शनिवार, 4 मार्च 2017

निराला की काव्य-पंक्तियाँ

निराला की काव्य-पंक्तियाँ

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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन

सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास

कथन

'परिमल' की भूमिका में निराला ने लिखा है
"
मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्य की मुक्ति कर्म के बन्धन में छुटकारा पाना है और कविता मुक्त छन्दों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र। इसी तरह कविता का भी हाल है।"
'मेरे गीत और कला' शीर्षक निबन्ध में निराला ने लिखा है
"
भावों की मुक्ति छन्दों की मुक्ति चाहती है। यहाँ भाषा, भाव और छन्द तीनों स्वछन्द हैं।"
'परिमल' के द्वितीय खण्ड की रचनाएँ स्वच्छन्द छन्द में लिखी गयी हैं, जिसे निराला 'मुक्तिगीत' कहते हैं।
"साहित्य साधना से बनता है। हमें केवल रुपया तो कमाना नहीं है। साहित्य ऐसा देना है,जो जनहित का हो और उसमें कुछ जान हो, पर लोग समझते ही नहीं।" स्वयं निरालाजी के शब्द
"निरालाजी का जीवन निम्नतम स्तर के भारतीय का जीवन है और ऐसा जीवन बिताकर इतनी ऊँची साहित्य-साधना निरालाजी ही कर सकते हैं।" महादेवी वर्मा
"हिन्दी की मधुरता के साथ इस समय विशेष ओज की भी ज़रूरत है।" निराला, पंत और पल्लव
"निरालाजी का हिन्दी में विरोध उनके वर्ण्य-विषय के कारण नहीं, बल्कि उनके नूतन मुक्त छन्द और उनके नूतन सोन्दर्य-बोध के कारण हुआ। उनके मुक्त छन्द को किसी ने 'स्वर छन्द' और किसी ने 'केचुआ छन्द' की संज्ञा दी।" भगीरथ मिश्र, निराला साहित्य-संदर्भ, पृ. 29
"महाकवि को जब जिस भाव को व्यक्त करने की आवश्यकता होती थी, सरस्वती का वही रूप नाचता गाता उसके सामने प्रस्तुत होता था।" कैलाशचन्द्र भाटिया, निराला साहित्य-संदर्भ, पृ.193
"मैंने अपनी शब्दावली को काव्य के स्वर से भी मुखर करने की कोशिश की है।" निराला, गीतिका की भूमिका में
"जब वे अत्यन्त प्रसन्न रहते हैं तो अपनी मातृभाषा बैसवाड़ी में वार्तालाप करते हैं। बंगला में बोलते समय भी प्रसन्न ही रहते हैं, क्योंकि वह भी उनके लिए मातृभाषावत् ही है, किन्तु जब वे किंचित रुष्ट हो जाते हैं तो संस्कृतगर्भित हिन्दी का प्रयोग करने लगते हैं, किन्तु जब विशेष रौद्रभाव के आवेश में आते हैं तो अंग्रेज़ी बोलने लगते हैं।" डॉ. उदयनारायण तिवारी, डॉ. कैलाशचन्द्र भाटिया द्वारा उद्धृत, निराला साहित्य-संदर्भ, पृ.186
निरालाजी के 'वर्तमान धर्म' (भारत, 1932 ई.) शीर्षक लेख का साहित्य-संसार में घोर विरोध हुआ। इस लेख की आलोचना करनेवाले पहले व्यक्ति थे पं. बनारसीदास चतुर्वेदी। चतुर्वेदीजी ने अपने 'विशाल भारत' में 'साहित्यिक सन्निपात'  शीर्षक से अपना लेख प्रकाशित किया। निरालाजी ने अपने विरेधियों का उत्तर 'साहित्यिकों और तथा साहित्य-प्रेमियों से नम्र निवेदन' शीर्षक से 'सुधा' में दिया। परन्तु 1935 ई. तक उनका विरोध होता रहा।
"नए कवि का विश्वास 'उस मानव के प्रति है जो बड़ा भले ही न हो,किन्तु लघु होने के साथ अपने प्रति जागरूक है....नएपन में जो चीज़ सर्वथा नये रूप से विकसित हो रही है वह है लघु मानव और उसके परिवेश की प्रतिष्ठा-स्थापना।" डॉ. लक्ष्मीकान्त वर्मा, नयी कविता के प्रतिमान, श्यामसुन्दर दास  द्वारा उद्धृत, निराला साहित्य-संदर्भ, पृ.169

