शुक्रवार, 24 मई 2019

स्कन्दगुप्त नाटक के गीत : Hindi Sahitya Vimarsh


NTA/UGCNET/JRF/SET/PGT (हिन्दी भाषा एवं साहित्य)
के परीक्षार्थियों के लिए सर्वोत्तम मार्गदर्शक
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मुहम्मद इलियास हुसैन
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नर्तकियों का गीत
न छेड़ ना उस अतीत स्मृति से खिंचे हुए बीन-तार कोकिल।
करुण रागिनी तड़प उठेगी सुना न ऐसी पुकार कोकिल।
हृदय धूल से मिला दिया है
उसे चरण-चिह्न-सा किया है
खिले फूल सब गिरा दिया है, न अब बसन्ती बहार कोकिल
सुनी बहुत आनंद-भैरवी
विगत हो चुकी निशा-माधबी
रही न अब शारदी कैरवी न तो मघा की फुहार कोकिल।
न खोज पागल मधुर प्रेम को
न तोड़ना और के नेम को
बचा विरह-मौन के क्षेम को कुचाल अपनी सुधार कोकिल।
(नर्तकियों का गीत, प्रथम अंक, द्वितीय दृश्य)

मातृगुप्त का गीत
संसृति के वे सुंदरतम क्षण यों ही भूल नहीं जाना।
'वह उच्छृंखलता थी अपनी' कहकर मत बहलाना।
मादकता-सी तरल हँसी के प्याले में उठती लहरी।
मेरे निःश्वासों से उठकर अधर चूमने को ठहरी।
मैं व्याकुल परिरंभ्म-मुकुल में बन्दी अलि-सा काँप रहा।
छलक उठा प्याला, लहरी में मेरे सुख को माप रहा।
सजग सुप्त सौंदर्य हुआ, हो चपल चलीं भौहें मिलने।
लीन हो गई लहर, लगे मेरे ही नख छाती छिलने।
श्यामा का नखदान मनोहर मुक्ताओं से ग्रथित रहा।
जीवन के उस पार उड़ाता हँसी, खड़ा मैं चकित रहा।
तुम अपनी निष्ठुर क्रीड़ा के विभ्रम से, बहकाने से।
सुखी हुए, फिर लगे देखने मुझे पथिक पहचाने से।
उस सुख का आलिंगन करने कभी भूलकर आ जाना।
मिलन-क्षितिज-तट मधु-जलनिधि में मृदु हिलोर उठा जाना।
(मातृगुप्त का गीत, प्रथम अंक, तृतीय दृश्य)

मातृगुप्त और मुद्गल का सम्वेत गीत
उतारोगे अब कब भू-भार
बार-बार क्यों कह रक्खा था लूँगा मैं अवतार।
उमड़ रहा है इस भूतल पर दुख का पारावार।
बाड़व लेलिहान जिह्वा का करता है विस्तार।
प्रलय-पयोधर बरस रहे हैं रक्त-अश्रु की धार।
मानवता में राक्षसत्व का अब है पूर्ण प्रचा।र
पड़ा नहीं कानों में अब तक क्या यह हाहाकार ?
सावधान हो अब तुम जानों मैं तो चुका पुकार।
(मातृगुप्त और मुद्गल सम्वेत का गीत, प्रथम अंक, षष्टम् दृश्य)

स्त्रियों का गीत
हमारे निर्बलों के बल कहाँ हो ?
हमारे दिन के संबल कहाँ हो ?
नहीं हो नाम ही बस नाम है क्या ?
सुना केवल यहाँ हो या वहाँ हो !
पुकारा जब किसी ने तब सुना था
भला विश्वास यह हमको कहाँ हो !
(स्त्रियों का गीत, प्रथम अंक, षष्टम् दृश्य)

मातृगुप्त का स्तुति-गीत
हे प्रभु हमें विश्वास दो अपना बना लो।
सदा स्वच्छंद हो चाहे जहां हों।
(मातृगुप्त का स्तुति-गीत, प्रथम अंक, षष्टम् दृश्य)

