शनिवार, 19 जनवरी 2019

अपना-अपना भाग्य (जैनेन्द्र कुमार) : Hindi Sahitya Vimarsh


अपना-अपना भाग्य (जैनेन्द्र कुमार) : Hindi Sahitya Vimarsh

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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास

प्रसिद्ध मनोविश्लेषणवादी कथाकार जैनेद्र कुमार (2 जनवरी 1905-24 दिसम्बर 1988, कौड़ियालगंज, अलीगढ़, भारत) की कहानी 'अपना-अपना भाग्य' (1927 ई.) भाग्यवादी धारणा पर प्रहार करती है, जिसमें भयंकर आर्थिक विषमता अर्थात् सम्पन्नता और विपन्नता की जानलेवा अथाह खाई, जो दिन-प्रतिदिन चौड़ी और गहरी होती जा रही है, का मार्मिक चित्रण किया गया है। इसमें भारतीय और पाश्चात्य स्त्रियों की चारित्रिक विशेषतओं और अन्तर को भी दर्शाया गया है। साथ ही राजा-प्रजा, शासक-शासित, शोषक-शोषित का सजीव चित्र भी खींचा गया है और अधिकार-गर्व और अहं के नशे में चूर राजभक्त अंग्रेज़ीदां लोगों को भी अनावृत्त किया गया है। यह कहानी NTA/UGCNET/JRF के पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। इसलिए परीक्षार्थियों के लाभार्थ यहाँ प्रस्तुत की जा रही है  

अपना-अपना भाग्य
जैनेंद्र कुमार
बहुत कुछ निरुदेश्य घूम चुकने पर हम सड़क के किनारे की एक बेंच पर बैठ गए। नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी। रूई के रेशे-से भाप से बादल हमारे सिरों को छू-छूकर बेरोक-टोक घूम रहे थे। हल्के-हल्के प्रकाश और अंधियारी से रंगकर कभी वे नाले दीखते, कभी सफ़ेद और फिर देर में अरुण पड़ जाते। वे जैसे हमारे साथ खेलना चाह रहे थे।
पीछे हमारे पोलो वाला मैदान फैला था। सामने अंग्रेज़ों का एक प्रमोदगृह था, जहां सुहावना, रसीला बाजा बज रहा था और पार्श्व में था वही सुरम्य अनुपम नैनीताल।
ताल में क़िश्तियां अपने सफ़ेद पाल उड़ाती हुई एक-दो अंग्रेज़ यात्रयों को लेकर इधर से उधर और उधर से इधर खेल रही थीं। कहीं कुछ अंग्रेज़ एक-एक सामने प्रतिस्थापित कर, अपनी सुई-सी शक्ल की डोंगियों को, मानो शर्त बांधकर सरपट दौड़ा रहे थे। कहीं किनारे पर कुछ साहब अपनी बंसी डाले, सधैर्य, एकाग्र, एकस्थ, एकनिष्ठ मछली-चिंतन कर रहे थे। पीछे पोलोलॉन में बच्चे किलकारियां मारते हुए हॉकी खेल रहे थे।
शोर, मार-पीट, गाली-गलौज भी जैसे खेल का ही अंश था। इस तमाम खेल को उतने क्षणों का उद्देश्य बना, वे बालक अपना सारा मन, समग्र बल और समूची विधा लगाकर मानो ख़त्म कर देना चाहते थे। उन्हें आगे की चिंता न थी। बीते का ख्याल न था। वे शुद्ध तत्काल के प्राणी थे। वे शब्द की संपूर्ण सच्चाई के साथ जीवित थे।
सड़क पर से नर-नारियों का अविरल प्रवाह आ रहा था और जा रहा था। उसका न ओर था, न छोर। यह प्रवाह कहां जा रहा था और कहां से आ रहा था, कौन बता सकता है ? सब उम्र के, सब तरह के लोग उसमें थे। मानो मनुष्यता के नमूनों का बाज़ार सजकर सामने से इठलाता निकला चला जा रहा हो।
