रविवार, 27 जनवरी 2019

प्रश्न हंसकर कह उठा — माखनलाल चतुर्वेदी 'एक भारतीय आत्मा' : Hindi Sahitya Vimarsh


प्रश्न हंसकर कहउठा — माखनलाल चतुर्वेदी 'एक भारतीय आत्मा' : Hindi SahityaVimarsh


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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास


मैं स्वयं युग की भुजा चेतन चिरंतन
नींव हूं मैं जागरण की संचरण की,
मैं स्वयं हूं सूझ की अंगड़ाइयों में,
प्राण-बलि की खाइयों में खेलता हूं।
मैं विचारों का नियंत्रक सारथी हूं,
मैं न अणु का दास हूं, स्वामी रहा हूं
ब्रज से, बलि से, विनय से बाज़ुओं से
एक स्वर, बस, एक स्वर लिखता रहा हूं।
मैं अमृत की जय, मरण का भय नहीं हूं
नियति हूं, निर्माण हूं, बलिदान हूं मैं, ज़िंदगी हूं, साधना हूं ज्ञान हूं मैं
सूझ हूं, श्रम हूं, प्रखर आदित्य हूं मैं
मैं ज़माना हूं, स्वयं साहित्य हूं मैं ¡
एशिया की आन में गढ़ता खड़ा हूं,
विश्व की आन मैं गढ़ता खड़ा हूं,
बाढ़ में, तूफ़ान में इंसान हूं मैं,
शीश पर हिमगिरि लिए पहचान हूं मैं ¡
उठो, जीवन से न कतराओ हो, खिलो तुम,
उठो, जीवन आ गया, हंस कर मिलो तो तुम।

शुक्रवार, 25 जनवरी 2019

राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह : Hindi Sahitya Vimarsh


राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह : Hindi Sahitya Vimarsh

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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास

प्रसिद्ध शैली-सम्राट और कथाकार राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह (10 सितम्बर 1890 ई.—24 मार्च 1971 ई., शाहाबाद, बिहार के सूर्यपुरा नामक स्थान में) के प्रसिद्ध ज़मींदार राजा राजराजेश्वरी सिंह प्यारेके सुपुत्र थे।
रचनाएँ :
कहानी-संग्रह : कुसुमांजलि (1912 ई.), अपना पराया, गांधी टोपी, धर्मधुरी, बिखरे मोती (भाग-1, 1965 ई., भाग-2,3 1966 ई.)
कहानियाँ : कानों में कंगना (1913 ई.), गाँधी टोपी (1938 ई.), मरीचिका, सावनी समाँ (1938 ई.), नारी क्या एक पहेली? (1951 ई.), हवेली और झोपड़ी (1951 ई.), देव और दानव (1951 ई.), वे और हम (1956 ई.), धर्म और मर्म (1959 ई.), तब और अब (1958 ई.), अबला क्या ऐसी सबला? (1962 ई.), ई.), पैसे की अनी, कर्त्तव्य की बलिवेदी, ऐसा महंगा सौदा?, मां, भगवान जाग उठा !, ज़बान का मसला, बाप की रोटी।
उपन्यास : राम-रहीम (1936 ई.), पुरुष और नारी (1939 ई.), सूरदास (1942 ई.), संस्कार (1944 ई.), पूरब और पश्चिम (1951 ई.), चुंबन और चाँटा (1957 ई.)।
लघु उपन्यास : नवजीवन (1912 ई.), तरंग (1920 ई.), माया मिली न राम (1936 ई.), मॉडर्न कौन, सुंदर कौन (1964 ई.) और अपनी-अपनी नज़र, अपनी-अपनी डगर (1966 ई.)।
नाटक : नये रिफारमर या नवीन सुधारक (1911 ई.), धर्म की धुरी (1952 ई.), अपना पराया (1953 ई.) और नज़र बदली बदल गए नज़ारे (1961 ई.)।
संस्मरण : सावनी सभा, टूटातारा (1941 ई.), सूरदास।
गद्यकाव्य : नवजीवन, प्रेम लहरी।

संरक्षण : बिहार की प्रसिद्ध मासिक हिंदी पत्रिका ‘नई-धाराराधिकारमण प्रसाद सिंह जी के ही संरक्षण में प्रकाशित होती रही।

1920 ई. में बेतिया में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के द्वितीय वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्ष मनोनित, इस सम्मेलन के पंद्रहवें अधिवेशन (आरा, 1936 ई.) के वे स्वगताध्यक्ष थे। आरा नगरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी हुए थे।

सम्मान व पुरस्कार 

1969 ई. डॉक्टरेट की मानद उपाधि 23 जनवरी1969 को मगध विश्वविद्यालय ने उनको सम्माजनक डॉक्टरेट की उपाधि।

गुरुवार, 24 जनवरी 2019

कानों में कंगना (राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह) : Hindi Sahitya Vimarsh


कानों में कंगना (राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह) : Hindi Sahitya Vimarsh

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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास

प्रसिद्ध शैली-सम्राट और कथाकार राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह (10 सितम्बर 1890 ई.24 मार्च 1971 ई., शाहाबाद, बिहार) रचित कहानी 'कानों में कंगना' (1913 ई.) NTA/UGCNET/JRF के पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। यह एक वनवासी योगीश्वर की पुत्री — वनचारिणी अपूर्व किन्नर सुन्दरी — किरन के अलौकिक प्रेम की कहानी है। परीक्षार्थियों के लाभार्थ ब्लॉग में दी जा रही है —


