शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

उर्वशी की प्रमुख पंक्तियाँ (तृतीय अंक, रामधारी सिंह 'दिनकर', NTANET/JRF के SYLLABUS में सम्मिलित) : HindiSahitya Vimarsh


उर्वशी की प्रमुख पंक्तियाँ (तृतीय अंक, रामधारी सिंह 'दिनकर', NTANET/JRF के SYLLABUS में सम्मिलित) : HindiSahitya Vimarsh

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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास
पुरूरवा
जब से हम-तुम मिले, न जानें, कितने अभिसारों में
रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है
उर्वशी
कामद्रुम-तल पड़ी तड़पती रही तप्त फूलों पर;
पर, तुम आए नहीं कभी छिप कर भी सुधि लेने को।
———
मिले, अन्त में, तब, जब ललना की मर्याद गँवाकर
स्वर्ग-लोक को छोड़ भूमि पर स्वयं चली मैं आई।
पुरूरवा
पर मन ने टोका, "क्षत्रिय भी भीख माँगते हैं क्या"?
और प्रेम क्या कभी प्राप्त होता है भिक्षाटन से ?
———
मिल भी गयी उर्वशी यदि तुमको इन्द्र की कृपा से ,
उसका हृदय-कपाट कौन तेरे निमित्त खोलेगा ?
बाहर साँकल नहीं जिसे तू खोल हृदय पा जाए,
इस मन्दिर का द्वार सदा अन्तःपुर से खुलता है।
———
और प्रीति जागने पर तुम वैकुण्ठ-लोक को तजकर
किसी रात, निश्चय, भूतल पर स्वयं चली आओगी।
पुरूरवा
अयशमूल दोनों विकर्म हैं, हरण हो कि भिक्षाटन
———
मैं मनुष्य, कामना-वायु मेरे भीतर बहती है
———
अन्धकार की मैं प्रतिमा हूँ? जब तक हृदय तुम्हारा
तिमिर-ग्रस्त है, तब तक ही मैं उस पर राज करूँगी?
———
और देह धर्मी नर फूलों के शरीर को तज कर
ललचाता है दूर गन्ध के नभ में उड़ जाने को।
———
तन से मुझको कसे हुए अपने दृढ़ आलिंगन में,
मन से, किन्तु, विषण्ण दूर तुम कहाँ चले जाते हो?
बरसा कर पियूष प्रेम का, आँखों से आँखों में
मुझे देखते हुए कहाँ तुम जाकर खो जाते हो?
कभी-कभी लगता है, तुमसे जो कुछ भी कहती हूँ
आशय उसका नहीं, शब्द केवल मेरे सुनते हो
क्षण में प्रेम अगाध, सिन्धु हो जैसे आलोड़न में
और पुनः वह शान्ति, नहीं जब पत्ते भी हिलते हैं
अभी दृष्टि युग-युग के परिचय से उत्फुल्ल हरी सी
और अभी यह भाव, गोद में पड़ी हुई मैं जैसे
युवती नारी नहीं, प्रार्थना की कोई कविता हूँ।
पुरूरवा
पर, सरोवर के किनारे कण्ठ में जो जल रही है,
उस तृषा, उस वेदना को जानता हूँ।
———
"अभी तक भी न समझा ?
दृष्टि का जो पेय है, वह रक्त का भोजन नहीं है।
रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है।"
———
"रूप की आराधना का मार्ग
आलिंगन नहीं तो और क्या है?
स्नेह का सौन्दर्य को उपहार
रस-चुम्बन नहीं तो और क्या है?"
———
यह तुम्हारी कल्पना है, प्यार कर लो।
———
कमल, कर्पूर, कुंकुम से, कुटज से
इस अतुल सौन्दर्य का श्रृंगार कर लो।"
गीत आता है मही से?
या कि मेरे ही रुधिर का राग
यह उठता गगन में ?
———
स्वर्णवर्णा वल्लरी में फूल से खिलते हुए मुख,
याद आता है निशा के ज्वार में उन्माद का सुख।
कामनाएँ प्राण को हिलकोरती हैं।
चुम्बनों के चिह्न जग पड़ते त्वचा में।
फिर किसी का स्पर्श पाने को तृषा चीत्कार करती।
———
रात भर, मानो, उन्हें दीपक सदृश जलना पड़ा हो,
नींद में, मानो, किसी मरुदेश में चलना पड़ा हो।
———
सत्य ही, रहता नहीं यह ज्ञान,
तुम कविता, कुसुम, या कामिनी हो
———
सांस में सौरभ, तुम्हारे वर्ण में गायन भरा है
———
कामनाओं के झकोरे रोकते हैं राह मेरी,
खींच लेती है तृषा पीछे पकड़ कर बाँह मेरी।
———
मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।
———
विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।
———
मैं तुम्हारे बाण का बींधा हुआ खग
वक्ष पर धर शीश मरना चाहता हूँ।
मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ
प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ।
———
चाहिए देवत्व,
पर, इस आग को धर दूँ कहाँ पर?