देवसेना का गीत
भरा नैनों में मन में रूप।
किसी छलिया का अमल अनूप।
जल-थल, मारुत, व्योम में, जो छाया है सब ओर।
खोज-खोजकर खो गई मैं, पागल-प्रेम विभोर।
भांग से भरा हुआ यह कूप।
भरा नैनों में मन में रूप।
धमनी की तंत्री बजी, तू रहा लगाए कान।
बलिहारी में, कौन तू है मेरा जीवन-प्रान।
खेलता जैसे छाया-धूप।
भरा नैनों में मन में रूप।
(देवसेना का गीत, प्रथम अंक, सप्तम दृश्य)

पारिजात वृक्ष का गीत
घने प्रेम तरु तले
बैठ छाँह लो भव-आतप से तापित और जले।
छाया है विश्वास की श्रद्धा-सरिता-कूल,
सिंची आँसुओं से मृदुल है प्रागमय धूल,
यहां कौन जो छले !
फूल चू पड़े बात से भरे हृदय का घाव,
मन की कथा व्यथा भरी बैठो सुनते जाव,
कहाँ जा रहे चले।
लो छवि-रस-माधुरी सीचों जीवनबेल
जी लो सुख से आयु-भर यह माया का खेल,
मिलो स्नेह से गले।
घने प्रेम-तरु-तले।
(पारिजात वृक्ष का गीत, द्वितीय अंक, चतुर्थ दृश्य)

नेपथय से गान
पालना बनें प्रलय की लहरें!
शीतल हो ज्वाला की आंधी, करुणा के धन छहरें।
दया दुलार करें, पल भर भी विपदा पास ठहरे।
प्रभु का हो विश्वास सत्य, तो सुख का केतन फहरे।
(नेपथय से गान, प्रथम अंक, चतुर्थ दृश्य)

नेपथय से गान
सब जीवन बीता जाता है। धूप-छाँह के खेल सदृश।
सब जीवन बीता जाता है।
समय भागता है प्रतिक्षण में नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगाकर भविष्य-रण में, आप कहाँ छिप जाता है।
सब जीवन बीता जाता है।
बुल्ले, लहर, हवा के झोंके, मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके, जीवन का वह नाता है।
सब जीवन बीता जाता है।
बंशी को बस बज जाने दो, मीठी मींड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो, जो कुछ हमको आता है।
सब जीवन बीता जाता है।
(नेपथय से गान, तृतीय अंक, द्वितीय दृश्य)

देवसेना की पहली सखी का गीत
माँझी ! साहस है ? खे लोगे ?
जर्ज्जर तरी भरी पथिकों से झड़ में क्या खे लोगे ?
अलस नील-घन की छाया में
जलजालों की छल-माया में अपना बल तोलोगे !
अनजाने तट की मदमाती
लहरें, क्षितिज चूमती आतीं ! ये झटके झेलोगे ?
माँझी ! साहस है ? खे लोगे ?
(देवसेना की पहली सखी का गीत, तृतीय अंक, चतुर्थ दृश्य)