1

"किरन! तुम्हारे कानों में क्या है?"
उसने कानों से चंचल लट को हटाकर कहा, "कंगना।"
"अरे! कानों में कंगना?" सचमुच दो कंगन कानों को घेरकर बैठे थे।
"हां, तब कहां पहनूं?"
किरन अभी भोरी थी। दुनिया में जिसे भोरी कहते हैं, वैसी भोरी नहीं। उसे वन के फूलों का भोलापन समझो। नवीन चमन के फूलों की भंगी नहीं; विविध खाद या रस से जिनकी जीविका है, निरन्तर काट-छांट से जिनका सौन्दर्य है, जो दो घड़ी चंचल चिकने बाल की भूषा है — दो घड़ी तुम्हारे फूलदान की शोभा। वन के फूल ऐसे नहीं। प्रकृति के हाथों से लगे हैं। मेघों की धारा से बढ़े हैं। चटुल दृष्टि इन्हें पाती नहीं। जगद्वायु इन्हें छूती नहीं। यह सरल सुन्दर सौरभमय जीवन हैं। जब जीवित रहे, तब चारों तरफ़ अपने प्राणधन से हरे-भरे रहे, जब समय आया, तब अपनी मां की गोद में झड़ पड़े।
आकाश स्वचछ था — नील, उदार सुन्दर। पत्ते शान्त थे। सन्ध्या हो चली थी। सुनहरी किरनें सुदूर पर्वत की चूड़ा से देख रही थीं। वह पतली किरन अपनी मृत्यु-शैया से इस शून्य निविड़ कानन में क्या ढूंढ़ रही थी, कौन कहे! किसे एकटक देखती थी, कौन जाने! अपनी लीला-भूमि को स्नेह करना चाहती थी या हमारे बाद वहां क्या हो रहा है, इसे जोहती थी — मैं क्या बता सकूं? जो हो, उसकी उस भंगी में आकांक्षा अवश्य थी। मैं तो खड़ा-खड़ उन बड़ी आंखों की किरन लूटता था। आकाश में तारों को देखा या उन जगमग आंखों को देखा, बात एक ही थी। हम दूर से तारों के सुन्दर शून्य झिकमिक को बार-बार देखते हैं, लेकिन वह सस्पन्द निश्चेष्ट ज्योति सचमुच भावहीन है या आप-ही-आप अपनी अन्तर-लहरी से मस्त है, इसे जानना आसान नहीं। हमारी ऐसी आंखें कहां कि उनके सहारे उस निगूढ़ अन्तर में डूबकर थाह लें।
मैं रसाल की डोली थामकर पास ही खड़ा था। वह बालों को हटाकर कंगन दिखाने की भंगी प्राणों में रह-रहकर उठती थी। जब माखन चुराने वाले ने गोपियों के सर के मटके को तोड़कर उनके भीतर क़िले को तोड़ डाला या नूरजहाँ ने अंचल से कबूतर को उड़ाकर शाहंशाह के कठोर हृदय की धज्जियां उड़ा दीं, फिर नदी के किनारे बसन्त-बल्ल्भ रसाल पल्लवों की छाया में बैठी किसी अपरूप बालिका की यह सरल स्निग्ध भंगिमा एक मानव-अन्तर पर क्यों न दौड़े।
किरन इन आंखों के सामने प्रतिदिन आती ही जाती थी। कभी आम के टिकोरे से आंचल भर लाती, कभी मौलसिरी के फूलों की माला बना लाती, लेकिन कभी भी ऐसी बाल-सुलभ लीला आंखों से होकर हृदय तक नहीं उतरी। आज क्या था, कौन शुभ या अशुभ क्षण था कि अचानक वह बनैली लता मंदार माला से भी कहीं मनोरम दीख पड़ी। कौन जानता था कि चाल से कुचाल जाने में — हाथों से कंगन भूलकर कानों में पहिनने में - इतनी माधुरी है। दो टके के कंगने में इतनी शक्ति है। गोपियों को कभी स्वप्न में भी नहीं झलका था कि बांस की बांसुरी में घूंघट खोलकर नचा देनेवाली शक्ति भरी है।
मैंने चटपट उसके कानों से कंगन उतार लिया। फिर धीरे-धीरे उसकी उंगुलियों पर चढ़ाने लगा। न जाने उस घड़ी कैसी खलबली थी। मुंह से अचानक निकल आया —
"किरन! आज की यह घटना मुझे मरते दम तक न भूलेगी। यह भीतर तक पैठ गई।"
उसकी बड़ी-बड़ी आंखें और भी बड़ी हो गईं। मुझे चोट-सी लगी। मैं तत्क्षण योगीश्वर की कुटी की तरफ़ चल दिया। प्राण भी उसी समय नहीं चल दिये, यही विस्मय था।
2
एक दिन था कि इसी दुनिया में दुनिया से दूर रहकर लोग दूसरी दुनिया का सुख उठाते थे। हरिचन्दन के पल्लवों की छाया भूलोक पर कहां मिले; लेकिन किसी समय हमारे यहां भी ऐसे वन थे, जिनके वृक्षों के साये में घड़ी निवारने के लिए स्वर्ग से देवता भी उतर आते थे। जिस पंचवटी का अनन्त यौवन देखकर राम की आंखें भी खिल उठी थीं वहां के निवासियों ने कभी अमरतरु के फूलों की माला नहीं चाही, मन्दाकिनी के छींटों की शीतलता नहीं ढूंढ़ी। नन्दनोपवन का सानी कहीं वन भी था! कल्पवृक्ष की छाया में शान्ति अवश्य है; लेकिन कदम की छहियां कहां मिल सकती। हमारी-तुम्हारी आंखों ने कभी नन्दनोत्सव की लीला नहीं देखी; लेकिन इसी भूतल पर एक दिन ऐसा उत्सव हो चुका है, जिसको देख-देखकर प्रकृति तथा रजनी छह महीने तक ठगी रहीं, शत-शत देवांगनाओं ने पारिजात के फूलों की वर्षा से नन्दन कानन को उजाड़ डाला।
समय ने सब कुछ पलट दिया। अब ऐसे वन नहीं, जहां कृष्ण गोलोक से उतरकर दो घड़ी वंशी की टेर दें। ऐसे कुटीर नहीं जिनके दर्शन से रामचन्द्र का भी अन्तर प्रसन्न हो, या ऐसे मुनीश नहीं जो धर्मधुरन्धर धर्मराज को भी धर्म में शिक्षा दें। यदि एक-दो भूले-भटके हों भी, तब अभी तक उन पर दुनिया का परदा नहीं उठा — जगन्माया की माया नहीं लगी। लेकिन वे कब तक बचे रहेंगे? लोक अपने यहां अलौकिक बातें कब तक होने देगा! भवसागर की जल-तरंगों पर थिर होना कब सम्भव है?
