NTA/UGCNET/JRF/SET/PGT (हिन्दी भाषा एवं
साहित्य)
के परीक्षार्थियों के लिए सर्वोत्तम मार्गदर्शक
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सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास
हिन्दी की पहली मौलिक कहानी के बारे मे
? यदि 'इन्दुमती' किसी बंगला कहानी की छाया नहीं
है, तो हिन्दी
की यही पहली मौलिक कहानी ठहरती है। इसके उपरान्त 'ग्यारह वर्ष का समय', फिर 'दुलाई वाली' का नंबर आता है।
निबन्ध गद्य की कसौटी
? यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है, तो निबन्ध गद्य की कसौटी है।
? भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबन्धों में ही सबसे अधिक सन्भव होता है।
उपन्यासकार के बारे में
? आलस्य का जैसा त्याग उपन्यासकारों में देखा गया है वैसा और किसी वर्ग के
हिन्दी लेखकों में
नहीं।
देशभाषा मिश्रित अपभ्रंश
या पुरानी हिन्दी
? सिद्धों की उद्धृत रचनाओं की भाषा 'देशभाषा' मिश्रित अपभ्रंश या 'पुरानी हिन्दी ' की काव्य भाषा है।
नाथपंथ के
जोगियों की भाषा
? नाथपंथ के जोगियों की भाषा 'सधुक्कड़ी भाषा' थी।
कल्पना का
व्यापार
? काव्य की
पूर्ण अनुभूति के लिए कल्पना का व्यापार कवि और श्रोता दोनों के लिए अनिवार्य है।
वैर
? वैर क्रोध
का अचार या मुरब्बा है।
काव्यानुभूति
की जटिलता
? काव्यानुभूति की जटिलता
चित्तवृत्तियों की संख्या पर निर्भर नहीं, बल्कि संवादी-विसंवादी वृत्तियों के द्वन्द्व पर आधारित है।
गद्य का आविर्भाव
? आधुनिक काल में
गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान घटना है।
करुणा
? करुणा दुखात्मक वर्ग में आनेवाला मनोविकार है।
? करुणा सेंत का सौदा नहीं है।
? करुण रस
प्रधान नाटक के दर्शकों के आँसुओं के सम्बन्ध में यह कहना कि आनन्द में भी तो आँसू
आते हैं, केवल बात टालना है। दर्शक
वास्तव में दुख का ही अनुभव करते हैं। हृदय
की मुक्त दशा में होने के कारण वह दुख भी रसात्मक होता है।
नाद सौन्दर्य
? नाद सौन्दर्य से कविता की आयु बढ़ती है।
कर्मक्षेत्र का सौन्दर्य
? विरुद्धों का सामंजस्य कर्मक्षेत्र का सौन्दर्य है।
सौन्दर्य की वस्तुगत सत्ता
? सौन्दर्य की
वस्तुगत सत्ता होती है, इसलिए शुद्ध सौन्दर्य नाम की
कोई चीज़ नहीं होती।
धर्म की
धाराएँ
? धर्म
का प्रवाह कर्म, ज्ञान और
भक्ति ౼इन तीन धाराओं में चलता है। इन तीनों
के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा से रहता है। किसी एक के भी अभाव से वह
विकलांग रहता है।
अपभ्रंश
? जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह 'भाषा' या 'देशभाषा' ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गई तब उसके लिए 'अपभ्रंश' शब्द का
व्यहार होने लगा।
बीसलदेव
रासो
? बीसलदेव
रासो के बारे में आचार्य शुक्ल ने कहा है कि भाषा की परीक्षा करके देखते हैं तो वह
साहित्यिक नहीं है, राजस्थानी है।
? बीसलदेव रासो के बारे में आचार्य शुक्ल ने कहा है कि यह
घटनात्मक काव्य नहीं है, वर्णनात्मक है।
? बीसलदेव रासो में आए 'बारह सै बहोत्तरा' का स्पष्ट
अर्थ 1212 है।
? वीरगीत के रूप में हमें सबसे पुरानी पुस्तक 'बीसलदेव रासो' मिलती है।
? बीसलदेव रासो में 'काव्य के
