कानों में कंगना (राजा राधिकारमणप्रसाद
सिंह) : Hindi Sahitya Vimarsh
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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास
प्रसिद्ध शैली-सम्राट और कथाकार
राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह (10 सितम्बर 1890 ई.—24 मार्च 1971 ई., शाहाबाद, बिहार) रचित
कहानी 'कानों में कंगना' (1913 ई.) NTA/UGCNET/JRF के पाठ्यक्रम
में सम्मिलित है। यह एक वनवासी
योगीश्वर की पुत्री — वनचारिणी अपूर्व किन्नर सुन्दरी — किरन के अलौकिक प्रेम की कहानी
है। परीक्षार्थियों के लाभार्थ ब्लॉग में दी जा रही
है —
1
"किरन! तुम्हारे
कानों में क्या है?"
उसने कानों से चंचल लट को हटाकर
कहा, "कंगना।"
"अरे! कानों में
कंगना?"
सचमुच दो कंगन कानों को घेरकर बैठे थे।
"हां, तब कहां पहनूं?"
किरन अभी भोरी थी। दुनिया में
जिसे भोरी कहते हैं, वैसी भोरी नहीं।
उसे वन के फूलों का भोलापन समझो। नवीन चमन के फूलों की भंगी नहीं; विविध खाद या रस से जिनकी जीविका है, निरन्तर काट-छांट से जिनका सौन्दर्य है, जो दो घड़ी चंचल चिकने बाल की भूषा है — दो घड़ी तुम्हारे फूलदान
की शोभा। वन के फूल ऐसे नहीं। प्रकृति के हाथों से लगे हैं। मेघों की धारा से बढ़े
हैं। चटुल दृष्टि इन्हें पाती नहीं। जगद्वायु इन्हें छूती नहीं। यह सरल सुन्दर सौरभमय
जीवन हैं। जब जीवित रहे, तब चारों तरफ़
अपने प्राणधन से हरे-भरे रहे, जब समय
आया,
तब अपनी मां की गोद में झड़ पड़े।
आकाश स्वचछ था — नील, उदार सुन्दर। पत्ते शान्त थे। सन्ध्या हो चली थी। सुनहरी किरनें
सुदूर पर्वत की चूड़ा से देख रही थीं। वह पतली किरन अपनी मृत्यु-शैया से इस शून्य निविड़
कानन में क्या ढूंढ़ रही थी, कौन कहे!
किसे एकटक देखती थी, कौन जाने! अपनी
लीला-भूमि को स्नेह करना चाहती थी या हमारे बाद वहां क्या हो रहा है, इसे जोहती थी — मैं क्या बता सकूं? जो हो, उसकी
उस भंगी में आकांक्षा अवश्य थी। मैं तो खड़ा-खड़ उन बड़ी आंखों की किरन लूटता था। आकाश
में तारों को देखा या उन जगमग आंखों को देखा, बात एक ही थी। हम दूर से तारों के सुन्दर शून्य झिकमिक को बार-बार
देखते हैं, लेकिन वह सस्पन्द निश्चेष्ट
ज्योति सचमुच भावहीन है या आप-ही-आप अपनी अन्तर-लहरी से मस्त है, इसे जानना आसान नहीं। हमारी ऐसी आंखें कहां कि उनके सहारे उस
निगूढ़ अन्तर में डूबकर थाह लें।
मैं रसाल की डोली थामकर पास ही
खड़ा था। वह बालों को हटाकर कंगन दिखाने की भंगी प्राणों में रह-रहकर उठती थी। जब माखन
चुराने वाले ने गोपियों के सर के मटके को तोड़कर उनके भीतर क़िले को तोड़ डाला या नूरजहाँ
