाते हो? पाँच वक़्त नमाज़ क्यों पढ़ते हो? त्रिकाल संध्या क्यों करते हो? मज़दूर के अनाथ नयन, अनाथ आत्मा और अनाश्रित जीवन की बोली सीखो। फिर देखोगे कि तुम्हारा यही साधारण जीवन ईश्वरीय भजन हो गया।
मज़दूरी तो मनुष्य के समष्टि-रूप परिणाम है, आमा रूपी धातु के गढ़े हुए सिक्के का नकदी बयाना है जो मनुष्यों की आत्माओं को ख़रीदने के वास्ते दिया जाता है। सच्ची मित्रता ही तो सेवा है। उससे मनुष्यों के हृदय पर सच्चा राज्य हो सकता है। जाति-पाँति, रूप-रंग और नाम-धाम तथा बाप-दादे का नाम पूछे बिना ही अपने आप को किसी के हवाले कर देना प्रेम-धर्म का तत्व है। जिस समाज में इस तरह के प्रेम-धर्म का राज्य होता है उसका हर कोई हर किसी को बिना उसका नाम-धाम पूछे ही पहचानता है; क्योंकि पूछने वाले का कुल और उसकी जात वहाँ वही होती है जो उसकी, जिससे कि वह मिलता है। वहाँ सब लोग एक ही माता-पिता से पैदा हुए भाई-बहन हैं। अपने ही भाई-बहनों के माता-पिता का नाम पूछना क्या पागलपन से कम समझा जा सकता है? यह सारा संसार एक कुटुंबवत् है। लँगड़े, लूले, अंधे और बहरे उसी मौरूसी घर की छत के नीचे रहते हैं जिसकी छत के नीचे बलवान, नीरोग और रूपवान कुटुंबी रहते हैं। मूढ़ों और पशुओं का पालन-पोषण बुद्धिमान, सबल और नीरोग ही तो करेंगे। आनंद और प्रेम की राजधानी का सिंहासन सदा से प्रेम और मज़दूरी के ही कंधों पर रहता आया है। कामना सहित होकर भी मज़दूरी निष्काम होती है; क्योंकि मज़दूरी का बदला ही नहीं। निष्काम कर्म करने के लिए जो उपदेश दिए जाते हैं उनमें अभावशील वस्तु सुभावपूर्ण मान ली जाती है। पृथ्वी अपने ही अक्ष पर दिन-रात घूमती है। यह पृथ्वी का स्वार्थ कहा जा सकता है। परंतु उसका यह घूमना सूर्य के इर्द-गिर्द घूमता तो है और सूर्य के इर्द-गिर्द घूमना सूर्यमंडल के साथ आकाश में एक सीधी लकीर पर चलना है। अंत में, इसको गोल चक्कर खाना सदा ही सीधा चलना है। इसमें स्वार्थ का अभाव है। इसी तरह मनुष्य की विविध कामनाएँ उसके जीवन को मानो उसके स्वार्थरूपी धुरे पर चक्कर देती हैं। परंतु उसका जीवन अपना तो है ही नहीं, वह तो किसी आध्यात्मिक सूर्यमंडल के साथ की चाल है और अंततः यह चाल जीवन का परमार्थ रूप है। स्वार्थ का यहाँ भी अभाव है, जब स्वार्थ कोई वस्तु ही नहीं तब निष्काम और कामनापूर्ण कर्म करना दोनों ही एक बात हुई। इसलिए मज़दूरी और फ़क़ीरी का अन्योन्याश्रय संबंध है।

मज़दूरी करना जीवनयात्रा का आध्यात्मिक नियम है। जोन ऑव आर्क (Joan of Arc) की फ़क़ीरी और भेड़ें चराना, टाल्सटाय का त्याग और जूते गाँठना, उमर ख़ैयाम का प्रसन्नतापूर्वक तंबू सीते फिरना, ख़लीफ़ा उमर का अपने रंग महलों में चटाई आदि बुनना, ब्रह्माज्ञानी कबीर और रैदास का शूद्र होना, गुरु नानक और भगवान श्रीकृष्ण का कूक पशुओं को लाठी लेकर हाँकना — सच्ची फ़क़ीरी का अनमोल भूषण है।
समाज का पालन करने वाली दूध की धारा
एक दिन गुरु नानक यात्रा करते-करते लालो नाम के एक बढ़ई के घर ठहरे। उस गाँव का भागो नामक रईस बड़ा मालदार था। उस दिन भागो के घर ब्रह्मभोज था। दूर-दूर से साधु आए थे। गुरु नानक का आगमन सुनकर भागो ने उन्हें भी निमंत्रण भेजा। गुरु ने भागो का अन्न खाने से इनकार कर दिया। इस बात पर भागो को बड़ा क्रोध आया। उसने गुरु नानक को बलपूर्वक पकड़ मँगाया और उनसे पूछा — आप मेरे यहाँ का अन्न क्यों नहीं ग्रहण करते? गुरुदेव ने उत्तर दिया — भागो, अपने घर का