अधिकार-गर्व में तने अंग्रेज़ उसमें थे और चितड़ों से सजे घोड़ों की बाग थामे पहाड़ी उसमें थे, जिन्होंने अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को कुचलकर शून्य बना लिया है और जो बड़ी तत्परता से दुम हिलाना सीख गए हैं।
भागते, खेलते, हंसते, शरारत करते लाल-लाल अंग्रेज़ बच्चे थे और पीली-पीली आंखें फाड़े, पिता की उंगली पकड़कर चलते हुए अपने हिंदुस्तानी नौनिहाल भी थे। अंग्रेज़ पिता थे, जो अपने बच्चों के साथ भाग रहे थे, हंस रहे थे और खेल रहे थे। उधर भारतीय पितृदेव भी थे, जो बुज़ुर्गी को अपने चारों तरफ़ लपेटे धन-संपन्नता के लक्षणों का प्रदर्शन करते हुए चल रहे थे।
अंग्रेज़ रमणिनयां थीं, जो धीरे-धीरे नहीं चलती थीं, तेज़ चलती थीं। उन्हें न चलने में थकावट आती थी, न हंसने में मौत आती थी। कसरत के नाम पर घोड़े पर भी बैठ सकती थीं और घोड़े के साथ ही साथ, ज़रा भी होते ही किसी-किसी हिंदुस्तानी पर कोड़े भी फटकार सकती थीं। वे दो-दो, तीन-तीन, चीर-चार की टोलियों में, निश्शंक, निरापद इस प्रवाह में मानो अपने स्थान को जानती हुई, सड़क पर चली जा रही थीं।
उधर हमारी भारत की कुललक्ष्मी, सड़क के बिल्कुल किनारे दामन बचाती, साड़ी की कई तहों में सिमट-सिमटकर लोक-लाज, स्त्रीत्व और भारतीय गरिमा के आदर्श को अपने परिवेष्टनों में छिपाकर सहमी-सहमी धरती में आंखें गाड़े, क़दम-क़दम बढ़ा रही थीं।
इसके साथ ही भारतीयता का एक और नमूना था। अपने कालेपन को खुरच-खुरचकर बहा देने की इच्छा करनेवाला अंग्रेज़ीदां पुरुषोत्तम भी थे, जो नेटिवों देखकर मुंह फेर लेते थे और अंग्रेज़ को देखकर आंखें बिछा देते थे और दुम हिलाने लगते थे। वैसे वे अकड़कर चलते थे मानो भारतभूमि को इसी अकड़ के साथ कुचल-कुचलकर चलने का उन्हें अधिकार मिला है।
घंटे के घंटे सड़क गए। अंधकार गाढ़ा हो गया। बादल सफ़ेद हो कर जम गए। मनुष्य का वह तांता एक-एक कर क्षीण हो गया। अब इक्का-दुक्का आदमी सड़क पर छतरी लगाकर निकल रहा था। हम वहीं के वहीं बैठे थे।
सर्दी-सी मालूम हुई। हमारे ओवरकोट भीग गए थे। पीछे फिरकर देखा। यह लाल बर्फ़ की चादर की तरह बिल्कुल स्तब्ध और सुन्न पड़ा था।
सब सन्नाटा था। तल्लीलाल की बिजली की रोशनियां दीप-मालिका-सी जगमगा रही थी। वह जगमगाहट दो मील तक फैले हुए प्रकृति के जल-दर्पण पर प्रतिबिंबित हो रही थी और दर्पण का कांपता हुआ, लहरे लेता हुआ, वह जल-प्रतिबिंबों को सौगुना, हज़ारगुना करके, उनके प्रकाश को मानो एकत्र और पूंजीभूत करके व्याप्त कर रहा था। पहाड़ों के सिर पर की रोशनाइयां तारों-सी जान पड़ती थीं।
हमारे देखते-देखते एक घने पर्दे ने आकर इन सब को ढक दिया। रोशनियां मानो मर गईं। जगमगाहट लुप्त हो गई। वे काले-काले भूत-से पहाड़ भी इस सफ़ेद पर्दे के पीछे छिप गए। पास की वस्तु भी न दीखने लगी। मानो यह घनीभूत प्रलय था। सब कुछ इस घनी गहरी सफ़ेदी में दब गया। एक शुभ महासागर में फैलकर संस्कृति के सारे अस्तित्व को डुबो दिया। ऊपर-नीचे, चारों तरफ़ वह निर्भेद्य, सफ़ेद शून्यता ही फैली हुई थी।