हृषीकेश के पास एक सुन्दर वन है; सुन्दर नहीं अपरूप सुन्दर है। वह प्रमोदवन के विलास-निकुंजों जैसा सुन्दर नहीं, वरंच चित्रकूट या पंचवटी की महिमा से मण्डित है। वहां चिकनी चांदनी में बैठकर कनक घुंघरू की इच्छा नहीं होती, वरंच प्राणों में एक ऐसी आवेश-धारा उठती है, जो कभी अनन्त साधना के कूल पर पहुंचाती है — कभी जीव-जगत के एक-एक तत्व से दौड़ मिलती है। गंगा की अनन्त गरिमा — वन की निविड़ योग निद्रा वहीं देख पड़ेगी। कौन कहे, वहाँ जाकर यह चंचल चित्त क्या चाहता है — गम्भीर अलौकिक आनन्द या शान्त सुन्दर मरण।
इसी वन में एक कुटी बनाकर योगीश्वर रहते थे। योगीश्वर योगीश्वर ही थे। यद्दापि वह भूतल ही पर रहते थे, तथापि उन्हें इस लोग का जीव कहना यथार्थ नहीं था। उनकी चित्तवृत्ति सरस्वती के श्रीचरणों में थी या ब्रह्मलोक की अनन्त शान्ति में लिपटी थी। और वह बालिका — स्वर्ग से एक रश्मि उतरकर उस घने जंगल में उजेला करती फिरती थी। वह लौकिक मायाबद्ध जीवन नहीं था। इसे बन्धन-रहित बाधाहीन नाचती किरनों की लेखा कहिए — मानो निर्मुक्त चंचल मलय वायु फूल-फूल पर, डाली-डाली पर डोलती फिरती हो या कोई मूर्तिमान अमर संगीत बेरोकटोक हवा पर या जल की तरंग-भंग पर नाच रहा हो। मैं ही वहां इस लोक का प्रतिनिधि था। मैं ही उन्हें उनकी अलौकिक स्थिति से इस जटिल मर्त्य-राज्य में खींच लाता था।
कुछ साल से मैं योगीश्वर के यहां आता-जाता था। पिता की आज्ञा थी कि उनके यहां जाकर अपने धर्म के सब ग्रन्थ पढ़ डालो। योगीश्वर और बाबा लड़कपन के साथी थे। इसीलिए उनकी मुझ पर इतनी दया थी। किरन उनकी लड़की थी। उस कुटीर में एक वही दीपक थी। जिस दिन की घटना मैं लिख आया हूं, उसी दिन सबेरे मेरे अध्ययन की पूर्णाहुति थी और बाबा के कहने पर एक जोड़ा पीताम्बर, पांच स्वर्णमुद्राएं तथा किरन के लिए दो कनक-कंगन आचार्य के निकट ले गया था। योगीश्वर ने सब लौटा दिये, केवल कंगन को किरन उठा ले गई।
वह क्या समझकर चुप रह गये। समय का अद्भुत चक्र है। जिस दिन मैंने धर्मग्रन्थ से मुंह मोड़ा, उसी दिन कामदेव ने वहां जाकर उनकी किताब का पहला सफा उलटा।
दूसरे दिन मैं योगीश्वर से मिलने गया। वह किरन को पास बिठा कर न जाने क्या पढ़ा रहे थे। उनकी आंखें गम्भीर थीं। मुझको देखते ही वह उठ पड़े और मेरे कन्धों पर हाथ रखकर गदगद स्वर से बोले, "नरेन्द्र! अब मैं चला, किरन तुम्हारे हवाले है।" यह कहकर किसी की सुकोमल उंगुलियाँ मेरे हाथों में रख दीं। लोचनों के कोने पर दो बूंदें निकलकर झांक पड़ीं। मैं सहम उठा। क्या उन पर सब बातें विदित थीं? क्या उनकी तीव्र दृष्टि मेरी अन्तर-लहरी तक डूब चुकी थी? वह ठहरे नहीं, चल दिये। मैं कांपता रह गया, किरन देखती रह गई।
सन्नाटा छा गया। वन-वायु भी चुप हो चली। हम दोनों भी चुप चल पड़े, किरन मेरे कन्धे पर थी। हठात अन्तर से कोई अकड़कर कह उठा, "हाय नरेन्द्र! यह क्या! तुम इस वनफूल को किस चमन में ले चले? इस बन्धन-विहीन स्वर्गीय जीवन को किस लोकजाल में बांधने चले?"
3
कंकड़ी जल में जाकर कोई स्थायी विवर नहीं फोड़ सकती। क्षण भर जल का समतल भले ही उलट-पुलट हो, लेकिन इधर-उधर से जलतरंग दौड़कर उस छिद्र का नाम-निशान भी नहीं रहने देती। जगत् की भी यही चाल है। यदि स्वर्ग से देवेन्द्र भी आकर इस लोक चलाचल में खड़े हों, फिर संसार देखते ही देखते उन्हें अपना बना लेगा। इस काली कोठरी में आकर इसकी कालिमा से बचे रहें, ऐसी शक्ति अब आकाश-कुसुम ही समझो। दो दिन में राम 'हाय जानकी, हाय जानकी' कहकर वन-वन डोलते फिरे। दो क्षण में यही विश्वामित्र को भी स्वर्ग से घसीट लाया।
किरन की भी यही अवस्था हुई। कहां प्रकृति की निर्मुक्त गोद, कहां जगत् का जटिल बन्धन-पाश। कहां से कहां आ पड़ी! वह अलौकिक भोलापन, वह निसर्ग उच्छ्वास — हाथों-हाथ लुट गये। उस वनफूल की विमल कान्ति लौकिक चमन की मायावी मनोहारिता में परिणत हुई। अब आंखें उठाकर आकाश से नीरव बातचीत करने का अवसर कहां से मिले? मलयवायु से मिलकर मलयाचल के फूलों की पूछताछ क्योंकर हो?
जब किशोरी नये सांचे में ढलकर उतरी, उसे पहचानना भी कठिन था। वह अब लाल चोली, हरी साड़ी पहनकर, सर पर सिन्दूर-रेखा सजती और हाथों के कंगन, कानों की बाली, गले की कण्ठी तथा कमर की करधनी — दिन-दिन उसके चित्त को नचाये मारती थी। जब कभी वह सज-धजकर चांदनी में कोठे पर उठती और वसन्तवायु उसके आंचल से मोतिया की लपट लाकर मेरे बरामदे में भर देता, फिर किसी मतवाली माधुरी या तीव्र मदिरा के नशे में मेरा मस्तिष्क घूम जाता और मैं चटपट अपना प्रेम चीत्कार फूलदार रंगीन चिट्ठी में भरकर जुही के हाथ ऊपर भेजवाता या बाजार से दौड़कर कटकी गहने वा विलायती चूड़ी ख़रीद लाता। लेकिन जो हो — अब भी कभी-कभी उसके प्रफुल्ल वदन पर उस अलोक-आलोक की छटा पूर्वजन्म की सुखस्मृतिवत चली आती थी, और आंखें उसी जीवन्त सुन्दर झिकमिक का नाज दिखाती थीं। जब अन्तर प्रसन्न था, फिर बाहरी चेष्टा पर प्रतिबिम्ब क्यों न पड़े।