निराला की काव्य-पंक्तियाँ
मानव मानव से नहीं भिन्न/निश्चय, हो श्वेत, कृष्ण अथवा/वह नहीं क्लिन्न/ भेदकर पंक/ निकलता कमल जो मानव का/यह निष्कलंक। अनामिका
और मुखर पायल-स्वर करें बार-बार/प्रिय पथ पर चलती सब कहते श्रृंगार।
दुख के सुख जियो, पियो ज्वाला/शंकर की स्मर-शर की हाला।
कनक-कसौटी पर कढ़ आया/स्वच्छ सलिल पर कर की छाया। अर्चना
हरि भजन करो भू-भार हरो/भव-सागर निज उद्धार तरो। आराधना
बन्दूँ पद सुन्दर तव/छन्द नवल स्वर गौरव। गीतिका
बीती रात सुखद बातों में पराग पवन प्रिय बोली/उठी संभाल बाल, मुख लट, पट, दीप बुझा हंस बोली/रही यह एक ठिठोली।
हिल हिल/खिल खिल/हाथ मिलाते/ तुझे बुलाते/विप्लवरव से छोटे ही हैं शोभा पाते।
सुन प्रिय की पदचाप हो गई पुलकित यह अवनी। वसन्त-रजनी
डोलती नाव, प्रखर है धार/संभालो जीवन खेवनहार। परिमल
देवि, तुम्हें क्या दूँ? /क्या है, क्या है कुछ भी नहीं, ढो रहा साधना-भार/एक विफल रोदन का है यह हार,एक उपहार/भरे आँसुओँ में है असफल कितने विफल प्रयास/झलक रही है मनोवेदना, करुणा, पर उपहास।
भाषा तुम पिरो रही हो शब्द तोलकर/किसका यह अभिनन्दन होगा। बहू
सखी, वसन्त आया/भरा हर्ष वन के मन/नवोत्कर्ष छाया।
भजन कर हरि के चरण, मन/पार कर मायावरण, मन। अर्चना
हरि का मन से गुण-गान करो।
आँखों में नवजीवन का तू अंजन लगा पुनीत। उदबोधन
पास ही रे हीरे की खान/ खोजता कहाँ तू नादान।
करना होगा यह तिमिर पार/देखना सत्य का मिहिर द्वार।
बादल छाए/ये मेरे अपने सपने/आँकों से निकले मंडलाए।
स्नेह निर्झर बह गया है/रेत ज्यों तन रह गया है।
रूप के गुण गगन चढ़कर/मिलूँ, तुमसे ब्रह्म। अर्चना
जागा जागा संस्कार प्रबल/रे गया काम तत्क्षण वह जल/देखा वामा, वह न थी, अनल प्रमिता वह/इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान। हो गया भस्म वह प्रथम भान/छूटा जग का जो रहा ध्यान।
हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ शोकगीत सरोज-स्मृति में लिखते हैं
मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल/युग वर्ष बाद जब हुई विकल/दुख ही जीवन की कथा रही/क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।
वह तोड़ती पत्थर/देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर/वह तोड़ती पत्थर/
कोई न छायादार पेड़/वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार/श्याम तन
, भर बंधा यौवन/
नत नयन प्रिय
, कर्म-रत मन/गुरु हथौड़ा हाथ/करती बार-बार प्रहार/सामने तरू-मालिका अट्टालिका प्राकार।
आज नहीं है मुझे और कुछ चाह/अर्ध विकच इस हृदय-कमल में आ तू/प्रिये छोड़ बन्धनमय छन्दों की छोटी राह/गजगामिनी, वह पथ तेरा संकीर्ण कंटकाकीर्ण/कैसे होगी उससे पार। प्रगल्भ प्रेम (अनामिका)
छूटता है यद्यपि अधिवास, किन्तु फिर भी न मुझे त्रास। अधिवास  (1916 ई.)
आँख लगाई/ तुमसे, जबसे/हमने चैन न पाई। अर्चना
हो गया व्यर्थ जीवन/मैं रण में गया हार/सोचा न कभी/अपने भविष्य की रचना पर चल रहे हैं सभी। बन बेला
धन्ये, मैं पिता निर्थक था/कुछ भी तेरे हित न कर सका.....लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर/हारता रहा मैं स्वार्थ समर। सरोज-स्मृति