अर्थ में रसायण शब्द' बार-बार आया है। अतः हमारी समझ में इसी 'रसायण' शब्द से होते-होते 'रासो' हो गया है।
कृष्णभक्त कवियों के लिए
? इन भक्तों का हमारे साहित्य पर बड़ा भारी उपकार है।
? इन भक्तों का हमारे साहित्य पर बड़ा भारी उपकार है।
आदिकाल की काल-सीमा
? हिन्दी साहित्य का आदिकाल संवत् 1050 से लेकर
संवत् 1375 तक अर्थात
महाराज भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय के कुछ पीछे तक माना जा सकता है।
? मोटे हिसाब
से वीरगाथाकाल महाराज हम्मीर की समय तक ही समझना चाहिए।
आदिकाल के नामकरण का आधार
? इन कालों की रचनाओं की विशेष प्रवृत्ति के अनुसार ही
उनका नामकरण किया गया है।
डिंगल
? अपभ्रंश के
योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो साहित्यिक रूप था वह 'डिंगल' कहलाता था।
हिन्दी कविता की नई धारा का प्रवर्तक
? हिन्दी कविता की नई धारा का प्रवर्तक इन्हीं को ౼विशेषतः श्री मैथिलीशरण गुप्त और श्री मुकुटधर पांडेय
को समझना चाहिए।
छायावाद
? असीम और अज्ञात प्रियतम के प्रति अत्यन्त चित्रमय भाषा में अनेक प्रकार के प्रेमोद्गारों तक ही काव्य की गतिविधि प्रायः
बन्ध गई।
? छायावाद शब्द का प्रयोग रहस्यवाद तक ही न रहकर काव्य-शैली के सन्बन्ध में भी
प्रतीकवाद (सिंबालिज्म) के अर्थ में होने लगा।
? उसका (छायावाद का) प्रधान लक्ष्य काव्य-शैली की ओर था, वस्तु विधान की ओर नहीं। अर्थभूमि या वस्तुभूमि का तो उसके भीतर बहुत संकोच हो
गया।
? आचार्य
शुक्ल ने छायावाद को 'अभिव्यंजनावाद का विलायती संस्करण माना है।
?छायावाद को
चित्रभाषा या अभिव्यंजन-पद्धति कहा है।
? छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ
में, जहाँ उसका सम्बन्ध काव्य वस्तु
से होता है अर्थात जहाँ कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यन्त
चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। छायावाद शब्द का
दूसरा प्रयोग काव्य-शैली या पद्धति विशेष की व्यापक अर्थ में हैं।
? छायावाद का सामान्यतः अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली
छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन।
? पन्त, प्रसाद, निराला इत्यादि और सब कवि प्रतीक-पद्धति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही
छायावादी कहलाए।
? अन्योक्ति-पद्धति का अवलम्बन भी छायावाद का एक विशेष लक्षण हुआ।
? छायावाद का चलन द्विवेदी काल की रूखी
इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था।
? लाक्षणिक और व्यंजनात्मक पद्धति का प्रगल्भ और प्रचुर विकास छायावाद की
काव्य-शैली की असली विशेषता है।
? छायावाद की प्रवृत्ति अधिकतर प्रेमगीतात्मक है।
? छायावाद नाम चल
पड़ने का परिणाम यह हुआ कि बहुत से कवि रहस्यात्मकता, अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र, वस्तुविन्यास
की विश्रृंखलता, चित्रमयी भाषा
और मधुमयी कल्पना को ही साध्य मानकर चले। शैली की इन विशेषताओं की दूरारूढ़ साधना में
ही लीन हो जाने के कारण अर्थभूमि के विस्तार की ओर उनकी दृष्टि न रही। विभावपक्ष या
तो शून्य अथवा अनिर्दिष्ट रह गया। इस प्रकार प्रसरोन्मुख काव्यक्षेत्र बहुत कुछ संकुचित
हो गया।
?