ऐसा घना कुहरा हमने कभी न देखा था। वह टप-टप टपक रहा था। मार्ग बिल्कुल निर्जन-चुप था। वह प्रवाह न जाने किन घोषलों में जा छिपा था। उस वृहदाकार शुभ शून्य में कहीं से, ग्यारह बार टन-टन हो उठा। जैसे कहीं दूर क़ब्र में से आवाज़ आ रही हो। हम अपने-अपने होटलों के लिए चल दिए। रास्ते में दो मित्रों का होटल मिला। दोनों वकील मित्र छुट्टी लेकर चले गए। हम दोनों आगे बढ़े। हमारा होटल आगे था।
ताल के किनारे-किनारे हम चले जा रहे थे। हमारे ओवरकोट तर हो गए थे। बारिश नहीं मालूम होती थी, पर वहां तो ऊपर-नीचे हवा से कण-कण में बारिश थी। सर्दी इतनी थी कि सोचा. कोर्ट पर एक कंबल और होता तो अच्छा होता।
रास्ते में ताल के बिल्कुल किनारे पर एक बेंच पड़ी थी। मैं जी मैं बेचैन हो रहा था। झटपट होटल पहुंचकर इन भीगे कपड़ों से छुट्टी पा, गर्म बिस्तर में छिपकर सोना चाहता था, पर साथ के मित्रों की सनक कब उठेगी, कब थमेगीइसका पता न था और वह कैसी, क्या होगी इसका भी कुछ अंदाज़ न था। उन्होंने कहा, ''आओ, ज़रा यहां बैठें।''
हम उस चूते कुहरे में रात के ठीक एक बजे तालाब के किनारे उस भीगी बर्फ़ की ठंडी हो रही लोहे की बेंच पर बैठ गए।
पांच, दस, पन्द्रह मिनट हो गए। मित्र के उठने का इरादा न मालूम हुआ। मैंने खिसियाकर कहा ''चलिए भी।''
''अरे, ज़रा बैठो भी।''
हाथ पकड़कर ज़रा बैठने के लिए जब इस ज़ोर से बैठा लिया गया तो और चारा न रहा लाचार बैठे रहना पड़ा। सनक से छुटकारा आसान न था और यह ज़रा बैठना ज़रा न था, बहुत था।
चुपचाप बैठे तंग हो रहा था, कुढ़ रहा था कि मित्र अचानक बोले
''देखो..... वह क्या है? '' मैंने देखा कुहरे की सफ़ेदी में कुछ ही हाथ दूर से एक काली-सी सूरत हमारी तरफ़ बढ़ी आ रही थी। मैंने कहा ''होगा कोई।'' तीन ग़ज़ की दूरी से दीख पड़ा, एक लड़का सिर के बड़े-बड़े बालों को खुजलाता चला आ रहा है। नंगे पैर है, नंगा सिर। एक मैली-सी कमीज लटकाए है। पैर उसके न जाने कहां पड़ रहे हैं और वह न जाने कहां जा रहा है कहां जाना चाहता है। उसके क़दमों में जैसे कोई न अगला है, न पिछला है, न दायां है, न बायां है। पास ही चुंगी की लालटेन के छोटे-से प्रकाश वृत्त में देखा कोई दस बरस का होगा। गोरे रंग का है, पर मेल से काला पड़ गया है। आंखें अच्छी बड़ी, पर रूखी है। माथा जैसे अभी से झुर्रियां खा गया है। वह हमें न देख पाया। वह जैसे कुछ भी नहीं देख रहा था। न नीचे की धरती, न ऊपर चारों तरफ़ फैला हुआ कुहरा, न सामने का तालाब और न बाक़ी दुनिया। वह बस अपने विकट वर्तमान को देख रहा था।
मित्र ने आवाज दी, ''है।''
उसने जैसे जागकर देखा और पास आ गया।
''तू कहां जा रहा है?''