यों ही साल-दो-साल मुरादाबाद में कट गये। एक दिन मोहन के यहां नाच देखने गया। वहीं किन्नरी से आंखें मिलीं, मिलीं क्या, लीन हो गईं। नवीन यौवन, कोकिल-कण्ठा, चतुर चंचल चेष्टा तथा मायावी चमक — अब चित्त को चलाने के लिए और क्या चाहिए। किन्नरी सचमुच किन्नरी ही थी नाचनेवाली नहीं, नचानेवाली थी। पहली बार देखकर उसे इस लोक की सुन्दरी समझना दुस्तर था। एक लपट जो लगती — किसी नशा-सी चढ़ जाती। यारों ने मुझे और भी चढ़ा दिया। आंखें मिलती-मिलती मिल गईं, हृदय को भी साथ-साथ घसीट ले गईं।
फिर क्या था — इतने दिनों की धर्मशिक्षा, शतवत्सर की पूज्य लक्ष्मी, बाप-दादों की कुल-प्रतिष्ठा, पत्नी से पवित्र-प्रेम एक-एक करके उस प्रतीप्त वासना-कुण्ड में भस्म होने लगे। अग्नि और भी बढ़ती गई। किन्नरी की चिकनी दृष्टि, चिकनी बातें घी बरसाती रहीं। घर-बार सब जल उठा। मैं भी निरन्तर जलने लगा, लेकिन ज्यों-ज्यों जलता गया, जलने की इच्छा जलाती रही।
पांच महीने कट गये — नशा उतरा नहीं। बनारसी साड़ी, पारसी जैकेट, मोती का हार, कटकी कर्णफूल - सब कुछ लाकर उस मायाकारी के अलक्तक-रंजित चरणों पर रखे। किरन हेमन्त की मालती बनी थी, जिस पर एक फूल नहीं — एक पल्लव नहीं। घर की वधू क्या करती? जो अनन्त सूत्र से बंधा था, जो अनंत जीवन का संगी था, वही हाथों-हाथ पराये के हाथ बिक गया — फिर ये तो दो दिन के चकमकी खिलौने थे, इन्हें शरीर बदलते क्या देर लगे। दिन भर बहानों की माला गूंथ-गूंथ किरन के गले में और शाम को मोती की माला उस नाचनेवाली के गले में सशंक निर्लज्ज डाल देना — यही मेरा जीवन निर्वाह था। एक दिन सारी बातें खुल गईं, किरन पछाड़ खाकर भूमि पर जा पड़ी। उसकी आंखों में आंसू न थे, मेरी आंखों में दया न थी।
बरसात की रात थी। रिमझिम बूंदों की झड़ी थी। चांदनी मेघों से आंख-मुंदौवल खेल रही थी। बिजली काले कपाट से बार-बार झांकती थी। किसे चंचला देखती थी तथा बादल किस मरोड़ से रह-रहकर चिल्लाते थे — इन्हें सोचने का मुझे अवसर नहीं था। मैं तो किन्नरी के दरवाज़े से हताश लौटा था; आंखों के ऊपर न चांदनी थी, न बदली थी। त्रिशंकु ने स्वर्ग को जाते-जाते बीच में ही टंगकर किस दुख को उठाया — और मैं तो अपने स्वर्ग के दरवाजे पर सर रखकर निराश लौटा था — मेरी वेदना क्यों न बड़ी हो।
हाय! मेरी अंगुलियों में एक अंगूठी भी रहती तो उसे नज़र कर उसके चरणों पर लोटता।
घर पर आते ही जुही को पुकार उठा, "जुही, किरन के पास कुछ भी बचा हो तब फ़ौरन जाकर मांग लाओ।"
ऊपर से कोई आवाज़ नहीं आई, केवल सर के ऊपर से एक काला बादल कालान्त चीत्कार के चिल्ला उठा। मेरा मस्तिष्क घूम गया। मैं तत्क्षण कोठे पर दौड़ा।
सब सन्दूक़ झांके, जो कुछ मिला, सब तोड़ डाला; लेकिन मिला कुछ भी नहीं। आलमारी में केवल मकड़े का जाल था। श्रृंगार बक्स में एक छिपकली बैठी थीं। उसी दम किरन पर झपटा।
पास जाते ही सहम गया। वह एक तकिये के सहारे नि:सहाय निस्पंद लेटी थी — केवल चांद ने खिड़की से होकर उसे गोद में ले रखा था और वायु उस शरीर पर जल से भिगोया पंखा झल रही थी। मुख पर एक अपरूप छटा थी; कौन कहे, कहीं जीवन की शेष रश्मि क्षण-भर वहीं अटकी हो। आंखों में एक जीवन ज्योति थी। शायद प्राण शरीर से निकलकर किसी आसरे से वहां पैठ रहा था। मैं फिर पुकार उठा, "किरन, किरन। तुम्हारे पास कोई गहना भी रहा है?"
"हां," - क्षीण कण्ठ की काकली थी।
"कहां हैं, अभी देखने दो।"
उसने धीरे से घूंघट सरका कर कहा, "वही कानों का कंगना।"
सर तकिये से ढल पड़ा — आंखें भी झिप गईं। वह जीवन्त रेखा कहां चली गई — क्या इतने ही के लिए अब तक ठहरी थी?
आंखें मुख पर जा पड़ीं — वही कंगन थे। वैसे ही कानों को घेरकर बैठे थे। मेरी स्मृति तड़ित वेग से नाच उठी। दुष्यन्त ने अंगूठी पहचान ली। भूली शकुन्तला उस पल याद आ गई; लेकिन दुष्यन्त सौभाग्यशाली थे, चक्रवर्ती राजा थे — अपनी प्राणप्रिया को आकाश-पाताल छानकर ढूंढ़ निकाला। मेरी किरन तो इस भूतल पर न थी कि किसी तरह प्राण देकर भी पता पाता। परलोक से ढूंढ़ निकालूं — ऐसी शक्ति इस दीन-हीन मानव में कहां ?
चढ़ा नशा उतर पड़ा। सारी बातें सूझ गईं — आंखों पर की पट्टी खुल पड़ी; लेकिन हाय! खुली भी तो उसी समय जब जीवन में केवल अन्धकार ही रह गया।