मातृगुप्त का सम्बोधन गीत
वीरो ! हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार।
उषा ने हँस अभिनन्दन किया और पहनाया हीरक हार।
जगे हम, लगे जगाने विश्व लोक में फैला फिर आलोक।
व्योम-तम- पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक।
विमल वाणी ने वीणा ली कमल-कोमल कर में सप्रीत।
सप्तस्वर स्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत।
बचाकर बीज-रूप से सृष्टि नाव पर झेल प्रलय का शीत।
अरुण-केतन लेकर निज हाथ वरुण-पथ में हम बढ़े अभीत।
सुना है दधीचि का वह त्याग हमारा जातीयता विकास।
पुरंदर ने पवि से है लिखा अस्थि-युग का मेरा इतिहास।
सिंधु-सा विस्तृत और अथाह एक निर्वाचित का उत्साह।
दे रही अभी दिखाई भग्न मग्न रत्नाकर में वह राह।
धर्म का ले-लेकर जो नाम हुआ करती बलि, कर दी बन्द।
हमीं ने दिया शन्ति-संदेश, सुखी होते देकर आनन्द।
विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही, धरा का धूम।
भिक्षु होकर रहते सम्राट दया दिखलाते घर-घर धूम।
यवन को दिया दया का दान चीन को मिली धर्म की दृष्टि।
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्म शील की सिंहल को भी सृष्टि।
किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं।
हमारी जन्म-भूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं।
जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड सभीर।
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर।
चरित् थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा सम्पन्न।
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख ना सके विपन्न।
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव।
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव।
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान।
वही है शान्ति, वही शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-सन्तान।
जियें तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष।
निछावर कर दें, हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।
(मातृगुप्त का सम्बोधन गीत, पंचम अंक, पंचम दृश्य)

नर्तकी का गीत
भाव-निधि में लहरियाँ उठतीं तभी, भूलकर भी जब स्मरण होता कभी।
मधुर मुरली फूँक दी तुमने भला, नींद मुझको आ चली थी बस अभी।
सब रगों में फिर रही हैं बिजलियाँ नील नीरद ! क्या न बरसोगे कभी ?
एक झोंका और मलयानिल अहा ! क्षुद्र कालिका है खिली जाती अभी।
कौन मर-मर जियेगा इस तरह, यह समस्या हल न होगी क्या कभी ?
(नर्तकी का गीत, चतुर्थ अंक, द्वितीय दृश्य)

देवसेना का गीत
शून्य गगन में खोजता जैसे चन्द्र निराश,
राका में रमणीय अब किसका प्रकाश।
हृदय ! तू खोजता किसको छिपा है कौन-सा तुझमें,
मचलता है बता क्या दूँ छिपा तुझसे न कुछ मुझमें।
रस-निधि में जीवन रहा, मिटी न फिर भी प्यास,
मुँह खोले मुक्तामयी सीपी स्वाती आस।
हृदय तू है बना जलनिधि लहरियाँ खेलतीं तुझमें,
मिला अब कौन-सा नवरत्न जो पहले न था तुझमें।
(देवसेना का गीत, पंचम अंक, द्वितीय दृश्य)

देवसेना का गीत 
देश की दुर्दशा निहारोगे, डूबते को कभी उबारोगे ?
हारते ही रहे, न है कुछ अब, दाँव पर आपको न हारोगे ?
कुछ करोगे कि बस सदा रोकर, दीन हो दैव को पुकारोगे !
सो रहे तुम, न भाग्य सोता है, आप बिगड़ी तुम्ही सँवारोगे।
दीन जीवन बिता रहे अब तक, क्या हुए जा रहे, विचारोगे ?
(देवसेना का गीत, पंचम अंक, तृतीय दृश्य)

देवसेना का गीत
 आह ! वेदना मिली विदाई।
मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई।
छलछल थे संध्या के श्रमकण, आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण।
मेरी यात्रा पर लेती थीनीरवता अनन्य अँगड़ाई।
श्रमित स्वप्न की मधुमाया में, गहन-विपिन की तरु छाया में।
पथिक उनींदी श्रुति में किसनेयह विहाग की तान उठाई।
लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी, रही बचाए फिरती कब की।
मेरी आशा आह! बावली, तूने खो दी सकल कमाई।
चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर, प्रलय चल रहा अपने पथ पर।
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर, उससे हारी-होड़ लगाई।
लौटा लो यह अपनी थाती, मेरी करुणा हा-हा खाती।
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे, इसने मन की लाज गँवाई।
(देवसेना का गीत, पंचम अंक, छठा दृश्य)