ने अंचल से कबूतर को उड़ाकर शाहंशाह के कठोर हृदय की धज्जियां उड़ा दीं, फिर नदी के किनारे बसन्त-बल्ल्भ रसाल पल्लवों की छाया में बैठी
किसी अपरूप बालिका की यह सरल स्निग्ध भंगिमा एक मानव-अन्तर पर क्यों न दौड़े।
किरन इन आंखों के सामने प्रतिदिन
आती ही जाती थी। कभी आम के टिकोरे से आंचल भर लाती, कभी मौलसिरी के फूलों की माला बना लाती, लेकिन कभी भी ऐसी बाल-सुलभ लीला आंखों से होकर हृदय तक नहीं
उतरी। आज क्या था, कौन शुभ या अशुभ
क्षण था कि अचानक वह बनैली लता मंदार माला से भी कहीं मनोरम दीख पड़ी। कौन जानता था
कि चाल से कुचाल जाने में — हाथों से कंगन भूलकर कानों में पहिनने में - इतनी माधुरी
है। दो टके के कंगने में इतनी शक्ति है। गोपियों को कभी स्वप्न में भी नहीं झलका था
कि बांस की बांसुरी में घूंघट खोलकर नचा देनेवाली शक्ति भरी है।
मैंने चटपट उसके कानों से कंगन
उतार लिया। फिर धीरे-धीरे उसकी उंगुलियों पर चढ़ाने लगा। न जाने उस घड़ी कैसी खलबली
थी। मुंह से अचानक निकल आया —
"किरन! आज की
यह घटना मुझे मरते दम तक न भूलेगी। यह भीतर तक पैठ गई।"
उसकी बड़ी-बड़ी आंखें और भी बड़ी
हो गईं। मुझे चोट-सी लगी। मैं तत्क्षण योगीश्वर की कुटी की तरफ़ चल दिया। प्राण भी
उसी समय नहीं चल दिये, यही विस्मय था।
2
एक दिन था कि इसी दुनिया में दुनिया
से दूर रहकर लोग दूसरी दुनिया का सुख उठाते थे। हरिचन्दन के पल्लवों की छाया भूलोक
पर कहां मिले; लेकिन किसी समय हमारे यहां
भी ऐसे वन थे, जिनके वृक्षों के साये में
घड़ी निवारने के लिए स्वर्ग से देवता भी उतर आते थे। जिस पंचवटी का अनन्त यौवन देखकर
राम की आंखें भी खिल उठी थीं वहां के निवासियों ने कभी अमरतरु के फूलों की माला नहीं
चाही,
मन्दाकिनी के छींटों की शीतलता नहीं ढूंढ़ी। नन्दनोपवन का सानी
कहीं वन भी था! कल्पवृक्ष की छाया में शान्ति अवश्य है; लेकिन कदम की छहियां कहां मिल सकती। हमारी-तुम्हारी आंखों ने
कभी नन्दनोत्सव की लीला नहीं देखी; लेकिन इसी भूतल पर एक दिन ऐसा उत्सव हो चुका है, जिसको देख-देखकर प्रकृति तथा रजनी छह महीने तक ठगी रहीं, शत-शत देवांगनाओं ने पारिजात के फूलों की वर्षा से नन्दन कानन
को उजाड़ डाला।
समय ने सब कुछ पलट दिया। अब ऐसे
वन नहीं,
जहां कृष्ण गोलोक से उतरकर दो घड़ी वंशी की टेर दें। ऐसे कुटीर
नहीं जिनके दर्शन से रामचन्द्र का भी अन्तर प्रसन्न हो, या ऐसे मुनीश नहीं जो धर्मधुरन्धर धर्मराज को भी धर्म में शिक्षा
दें। यदि एक-दो भूले-भटके हों भी, तब अभी
तक उन पर दुनिया का परदा नहीं उठा — जगन्माया की माया नहीं लगी। लेकिन वे कब तक बचे
रहेंगे?
लोक अपने यहां अलौकिक बातें कब तक होने देगा! भवसागर की जल-तरंगों
पर थिर होना कब सम्भव है?