बुधवार, 23 जनवरी 2019

इंस्पेक्टर मातादीन चांद से लौट आए हैं — हरिशंकर परसाई : Hindi Sahitya Vimarsh




प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की यह व्यंग्यकथा 'इंस्पेक्टर मातादीन चांद से लौट आए हैं' NTA/UGCNET/JRF के पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। इसमें लेखक ने भारतीय पुलिस की कार्य-प्रणाली पर व्यंग्य किया है। परीक्षार्थियों के लाभार्थ ब्लॉग में दी जा रही है —

इंस्पेक्टर मातादीन चांद से लौट आए हैं हरिशंकर परसाई : Hindi Sahitya Vimarsh

वैज्ञानिक कहते हैं, चांद पर जीवन नहीं है।
सीनियर पुलिस इंस्पेक्टर मातादीन (डिपार्टमेंट में एम। डी। साब) कहते हैं : वैज्ञानिक झूठ बोलते हैं, वहां हमारे जैसे ही मनुष्य की आबादी है।
 विज्ञान ने हमेशा इन्स्पेक्टर मातादीन से मात खाई है। फ़िंगर प्रिंट विशेषज्ञ कहता रहता है : छुरे पर पाये गये निशान मुलजिम की अंगुलियों के नहीं हैं। पर मातादीन उसे सज़ा दिला ही देते हैं।
 मातादीन कहते हैं : ये वैज्ञानिक केस का पूरा इन्वेस्टीगेशन नहीं करते। उन्होंने चांद का उजला हिस्सा देखा और कह दिया, वहां जीवन नहीं है। मैं चांद का अंधेरा हिस्सा देखकर आया हूं। वहां मनुष्य जाति है।
यह बात सही है, क्योंकि अंधेरे पक्ष के मातादीन माहिर माने जाते हैं।
पूछा जाएगा, इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर क्यों गए थे? टूरिस्ट की हैसियत से या किसी फ़रार अपराधी को पकड़ने? नहीं, वे भारत की तरफ़ से सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अंतर्गत गए थे। चांद सरकार ने भारत सरकार को लिखा था- यों हमारी सभ्यता बहुत आगे बढ़ी है। पर हमारी पुलिस में पर्याप्त सक्षमता नहीं है। वह अपराधी का पता लगाने और उसे सज़ा दिलाने में अक्सर सफल नहीं होती। सुना है, आपके यहां रामराज है। मेहरबानी करके किसी पुलिस अफ़सर को भेजें जो हमारी पुलिस को शिक्षित कर दे।
गृहमंत्री ने सचिव से कहा- किसी आई. जी. को भेज दो।
सचिव ने कहा- नहीं सर, आई. जी. नहीं भेजा जा सकता। प्रोटोकॉल का सवाल है। चांद हमारा एक क्षुद्र उपग्रह है। आई. जी. के रैंक के आदमी को नहीं भेजेंगे। किसी सीनियर इंस्पेक्टर को भेज देता हूं।
तय किया गया कि हज़ारों मामलों के इन्वेस्टिगेटिंग ऑफ़िसर सीनियर इंस्पेक्टर मातादीन को भेज दिया जाय।
चांद की सरकार को लिख दिया गया कि आप मातादीन को लेने के लिए पृथ्वी-यान भेज दीजिये।
पुलिस मंत्री ने मातादीन को बुलाकर कहा- तुम भारतीय पुलिस की उज्ज्वल परंपरा के दूत की हैसियत से जा रहे हो। ऐसा काम करना कि सारे अंतरिक्ष में डिपार्टमेंट की ऐसी जय-जयकार हो कि पी.एम. (प्रधानमन्त्री) को भी सुनाई पड़ जाए।
मातादीन की यात्रा का दिन आ गया। एक यान अंतरिक्ष अड्डे पर उतरा। मातादीन सबसे विदा लेकर यान की तरफ़ बढ़े। वे धीरे-धीरे कहते जा रहे थे, ‘प्रविसि नगर कीजै सब काजा, ह्रदय राखि कौसलपुर राजा।
यान के पास पहुंचकर मातादीन ने मुंशी अब्दुल गफ़ूर को पुकारा- मुंशी!
गफ़ूर ने एड़ी मिलाकर सेल्यूट फटकारा। बोला- जी, पेक्टसा !
एफ. आई. आर. रख दी है?
जी, पेक्टसा।
और रोज़नामचे का नमूना?
जी, पेक्टसा !
वे यान में बैठने लगे। हवलदार बलभद्दर को बुलाकर कहा- हमारे घर में जचकी के बख़त अपने खटला (पत्नी) को मदद के लिए भेज देना।
बलभद्दर ने कहा- जी, पेक्टसा।
गफ़ूर ने कहा आप बेफ़िक्र रहें पेक्टसा ! मैं अपने मकान (पत्नी) को भी भेज दूंगा ख़िदमत के लिए।
मातादीन ने यान के चालक से पूछा ड्राइविंग लाइसेंस है?
जी, है साहब !
और गाड़ी में बत्ती ठीक है?
जी, ठीक है।
मातादीन ने कहा, सब ठीक-ठाक होना चाहिए, वरना हरामज़ादे का बीच अंतरिक्ष में चालान कर दूंगा।
चन्द्रमा से आये चालक ने कहा- हमारे यहां आदमी से इस तरह नहीं बोलते।
मातादीन ने कहा- जानता हूं बे ! तुम्हारी पुलिस कमज़ोर है। अभी मैं उसे ठीक करता हूं।
मातादीन यान में क़दम रख ही रहे थे कि हवलदार रामसजीवन भागता हुआ आया। बोला- पेक्टसा, एस.पी. साहब के घर में से कहे हैं कि चांद से एड़ी चमकाने का पत्थर लेते आना।
मातादीन ख़ुश हुए। बोले- कह देना बाई साब से, ज़रूर लेता आऊंगा।
वे यान में बैठे और यान उड़ चला। पृथ्वी के वायुमंडल से यान बाहर निकला ही था कि मातादीन ने चालक से कहा- अबे, हॉर्न क्यों नहीं बजाता?
चालक ने जवाब दिया- आसपास लाखों मील में कुछ नहीं है।
मातादीन ने डांटा- मगर रूल इज रूल। हॉर्न बजाता चल।
चालक अंतरिक्ष में हॉर्न बजाता हुआ यान को चांद पर उतार लाया। अंतरिक्ष अड्डे पर पुलिस अधिकारी मातादीन के स्वागत के लिए खड़े थे। मातादीन रोब से उतरे और उन अफ़सरों के कन्धों पर नज़र डाली। वहां किसी के स्टार नहीं थे। फ़ीते भी किसी के नहीं लगे थे। लिहाज़ा मातादीन ने एड़ी मिलाना और हाथ उठाना ज़रूरी नहीं समझा। फिर उन्होंने सोचा, मैं यहां इंस्पेक्टर की हैसियत से नहीं, सलाहकार की हैसियत से आया हूं।
मातादीन को वे लोग लाइन में ले गए और एक अच्छे बंगले में उन्हें टिका दिया।