हलवा-पूरी ले आओ तो हम इसका कारण बतला दें। वह हलवा-पूरी लाया तो गुरु नानक ने लालो के घर से भी उसके मोटे अन्न की रोटी मँगवाई। भागो की हलवा-पूरी उन्होंने एक हाथ में और भाई लालो की मोटी रोटी दूसरे हाथ में लेकर दोनों को जो दबाया तो एक से लोहू टपका और दूसरी से दूध की धारा निकली। बाबा नानक का यही उपदेश हुआ। जो धारा भाई लालो की मोटी रोटी से निकली थी वही समाज का पालन करने वाली दूध की धारा है। यही धारा शिवजी की जटा से और यही धारा मज़दूरों की उँगलियों से निकलती है।
मज़दूरी करने से हृदय पवित्र होता है; संकल्प दिव्य लोकांतर में विचरते हैं। हाथ की मज़दूरी ही से सच्चे ऐश्वर्य की उन्नति होती है। जापान में मैंने कन्याओं और स्त्रियों को ऐसी कलावती देखा है कि वे रेशम के छोटे-छोटे टुकड़ों को अपनी दस्तकारी की बदौलत हज़ारों की क़ीमत का बना देती हैं, नाना प्रकार के प्राकृतिक पदार्थों और दृश्यों को अपनी सुई से कपड़े के ऊपर अंकित कर देती हैं। जापान निवासी काग़ज़, लकड़ी और पत्थर की बड़ी अच्छी मूर्तियाँ बनाते हैं। करोड़ों रुपये के हाथ के बने हुए जापानी खिलौने विदेशों में बिकते हैं। हाथ की बनी हुई जापानी चीज़ें मशीन से बनी हुई चीज़ों को मात करती हैं। संसार के सब बाज़ारों में उनकी बड़ी माँग रहती है। पश्चिमी देशों के लोग हाथ की बनी हुई जापान की अद्भुत वस्तुओं पर जान देते हैं। एक जापानी तत्त्वज्ञानी का कथन है कि हमारी दस करोड़ उँगलियाँ सारे काम करती हैं। उन उँगलियों ही के बल से, संभव है हम जगत् को जीत लें। (''We shall beat the world with the tips of our fingers'') जब तक धन और ऐश्वर्य की जन्मदात्री हाथ की कारीगरी की उन्नति नहीं होती तब तक भारतवर्ष ही की क्या, किसी भी देश या जाति की दरिद्रता दूर नहीं हो सकती। यदि भारत की तीस करोड़ नर-नारियों की उँगलियाँ मिलकर कारीगरी के काम करने लगें तो उनकी मज़दूरी की बदौलत कुबेर का महल उनके चरणों में आप ही आप आ गिरे।
अन्न पैदा करना तथा हाथ की कारीगरी और मिहनत से जड़ पदार्थों को चैतन्यचिह्न से सुसज्जित करना, क्षुद्र पदार्थों को अमूल्य पदार्थों में बदल देना इत्यादि कौशल ब्रह्मरूप होकर धन और ऐश्वर्य की सृष्टि करते हैं! कविता फ़क़ीरी और साधुता के ये दिव्य कला-कौशल जीते-जागते और हिलते-डुलते प्रतिरूप हैं। इनकी कृपा से मनुष्य जाति का कल्याण होता है। ये उस देश में कभी निवास नहीं करते जहाँ मज़दूर और मज़दूर की मज़दूरी का सत्कार नहीं होता, जहाँ शूद्र की पूजा नहीं होती। हाथ से काम करने वालों से प्रेम रखने और उनकी आत्मा का सत्कार करने से साधारण मज़दूरी सुंदरता का अनुभव करने वाले कला-कौशल, अर्थात कारीगरी, का रूप हो जाती है। इस देश में जब मज़दूरी का आदर होता था तब इसी आकाश के नीचे बैठे हुए मज़दूरों के हाथों ने भगवान बुद्ध के निवार्ण-सुख को पत्थर पर इस तरह जड़ा था कि इतना काल बीत जाने पर, पत्थर की मूर्ति के दर्शन से ऐसी शांति प्राप्त होती है जैसी कि स्वयं भगवान बुद्ध के दर्शन से होती है। मुँह, हाथ, पाँव इत्यादि का गढ़ देना साधारण मज़दूरी; परंतु मन के गुप्त भावों और अंतःकरण की कोमलता तथा जीवन की सभ्यता को प्रत्यक्ष प्रकट कर देना प्रेम-मज़दूरी है। शिवजी के तांडव नृत्य को और पार्वतीजी के मुख की शोभा को पत्थरों की सहायता से वर्णन करना जड़ को चैतन्य बना देना है। इस देश में कारीगरी का बहुत दिनों से अभाव है। महमूद ने जो सोमनाथ के मंदिर में प्रतिष्ठित मूर्तियाँ तोड़ी थीं, उससे उसकी कुछ भी वीरता सिद्ध नहीं होती। उन मूर्तियों को तो हर कोई तोड़ सकता था। उसकी वीरता की प्रशंसा तब होती जब वह यूनान की प्रेम-मज़दूरी, अर्थात वहाँ वालों के हाथ की अद्वितीय कारीगरी प्रकट करने वाली मूर्तियाँ तोड़ने का साहस कर सकता। वहाँ की मूर्तियाँ तो बोल रही हैं — वे जीती जागती हैं, मुर्दा नहीं। इस समय के देवस्थानों में स्थापित मूर्तियाँ देखकर अपने देश की आध्यात्मिक दुर्दशा पर लज्जा आती है। उनसे तो यदि अनगढ़ पत्थर रख दिए जाते तो अधिक शोभा पाते। जब हमारे यहाँ के मज़दूर, चित्रकार तथा लकड़ी और पत्थर पर काम करने वाले भूखों मरते हैं, तब हमारे मंदिरों की मूर्तियाँ कैसे सुंदर हो सकती हैं? ऐसे कारीगर तो यहाँ शूद्र के नाम से पुकारे जाते हैं। याद रखिए, बिना शूद्र-राजा के मूर्ति-पूजा किंवा, कृष्ण और शालिग्राम के छिछोरेपन से दरिद्रता को प्राप्त हो रहे हैं। यही कारण है, जो आज हम जातीय दरिद्रता से पीड़ित हैं।
पश्चिमी सभ्यता का एक नया आदर्श
पश्चिमी सभ्यता मुख मोड़ रही है। वह एक नया आदर्श देख रही है। अब उसकी चाल बदलने लगी है। वह कलों की पूजा को छोड़कर मनुष्यों की पूजा को अपना आदर्श बना रही है। इस आदर्श के दर्शाने वाले देवता रस्किन और टालस्टॉय आदि हैं। पाश्चात्य देशों में नया प्रभात होने वाला है। वहाँ के गंभीर विचार वाले लोग इस प्रभात का स्वागत करने के लिए उठ खड़े हुए हैं। प्रभात होने के पूर्व ही उसका अनुभव कर लेने वाले पक्षियों की तरह इन महात्माओं को इस नए प्रभात का पूर्व ज्ञान हुआ है। और हो क्यों न? इंजनों के पहिए के नीचे दबकर वहाँ वालों के भाई-बहन नहीं नहीं उनकी सारी जाति पिस गई; उनके जीवन के धुरे टूट गए, उनका समस्त धन घरों से निकलकर एक ही दो स्थानों में एकत्र हो गया। साधारण लोग मर रहे हैं, मज़दूरों के हाथ-पाँव फट रहे हैं, लहू चल रहा है! सर्दी से ठिठुर रहे हैं। एक तरफ़ दरिद्रता का अखंड राज्य है, दूसरी तरफ़ अमीरी का चरम दृश्य। परंतु अमीरी भी मानसिक दुःखों से विमर्दित है। मशीनें बनाई तो गई थीं मनुष्यों का पेट भरने के लिए — मज़दूरों को सुख देने के लिए — परंतु वे काली-काली मशीनें ही काली बनकर उन्हीं मनुष्यों का भक्षण कर जाने के लिए मुख खोल रही हैं। प्रभात होने पर ये काली-काली बलाएँ दूर होंगी। मनुष्य के सौभाग्य का सूर्योदय होगा।
शोक का विषय है कि हमारे और अन्य पूर्वी देशों में लोगों को मज़दूरी से तो लेशमात्र भी प्रेम नहीं है, पर वे तैयारी कर रहे हैं पूर्वोक्त काली मशीनों का अलिंगन करने की। पश्चिम वालों के तो ये गले पड़ी हुई बहती नदी की काली कमली हो रही हैं। वे छोड़ना चाहते हैं, परंतु काली कमली उन्हें नहीं छोड़ती। देखेंगे पूर्व वाले इस कमली को छाती से लगाकर कितना आनंद अनुभव करते हैं। यदि हममें से हर आदमी अपनी दस उँगलियों की सहायता से साहसपूर्वक अच्छी तरह काम करे तो हम मशीनों की कृपा से बढ़े हुए परिश्रम वालों को वाणिज्य के जातीय संग्राम में सहज ही पछाड़ सकते हैं। सूर्य तो सदा पूर्व ही से पश्चिम की ओर जाता है। पर आओ पश्चिम से आने वाली सभ्यता के नए प्रभात को हम पूर्व से भेजें।