हृषीकेश के पास एक सुन्दर वन है; सुन्दर नहीं अपरूप सुन्दर है। वह प्रमोदवन के विलास-निकुंजों
जैसा सुन्दर नहीं, वरंच चित्रकूट
या पंचवटी की महिमा से मण्डित है। वहां चिकनी चांदनी में बैठकर कनक घुंघरू की इच्छा
नहीं होती, वरंच प्राणों में एक ऐसी
आवेश-धारा उठती है, जो कभी अनन्त
साधना के कूल पर पहुंचाती है — कभी जीव-जगत के एक-एक तत्व से दौड़ मिलती है। गंगा की
अनन्त गरिमा — वन की निविड़ योग निद्रा वहीं देख पड़ेगी। कौन कहे, वहाँ जाकर यह चंचल चित्त क्या चाहता है — गम्भीर अलौकिक आनन्द
या शान्त सुन्दर मरण।
इसी वन में एक कुटी बनाकर योगीश्वर
रहते थे। योगीश्वर योगीश्वर ही थे। यद्दापि वह भूतल ही पर रहते थे, तथापि उन्हें इस लोग का जीव कहना यथार्थ नहीं था। उनकी चित्तवृत्ति
सरस्वती के श्रीचरणों में थी या ब्रह्मलोक की अनन्त शान्ति में लिपटी थी। और वह बालिका
— स्वर्ग से एक रश्मि उतरकर उस घने जंगल में उजेला करती फिरती थी। वह लौकिक मायाबद्ध
जीवन नहीं था। इसे बन्धन-रहित बाधाहीन नाचती किरनों की लेखा कहिए — मानो निर्मुक्त
चंचल मलय वायु फूल-फूल पर, डाली-डाली पर
डोलती फिरती हो या कोई मूर्तिमान अमर संगीत बेरोकटोक हवा पर या जल की तरंग-भंग पर नाच
रहा हो। मैं ही वहां इस लोक का प्रतिनिधि था। मैं ही उन्हें उनकी अलौकिक स्थिति से
इस जटिल मर्त्य-राज्य में खींच लाता था।
कुछ साल से मैं योगीश्वर के यहां
आता-जाता था। पिता की आज्ञा थी कि उनके यहां जाकर अपने धर्म के सब ग्रन्थ पढ़ डालो।
योगीश्वर और बाबा लड़कपन के साथी थे। इसीलिए उनकी मुझ पर इतनी दया थी। किरन उनकी लड़की
थी। उस कुटीर में एक वही दीपक थी। जिस दिन की घटना मैं लिख आया हूं, उसी दिन सबेरे मेरे अध्ययन की पूर्णाहुति थी और बाबा के कहने
पर एक जोड़ा पीताम्बर, पांच स्वर्णमुद्राएं
तथा किरन के लिए दो कनक-कंगन आचार्य के निकट ले गया था। योगीश्वर ने सब लौटा दिये, केवल कंगन को किरन उठा ले गई।
वह क्या समझकर चुप रह गये। समय
का अद्भुत चक्र है। जिस दिन मैंने धर्मग्रन्थ से मुंह मोड़ा, उसी दिन कामदेव ने वहां जाकर उनकी किताब का पहला सफा उलटा।
दूसरे दिन मैं योगीश्वर से मिलने
गया। वह किरन को पास बिठा कर न जाने क्या पढ़ा रहे थे। उनकी आंखें गम्भीर थीं। मुझको
देखते ही वह उठ पड़े और मेरे कन्धों पर हाथ रखकर गदगद स्वर से बोले, "नरेन्द्र!
अब मैं चला, किरन तुम्हारे हवाले है।"
यह कहकर किसी की सुकोमल उंगुलियाँ मेरे हाथों में रख दीं। लोचनों के कोने पर दो बूंदें
निकलकर झांक पड़ीं। मैं सहम उठा। क्या उन पर सब बातें विदित थीं? क्या उनकी तीव्र दृष्टि मेरी अन्तर-लहरी तक डूब चुकी थी? वह ठहरे नहीं, चल दिये। मैं कांपता रह गया, किरन देखती रह गई।
सन्नाटा छा गया। वन-वायु भी चुप
हो चली। हम दोनों भी चुप चल पड़े, किरन
मेरे कन्धे पर थी। हठात अन्तर से कोई अकड़कर कह उठा, "हाय नरेन्द्र! यह क्या!
तुम इस वनफूल को किस चमन में ले चले? इस बन्धन-विहीन स्वर्गीय जीवन को किस लोकजाल में बांधने चले?"
