चन्द्रगुप्त नाटक के गीत : Hindi Sahitya Vimarsh
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• सुवासिनी का गीत
तुम कनक किरन के अंतराल में
लुक छिप कर चलते हो क्यों ?
नत मस्तक गवर् वहन करते
यौवन के घन रस कन झरते
हे लाज भरे सौंदर्य बता दो
मोन बने रहते हो क्यो?
अधरों के मधुर कगारों में
कल कल ध्वनि की गुंजारों में
मधु सरिता सी यह हंसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?
बेला विभ्रम की बीत चली
रजनीगंधा की कली खिली
अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल
कलित हो यों छिपते हो क्यों?
(सुवासिनी का भावपूर्ण गीत, प्रथम अंक, द्वितीय दृश्य)
• सुवासिनी का गीत
आज इस यौवन के माधवी कुंज में कोकिल बोल रहा !
मधु पीकर पागल हुआ, करता प्रेम-प्रलाप,
शिथिल हुआ जाता हृदय, जैसे अपने आप !
आज के बंधन खोल रहा !
बिछल रही है चांदनी —छवि-मतवाली रात,
कहती कम्पित अधर से, बहकाने की बात !
कौन मधु-मदिरा घोल रहा ?
(सुवासिनी का गीत, तृतीय अंक, पंचम दृश्य)
• राक्षस का गीत
निकल मत बाहर दुर्बल आह लगेगा तुझे हँसी का शीत
शरद नीरद माला के बीच तड़प ले चपली सी भयभीत ।
पड़ रहे पावन प्रेम-फुहार जलन कुछ-कुछ है मीठी पीर
सम्हाले चल कितनी है दूर प्रलय तक व्याकुल न हो अधीर
अश्रुमय सुन्दर बिरह निशीत भरे तारे न ढुलकते आह !
न उफना दे आँसू हैं भरे इन आँखों में उनकी चाह
काकला-सी बनने की तुम्हें लगन लग जाय न हे भगवान
पपीहा का पी न सुनता कभी अरे कोकिल की देख दशा न,
हृदय है पास, साँस की
राह चले आना-जाना चुपचाप
अरे छाया बन छू मत उसे भरा है तुझमें भीषण ताप
हिलाकर धड़कन से अविनीत जगा मत सोया है सुकुमार
देखता है स्मृतियों का स्वप्न हृदय पर मत कर अत्याचार।
(राक्षस का सुवासिनी के सम्मुख गाया गया गीत, प्रथम अंक, द्वितीय दृश्य)
• कार्नेलिया का गीत
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।
सरस तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।
लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।
बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा।
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मन्दिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा।
(कार्नेलिया का गीत, द्वितीय अंक, प्रथम दृश्य)
• कार्नेलिया का गीत
सखे ! यह प्रेममयी रजनी।
आँखों में स्वप्न बनी, सखे ! वह प्रेममयी
रजनी।
कोमल द्रुमदल निष्कंप रहे,
ठिठका-सा चंद्र खड़ा
माधव सुमनों में गूँथ-रहा,
तारों की किरन-अनी, सखे ! वह प्रेममयी
रजनी।
नयनों में मदिर विलास लिए
उज्ज्वल आलोक खिला।
हँसती-सी सूरभि सुधार रही,
अलकों की मृदुल अनी। सखे ! वह प्रेममयी रजनी।
मधु-मंदिर-सा यह विश्व बना,
मीठी झंकार उठी !
केवल तुमको थी देख रही— स्मृतियों की भोड़ घनी। सखे ! यह प्रेममयी रजनी।
(कार्नेलिया का गीत, चतुर्थ अंक, नवाँ दृश्य)
• अलका का गीत
प्रथम यौवन-मदिरा से मत्त, प्रेम करने की थी परवाह
और किसको देना है ह्रदय, चीन्हने की न तनिक थी चाह ।
बेच डाला था ह्रदय अमोल, आज वह मांग रहा था दाम
वेदना मिली तुला पर टोल, उसे लोभी ने ली बेकाम ।
उड़ रही है हृत्पथ में धूल आ रहे हो तुम बे-परवाह
करूं क्या दृग-जल से छिडकाव, बनाऊं मैं यह बिछलन राह ।
संभलते धीरे धीरे चलो, इसी मिस तुमको लगे विलम्ब
सफल हो जीवन की सब साध, मिले आशा को कुछ अवलम्ब
विश्व की सुषमाओं का स्रोत, बह चलेगा आँखों की राह
और दुर्लभ होगी पहचान, रूप रत्नाकर भरा अथाह ।
(अलका का गीत, द्वितीय अंक, पंचम दृश्य)
• अलका का गीत
बिखरी किरन अलक व्याकुल हो विरस वदन पर चिंता लेख,
छायापथ में राह देखती गिनती प्रणय-अवधि की रेख।
प्रियतम के आगमन-पंथ में उड़ न रही है कोमल धूल,
कादंबिनी उठी यह ढँकने वाली दूर जलधि के कूल।
समय-विहग के कृष्णपक्ष में रजत चित्र-सी अंकित कौन?
तुम हो सुंदरि तरल तारिके ! बोलो कुछ, बैठो मत मौन !
मंदाकिनी समीप भरी फिर प्यासी आँखें क्यों नादान।
रूप-निशा की उषा में फिर कौन सुनेगा तेरा गान !
(अलका का गीत, द्वितीय अंक, सप्तम दृश्य)
• अलका का गीत
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती—
'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है— बढ़े चलो, बढ़े चलो !'
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी।
सपूत मातृभूमि के, रुको न शूर साहसी
!
अराति सैन्य सिंधु में —सुवाड़वाग्नि से जलो
!
प्रवीर हो जयी बनो — बढ़े चलो, बढ़े चलो !
(अलका का गीत, चतुर्थ अंक, छठा दृश्य)
• कल्याणी का गीत
सुधा सीकर से नहला दो !
लहरें डूब रही हों रस में,
रह न जाएँ वे अपने बस में,
रूप-राशि इस व्यथित हृदय सागर को — बहला दो !
अंधकार उजला हो जाए,
हँसी हंसमाला मंडराए,
मधु राका आगमन कलरवों के मिस —कहला दो !
करुणा के अंचल पर निखरे,
घायल आँसू हैं जो बिखरे,
ये मोती बन जाएँ मृदुल कर से लो —सहला दो !
(कल्याणी का गीत, चतुर्थ अंक, प्रथम दृश्य)
• नेपथ्य से गान
कैसी कड़ी रूप की ज्वाला ?
पड़ता है पतंग-सा इसमें मन होकर मतवाला,
सांध्य गगन-सी रागमयी यह बड़ी तीव्र है हाला,
लो श्रृंखला से न कड़ी क्या— यह फूलों की माला?
(नेपथ्य से गान, चतुर्थ अंक, द्वितीय दृश्य)
• मालविका का गीत
मधुप कब एक कली का है !
पाया जिसमें प्रेम रस, सौरभ और सुहाग,
बेसुध हो उस कली से, मिलता भर अनुराग,
बिहारी — कुंजगली का है।
कुसुम धूल से धूसरित, चलता है उस राह,
कांटों से उलझा तदपि, रही लगन की चाह,
बाबला —रंगरली का है।
हो मल्लिका, सरोजिनी, या यूथी का पुंज,
अलि को केवल चाहिए, सुखमय क्रीड़ा-कुंज,
मधुप कब एक कली का है !
(मालविका गाती है चन्द्रगुप्त के कहने
पर, चतुर्थ अंक, चौथा दृश्य)
• मालविका का गीत
बज रही बंसी आठो याम की
अब तक गूँज रही है बोली प्यारे मुख
अभिराम की,
हुए चपल मृगनैन मोहवश बजी विपंची काम
की,
रूप-सुधा के दो दृग प्यालों ने ही मति
बेकाम की !
बज रही वंशी आठो याम की।
(मालविका गाती है चन्द्रगुप्त के
कहने पर, चतुर्थ अंक, चौथा दृश्य)
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