एक दिन आराम करने के बाद मातादीन ने काम शुरू कर दिया। पहले उन्होंने पुलिस लाइन का मुलाहज़ा किया।
शाम को उन्होंने आई.जी. से कहा- आपके यहां पुलिस लाइन में हनुमानजी का मंदिर नहीं है। हमारे रामराज में पुलिस लाइन में हनुमानजी हैं।
आई।जी। ने कहा- हनुमान कौन थे- हम नहीं जानते।
मातादीन ने कहा- हनुमान का दर्शन हर कर्तव्यपरायण पुलिसवाले के लिए ज़रूरी है। हनुमान सुग्रीव के यहां स्पेशल ब्रांच में थे। उन्होंने सीता माता का पता लगाया था। एबडक्शनका मामला था- दफ़ा 362 हनुमानजी ने रावण को सज़ा वहीँ दे दी। उसकी प्रॉपर्टी में आग लगा दी। पुलिस को यह अधिकार होना चाहिए कि अपराधी को पकड़ा और वहीँ सज़ा दे दी। अदालत में जाने का झंझट नहीं। मगर यह सिस्टम अभी हमारे रामराज में भी चालू नहीं हुआ है। हनुमानजी के काम से भगवान राम बहुत ख़ुश हुए। वे उन्हें अयोध्या ले आए और टौन ड्यूटीमें तैनात कर दिया। वही हनुमान हमारे अराध्य देव हैं। मैं उनकी फ़ोटो लेता आया हूं। उसपर से मूर्तियां बनवाइए और हर पुलिस लाइन में स्थापित करवाइए।
थोड़े ही दिनों में चांद की हर पुलिस लाइन में हनुमानजी स्थापित हो गए।
मातादीनजी उन कारणों का अध्ययन कर रहे थे, जिनसे पुलिस लापरवाह और अलाल हो गयी है। वह अपराधों पर ध्यान नहीं देती। कोई कारण नहीं मिल रहा था। एकाएक उनकी बुद्धि में एक चमक आई।उन्होंने मुंशी से कहा- ज़रा तनख़ा का रजिस्टर बताओ।
तनख़ा का रजिस्टर देखा, तो सब समझ गए। कारण पकड़ में आ गया।
शाम को उन्होंने पुलिस मंत्री से कहा, मैं समझ गया कि आपकी पुलिस मुस्तैद क्यों नहीं है। आप इतनी बड़ी तनख़्वाहें देते हैं इसीलिए। सिपाही को पांच सौ, थानेदार को हज़ार- ये क्या मज़ाक़ है। आख़िर पुलिस अपराधी को क्यों पकड़े? हमारे यहां सिपाही को सौ और इंस्पेक्टर को दो सौ देते हैं तो वे चौबीस घंटे जुर्म की तलाश करते हैं। आप तनख़्वाहें फ़ौरन घटाइए।
पुलिस मंत्री ने कहा- मगर यह तो अन्याय होगा। अच्छा वेतन नहीं मिलेगा तो वे काम ही क्यों करेंगे?
मातादीन ने कहा- इसमें कोई अन्याय नहीं है। आप देखेंगे कि पहली घटी हुई तनख़ा मिलते ही आपकी पुलिस की मनोवृत्ति में क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा।
पुलिस मंत्री ने तनख़्वाहें घटा दीं और 2-3 महीनों में सचमुच बहुत फ़र्क़ आ गया। पुलिस एकदम मुस्तैद हो गई। सोते से एकदम जाग गई। चारों तरफ़ नज़र रखने लगी। अपराधियों की दुनिया में घबड़ाहट छा गई। पुलिस मंत्री ने तमाम थानों के रिकॉर्ड बुला कर देखे। पहले से कई गुने अधिक केस रजिस्टर हुए थे। उन्होंने मातादीन से कहा- मैं आपकी सूझ की तारीफ़ करता हूं। आपने क्रांति कर दी। पर यह हुआ किस तरह?
मातादीन ने समझाया-बात बहुत मामूली है। कम तनख़ा दोगे, तो मुलाज़िम की गुज़र नहीं होगी। सौ रुपयों में सिपाही बच्चों को नहीं पाल सकता। दो सौ में इंस्पेक्टर ठाठ-बाट नहीं मेनटेन कर सकता। उसे ऊपरी आमदनी करनी ही पड़ेगी। और ऊपरी आमदनी तभी होगी जब वह अपराधी को पकड़ेगा। गरज़ कि वह अपराधों पर नज़र रखेगा। सचेत, कर्तव्यपरायण और मुस्तैद हो जाएगा। हमारे रामराज के स्वच्छ और सक्षम प्रशासन का यही रहस्य है।
चंद्रलोक में इस चमत्कार की ख़बर फ़ैल गयी। लोग मातादीन को देखने आने लगे कि वह आदमी कैसा है जो तनख़ा कम करके सक्षमता ला देता है। पुलिस के लोग भी ख़ुश थे। वे कहते- गुरु, आप इधर न पधारते तो हम सभी कोरी तनख़ा से ही गुज़र करते रहते। सरकार भी ख़ुश थी कि मुनाफ़े का बजट बनने वाला था।
आधी समस्या हल हो गई। पुलिस अपराधी पकड़ने लगी थी। अब मामले की जांच-विधि में सुधार करना रह गया था। अपराधी को पकड़ने के बाद उसे सज़ा दिलाना। मातादीन इंतिज़ार कर रहे थे कि कोई बड़ा केस हो जाए तो नमूने के तौर पर उसका इन्वेस्टिगेशन कर बताएं।
एक दिन आपसी मारपीट में एक आदमी मारा गया। मातादीन कोतवाली में आकर बैठ गए और बोले- नमूने के लिए इस केस का इन्वेस्टिगेशनमैं करता हूं। आप लोग सीखिए। यह क़त्ल का केस है। क़त्ल के केस में एविडेंसबहुत पक्का होना चाहिए।
कोतवाल ने कहा- पहले क़ातिल का पता लगाया जाएगा, तभी तो एविडेंस इकठ्ठा किया जायगा।
मातादीन ने कहा- नहीं, उलटे मत चलो। पहले एविडेंस देखो। क्या कहीं ख़ून मिला? किसी के कपड़ों पर या और कहीं?
एक इंस्पेक्टर ने कहा- हां, मारनेवाले तो भाग गए थे। मृतक सड़क पर बेहोश पड़ा था। एक भला आदमी वहां रहता है। उसने उठाकर अस्पताल भेजा। उस भले आदमी के कपड़ों पर ख़ून के दाग लग गए हैं।
मातादीन ने कहा- उसे फ़ौरन गिरफ़्तार करो।
कोतवाल ने कहा- मगर उसने तो मरते हुए आदमी की मदद की थी।
मातादीन ने कहा- वह सब ठीक है। पर तुम ख़ून के दाग़ ढूंढने और कहां जाओगे? जो एविडेंस मिल रहा है, उसे तो क़ब्ज़े में करो।
वह भला आदमी पकड़कर बुलवा लिया गया। उसने कहा- मैंने तो मरते आदमी को अस्पताल भिजवाया था। मेरा क्या क़सूर है?
चांद की पुलिस उसकी बात से एकदम प्रभावित हुई। मातादीन प्रभावित नहीं हुए। सारा पुलिस महकमा उत्सुक था कि अब मातादीन क्या तर्क निकालते हैं।