आचार्य शुक्ल ने 'छायावाद' को 'श्रृंगारी कविता' कहा है।
आलोचना
? आलोचना का कार्य है, किसी साहित्यिक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गुण और अर्थव्यवस्था का निर्धारण करना।
? हिन्दी के पुराने कवियों को समालोचना के लिए सामने लाकर मिश्र बन्धुओं ने बेशक
बड़ा ज़रूरी काम किया, उनकी बातें समालोचना कही जा
सकती है या नहीं, यह दूसरी बात है।
मुक्तावस्था
? आचार्य शुक्ल
'रस को हृदय की मुक्तावस्था' मानते हैं।
? जिस प्रकार आत्मा की मुक्त अवस्था ज्ञान दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्त अवस्था रस दशा कहलाती है। (कविता क्या है)
? हृदय की
इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती
है, उसे कविता कहते हैं। (कविता क्या है)
? शुक्ल ने
काव्य को कर्मयोग एवं ज्ञानयोग के समकक्ष रखते हुए 'भावयोग' कहा, जो मनुष्य के हृदय को मुक्तावस्था में पहुँचाता है।
कविता का उद्देश्य
? कविता का उद्देश्य हृदय को लोक-सामान्य की भावभूमि पर पहुँचा देना है।
कविता देवी के मंदिर
? कविता देवी
के मंदिर ऊँचे, खुले, विस्तृत और पुनीत हृदय हैं। सच्चे कवि राजाओं की सवारी, ऐश्वर्य की सामग्री में ही सौंदर्य नहीं ढूँढ़ा करते, वे फूस के झोपड़ों, धूल-मिट्टी में सने किसानों, बच्चों के मुँह में चारा डालते पक्षियों, दौड़ते हुए कुत्तों
और चोरी करती हुई बिल्लियों में कभी-कभी ऐसे सौंदर्य का दर्शन करते हैं, जिसकी छाया महलों और दरबारों तक नहीं पहुँच सकती।
लोक सत्ता
? मनुष्य
लोकबद्ध प्राणी है। उसकी अपनी सत्ता का ज्ञान तक लोकबद्ध है। लोक के भीतर ही कविता
क्या किसी कला का प्रयोजन और विकास होता है।
? कविता ही
मनुष्य के हृदय को स्वार्थ संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य की
भावभूमि पर ले जाती है। इस भूमि पर पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता
ही नहीं रहता। वह अपनी सत्ता को लोकसत्ता में लीन किए रहता है।
रीतिग्रंथों की जकड़
? रीतिग्रंथों
की बदौलत रसदृष्टि परिमित हो जाने से उसके संयोजक विषयों में से कुछ तो उद्दीपन
में डाल दिए गए और कुछ भावक्षेत्र से निकाले जाकर अलंकार के खाते में हाँक दिए गए।
...हमारे यहाँ के कवियों को रीतिग्रंथों ने जैसा चारों ओर से जकड़ा, वैसा और कहीं के कवियों को नहीं। इन ग्रंथों के कारण उनकी दृष्टि संकुचित हो
गई, लक्षणों की क़वायद पूरी करके वे
अपने कर्तव्य की समाप्ति मानने लगे। वे इस बात को भूल चले की किसी वर्णन का
उद्देश्य श्रोता के हृदय पर प्रभाव डालना है।
हमारा हृदय अनेक भावात्मक
? जगत अनेक
रूपात्मक है और हमारा हृदय अनेक भावात्मक है।
हृदय के दो पक्ष
? 'रस मीमांसा' में शुक्ल जी ने लिखा है कि मनुष्य के शरीर में जैसे दक्षिण और वाम दो पक्ष
हैं, वैसे ही उसके हृदय के भी कोमल
और कठोर, मधुर और तीक्ष्ण, दो पक्ष हैं और बराबर रहेंगे। काव्य-कला की पूरी रमणीयता इन दोनों पक्षों के
समन्वय के बीच मंगल या सौंदर्य के विकास में दिखाई पड़ती है।
अध्यात्म की ज़रूरत नहीं
? अध्यात्म
शब्द की मेरी समझ में काव्य या कला के क्षेत्र में कोई ज़रूरत नहीं है। ...इस
आनन्द शब्द ने काव्य के महत्व को बहुत कुछ कम कर दिया है... उसे नाच-तमाशे की तरह
बना दिया है।
वीरत्व और सौंदर्य की सत्ता
? जैसे
वीरकर्म से पृथक वीरत्व कोई पदार्थ नहीं, वैसे ही
सुंदर वस्तु से अलग सौंदर्य कोई पदार्थ नहीं।
? सौन्दर्य न