इंजनों की वह मज़दूरी किस काम की जो बच्चों, स्त्रियों और कारीगरों को ही भूखा नंगा रखती है और केवल सोने, चाँदी, लोहे आदि धातुओं का ही पालन करती है। पश्चिम को विदित हो चुका है कि इनसे मनुष्य का दुःख दिन पर दिन बढ़ता है। भारतवर्ष जैसे दरिद्र देश में मनुष्य के हाथों की मज़दूरी के बदले कलों से काम लेना काल का डंका बजाना होगा। दरिद्र प्रजा और भी दरिद्र होकर मर जायेगी। चेतन से चेतन की वृद्धि होती है। मनुष्य को तो मनुष्य ही सुख दे सकता है। परस्पर की निष्कपट सेवा ही से मनुष्य जाति का कल्याण हो सकता है। धन एकत्र करना तो मनुष्य-जाति के आनंद-मंगल का एक साधारण-सा और महातुच्छ उपाय है। धन की पूजा करना नास्तिकता है; ईश्वर को भूल जाना है; अपने भाई-बहनों तथा मानसिक सुख और कल्याण के देने वालों को मारकर अपने सुख के लिए शारीरिक राज्य की इच्छा करना है, जिस डाल पर बैठे हैं उसी डाल को स्वयं ही कुल्हाड़ी से काटना है। अपने प्रियजनों से रहित राज्य किस काम का? प्यारी मनुष्य-जाति का सुख ही जगत् के मंगल का मूल साधन है। बिना उसके सुख के अन्य सारे उपाय निष्फल हैं। धन की पूजा से ऐश्वर्य, तेज, बल और पराक्रम नहीं प्राप्त होने का। चैतन्य आत्मा की पूजा से ही ये पदार्थ प्राप्त होते हैं। चैतन्य-पूजा ही से मनुष्य के प्रेममय हृदय, निष्कपट मन और मित्रतापूर्ण नेत्रों से निकलकर बहती है तब वही जगत् में सुख के खेतों को हरा-भरा और प्रफुल्लित करती है और वही उनमें फल भी लगाती है। आओ, यदि हो सके तो टोकरी उठाकर कुदाली हाथ में लें, मिट्टी खोदें और अपने हाथ से उसके प्याले बनावें। फिर एक-एक प्याला घर-घर में, कुटिया-कुटिया में रख आवें और सब लोग उसी में मज़दूरी का प्रेमामृत पान करें।
है रीत आशिक़ों की तन मन निसार करना।
रोना सितम उठाना और उनको प्यार करना॥

शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

उर्वशी की प्रमुख पंक्तियाँ (तृतीय अंक, रामधारी सिंह 'दिनकर', NTANET/JRF के SYLLABUS में सम्मिलित) : HindiSahitya Vimarsh


उर्वशी की प्रमुख पंक्तियाँ (तृतीय अंक, रामधारी सिंह 'दिनकर', NTANET/JRF के SYLLABUS में सम्मिलित) : HindiSahitya Vimarsh

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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास
पुरूरवा
जब से हम-तुम मिले, न जानें, कितने अभिसारों में
रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है
उर्वशी
कामद्रुम-तल पड़ी तड़पती रही तप्त फूलों पर;
पर, तुम आए नहीं कभी छिप कर भी सुधि लेने को।
———
मिले, अन्त में, तब, जब ललना की मर्याद गँवाकर
स्वर्ग-लोक को छोड़ भूमि पर स्वयं चली मैं आई।
पुरूरवा
पर मन ने टोका, "क्षत्रिय भी भीख माँगते हैं क्या"?
और प्रेम क्या कभी प्राप्त होता है भिक्षाटन से ?
———
मिल भी गयी उर्वशी यदि तुमको इन्द्र की कृपा से ,
उसका हृदय-कपाट कौन तेरे निमित्त खोलेगा ?
बाहर साँकल नहीं जिसे तू खोल हृदय पा जाए,
इस मन्दिर का द्वार सदा अन्तःपुर से खुलता है।
———
और प्रीति जागने पर तुम वैकुण्ठ-लोक को तजकर
किसी रात, निश्चय, भूतल पर स्वयं चली आओगी।
पुरूरवा
अयशमूल दोनों विकर्म हैं, हरण हो कि भिक्षाटन
———
मैं मनुष्य, कामना-वायु मेरे भीतर बहती है
———
अन्धकार की मैं प्रतिमा हूँ? जब तक हृदय तुम्हारा
तिमिर-ग्रस्त है, तब तक ही मैं उस पर राज करूँगी?
———
और देह धर्मी नर फूलों के शरीर को तज कर
ललचाता है दूर गन्ध के नभ में उड़ जाने को।
———
तन से मुझको कसे हुए अपने दृढ़ आलिंगन में,
मन से, किन्तु, विषण्ण दूर तुम कहाँ चले जाते हो?
बरसा कर पियूष प्रेम का, आँखों से आँखों में
मुझे देखते हुए कहाँ तुम जाकर खो जाते हो?