मेरा जीवन वज्र कठोर/देना जी भर झकझोर,
मेरे दुख की गहन अंधतम/निशि न कभी हो भोर,
क्या होगी इतनी उज्ज्वलता/इतना वन्दनअभिनन्दन?
जीवन चिरकालिक क्रन्दन। अनामिका
देख पुष्प द्वार
परिमल मधु लुब्ध मधुप करता गुंजार। परिमल
पड़े हुए सहते अत्याचार/पद-पद पर सदियों से पद-प्रहार। कण
कितने ही हैं असुर, चाहिए तुझको कितने हार? /कर-मेखला मुंडमालाओं से बन-बन अभिरामा
एक बार और बस नाच  तू श्यामा।
अट्टहास-उल्लास नृत्य का होगा वह आनन्द/विश्व की इस वीणा के टूटेंगे सब तार/बन्द हो जाएंगे ये सारे कोमल छन्द/सिन्धुराग का होगा तब आलाप /उत्ताल तरंग भंग कर देंगे /मां मृदंग के सुस्वर क्रिया-कलाप।
और देखूँगा देते ताल/करतल-पल्लव-दल से निर्जन वन के सभी तमाल, /
निर्झर के झर-झर स्वर में तू सरगम मुझे सुना माँ /एक बार और बस नाच  तू श्यामा।
जानता हूँ, सभी नदी झरने/जो मुझे भी पार करने /
कर चुका हूँ, हंस रहा यह देख कोई नहीं मेला /मैं अकेला।
झर-झर झर-धारा झरकर पल्लव-पल्लव पर नवजीवन।
'पंचवटी-प्रसंग' (नाट्य काव्य, 1922 ई.) में निरालाजी ने श्रीराम की गाथा का चित्रण किया है। इसमें गोस्वामी तुलसीदास का भक्तिभाव उभरकर सामने आया है। लक्ष्मण कहते हैं
मुक्ति नहीं जानता मैं/भक्ति रहे काफ़ी है।
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक/चल रहा लकुटिया टेक/मुट्ठी भर दाने को/ 
भूख मिटाने को/मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता/दो टूक कलेजे के करता पछताता।
ठहरो अहा, मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा।/अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम/तुम्हारे दुख में अपने हृदय में खींच लूँगा।
होगी जय, होगी जय/हे पुरुषोत्तम नवीन/कह महाशक्ति राम के बदन में हुईं लीन।
अभी न होगा मेरा अंत/ अभी-अभी तो आया हैमेरे वन मृदुल वसन्त/अभी न होगा मेरा अन्त।’   
विजन-वन वल्लरी पर/सोती थी सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न/अमल कोमिल तन तरूणी जूही की कली/दृग बंद कियेशिथिल पत्रांक में/वासन्ती निशा थी।
रोक-टोक से कभी नहीं रुकती है/यौवन-मद की बाढ़ नदी की/किसे देख झुकती है/गरज-गरज वह क्या कहती हैकहने दो/अपनी इच्छा से प्रबल वेग से बहने दो/यौवन के चरम में प्रेम के वियोगी स्वरूप को भी उन्होंने उकेरा/छोटे से घर की लघु सीमा में/बंधे हैं क्षुद्र भाव/यह सच है प्रिय/प्रेम का पयोधि तो उमड़ता है/सदा ही निःसीम भूमि पर। 
तोड़ोतोड़ोतोड़ो कारा/पत्थर कीनिकलो फिर गंगा-जलधारा/गृह-गृह की पार्वती/पुनः सत्य-सुन्दर-शिव को सँवारती/उर-उर की बनो आरती/भ्रान्तों की निश्चल ध्रुवतारा/तोड़ोतोड़ोतोड़ो कारा।
यमुना की ध्वनि में/है गूँजती सुहाग-गाथा/सुनता है अन्धकार खड़ा चुपचाप जहाँ/
आज वह फ़िरदौस
, सुनसान है पड़ा/शाही दीवान आम स्तब्ध है हो रहा है/
दुपहर को
, पार्श्व में/उठता है झिल्ली रव/बोलते हैं स्यार रात यमुना-कछार में/
लीन हो गया है रव/शाही अँगनाओं का/निस्तब्ध मीनार
, मौन हैं मक़बरे।
प्रेम का पयोधि तो उमड़ता है/सदा ही नि:सीम भूमि पर।

कविताएँ

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