मातादीन ने उससे कहा- पर तुम झगड़े की जगह गए क्यों?
उसने जवाब दिया- मैं झगड़े की जगह नहीं गया। मेरा वहां मकान है। झगड़ा मेरे मकान के सामने हुआ।
अब फिर मातादीन की प्रतिभा की परीक्षा थी। सारा महकमा उत्सुक देख रहा था।
मातादीन ने कहा- मकान तो ठीक है। पर मैं पूछता हूं, झगड़े की जगह जाना ही क्यों?
इस तर्क का कोई ज़वाब नहीं था। वह बार-बार कहता- मैं झगड़े की जगह नहीं गया। मेरा वहीँ मकान है।
मातादीन उसे जवाब देते- सो ठीक है, पर झगड़े की जगह जाना ही क्यों? इस तर्क-प्रणाली से पुलिस के लोग बहुत प्रभावित हुए।
अब मातादीनजी ने इन्वेस्टिगेशन का सिद्धांत समझाया-
देखो, आदमी मारा गया है, तो यह पक्का है किसी ने उसे ज़रूर मारा। कोई क़ातिल है। किसी को सज़ा होनी है। सवाल है- किसको सज़ा होनी है? पुलिस के लिए यह सवाल इतना महत्त्व नहीं रखता जितना यह सवाल कि जुर्म किस पर साबित हो सकता है या किस पर साबित होना चाहिए। क़त्ल हुआ है, तो किसी मनुष्य को सज़ा होगी ही। मारने वाले को होती है, या बेक़सूर को यह अपने सोचने की बात नहीं है। मनुष्य-मनुष्य सब बराबर हैं। सबमें उसी परमात्मा का अंश है। हम भेदभाव नहीं करते। यह पुलिस का मानवतावाद है।
दूसरा सवाल है, किस पर जुर्म साबित होना चाहिए। इसका निर्णय इन बातों से होगा- (1) क्या वह आदमी पुलिस के रास्ते में आता है? (2) क्या उसे सज़ा दिलाने से ऊपर के लोग ख़ुश होंगे?
मातादीन को बताया गया कि वह आदमी भला है, पर पुलिस अन्याय करे तो विरोध करता है। जहां तक ऊपर के लोगों का सवाल है- वह वर्तमान सरकार की विरोधी राजनीति वाला है।
मातादीन ने टेबिल ठोंककर कहा- फर्स्ट क्लास केस। पक्का एविडेंस। और ऊपर का सपोर्ट।
एक इंस्पेक्टर ने कहा- पर हमारे गले यह बात नहीं उतरती है कि एक निरपराध-भले आदमी को सज़ा दिलाई जाए।
मातादीन ने समझाया- देखो, मैं समझा चुका हूं कि सबमें उसी ईश्वर का अंश है। सज़ा इसे हो या क़ातिल को, फांसी पर तो ईश्वर ही चढ़ेगा न ! फिर तुम्हे कपड़ों पर ख़ून मिल रहा है। इसे छोड़कर तुम कहां ख़ून ढूंढते फिरोगे?  तुम तो भरो एफ. आई. आर. ।
मातादीन जी ने एफ. आई. आर. भरवा दी। बख़त ज़रूरत के लिएजगह ख़ाली छुड़वा दी।
दूसरे दिन पुलिस कोतवाल ने कहा- गुरुदेव, हमारी तो बड़ी आफ़त है। तमाम भले आदमी आते हैं और कहते है, उस बेचारे बेक़सूर को क्यों फंसा रहे हो? ऐसा तो चंद्रलोक में कभी नहीं हुआ ! बताइये, हम क्या जवाब दें? हम तो बहुत शर्मिंदा हैं।
        मातादीन ने कोतवाल से कहा- घबड़ाओ मत। शुरू-शुरू में इस काम में आदमी को शर्म आती है। आगे तुम्हें बेक़सूर को छोड़ने में शर्म आएगी। हर चीज़ का जवाब है। अब आपके पास जो आए उससे कह दो, हम जानते हैं वह निर्दोष है, पर हम क्या करें?  यह सब ऊपर से हो रहा है।
कोतवाल ने कहा- तब वे एस.पी. के पास जाएंगे।
मातादीन बोले- एस. पी. भी कह दें कि ऊपर से हो रहा है।
तब वे आई. जी. के पास शिकायत करेंगे।
आई. जी. भी कहें कि सब ऊपर से हो रहा है।
तब वे लोग पुलिस मंत्री के पास पहुंचेंगे।
पुलिस मंत्री भी कहेंगे- भैया, मैं क्या करूं? यह ऊपर से हो रहा है।
तो वे प्रधानमंत्री के पास जाएंगे।
प्रधानमंत्री भी कहें कि मैं जानता हूं, वह निर्दोष है, पर यह ऊपर से हो रहा है।
कोतवाल ने कहा- तब वे
मातादीन ने कहा- तब क्या? तब वे किसके पास जाएंगे?  भगवान के पास न ? मगर भगवान से पूछकर कौन लौट सका है?
कोतवाल चुप रह गया। वह इस महान प्रतिभा से चमत्कृत था।
मातादीन ने कहा- एक मुहावरा ऊपर से हो रहा हैहमारे देश में पच्चीस सालों से सरकारों को बचा रहा है। तुम इसे सीख लो।
केस की तैयारी होने लगी। मातादीन ने कहा- अब 4-6 चश्मदीद गवाह लाओ।
कोतवाल- चश्मदीद गवाह कैसे मिलेंगे? जब किसी ने उसे मारते देखा ही नहीं, तो चश्मदीद गवाह कोई कैसे होगा?
मातादीन ने सिर ठोंक लिया, किन बेवक़ूफ़ों के बीच फंसा दिया गवर्नमेंट ने। इन्हें तो ए-बी-सी-डी भी नहीं आती।
झल्लाकर कहा- चश्मदीद गवाह किसे कहते हैं, जानते हो? चश्मदीद गवाह वह नहीं है जो देखे- बल्कि वह है जो कहे कि मैंने देखा।
कोतवाल ने कहा- ऐसा कोई क्यों कहेगा?
मातादीन ने कहा- कहेगा। समझ में नहीं आता, कैसे डिपार्टमेंट चलाते हो ! अरे चश्मदीद गवाहों की लिस्ट पुलिस के पास पहले से रहती है। जहां ज़रूरत हुई, उन्हें चश्मदीद बना दिया। हमारे यहां ऐसे आदमी हैं, जो साल में 3-4 सौ वारदातों के चश्मदीद गवाह होते हैं। हमारी अदालतें भी मान लेती हैं कि इस आदमी में कोई दैवी शक्ति है जिससे जान लेता है कि अमुक जगह वारदात होने वाली है और वहां पहले से पहुंच जाता है। मैं तुम्हें चश्मदीद गवाह बनाकर देता हूं। 8-10 उठाईगीरों को बुलाओ, जो चोरी, मारपीट, गुंडागर्दी करते हों। जुआ खिलाते हों या शराब उतारते हों।
दूसरे दिन शहर के 8-10 नवरत्न कोतवाली में हाज़िर थे। उन्हें देखकर मातादीन गद्गद हो गए। बहुत दिन हो गए थे ऐसे लोगों को देखे। बड़ा सूना-सूना लग रहा था।
मातादीन का प्रेम उमड़ पड़ा। उनसे कहा- तुम लोगों ने उस आदमी को लाठी से मारते देखा था न?