कभी-कभी लगता है, तुमसे जो कुछ भी कहती हूँ
आशय उसका नहीं, शब्द केवल मेरे सुनते हो
क्षण में प्रेम अगाध, सिन्धु हो जैसे आलोड़न में
और पुनः वह शान्ति, नहीं जब पत्ते भी हिलते हैं
अभी दृष्टि युग-युग के परिचय से उत्फुल्ल हरी सी
और अभी यह भाव, गोद में पड़ी हुई मैं जैसे
युवती नारी नहीं, प्रार्थना की कोई कविता हूँ।
पुरूरवा
पर, सरोवर के किनारे कण्ठ में जो जल रही है,
उस तृषा, उस वेदना को जानता हूँ।
———
"अभी तक भी न समझा ?
दृष्टि का जो पेय है, वह रक्त का भोजन नहीं है।
रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है।"
———
"रूप की आराधना का मार्ग
आलिंगन नहीं तो और क्या है?
स्नेह का सौन्दर्य को उपहार
रस-चुम्बन नहीं तो और क्या है?"
———
यह तुम्हारी कल्पना है, प्यार कर लो।
———
कमल, कर्पूर, कुंकुम से, कुटज से
इस अतुल सौन्दर्य का श्रृंगार कर लो।"
गीत आता है मही से?
या कि मेरे ही रुधिर का राग
यह उठता गगन में ?
———
स्वर्णवर्णा वल्लरी में फूल से खिलते हुए मुख,
याद आता है निशा के ज्वार में उन्माद का सुख।
कामनाएँ प्राण को हिलकोरती हैं।
चुम्बनों के चिह्न जग पड़ते त्वचा में।
फिर किसी का स्पर्श पाने को तृषा चीत्कार करती।
———
रात भर, मानो, उन्हें दीपक सदृश जलना पड़ा हो,
नींद में, मानो, किसी मरुदेश में चलना पड़ा हो।
———
सत्य ही, रहता नहीं यह ज्ञान,
तुम कविता, कुसुम, या कामिनी हो
———
सांस में सौरभ, तुम्हारे वर्ण में गायन भरा है
———
कामनाओं के झकोरे रोकते हैं राह मेरी,
खींच लेती है तृषा पीछे पकड़ कर बाँह मेरी।
———
मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।
———
विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।
———
मैं तुम्हारे बाण का बींधा हुआ खग
वक्ष पर धर शीश मरना चाहता हूँ।
मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ
प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ।
———
चाहिए देवत्व,
पर, इस आग को धर दूँ कहाँ पर?
कामनाओं को विसर्जित व्योम में कर दूँ कहाँ पर?
वह्नि का बेचैन यह रसकोष, बोलो कौन लेगा ?
आग के बदले मुझे सन्तोष, बोलो कौन देगा?
———
उर्वशी
देवता, शेष जिसके मन में कामना, द्वन्द्व, परिताप नहीं
———
जब तक यह पावक शेष, तभी तक सिन्धु समादर करता है,
अपना मस्तक मणि-रत्न-कोष चरणों पर लाकर धरता है।
———
अप्सरा स्वर्ग से आती है अधरों का चुम्बन पाने को।
———
जो तुझे दीप्ति से सजती है, उस ज्वाला का अपमान न कर।
———
यह तो नर ही है, एक साथ जो शीतल और ज्वलित भी है,
मन्दिर में साधक-व्रती, पुष्प-वन में कन्दर्प ललित भी है।
योगी अनन्त, चिन्मय, अरुप को रूपायित करने वाला,
भोगी ज्वलन्त, रमणी-मुख पर चुम्बन अधीर धरने वाला
———
मानव मानव ही नहीं, अमृत-नन्दन यह लेख अमर भी है,
वह एक साथ जल-अनल, मृत्ति-महदम्बर, क्षर-अक्षर भी है।
———
तू मनुज नहीं, देवता, कान्ति से मुझे मंत्र-मोहित कर ले,
फिर मनुज-रूप धर उठा गाढ़ अपने आलिंगन में भर ले।
———
रसमयी मेघमाला बनकर मैं तुझे घेर छा जाऊँगी,
फूलों की छन्ह-तले अपने अधरों की सुधा पिलाऊँगी।
पुरूरवा
तुम मेरे बहुरंगे स्वप्न की मणि-कुट्टिम प्रतिमा हो,
नहीं मोहती हो केवल तन की प्रसन्न द्युति से ही,
पर, गति की भंगिमा-लहर से, स्वर से, किलकिंचित से,