कामनाओं को विसर्जित व्योम में कर दूँ कहाँ पर?
वह्नि का बेचैन यह रसकोष, बोलो कौन लेगा ?
आग के बदले मुझे सन्तोष, बोलो कौन देगा?
———
उर्वशी
देवता, शेष जिसके मन में कामना, द्वन्द्व, परिताप नहीं
———
जब तक यह पावक शेष, तभी तक सिन्धु समादर करता है,
अपना मस्तक मणि-रत्न-कोष चरणों पर लाकर धरता है।
———
अप्सरा स्वर्ग से आती है अधरों का चुम्बन पाने को।
———
जो तुझे दीप्ति से सजती है, उस ज्वाला का अपमान न कर।
———
यह तो नर ही है, एक साथ जो शीतल और ज्वलित भी है,
मन्दिर में साधक-व्रती, पुष्प-वन में कन्दर्प ललित भी है।
योगी अनन्त, चिन्मय, अरुप को रूपायित करने वाला,
भोगी ज्वलन्त, रमणी-मुख पर चुम्बन अधीर धरने वाला
———
मानव मानव ही नहीं, अमृत-नन्दन यह लेख अमर भी है,
वह एक साथ जल-अनल, मृत्ति-महदम्बर, क्षर-अक्षर भी है।
———
तू मनुज नहीं, देवता, कान्ति से मुझे मंत्र-मोहित कर ले,
फिर मनुज-रूप धर उठा गाढ़ अपने आलिंगन में भर ले।
———
रसमयी मेघमाला बनकर मैं तुझे घेर छा जाऊँगी,
फूलों की छन्ह-तले अपने अधरों की सुधा पिलाऊँगी।
पुरूरवा
तुम मेरे बहुरंगे स्वप्न की मणि-कुट्टिम प्रतिमा हो,
नहीं मोहती हो केवल तन की प्रसन्न द्युति से ही,
पर, गति की भंगिमा-लहर से, स्वर से, किलकिंचित से,
और गूढ़ दर्शन-चिन्तन से भरी उक्तियों से भी।
———
उठते हैं तूफ़ान और संसार मरा करता है।
उर्वशी
रक्त बुद्धि से अधिक बली है और अधिक ज्ञानी भी,
क्योंकि बुद्धि सोचती और शोणित अनुभव करता है।
———
पढ़ो रक्त की भाषा को, विश्वास करो इस लिपि का;
यह भाषा, यह लिपि मानस को कभी न भरमाएगी
———
पाप दीखता वहाँ जहाँ सुन्दरता हुलस रही है
पुरूरवा
द्वन्द्व शूलते जिसे, सत्य ही, वह जन अभी मनुज है
देवी वह जिसके मन में कोई संघर्ष नहीं है।
———
रक्त बुद्धि से अधिक बली है, अधिक समर्थ, तभी तो
निज उद्गम की ओर सहज हम लौट नहीं पाते हैं।
———
दाह मात्र ही नहीं, प्रेम होता है अमृत-शिखा भी,
नारी जब देखती पुरुष की इच्छा-भरे नयन को,
नहीं जगाती है केवल उद्वेलन, अनल रुधिर में,
मन में किसी कान्त कवि को भी जन्म दिया करती है।
नर समेट रखता बाहों में स्थूल देह नारी की,
शोभा की आभा-तरंग से कवि क्रीड़ा करता है।
———
कवि, प्रेमी एक ही तत्व हैं, तन की सुन्दरता से
दोनों मुग्ध, देह से दोनों बहुत दूर जाते है,
———
देह प्रेम की जन्म-भूमि है, पर, उसके विचरण की,
सारी लीला-भूमि नहीं सीमित है रुधिर-त्वचा तक।
———
न तो पुरुष मैं पुरुष, न तुम नारी केवल नारी हो;
दोनों हैं प्रतिमान किसी एक ही मूलसत्ता के,
देह-बुद्धि से परे, नहीं जो नर अथवा नारी है।
———
सुनें अशब्दित वे विचार जिनमें सब ज्ञान भरा है
———
यह अति-क्रान्ति वियोग नहीं अलिंगित नर-नारी का
———
यह प्रदान उस आत्म-रूप का जिसे विमुग्ध नयन से