वे बोले- नहीं देखा साब ! हम वहां थे ही नहीं।
मातादीन जानते थे, यह पहला मौक़ा है। फिर उन्होंने कहा- वहां नहीं थे, यह मैंने माना। पर लाठी मारते देखा तो था?
उन लोगों को लगा कि यह पागल आदमी है। तभी ऐसी उटपटांग बात कहता है। वे हंसने लगे।
मातादीन ने कहा- हंसो मत, जवाब दो।
वे बोले- जब थे ही नहीं, तो कैसे देखा?
मातादीन ने गुर्राकर देखा। कहा- कैसे देखा, सो बताता हूं। तुम लोग जो काम करते हो- सब इधर दर्ज़ है। हर एक को कम से कम दस साल जेल में डाला जा सकता है। तुम ये काम आगे भी करना चाहते हो या जेल जाना चाहते हो?
वे घबड़ाकर बोले साब, हम जेल नहीं जाना चाहते ।
मातादीन ने कहा- ठीक। तो तुमने उस आदमी को लाठी मारते देखा। देखा न ?
वे बोले- देखा साब। वह आदमी घर से निकला और जो लाठी मारना शुरू किया, तो वह बेचारा बेहोश होकर सड़क पर गिर पड़ा।
मातादीन ने कहा- ठीक है। आगे भी ऐसी वारदातें देखोगे?
वे बोले- साब , जो आप कहेंगे, सो देखेंगे।
कोतवाल इस चमत्कार से थोड़ी देर को बेहोश हो गया। होश आया तो मातादीन के चरणों पर गिर पड़ा।
मातादीन ने कहा- हटो। काम करने दो।
कोतवाल पांवों से लिपट गया। कहने लगा- मैं जीवन भर इन श्रीचरणों में पड़ा रहना चाहता हूं।
मातादीन ने आगे की सारी कार्यप्रणाली तय कर दी। एफ. आई. आर. बदलना, बीच में पन्ने डालना, रोज़नामचा बदलना, गवाहों को तोड़ना सब सिखा दिया।
उस आदमी को बीस साल की सज़ा हो गई।
चांद की पुलिस शिक्षित हो चुकी थी। धड़ाधड़ केस बनने लगे और सज़ा होने लगी। चांद की सरकार बहुत ख़ुश थी। पुलिस की ऐसी मुस्तैदी भारत सरकार के सहयोग का नतीजा था। चांद की संसद ने एक धन्यवाद का प्रस्ताव पास किया।
एक दिन मातादीनजी का सार्वजनिक अभिनंदन किया गया। वे फूलों से लदे खुली जीप पर बैठे थे। आसपास जय-जयकार करते हज़ारों लोग। वे हाथ जोड़कर अपने गृहमंत्री की स्टाइल में जवाब दे रहे थे।
ज़िंदगी में पहली बार ऐसा कर रहे थे, इसलिए थोड़ा अटपटा लग रहा था। छब्बीस साल पहले पुलिस में भरती होते वक़्त किसने सोचा था कि एक दिन दूसरे लोक में उनका ऐसा अभिनंदन होगा। वे पछताए- अच्छा होता कि इस मौक़े के लिए कुरता, टोपी और धोती ले आते।
भारत के पुलिस मंत्री टेलीविज़न पर बैठे यह दृश्य देख रहे थे और सोच रहे थे, मेरी सद्भावना यात्रा के लिए वातावरण बन गया।
कुछ महीने निकल गए।
एक दिन चांद की संसद का विशेष अधिवेशन बुलाया गया। बहुत तूफ़ान खड़ा हुआ। गुप्त अधिवेशन था, इसलिए रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हुई पर संसद की दीवारों से टकराकर कुछ शब्द बाहर आए।
सदस्य ग़ुस्से से चिल्ला रहे थे—
कोई बीमार बाप का इलाज नहीं कराता।
डूबते बच्चों को कोई नहीं बचाता।
जलते मकान की आग कोई नहीं बुझाता।
आदमी जानवर से बदतर हो गया । सरकार फ़ौरन इस्तीफ़ा दे।
दूसरे दिन चांद के प्रधानमंत्री ने मातादीन को बुलाया। मातादीन ने देखा वे एकदम बूढ़े हो गए थे। लगा, ये कई रात सोए नहीं हैं।
रुंआसे होकर प्रधानमंत्री ने कहा- मातादीनजी, हम आपके और भारत सरकार के बहुत आभारी हैं। अब आप कल देश वापस लौट जाइये।
मातादीन ने कहा- मैं तो टर्मख़त्म करके ही जाऊंगा।
प्रधानमंत्री ने कहा- आप बाक़ी टर्मका वेतन ले जाइये- डबल ले जाइए, तिबल ले जाइये।
मातादीन ने कहा- हमारा सिद्धांत है : हमें पैसा नहीं, काम प्यारा है।
आख़िर चांद के प्रधानमंत्री ने भारत के प्रधानमंत्री को एक गुप्त पत्र लिखा।
चौथे दिन मातादीनजी को वापस लौटने के लिए अपने आई. जी. का आर्डर मिल गया।
उन्होंने एस. पी. साहब के घर के लिए एड़ी चमकाने का पत्थर यान में रखा और चांद से विदा हो गए।
उन्हें जाते देख पुलिसवाले रो पड़े।
बहुत अरसे तक यह रहस्य बना रहा कि आख़िर चांद में ऐसा क्या हो गया कि मातादीनजी को इस तरह एकदम लौटना पड़ा। चांद के प्रधानमंत्री ने भारत के प्रधानमंत्री को क्या लिखा था?
एक दिन वह पत्र खुल ही गया। उसमें लिखा था —
इंस्पेक्टर मातादीन की सेवाएं हमें प्रदान करने के लिए अनेक धन्यवाद। पर अब आप उन्हें फ़ौरन बुला लें। हम भारत को मित्रदेश समझते थे, पर आपने हमारे साथ शत्रुवत व्यवहार किया है। हम भोले लोगों से आपने विश्वासघात किया है।
आपके मातादीनजी ने हमारी पुलिस को जैसा कर दिया है, उसके नतीजे ये हुए हैं :
कोई आदमी किसी मरते हुए आदमी के पास नहीं जाता, इस डर से कि वह क़त्ल के मामले में फंसा दिया जाएगा। बेटा बीमार बाप की सेवा नहीं करता। वह डरता है, बाप मर गया तो उसपर कहीं हत्या का आरोप नहीं लगा दिया जाए। घर जलते रहते हैं और कोई बुझाने नहीं जाता — डरता है कि कहीं उसपर आग लगाने का जुर्म क़ायम न कर दिया जाए। बच्चे नदी में डूबते रहते हैं और कोई उन्हें नहीं बचाता, इस डर से कि उस पर बच्चों को डुबाने का आरोप न लग जाए। सारे मानवीय संबंध समाप्त हो रहे हैं। मातादीनजी ने हमारी आधी संस्कृति नष्ट कर दी है। अगर वे यहां रहे तो पूरी संस्कृति नष्ट कर देंगे। उन्हें फ़ौरन रामराज में बुला लिया जाए।