और गूढ़ दर्शन-चिन्तन से भरी उक्तियों से भी।
———
उठते हैं तूफ़ान और संसार मरा करता है।
उर्वशी
रक्त बुद्धि से अधिक बली है और अधिक ज्ञानी भी,
क्योंकि बुद्धि सोचती और शोणित अनुभव करता है।
———
पढ़ो रक्त की भाषा को, विश्वास करो इस लिपि का;
यह भाषा, यह लिपि मानस को कभी न भरमाएगी
———
पाप दीखता वहाँ जहाँ सुन्दरता हुलस रही है
पुरूरवा
द्वन्द्व शूलते जिसे, सत्य ही, वह जन अभी मनुज है
देवी वह जिसके मन में कोई संघर्ष नहीं है।
———
रक्त बुद्धि से अधिक बली है, अधिक समर्थ, तभी तो
निज उद्गम की ओर सहज हम लौट नहीं पाते हैं।
———
दाह मात्र ही नहीं, प्रेम होता है अमृत-शिखा भी,
नारी जब देखती पुरुष की इच्छा-भरे नयन को,
नहीं जगाती है केवल उद्वेलन, अनल रुधिर में,
मन में किसी कान्त कवि को भी जन्म दिया करती है।
नर समेट रखता बाहों में स्थूल देह नारी की,
शोभा की आभा-तरंग से कवि क्रीड़ा करता है।
———
कवि, प्रेमी एक ही तत्व हैं, तन की सुन्दरता से
दोनों मुग्ध, देह से दोनों बहुत दूर जाते है,
———
देह प्रेम की जन्म-भूमि है, पर, उसके विचरण की,
सारी लीला-भूमि नहीं सीमित है रुधिर-त्वचा तक।
———
न तो पुरुष मैं पुरुष, न तुम नारी केवल नारी हो;
दोनों हैं प्रतिमान किसी एक ही मूलसत्ता के,
देह-बुद्धि से परे, नहीं जो नर अथवा नारी है।
———
सुनें अशब्दित वे विचार जिनमें सब ज्ञान भरा है
———
यह अति-क्रान्ति वियोग नहीं अलिंगित नर-नारी का
———
यह प्रदान उस आत्म-रूप का जिसे विमुग्ध नयन से
प्रक्षेपित करता है प्रेमी पुरुष प्रिया के मन में
———
वहाँ जहाँ कैलाश-प्रान्त में शिव प्रत्येक पुरुष है
और शक्तिदायिनी शिवा प्रत्येक प्रणयिनी नारी।
———
देह प्रेम की जन्म-भूमि है इस शैशव स्थली की
———
बाधक है ये प्रेम आप ही अपनी उर्ध्व प्रगति का।
उर्वशी
कसे रहो, बस इसी भाँति, उर-पीड़क आलिंगन में
और जलाते रहो अधर-पुट को कठोर चुम्बन से।
———
मर्मांतक है शान्ति और आनन्द एक दारुण है।
———
रजनी के अंगो पर कोई चन्दन लेप रहा है।
पुरूरवा
तिमिर शान्ति का व्यूह, तिमिर अन्तर्मन की आभा है
———
जब आता है अन्धकार, धरणी अशब्द होती है।
———
———
योगी बँधे अपार योग में, प्रणयी आलिंगन में।
———
जग भर की चेतना एक होकर अशब्द बहती है
किसी अनिर्वचनीय, सुखद माया के महावरण में।
———
बजती है रागिनी सुप्त सुन्दरता की साँसों की
या अपूर्व कविता चिर-विस्मृत किसी पुरातन कवि की।
उर्वशी
बहने दो निश्चेत शान्ति की इस अकूल धारा में,
देश-काल से परे, छूट कर अपने भी हाथों से।
पुरूरवा
कहीं समापन नहीं ऊर्ध्व-गामी जीवन की गति का,
काल-पयोनिधि का त्रिकाल में कोई कूल नहीं है।
———
रुको पान करने दो शीतलता शतपत्र कमल की;
एक सघन क्षण में समेटने दो विस्तार समय का,
एक पुष्प में भर त्रिकाल की सुरभि सूँघ लेने दो।
———
मिटा कौन? जो बीत गया, पीछे की ओर खड़ा है;
जन्मा अब तक नहीं, अभी वह घन के अन्धियाले में
बैठा है सामने छन्न, पर, सब कुछ देख रहा है।
———
महाशून्य का उत्स हमारे मन का भी उद्गम है,
बहती है चेतना काल के आदि-मूल को छूकर।
उर्वशी
हम त्रिलोकवासी, त्रिकालचर, एकाकार समय से
भूत, भविष्यत, वर्तमान, तीनों के एकार्णव में।

———
अन्तर्नभ का यह प्रसार! यह परिधि-भंग प्राणों का!
सुख की इस अपार महिमा को कहाँ समेट धरें हम?
