सोमवार, 19 अगस्त 2019

सतपुड़ा के घने जंगल (भवानीप्रसाद मिश्र रचित कविता, NTANET/JRF के पाठ्यक्रम में सम्मिलित) : Hindi Sahitya Vimarsh



सतपुड़ा के घने जंगल (भवानीप्रसाद मिश्र रचित कविता, NTANET/JRF के पाठ्यक्रम में सम्मिलित) : HindiSahitya Vimarsh


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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास

सतपुड़ा के घने जंगल।
नींद में डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
झाड़ ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मीचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।
सड़े पत्ते, गले पत्ते,
हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढंक रहे-से
पंक-दल में पले पत्ते।
चलो इन पर चल सको तो,
दलो इनको दल सको तो,
ये घिनौने, घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
अटपटी-उलझी लताएँ,
डालियों को खींच खाएँ,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाएँ।
सांप सी काली लताएँ
बला की पाली लताएँ
लताओं के बने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
मकड़ियों के जाल मुँह पर,
और सर के बाल मुँह पर
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात-झंझा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल,
नींद में डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
अजगरों से भरे जंगल।
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े-छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,
कम्प से कनकने जंगल,
नींद में डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
इन वनों के ख़ूब भीतर,
चार मुर्ग़े, चार तीतर
पालकर निश्चिन्त बैठे,
विजनवन के बीच बैठे,
झोंपड़ी पर फूँस डाले
गोंड तगड़े और काले।
जब कि होली पास आती,
सरसराती घास गाती,
और महुए से लपकती,
मत्त करती बास आती,
गूँज उठते ढोल इनके,
गीत इनके, बोल इनके
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्ग़े और तीतर,
इन वनों के ख़ूब भीतर।
क्षितिज तक फैला हुआ सा,
मृत्यु तक मैला हुआ सा,
क्षुब्ध, काली लहर वाला
मथित, उत्थित ज़हर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भू और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल,
नींद में डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
धँसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
उतरकर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी, निर्झर और नाले,
इन वनों ने गोद पाले।
लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फूल, फलियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय
सतपुड़ा के घने जंगल,
लताओं के बने जंगल।

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