उसने अपनी सूनी आंखें फाड़ दीं।
''दुनिया सो गई, तू ही क्यों घूम रहा है?'' बालक मौन-मूक, फिर भी बोलता हुआ चेहरा लेकर खड़ा रहा।
''कहां सोएगा?''
''यहीं कहीं।''
''कल कहां सोया था?''
''दुकान पर।'' ''आज वहां क्यों नहीं?''
''नौकरी से हटा दिया गया।''
''क्या नौकरी थी?''
''सब काम। एक रुपया और जूठा खाना ¡''
''फिर नौकरी करेगा?''
''हां।''
''बाहर चलेगा?''
''हां।''
''आज क्या खाना खाया?''
''कुछ नहीं।''
''अब खाना मिलेगा?''
''नहीं मिलेगा ¡''
''यूं ही सो जाएगा?''
''हां।''
''कहां?''
''यहीं' कहीं।''
''इन्हीं कपड़ों में।''
बालक फिर आंखों से बोलकर मूक खड़ा रहा। आंखें मानो बोलती थीं यह भी कैसा मूर्ख प्रश्न ¡
''मां बाप है?''
''है।''
''कहां? ''
''पन्द्रह कोस दूर गांव में।''
''तुम भाग आया? ''
''हां।''
''क्यों?''
''मेरे कई छोटे भाई-बहिन हैं सो भाग आया, वहां काम नहीं, रोटी नहीं। बाप भूखा रहता था और मारता था। मां भूखी रहती थी और रोती थी। सो भाग आया। एक साथी और था। उसी गांव का। मुझसे बड़ा था। दोनों साथ यहां आए। वह अब नहीं है।''
''कहां गया?''
''मर गया।''
''मर गया''
''मर गया?''
''मर गया?''
''हां, साहब ने मारा, मर गया।''
''अच्छा, हमारे साथ चल।''
वह साथ चल दिया। लौटकर हम वकील दोस्तों के होटल में पहुंचे।
''वकील साहब ¡ '' वकील लोग होटल के ऊपर के कमरे से उतर कर आए। कश्मीरी दोशाला लपेटे थे, मोजे-चढ़े पैरों में चप्पल थी। स्वर में हल्की-सी झुंझलाहट थी, कुछ लापरवाही थी।
''आ-हा फिर आप ¡ कहिए।''
''आप को नौकर की ज़रूरत थी न? देखिए, यह लड़का है।''
''कहां से ले आए ? इसे आप जानते हैं? ''
जानता हूं वह बेईमान नहीं हो सकता।''
''अजी, ये पहाड़ी बड़े शैतान होते हैं। बच्चे-बच्चे में गुल छिपे रहते हैं। आप भी क्या अजीब हैं। उठा लाए कहीं से लो जी, यह नौकर लो।''
''मानिए तो, यह लड़का अच्छा निकलेगा।''
''आप भी..... जी, बस ख़ूब हैं। ऐरे-ग़ैरे को नौकर बना लिया जाए, अगले दिन वह न जाने क्या-क्या लेकर चंपत हो जाए।''
''आप आप मानते ही नहीं, मैं क्या करूं? ''
''माने क्या ख़ाक? आप भी..... जी, अच्छा मज़ाक़ करते हैं।----- अच्छा, अब हम सोने जाते हैं।'' और वह रुपये रोज़ के किराए वाले कमरे में सजी मसहरी पर सोने झटपट चले गए।
वकील साहब के चले जाने पर, होटल के बाहर आकर मित्र ने अपनी जेब में हाथ डालकर कुछ टटोला, पर झट कुछ निराश भाव से हाथ बाहर कर मेरी ओर देखने लगे।