पुरूरवा
महाशून्य के अन्तर्गृह में, उस अद्वैत-भवन में
जहाँ पहुँच दिक्काल एक हैं, कोई भेद नहीं है।
इस निरभ्र नीलांतरिक्ष की निर्झर मंजुषा में
सर्ग-प्रलय के पुरावृत्त जिसमें समग्र संचित हैं।
———
नारी बन जो स्वयं पुरुष को उद्वेलित करता है
और बेधता पुरुष-कान्ति बन हृदय-पुष्प नारी का।
निधि में जल, वन में हरीतिमा जिसका घनावरण है,
रक्त-मांस-विग्रह भंगुर ये उसी विभा के पट हैं।
———
देह मृत्ति, दैहिक प्रकाश की किरणें मृत्ति नहीं हैं,
अधर नष्ट होते, मिटती झंकार नहीं चुम्बन की;
यह अरूप आभा-तरंग अर्पित उसके चरणों पर,
निराकार जो जाग रहा है सारे आकारों में।
पुरूरवा
देह डूबने चली अतल मन के अकूल सागर में
किरणें फेंक अरूप रूप को ऊपर खींच रहा है।
पुरूरवा
छूट गई धरती नीचे, आभा की झंकारों पर
चढ़े हुए हम देह छोड़ कर मन में पहुँच रहे हैं
पुरूरवा
जब भी तन की परिधि पारकर मन के उच्च निलय में,
नर-नारी मिलते समाधि-सुख के निश्चेत शिखर पर।
उर्वशी
ये ऊर्मियाँ! अशब्द-नाद! उफ़ री बेबसी गिरा की!
दोगे कोई शब्द? कहूँ क्या कहकर इस महिमा को?
पुरूरवा
शब्द नहीं हैं; यह गूँगे का स्वाद, अगोचर सुख है;
प्रणय-प्रज्वलित उर में जितनी झंकृतियाँ उठती हैं
कहकर भी उनको कह पाते कहाँ सिद्ध प्रेमी भी?
भाषा रूपाश्रित, अरूप है यह तरंग प्राणों की।
पुरूरवा
जो अनेक कल्पों के अँधियाले में
तुम्हें खोजता फिरा तैरकर बारम्बार मरण को
जन्मों के अनेक कुंजों, वीथियों, प्रार्थनाओं में,
पर, तुम मिली एक दिन सहसा जिसे शुभ्र-मेघों पर
एक पुष्प में अमित युगों के स्वप्नों की आभा-सी।
पुरूरवा
जब से तुम आई धरती पर फूल अधिक खिलते हैं,
दौड़ रही कुछ नई दीप्ति-सी शीतल हरियली में।
उर्वशी
कितना है आनन्द फेंक देने में स्वयं-स्वयं को
पर्वत की आसुरी शक्ति के आकुल आलोड़न में?
पुरूरवा
भ्रान्त स्वयं या जान-बूझकर मुझ्को भ्रमा रही हो?
उर्वशी
भ्रान्ति नहीं, अनुभूति; जिसे ईश्वर हम सब कहते हैं,
शत्रु प्रकृति का नहीं, न उसका प्रतियोगी, प्रतिबल है।
———
किसने कहा तुम्हें, जो नारी नर को जान चुकी है,
उसके लिए अलभ्य ज्ञान हो गया परम सत्ता का;
और पुरुष जो आलिंगन में बाँध चुका रमणी को,
देश-काल को भेद गगन में उठने योग्य नहीं है?
ईश्वरीय जग भिन्न नहीं है इस गोचर जगती से;
इसी अपावन में अदृश्य वह पावन सना हुआ है।
———
शिखरों में जो मौन, वही झरनों में गरज रहा है,
ऊपर जिसकी ज्योति, छिपा है वही गर्त्त के तम में।
———
अच्छा है, ये पेड़, पुष्प इसके जिज्ञासु नहीं हैं,
हम हैं कौन, कहाँ से आए और कहाँ जाएँगे?
———
द्वन्द्व रंच भर नहीं कहीं भी प्रकृति और ईश्वर में,
द्वन्द्वों का आभास द्वैतमय मानस की रचना है।
———
क्योंकि प्रकृति औ पुरुष एक हैं, कोई भेद नहीं है।
———
दृश्य, अदृश्य एक हैं दोनों, प्रकृति और ईश्वर में
भेद गुणों का नहीं, भेद है मात्र दृष्टि का, मन का।
———
और यहाँ यह काम-धर्म ही उज्जवल उदाहरण है।
काम धर्म, काम ही पाप है, काम किसी मानव को
उच्च लोक से गिरा हीन पशु-जन्तु बना देता है।
और किसी मन में असीम सुषमा की तृषा जगाकर
पहुँचा देता उसे किरण-सेवित अति उच्च शिखर पर।
———
सोचा है, यह प्रेम कहीं क्यों दानव बन जाता है,
और कहीं क्यों जाकर मिल जाता रहस्य-चिन्तन से?
———
स्नेहाकृष्ट नहीं, तो यत्नों से, छल से, बल से भी,
तभी काम से बलात्कार के पाप जन्म लेते हैं।
———
तन का काम अमृत, लेकिन, यह मन का काम गरल है।
———
जब तक शेष प्रकृति, तब तक हम भी बहते जाएँगे
लीलामय की सहज, शान्त, आनन्दमयी धारा में।
पुरूरवा
कुसुम और कामिनी बहुत सुन्दर दोनों होते हैं
पर, तब भी नारियाँ श्रेष्ठ हैं कहीं कान्त कुसुमों से,
क्योंकि पुष्प हैं मूक और रूपसी बोल सकती है।
सुमन मूक सौन्दर्य और नारियाँ सवाक सुमन हैं।
———
सत्य, स्यात्, केवल आत्मार्पण, केवल शरणागति है
उसके पद पर, जिसे प्रकृति तुम, मैं ईश्वर कहता हूँ।
———
यह रहस्यमय रूप कहीं त्रिभुवन में और नहीं है,
सुर-किन्नर-गन्धर्व-लोक में अथवा मर्त्य-भुवन में।
———
बैठे थे निश्चेत, तभी नारी बन निकल पड़ी तुम
नारायण की महाकल्पना से, एकायन मन से?