3
कंकड़ी जल में जाकर कोई स्थायी
विवर नहीं फोड़ सकती। क्षण भर जल का समतल भले ही उलट-पुलट हो, लेकिन इधर-उधर से जलतरंग दौड़कर उस छिद्र का नाम-निशान भी नहीं
रहने देती। जगत् की भी यही चाल है। यदि स्वर्ग से देवेन्द्र भी आकर इस लोक चलाचल में
खड़े हों,
फिर संसार देखते ही देखते उन्हें अपना बना लेगा। इस काली कोठरी
में आकर इसकी कालिमा से बचे रहें, ऐसी शक्ति
अब आकाश-कुसुम ही समझो। दो दिन में राम 'हाय जानकी, हाय जानकी' कहकर वन-वन डोलते फिरे। दो क्षण में यही विश्वामित्र को भी स्वर्ग
से घसीट लाया।
किरन की भी यही अवस्था हुई। कहां
प्रकृति की निर्मुक्त गोद, कहां जगत् का
जटिल बन्धन-पाश। कहां से कहां आ पड़ी! वह अलौकिक भोलापन, वह निसर्ग उच्छ्वास — हाथों-हाथ लुट गये। उस वनफूल की विमल कान्ति
लौकिक चमन की मायावी मनोहारिता में परिणत हुई। अब आंखें उठाकर आकाश से नीरव बातचीत
करने का अवसर कहां से मिले? मलयवायु से मिलकर
मलयाचल के फूलों की पूछताछ क्योंकर हो?
जब किशोरी नये सांचे में ढलकर
उतरी,
उसे पहचानना भी कठिन था। वह अब लाल चोली, हरी साड़ी पहनकर, सर पर सिन्दूर-रेखा सजती और हाथों के कंगन, कानों की बाली, गले की कण्ठी तथा कमर की करधनी — दिन-दिन उसके चित्त को नचाये
मारती थी। जब कभी वह सज-धजकर चांदनी में कोठे पर उठती और वसन्तवायु उसके आंचल से मोतिया
की लपट लाकर मेरे बरामदे में भर देता, फिर किसी मतवाली माधुरी या तीव्र मदिरा के नशे में मेरा मस्तिष्क
घूम जाता और मैं चटपट अपना प्रेम चीत्कार फूलदार रंगीन चिट्ठी में भरकर जुही के हाथ
ऊपर भेजवाता या बाजार से दौड़कर कटकी गहने वा विलायती चूड़ी ख़रीद लाता। लेकिन जो हो
— अब भी कभी-कभी उसके प्रफुल्ल वदन पर उस अलोक-आलोक की छटा पूर्वजन्म की सुखस्मृतिवत
चली आती थी, और आंखें उसी जीवन्त सुन्दर
झिकमिक का नाज दिखाती थीं। जब अन्तर प्रसन्न था, फिर बाहरी चेष्टा पर प्रतिबिम्ब क्यों न पड़े।
यों ही साल-दो-साल मुरादाबाद में
कट गये। एक दिन मोहन के यहां नाच देखने गया। वहीं किन्नरी से आंखें मिलीं, मिलीं क्या, लीन हो गईं। नवीन यौवन, कोकिल-कण्ठा, चतुर चंचल चेष्टा तथा मायावी चमक — अब चित्त को चलाने के लिए
और क्या चाहिए। किन्नरी सचमुच किन्नरी ही थी नाचनेवाली नहीं, नचानेवाली थी। पहली बार देखकर उसे इस लोक की सुन्दरी समझना दुस्तर
था। एक लपट जो लगती — किसी नशा-सी चढ़ जाती। यारों ने मुझे और भी चढ़ा दिया। आंखें
मिलती-मिलती मिल गईं, हृदय को भी साथ-साथ
घसीट ले गईं।
फिर क्या था — इतने दिनों की धर्मशिक्षा, शतवत्सर की पूज्य लक्ष्मी, बाप-दादों की कुल-प्रतिष्ठा, पत्नी से पवित्र-प्रेम एक-एक करके उस प्रतीप्त वासना-कुण्ड में
भस्म होने लगे। अग्नि और भी बढ़ती गई। किन्नरी की चिकनी दृष्टि, चिकनी बातें घी बरसाती रहीं। घर-बार सब जल उठा। मैं भी निरन्तर
जलने लगा,
लेकिन ज्यों-ज्यों जलता गया, जलने की इच्छा जलाती रही।
पांच महीने कट गये — नशा उतरा
नहीं। बनारसी साड़ी, पारसी जैकेट, मोती का हार, कटकी कर्णफूल - सब कुछ लाकर उस मायाकारी के अलक्तक-रंजित चरणों