प्रक्षेपित करता है प्रेमी पुरुष प्रिया के मन में
———
वहाँ जहाँ कैलाश-प्रान्त में शिव प्रत्येक पुरुष है
और शक्तिदायिनी शिवा प्रत्येक प्रणयिनी नारी।
———
देह प्रेम की जन्म-भूमि है इस शैशव स्थली की
———
बाधक है ये प्रेम आप ही अपनी उर्ध्व प्रगति का।
उर्वशी
कसे रहो, बस इसी भाँति, उर-पीड़क आलिंगन में
और जलाते रहो अधर-पुट को कठोर चुम्बन से।
———
मर्मांतक है शान्ति और आनन्द एक दारुण है।
———
रजनी के अंगो पर कोई चन्दन लेप रहा है।
पुरूरवा
तिमिर शान्ति का व्यूह, तिमिर अन्तर्मन की आभा है
———
जब आता है अन्धकार, धरणी अशब्द होती है।
———
———
योगी बँधे अपार योग में, प्रणयी आलिंगन में।
———
जग भर की चेतना एक होकर अशब्द बहती है
किसी अनिर्वचनीय, सुखद माया के महावरण में।
———
बजती है रागिनी सुप्त सुन्दरता की साँसों की
या अपूर्व कविता चिर-विस्मृत किसी पुरातन कवि की।
उर्वशी
बहने दो निश्चेत शान्ति की इस अकूल धारा में,
देश-काल से परे, छूट कर अपने भी हाथों से।
पुरूरवा
कहीं समापन नहीं ऊर्ध्व-गामी जीवन की गति का,
काल-पयोनिधि का त्रिकाल में कोई कूल नहीं है।
———
रुको पान करने दो शीतलता शतपत्र कमल की;
एक सघन क्षण में समेटने दो विस्तार समय का,
एक पुष्प में भर त्रिकाल की सुरभि सूँघ लेने दो।
———
मिटा कौन? जो बीत गया, पीछे की ओर खड़ा है;
जन्मा अब तक नहीं, अभी वह घन के अन्धियाले में
बैठा है सामने छन्न, पर, सब कुछ देख रहा है।
———
महाशून्य का उत्स हमारे मन का भी उद्गम है,
बहती है चेतना काल के आदि-मूल को छूकर।
उर्वशी
हम त्रिलोकवासी, त्रिकालचर, एकाकार समय से
भूत, भविष्यत, वर्तमान, तीनों के एकार्णव में।

———
अन्तर्नभ का यह प्रसार! यह परिधि-भंग प्राणों का!
सुख की इस अपार महिमा को कहाँ समेट धरें हम?
पुरूरवा
महाशून्य के अन्तर्गृह में, उस अद्वैत-भवन में
जहाँ पहुँच दिक्काल एक हैं, कोई भेद नहीं है।
इस निरभ्र नीलांतरिक्ष की निर्झर मंजुषा में
सर्ग-प्रलय के पुरावृत्त जिसमें समग्र संचित हैं।
———
नारी बन जो स्वयं पुरुष को उद्वेलित करता है
और बेधता पुरुष-कान्ति बन हृदय-पुष्प नारी का।
निधि में जल, वन में हरीतिमा जिसका घनावरण है,
रक्त-मांस-विग्रह भंगुर ये उसी विभा के पट हैं।
———
देह मृत्ति, दैहिक प्रकाश की किरणें मृत्ति नहीं हैं,
अधर नष्ट होते, मिटती झंकार नहीं चुम्बन की;
यह अरूप आभा-तरंग अर्पित उसके चरणों पर,
निराकार जो जाग रहा है सारे आकारों में।
पुरूरवा
देह डूबने चली अतल मन के अकूल सागर में
किरणें फेंक अरूप रूप को ऊपर खींच रहा है।
पुरूरवा
छूट गई धरती नीचे, आभा की झंकारों पर
चढ़े हुए हम देह छोड़ कर मन में पहुँच रहे हैं
पुरूरवा
जब भी तन की परिधि पारकर मन के उच्च निलय में,
नर-नारी मिलते समाधि-सुख के निश्चेत शिखर पर।
उर्वशी
ये ऊर्मियाँ! अशब्द-नाद! उफ़ री बेबसी गिरा की!