तो मात्र चेतना में होता है और न ही सिर्फ़ वस्तु में, दोनों के सम्बन्ध से ही
सौन्दर्यानुभूति होती है।
? विफलता में
भी एक निराला विषण्ण सौन्दर्य होता है।
स्वच्छ आलोचना
? शब्द-शक्ति, रस और अलंकार, ये विषय-विभाग काव्य-समीक्षा के
लिए, इतने उपयोगी हैं कि इनको
अन्तर्भूत करके संसार की नई-पुरानी सब प्रकार की कविताओं की बहुत ही सूक्ष्म, मार्मिक और स्वच्छ आलोचना हो सकती है। (काव्य में अभिव्यंजनावाद, चिन्तामणि, भाग-2)
साहित्य-दृष्टि
? हमें अपनी दृष्टि से दूसरे
देशों के साहित्य को देखना होगा, दूसरे देशों
की दृष्टि से अपने साहित्य को नहीं। (चिन्तामणि, भाग-2)
रसानुभूति
? हृदय के
प्रभावित होने का नाम ही रसानुभूति है। (चिन्तामणि, भाग-2)
समालोचना
? यह सब
आलोचना अधिकतर बहिरंग बातों तक ही रही। भाषा के गुण-दोष, रस, अलंकार आदि की समीचीनता इन्हीं
सब परम्परागत विषयों तक पहुँचीं। स्थायी साहित्य में परिगणित होने वाली समालोचना
जिसमें किसी कवि की अंतर्वृत्ति का सूक्ष्म व्यवच्छेदन होता है, उसकी मानसिक प्रवृत्ति की विशेषताएँ दिखार्इ जाती हैं, बहुत कम दिखार्इ पड़ी। (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
रसदशा
मुक्त हृदय
मनुष्य अपनी सत्ता को लोक सत्ता में लीन किए रहता है। लोक हृदय के लीन होने की दशा
का नाम रसदशा है। (रस मीमांसा)
भाव और
कल्पना
? काव्य के सम्बन्ध में भाव और
कल्पना౼ ये दो शब्द
बराबर सुनते-सुनते कभी-कभी यह जिज्ञासा होती है कि ये दोनों समकक्ष हैं या इनमें
कोर्इ प्रधान है। यह प्रश्न या इसका उत्तर ज़रा टेढ़ा है, क्योंकि रस-काल के भीतर इनका युगपद अन्योन्याश्रित व्यापार होता है।
(चिन्तामणि, भाग-2)
साहित्य के
स्वतंत्र और व्यापक विकास में सहायक
? किसी साहित्य में केवल शहर की
भद्दी नक़ल से अपनी उन्नति या प्रगति नहीं की जा सकती। बाहर से सामग्री आए ख़ूब आए, परन्तु वह कूड़ा-करकट के रूप में न इकटठी हो जाए। उसकी कड़ी परीक्षा हो, उस पर व्यापक दृष्टि से विवेचन किया जाय, जिससे हमारे
साहित्य के स्वतंत्र और व्यापक विकास में सहायता पहुँचे। (हिन्दी साहित्य का
इतिहास)
जनता की
चित्तवृत्ति
? प्रत्येक
देश का साहित्य वहाँ की शिक्षित जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है
तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के
स्वरुप में भी परिवर्तन होता चला जाता है| आदि से अंत
तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका
सामंजस्य दिखाना ही‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ कहलाता है। (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
कल्पना का
व्यापार
? काव्य की
पूर्ण अनुभूति के लिए कल्पना का व्यापार कवि और श्रोता दोनों के अनिवार्य है।
रसानुभूति
? हृदय के प्रभावित होने का नाम
ही रसानुभूति है। (चिन्तामणि, भाग-2)
आलोचना
? यह सब
आलोचना अधिकतर बहिरंग बातों तक ही रही। भाषा के गुण-दोष, रस, अलंकार आदि की समीचीनता इन्हीं
सब परम्परागत विषयों तक पहुँचीं। स्थायी साहित्य में परिगणित होने वाली समालोचना
जिसमें किसी कवि की अंतर्वृत्ति का सूक्ष्म व्यवच्छेदन होता है, उसकी मानसिक प्रवृत्ति की विशेषताएँ दिखार्इ जाती हैं, बहुत कम दिखार्इ पड़ी। (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
रस दशा
मुक्त हृदय मनुष्य
अपनी सत्ता को लोक सत्ता में लीन किए रहता है। लोक हृदय के लीन होने की दशा का नाम
रस दशा है। (रस मीमांसा)