उर्वशी
मैं मानवी नहीं, देवी हूँ; देवों के आनन पर
———
सघन कुंज, गोधुली, चाँदनी, ए यदि नहीं रहें तो
दिन की खुली धूप में कब तक जीवन चल सकता है?
———
मैं अदेह कल्पना, मुझे तुम देह मान बैठे हो;
मैं अदृश्य, तुम दृश्य देख कर मुझको समझ रहे हो
सागर की आत्मजा, मानसिक तनया नारायण की।
कब था ऐसा समय कि जब मेरा अस्तित्व नहीं था?
कब आएगा वह भविष्य कि जिस दिन मैं नहीं रहूँगी?
कौन पुरुष जिसकी समाधि में मेरी झलक नहीं है?
कौन त्रिया, मैं नहीं राजती हूँ जिसके यौवन में?
———
कहूँ कौन-सी बात और रहने दूँ कथा कहाँ की?
मेरा तो इतिहास प्रकृति की पूरी प्राण-कथा है,
उसी भाँति निस्सीम, असीमित जैसे स्वयं प्रकृति है।
पुरूरवा
बाँहों में जिसको समेटकर उर से लगा रहा हूँ,
रक्त-माँस की मूर्त्ति नहीं,वह सपना है, छाया है।
उर्वशी
मैं मनोदेश की वायु व्यग्र, व्याकुल, चंचल;
अवचेत प्राण की प्रभा, चेतना के जल में
मैं रूप-रंग-रस-गन्ध-पूर्ण साकार कमल।
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पाषाणों के अनगढ़ अंगों को काट-छाँट
मैं ही निविडस्तननता, मुष्टिमध्यमा,
मदिरलोचना, कामलुलिता नारी।
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भू-नभ का सब संगीत नाद मेरे निस्सीम प्रणय का है,
सारी कविता जयगान एक मेरी त्रयलोक-विजय का है।
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तारों की झिलमिल छाया में फूलों की नाव बहाती हूँ,
मैं नैश प्रभा, सब के भीतर निश की कल्पना जगाती हूँ।
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दो हृदयों का वह मूक मिलन, तन शिथिल, स्रस्त अतिशय सुख से,
अलसित आँखें देखतीं न कोई शब्द निकलता है मुख से।
कितनी पावन वह रस-समाधि! जब सेज स्वर्ग बन जाती है,
गोचर शरीर में विभा अगोचर सुख की झलक दिखाती है।
देवता एक है शयित कहीं इस मदिर शान्ति की छाया में
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देवता प्रेम का सोया है, चुम्बन से उसे जगाओ रे!
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मैं देश-काल से परे चिरन्तन नारी हूँ।
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मैं भूत, भविष्यत, वर्तमान की कृत्रिम बाधा से विमुक्त;
मैं विश्वप्रिया।
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अधरों में अपने अधरों की मदिरा उड़ेल,
मैं तुम्हें वक्ष से लगा
युगों की संचित तपन मिटाऊँगी।
पुरूरवा
पर, रहस्य हट जाने पर भी रहीं रहस्यमयी तुम;
मायावरण दूर कर देने पर भी तुम माया हो।
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तुम त्रिकाल-सुन्दरी, अमर आभा अखण्ड त्रिभुवन की,
सभी युगों से, सभी दिशाओं से चल कर आई हो
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एक पुष्प में सभी पुष्प, सब किरणें एक किरण में
तुम संहित, एकत्र एक नारी में सब नारी हो।
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पर, दिगन्त-व्यापिनी चन्द्रिका मुक्त विहरनेवाली
व्योम छोड़कर सिमट गई जो मेरे भुज पाशों में;
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जहाँ-जहाँ तुम खिलीं स्यात् मैं ही मलयानिल बनकर
तुम्हें घेरता आया हूँ अपनी आकुल बाँहों से।
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जहाँ-जहाँ तुम रही, निष्पलक नयनों की आभा से
रहा सींचता मैं, आगे तुम जहाँ-जहाँ जाओगी,
साथ चलूँगा मैं सुगन्ध से खिंचे हुए मधुकर-सा
या कि राहु जैसे विधु के पीछे-पीछे चलता है।
उर्वशी
हिम-स्नात, सिक्त वल्लरी-पुजारिन को देखो,
पति को फूलों का नया हार पहनाती है