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µमुहम्मद इलियास हुसैन
शब्द सारे धुल हैं, व्याकरण सारे
ढोंग
किस क़द्र ख़ामोश हैं चलते हुए लोग ।
ये पंक्तियां हैं उत्तर प्रदेश के बलिया जि़ले के चकिया गांव
में 7 जुलाई 1934 को जन्मे सुप्रसिद्ध साहित्यकार और कवि केदारनाथ सिंह की,
जिन्हें पिछले
दिनों संसद भवन के बालयोगी ऑडिटोरियम में राष्ट्रपति
श्री प्रणव मुखर्जी ने वर्ष 2013 का 49वां ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़ा।
केदारनाथ सिंह यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले हिन्दी के 10वें
लेखक हैं । इससे पहले हिन्दी के जिन महान साहित्यकारों को यह पुरस्कार प्रदान किया
गया है उनके नाम हैंµ सुमित्रानन्दन
पंत ;1969 में ‘चितम्बरा’पर), रामधरीसिंह ‘दिनकर, 1972 में ‘उर्वशी’
पर), अज्ञेय (1974 में ‘कितनी नावों
में कितनी बार’
पर) महादेवी वर्मा (1982 में ‘यामा’
पर), नरेश मेहता (1972, निर्मल वर्मा
(1999 में पंजाबी लेखक कर्तारसिंह दुग्गल के साथ संयुक्त रूप से) कुंवर नारायण (2005) और श्रीलाल
शुक्ल एवं अमरकांत (2009 में संयुक्त रूप से) । पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार मलयालम के लेखक
गोविंद शंकर कुरुप (1965) में प्राप्त हुआ था ।
केदारनाथ सिंह को कविता-संग्रह ‘अकाल में सारस’
के लिए साहित्य
अकादमी पुरस्कार (1989) में प्रप्त हुआ था। इसके अतिरिक्त वे मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, कुमारआशान
पुरस्कार (केरल), दिनकर पुरस्कार, जीवन-भारती
सम्मान (उड़ीसा) और व्यास सम्मान सहित अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार और सम्मानों से सम्मानित
हो चुके हैं ।
पुरस्कार-वितरण समारोह में केदारनाथ सिंह की कविता पर बोलते
हुए राष्ट्रपति महोदय ने कहा कि उनका काव्य अर्थ,
रंग और स्वीकृति
का एक कोलाज प्रस्तुत करता है । उन्हें अद्वितीय कवि बताते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि
उनका दृष्टिकोण आधुनिक सौन्दर्यशास्त्र के प्रति संवेदनशीलता के साथ पारंपरिक ग्रामीण
समुदायों को परिलक्षित करता है । उनकी कविताओं के माध्यम से हमें अनुप्रास एवं काव्यात्मक
गीत की दुर्लभ संगति मिली है और उन्होंने अपनी कविताओं में यथार्थ एवं गल्प को एक समान
रूप से समाहित किया है । राष्ट्रपति ने कहा कि उनकी इच्छा है कि देश की युवा पीढ़ी
कालजयी भारतीय साहित्य का गहराई से अध्ययन करे । इससे न केवल नैतिक मानदंडों को ठीक-ठाक
करने में मदद मिलेगी, बल्कि राष्ट्र
निर्माण के हमारे प्रयासों में योगदान होगा ।
भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक लीलाधर मंडलोई ने कहा कि केदानरनाथ
सिंह की कविताओं में परंपरा और आधुनिकता का सुन्दर ताना-बाना है । यथार्थ और फ़ंतासी, छंद और छंदेतर की महीन बुनावट उनके काव्य शिल्प में एक अलग रंग
भरती है ।
केदारनाथ सिंह ने बनारस विश्वविद्यालय से 1956 ई॰ में हिन्दी
में एम॰ ए॰ और 1964 में पीएच॰ डी॰ की और फिर कई कॉलेजों में पढ़ाया । अन्त में, जे॰ एन॰ यू॰ में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद से रिटायर्ड हुए
। अज्ञेय ने ‘तीसरा सप्तक’
(1959) में
सात कवियों की कविताएं संकलित कीं, जिनमें केदारनाथ
सिंह की कविताएं भी शामिल हैं।
उनकी कविता ‘एक पुरबिहा
का आत्मकथ्य’
स्थानीय और
वैश्विक भाव-बोध का सुन्दर उदाहरण है । यह कविता भारतीय होने ‘अन्य राष्ट्रवादी के अर्थ में नहीं’
को भी सुन्दर
ढंग से व्यंजित करती है । कविता की अंतिम पंक्तियां हैंµ
इस समय मैं यहां हूं
पर ठीक इसी समय
बग़दाद में जिस दल को
चीर गई गोली
वहां भी हूं
हर गिरा ख़ून
अपने अंगोछे से पोंछता
मैं वही पुरबिहा हूं
जहां भी हूं ।
हमारे विश्व-समाज का सर्वांग प्रदूषित हो चुका है । इसका इलाज