दोगे कोई शब्द? कहूँ क्या कहकर इस महिमा को?
पुरूरवा
शब्द नहीं हैं; यह गूँगे का स्वाद, अगोचर सुख है;
प्रणय-प्रज्वलित उर में जितनी झंकृतियाँ उठती हैं
कहकर भी उनको कह पाते कहाँ सिद्ध प्रेमी भी?
भाषा रूपाश्रित, अरूप है यह तरंग प्राणों की।
पुरूरवा
जो अनेक कल्पों के अँधियाले में
तुम्हें खोजता फिरा तैरकर बारम्बार मरण को
जन्मों के अनेक कुंजों, वीथियों, प्रार्थनाओं में,
पर, तुम मिली एक दिन सहसा जिसे शुभ्र-मेघों पर
एक पुष्प में अमित युगों के स्वप्नों की आभा-सी।
पुरूरवा
जब से तुम आई धरती पर फूल अधिक खिलते हैं,
दौड़ रही कुछ नई दीप्ति-सी शीतल हरियली में।
उर्वशी
कितना है आनन्द फेंक देने में स्वयं-स्वयं को
पर्वत की आसुरी शक्ति के आकुल आलोड़न में?
पुरूरवा
भ्रान्त स्वयं या जान-बूझकर मुझ्को भ्रमा रही हो?
उर्वशी
भ्रान्ति नहीं, अनुभूति; जिसे ईश्वर हम सब कहते हैं,
शत्रु प्रकृति का नहीं, न उसका प्रतियोगी, प्रतिबल है।
———
किसने कहा तुम्हें, जो नारी नर को जान चुकी है,
उसके लिए अलभ्य ज्ञान हो गया परम सत्ता का;
और पुरुष जो आलिंगन में बाँध चुका रमणी को,
देश-काल को भेद गगन में उठने योग्य नहीं है?
ईश्वरीय जग भिन्न नहीं है इस गोचर जगती से;
इसी अपावन में अदृश्य वह पावन सना हुआ है।
———
शिखरों में जो मौन, वही झरनों में गरज रहा है,
ऊपर जिसकी ज्योति, छिपा है वही गर्त्त के तम में।
———
अच्छा है, ये पेड़, पुष्प इसके जिज्ञासु नहीं हैं,
हम हैं कौन, कहाँ से आए और कहाँ जाएँगे?
———
द्वन्द्व रंच भर नहीं कहीं भी प्रकृति और ईश्वर में,
द्वन्द्वों का आभास द्वैतमय मानस की रचना है।
———
क्योंकि प्रकृति औ पुरुष एक हैं, कोई भेद नहीं है।
———
दृश्य, अदृश्य एक हैं दोनों, प्रकृति और ईश्वर में
भेद गुणों का नहीं, भेद है मात्र दृष्टि का, मन का।
———
और यहाँ यह काम-धर्म ही उज्जवल उदाहरण है।
काम धर्म, काम ही पाप है, काम किसी मानव को
उच्च लोक से गिरा हीन पशु-जन्तु बना देता है।
और किसी मन में असीम सुषमा की तृषा जगाकर
पहुँचा देता उसे किरण-सेवित अति उच्च शिखर पर।
———
सोचा है, यह प्रेम कहीं क्यों दानव बन जाता है,
और कहीं क्यों जाकर मिल जाता रहस्य-चिन्तन से?
———
स्नेहाकृष्ट नहीं, तो यत्नों से, छल से, बल से भी,
तभी काम से बलात्कार के पाप जन्म लेते हैं।
———
तन का काम अमृत, लेकिन, यह मन का काम गरल है।
———
जब तक शेष प्रकृति, तब तक हम भी बहते जाएँगे
लीलामय की सहज, शान्त, आनन्दमयी धारा में।
पुरूरवा
कुसुम और कामिनी बहुत सुन्दर दोनों होते हैं
पर, तब भी नारियाँ श्रेष्ठ हैं कहीं कान्त कुसुमों से,
क्योंकि पुष्प हैं मूक और रूपसी बोल सकती है।
सुमन मूक सौन्दर्य और नारियाँ सवाक सुमन हैं।
———
सत्य, स्यात्, केवल आत्मार्पण, केवल शरणागति है
उसके पद पर, जिसे प्रकृति तुम, मैं ईश्वर कहता हूँ।
———
यह रहस्यमय रूप कहीं त्रिभुवन में और नहीं है,
सुर-किन्नर-गन्धर्व-लोक में अथवा मर्त्य-भुवन में।
———
बैठे थे निश्चेत, तभी नारी बन निकल पड़ी तुम
नारायण की महाकल्पना से, एकायन मन से?