भाव और कल्पना
? काव्य के सम्बन्ध में भाव और कल्पना౼ ये दो शब्द बराबर सुनते-सुनते
कभी-कभी यह जिज्ञासा होती है कि ये दोनों समकक्ष हैं या इनमें कोर्इ प्रधान है। यह
प्रश्न या इसका उत्तर ज़रा टेढ़ा है, क्योंकि
रस-काल के भीतर इनका युगपद अन्योन्याश्रित व्यापार होता है। (चितांमणि, भाग-2)
भाव
? भाव उनके
लिए मन की वेगयुक्त अवस्था विशेष है, प्रत्यक्ष
बोध अनुभूति और वेगयुक्त प्रवृत्ति इन तीनों के गुण संश्लेष का नाम भाव है। (रस मीमांसा)
? हृदय की
अनुभूति ही साहित्य में रस और भाव कहलाती है। (चिन्तामणि, भाग-2)
? मंगल का विधान करने वाले दो भाव
हैं।
? प्रत्यय बोध, अनुभूति और वेगयुक्त प्रवृत्ति— इन तीनों के गूढ़ संश्लेषण का नाम भाव है।
साहित्य के विकास में सहायक
? किसी
साहित्य में केवल शहर की भददी नक़ल से अपनी उन्नति या प्रगति नहीं की जा सकती।
बाहर से सामग्री आए ख़ूब आए, परन्तु वह
कूड़ा-करकट के रूप में न इकटठी हो जाए। उसकी कड़ी परीक्षा हो, उस पर व्यापक दृष्टि से विवेचन किया जाय, जिससे हमारे
साहित्य के स्वतंत्र और व्यापक विकास में सहायता पहुँचे। (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
श्रीकृष्ण की भूमिका
? हिन्दुओं के स्वातंत्र्य के साथ
वीर गाथाओं की परम्परा भी काल के अँधेरे में जा छिपी ह।| अंतः पर गहरी उदासी छा गयी थी ...... हृदय की अन्य वृत्तियों (उत्साह आदि) के
रंजनकारी रूप भी यदि वे चाहते तो कृष्ण में ही मिल जाते, पर उनकी ओर वे न बढे। भगवान के यह व्यक्त स्वरुप यद्यपि एकदेशीय थे ౼ केवल प्रेम
था ౼ पर उस समय नैराश्य के कारण जनता
के हृदय में जीवन की ओर से एक प्रकार की जो अरुची सी उत्पन्न हो रही थी उसे हटाने
में वह उपयोगी हुआ।
साहित्य का इतिहास
? प्रत्येक
देश का साहित्य वहाँ की शिक्षित जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है
तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के
स्वरुप में भी परिवर्तन होता चला जाता है| आदि से अंत
तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका
सामंजस्य दिखाना ही‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ कहलाता है। (हिन्दी साहित्य का
इतिहास)
अपभ्रंश कविता की धाराएँ
? डिंगल
कवियों की वीर-गाथाएँ निर्गुण सन्तों की वाणियाँ, कृष्ण भक्त या रागानुगा
भक्तिमार्ग के साधकों के पद, राम-भक्त या वैधी भक्तिमार्ग के उपासकों की कविताएँ, सूफ़ी साधना
से पुष्ट मुसलमान कवियों के तथा ऐतिहासिक हिन्दू कवियों के रोमांस और रीति-काव्य। ౼ये छहों धाराएँ अपभ्रंश कविता का स्वाभाविक विकास है।
भक्ति
? भक्ति धर्म
की रसात्मक अनुभूति है।
? कालदर्शी
भक्त कवि जनता के हृदय को सम्भालने और लीन रखने के लिए दबी हुई भक्ति को जगाने
लगे। क्रमशः भक्ति का प्रवाह ऐसा विकसित और प्रबल होता गया कि उसकी लपेट में केवल
हिन्दू जनता ही नहीं आई, देश में बसने वाले सहृदय
मुसलमानों में से भी न जाने कितने आ गए।
? भक्ति के लिए ब्रह्म का सगुण होना अनिवार्य हैं।
? निम्नलिखित में से कोम-सी उक्ति निबन्धकार रामचन्द्र
शुक्ल की नहीं है ?
(A) हृदय प्रसार का स्मारक स्तम्भ
काव्य है
(B) काव्य एक अखण्ड तत्त्व या शक्ति
है, जिसकी गति
अमर है।
(C) श्रद्धा और प्रेम के योग का भक्ति है।
(D) धर्म
रसात्मक अनुभूति का नाम भक्ति है।
(ये चारों उक्तियाँ आचार्य शुक्ल जी की हैं।)
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