सुझाती केदारनाथ सिंह की कविता की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैंµ
इतनी गर्द भर गई है दुनिया में
कि हमें ख़रीद लाना
चाहिए एक झाड़ू
आत्मा के गलियारों के लिए
और चलाना चाहिए दीर्घ एक अभियान
अपने सामने की नाली से
उत्तरी ध्रुवान्त तक । (तालस्ताय और साइकिल)
आजकल काला-धन का बड़ा हंगामा है। यहां तो सब कुछ काला ही काला
हो चुका है, यहां तक कि
युगबोध भीµ
काली मिट्टी
काली नदियां काला धन
सूख रहे हैं सारे बन
काली बहसें काला न्याय
ख़ाली मेज़ पी रही चाय
काले अक्षर काली रात
कौन करे अब किससे बात
काली जनता काला क्रोध
काला-काला है युगबोध
उदारीकरण से सबसे अघिक लाभ पूंजीपति वर्ग को हुआ है। यह
वर्ग चांदी काट रहा है। पूरी दुनिया में ‘ताप और ऊर्जा’ (आग और
पानी !) का खेल खेलकर पृथ्वी पर ही नहीं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर उस ‘सम्पन्न सौदागर’ एकाधिकार होता जा रहा है, कवि इस बात को ख़ूब अच्छी तरह जानता हैµ
मैं उसे इसलिए भी जानता हूं
कि वह ब्रह्माण्ड का
सबसे सम्पन्न सौदार है
जो मेरी पृथ्वी के साथ
ताप और उإर्जा का तिजारत
करता है
ताकि उसका मोइबाल
होता रहे चार्ज ।
विभाजन की त्रासदी मुसलमानों को भी झेलना पड़ा । वे बेघर हुए
। जान-माल से हाथ धोना पड़ा। कवि के गांव का एक मुसलमान ‘नूर मियां’ घर-बार त्यागकर
कहीं भाग जाना पड़ा । विभाजन की त्रासदी भरे उस माहौल में वह कहां गया, किसी को पता
नहीं। ‘सन 47 को
याद करते हुए’ कविता में
कवि ख़ुद से सवाल करता हैµ
तुम्हें नूर मियां की याद है केदारनाथ सिंह,
गेहुंए नूर मियां
ठिगने नूर मियां
रामगढ़ बाज़ार में सुर्मा बेचकर
सबसे अख़ीर में लौटाने वाले नूर मियां
क्या कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह ?
याद है मदरसा
इमली का पेड़
इमामबाड़ा
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहां हैं
ढाका
या मुल्तान में ?
एक ‘वृहत्तर भारत’का सपना कवि
देखता है । परन्तु वह अपने सपने को साकार होता नहीं देखता । इसलिए इस सपने को वह अपने
भीतर बसी एक पागल स्त्री का सपना मानता है, क्योंकि तीनों देशों (भारत,
बांगलादेश
और पाकिस्तान) के राजनेता शायद इसे साकार होना नहीं देना चाहते । कुर्सी का जो सवाल
है । ‘बर्लिन की
टूटी दीवार को देखकर’कविता में
कवि-मन की वह पागल स्त्री चीख़-पुकारकर तीनों देशों के बाशिन्दों से पूछती हैµ
पर मुझे लगता है मेरे भीरत की वह पागल स्त्री
अब एक दीवार के आगे खड़ी है
और चीख़ रही हैµ
यह दीवार
आखि़र यह दीवार
कब टूटेगी ?
समाज में अनाचार, अन्याय, अत्याचार के खि़लाप़फ आवाज़ उठाने वालों की संख्या आटे में नमक
के बराबर रह गई है । इसलिए उन सारी जगहों पर भी चुप्पियों का साम्राज्य है, जहां बोलना ज़रूरी हैµ
चुप्पियां बढ़ती जा रही हैं
उन सारी जगहों पर
जहां बोलना ज़रूरी था ।
डॉ॰ बच्चन सिंह के शब्दों में,
¶छायावादोत्तर कवियों में केदारनाथ सिंह सबसे अधिक सचेत कवि हैं
वाक् और अर्थ दोनों के प्रति। .......जीवन का इतना वैविध्य,
प्रतिपत्तिमूलक
(जेनेरिव) भाषा का किंश्चित् जटिल, किन्तु सरस
और लयात्मक प्रयोग अन्यत्र कम मिलेगा।¸ (आधुनिक
हिन्दी साहित्य का इतिहास, संस्करण :
2013, पृ॰ 299)
केदारनाथ सिंह की प्रमुख कृतियां
कविता-संग्रह : अभी बिल्कुल अभी (1960), ज़मीन पक रही है (1980),
यहां से देखो
(1983), अकाल में सारस (1988), उत्तर कबीर और अन्य कविताएं (1995),
बाघ (1996), तालस्ताय और साइकिल (2005),
सृष्टि पर
पहरा (2014)।
आलोचना : कल्पना और छायावाद,
आधुनिक हिन्दी
कविता में बिम्बविधन, मेरे समय
के शब्द, क़ब्रिस्तान
में पंचायत, मेरे साक्षात्कार
(2003) ।
सम्पादन : ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएं,
कविता दशक, साखी (अनियतकालिक पत्रिका)
शब्द (अनियतकालिक
पत्रिका)।