उर्वशी
मैं मानवी नहीं, देवी हूँ; देवों के आनन पर
———
सघन कुंज, गोधुली, चाँदनी, ए यदि नहीं रहें तो
दिन की खुली धूप में कब तक जीवन चल सकता है?
———
मैं अदेह कल्पना, मुझे तुम देह मान बैठे हो;
मैं अदृश्य, तुम दृश्य देख कर मुझको समझ रहे हो
सागर की आत्मजा, मानसिक तनया नारायण की।
कब था ऐसा समय कि जब मेरा अस्तित्व नहीं था?
कब आएगा वह भविष्य कि जिस दिन मैं नहीं रहूँगी?
कौन पुरुष जिसकी समाधि में मेरी झलक नहीं है?
कौन त्रिया, मैं नहीं राजती हूँ जिसके यौवन में?
———
कहूँ कौन-सी बात और रहने दूँ कथा कहाँ की?
मेरा तो इतिहास प्रकृति की पूरी प्राण-कथा है,
उसी भाँति निस्सीम, असीमित जैसे स्वयं प्रकृति है।
पुरूरवा
बाँहों में जिसको समेटकर उर से लगा रहा हूँ,
रक्त-माँस की मूर्त्ति नहीं,वह सपना है, छाया है।
उर्वशी
मैं मनोदेश की वायु व्यग्र, व्याकुल, चंचल;
अवचेत प्राण की प्रभा, चेतना के जल में
मैं रूप-रंग-रस-गन्ध-पूर्ण साकार कमल।
———
पाषाणों के अनगढ़ अंगों को काट-छाँट
मैं ही निविडस्तननता, मुष्टिमध्यमा,
मदिरलोचना, कामलुलिता नारी।
———
भू-नभ का सब संगीत नाद मेरे निस्सीम प्रणय का है,
सारी कविता जयगान एक मेरी त्रयलोक-विजय का है।
———
तारों की झिलमिल छाया में फूलों की नाव बहाती हूँ,
मैं नैश प्रभा, सब के भीतर निश की कल्पना जगाती हूँ।
———
दो हृदयों का वह मूक मिलन, तन शिथिल, स्रस्त अतिशय सुख से,
अलसित आँखें देखतीं न कोई शब्द निकलता है मुख से।
कितनी पावन वह रस-समाधि! जब सेज स्वर्ग बन जाती है,
गोचर शरीर में विभा अगोचर सुख की झलक दिखाती है।
देवता एक है शयित कहीं इस मदिर शान्ति की छाया में
———
देवता प्रेम का सोया है, चुम्बन से उसे जगाओ रे!
———
मैं देश-काल से परे चिरन्तन नारी हूँ।
———
मैं भूत, भविष्यत, वर्तमान की कृत्रिम बाधा से विमुक्त;
मैं विश्वप्रिया।
———
अधरों में अपने अधरों की मदिरा उड़ेल,
मैं तुम्हें वक्ष से लगा
युगों की संचित तपन मिटाऊँगी।
पुरूरवा
पर, रहस्य हट जाने पर भी रहीं रहस्यमयी तुम;
मायावरण दूर कर देने पर भी तुम माया हो।
———
तुम त्रिकाल-सुन्दरी, अमर आभा अखण्ड त्रिभुवन की,
सभी युगों से, सभी दिशाओं से चल कर आई हो
———
एक पुष्प में सभी पुष्प, सब किरणें एक किरण में
तुम संहित, एकत्र एक नारी में सब नारी हो।
———
पर, दिगन्त-व्यापिनी चन्द्रिका मुक्त विहरनेवाली
व्योम छोड़कर सिमट गई जो मेरे भुज पाशों में;
———
जहाँ-जहाँ तुम खिलीं स्यात् मैं ही मलयानिल बनकर
तुम्हें घेरता आया हूँ अपनी आकुल बाँहों से।
———
जहाँ-जहाँ तुम रही, निष्पलक नयनों की आभा से
रहा सींचता मैं, आगे तुम जहाँ-जहाँ जाओगी,
साथ चलूँगा मैं सुगन्ध से खिंचे हुए मधुकर-सा
या कि राहु जैसे विधु के पीछे-पीछे चलता है।
उर्वशी
हिम-स्नात, सिक्त वल्लरी-पुजारिन को देखो,
पति को फूलों का नया हार पहनाती है

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