''क्या है? ''
''इसे खाने के लिए कुछ देना चाहता था।'' अंग्रेज़ी में मित्र ने कुछ कहा, ''मगर दस-दस के नोट हैं।'' ''नोट ही शायद मेरे पास हैं, देखूं।''
सचमुच मेरे पास पॉकिट में भी नोट ही थे। हम फिर अंग्रेज़ी में बोलने लगे। लड़के के दांत बीच-बीच में कटकटा उठते थे। कड़ाके की सर्दी थी।
मित्र ने पूछा, ''तब? ''
मैंने कहा, ''दस का नोट ही दे दो।'' सकपकाकर मित्र मेरा मुंह देखने लगे, ''अरे यार ¡ बजट बिगड़ जाएगा। ह्रदय में जितनी दया है, पास में उतने पैसे तो नहीं हैं।''
''तो जाने दो, यह दया ही इस ज़माने में बहुत है।'' मैंने कहा। मित्र चुप रहे। फिर लड़के से बोले, ''अब आज तो कुछ नहीं हो सकता। कल मिलना। वह होटल डी पब जानता है? वहीं कल दस बजे मिलेगा'''
''हां, कुछ काम देंगे हुज़ूर।''
''हां, हां, ढूंढ दूंगा।''
''तो जाऊं? ''
''हां'', ठंडी सांस खींचकर मित्र ने कहा, ''कहां सोएगा?''
''यहीं कहीं बेंच पर, पेड़ के नीचे किसी दुकान की भट्टी में।''
बालक फिर उसी प्रेत-गति से एक और बढ़ा और कुहरे में मिल गया। हम भी होटल की ओर बढ़े। हवा तीखी थी। हमारे कोटों को पार कर बदन में तीर-सी लगती थी।
सिकुड़ते हुए मित्र ने कहा, ''भयानक शीत है। उसके पास बहुत कम कपड़े.....।''
''यह संसार है यार ¡''  मैंने स्वार्थ की फिलासफ़ी सुनाई, ''चलो, पहले बिस्तर में गर्म हो लो, फिर और की चिंता करना।''
उदास होकर मित्र ने कहा, ''स्वार्थ ¡ जो कहो, लाचारी कहो, निष्ठुरता कहो या बेहयाई ¡''
दूसरे दिन नैनीताल स्वर्ग के किसी काले ग़ुलाम पशु के दुलारे का वह बेटा वह बालक, निश्चित समय हमारे होटल 'डी पब' नहीं आया। हम अपनी नैनीताल की सैर ख़ुशी-ख़ुशी ख़त्म कर चलने को हुए। उस लड़के की आस लगाते बैठे रहने की ज़रूरत हमने न समझी।
मोटर में सवार होते ही थे कि यह समाचार मिला कि पिछली रात, एक पहाड़ी बालक सड़क के किनारे पेड़ के नीचे, ठिठुरकर मर गया ¡
मरने के लिए उसे वही जगह, वही दस बरस की उम्र और वही काले चित्रों की कमीज मिली। आदमियों की दुनिया ने बस यही उपहार उसके पास छोड़ा था।
पर बताने वालों ने बताया कि ग़रीब के मुंह पर, छाती, मुट्ठी और पैरों पर बर्फ़ की हल्की-सी चादर चिपक गई थी। मानो दुनिया की बेहयाई ढकने के लिए प्रकृति ने शव के लिए सफ़ेद और ठंडे कफ़न का प्रबंध कर दिया था।
सब सुना और सोचा, अपना-अपना भाग्य।

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