पर रखे। किरन हेमन्त की मालती बनी थी, जिस पर एक फूल नहीं — एक पल्लव नहीं। घर की वधू क्या करती? जो अनन्त सूत्र से बंधा था, जो अनंत जीवन का संगी था, वही हाथों-हाथ पराये के हाथ बिक गया — फिर ये तो दो दिन के चकमकी
खिलौने थे, इन्हें शरीर बदलते क्या देर
लगे। दिन भर बहानों की माला गूंथ-गूंथ किरन के गले में और शाम को मोती की माला उस नाचनेवाली
के गले में सशंक निर्लज्ज डाल देना — यही मेरा जीवन निर्वाह था। एक दिन सारी बातें
खुल गईं,
किरन पछाड़ खाकर भूमि पर जा पड़ी। उसकी आंखों में आंसू न थे, मेरी आंखों में दया न थी।
बरसात की रात थी। रिमझिम बूंदों
की झड़ी थी। चांदनी मेघों से आंख-मुंदौवल खेल रही थी। बिजली काले कपाट से बार-बार झांकती
थी। किसे चंचला देखती थी तथा बादल किस मरोड़ से रह-रहकर चिल्लाते थे — इन्हें सोचने
का मुझे अवसर नहीं था। मैं तो किन्नरी के दरवाज़े से हताश लौटा था; आंखों के ऊपर न चांदनी थी, न बदली थी। त्रिशंकु ने स्वर्ग को जाते-जाते बीच में ही टंगकर
किस दुख को उठाया — और मैं तो अपने स्वर्ग के दरवाजे पर सर रखकर निराश लौटा था — मेरी
वेदना क्यों न बड़ी हो।
हाय! मेरी अंगुलियों में एक अंगूठी
भी रहती तो उसे नज़र कर उसके चरणों पर लोटता।
घर पर आते ही जुही को पुकार उठा,
"जुही, किरन के पास कुछ भी बचा हो
तब फ़ौरन जाकर मांग लाओ।"
ऊपर से कोई आवाज़ नहीं आई, केवल सर के ऊपर से एक काला बादल कालान्त चीत्कार के चिल्ला उठा।
मेरा मस्तिष्क घूम गया। मैं तत्क्षण कोठे पर दौड़ा।
सब सन्दूक़ झांके, जो कुछ मिला, सब तोड़ डाला; लेकिन मिला कुछ भी नहीं। आलमारी में केवल मकड़े का जाल था। श्रृंगार
बक्स में एक छिपकली बैठी थीं। उसी दम किरन पर झपटा।
पास जाते ही सहम गया। वह एक तकिये
के सहारे नि:सहाय निस्पंद लेटी थी — केवल चांद ने खिड़की से होकर उसे गोद में ले रखा
था और वायु उस शरीर पर जल से भिगोया पंखा झल रही थी। मुख पर एक अपरूप छटा थी; कौन कहे, कहीं
जीवन की शेष रश्मि क्षण-भर वहीं अटकी हो। आंखों में एक जीवन ज्योति थी। शायद प्राण
शरीर से निकलकर किसी आसरे से वहां पैठ रहा था। मैं फिर पुकार उठा, "किरन, किरन। तुम्हारे पास कोई गहना भी रहा है?"
"हां,"
- क्षीण कण्ठ की काकली थी।
"कहां हैं, अभी देखने दो।"
उसने धीरे से घूंघट सरका कर कहा,
"वही कानों का कंगना।"
सर तकिये से ढल पड़ा — आंखें भी
झिप गईं। वह जीवन्त रेखा कहां चली गई — क्या इतने ही के लिए अब तक ठहरी थी?
आंखें मुख पर जा पड़ीं — वही कंगन
थे। वैसे ही कानों को घेरकर बैठे थे। मेरी स्मृति तड़ित वेग से नाच उठी। दुष्यन्त ने
अंगूठी पहचान ली। भूली शकुन्तला उस पल याद आ गई; लेकिन दुष्यन्त सौभाग्यशाली थे, चक्रवर्ती राजा थे — अपनी प्राणप्रिया को आकाश-पाताल छानकर ढूंढ़
निकाला। मेरी किरन तो इस भूतल पर न थी कि किसी तरह प्राण देकर भी पता पाता। परलोक से
ढूंढ़ निकालूं — ऐसी शक्ति इस दीन-हीन मानव में कहां ?
चढ़ा नशा उतर पड़ा। सारी बातें
सूझ गईं — आंखों पर की पट्टी खुल पड़ी; लेकिन हाय! खुली भी तो उसी समय जब जीवन में केवल अन्धकार ही
रह गया।
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