शनिवार, 31 दिसंबर 2016

मन्नू भंडारी की रचनाएँ

जन्म : 3 अप्रैल 1931 को मध्य प्रदेश के भानपुरा नगर में।

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कहानी-संग्रह
#मैंहा र गई (1957)
#एक प्लेट सैलाब (1962)
#यही सच है (1966) 
#तीन निगाहों की एक तस्वीर' (1968) 
#त्रिशंकु (1978)
#आंखों देखा झूठ
#नायक खलनायक विदूषक
#रानी माँ का चबूतरा 
उपन्यास
  • आपका बंटी  (1971)
  • महाभोज (1979) 
  • स्वामी
  • एक इंच मुस्कान (1962)
  • कलवा

नाटक
  • बिना दीवारों का घर (1966)
फ़िल्म पटकथाएँ
  • रजनीगंधा
  • निर्मला
  • स्वामी
  • दर्पण।
  • महाभोज का नाट्य रूपान्तरण (1983)
आत्मकथा
  • कहानी यह भी (2007)
प्रौढ़ शिक्षा के लिए


गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

कृष्णा सोबती की रचनाएँ

कृष्णा सोबती की रचनाएँ 

(18 फ़रवरी, 1925)


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उपन्यास
  • 'सूरजमुखी अंधेरे के' (1972)
  • 'ज़िन्दगीनामा' (1979)
  • 'दिलो-दानिश' (1993)
  • 'समय सरगम' (2000)
कहानी-संग्रह
  • पहली कहानी 'लामा' (1950)
  • 'बादलों के घेरे'
  • 'डार से बिछुड़ी''
  • यारों के यार'
  • 'तीन पहाड़'
  • 'मित्रो मरजानी'
  • सिक्का बदल गया

सिक्का बदल गया (भारत-पाक विभाजन पर), बदली बरस गईजैसी कहानियाँ भी तेज़ी-तुर्शी में पीछे नहीं। डॉ. रामप्रसाद मिश्र ने कृष्णा सोबती की चर्चा करते हुए दो टूक शब्दों में लिखा है: उनके ज़िन्दगीनामा जैसे उपन्यास और मित्रो मरजानी जैसे कहानी संग्रहों में मांसलता को भारी उभार दिया गया है...केशव प्रसाद मिश्र जैसे आधे-अधूरे सैक्सी कहानीकार भी कोसों पीछे छूट गए। बात यह है कि साधारण शरीर की अकेलीकृष्णा सोबती हों या नाम निहाल दुकेली, मन्नु-भण्डारी या प्राय: वैसे ही कमलेश्वर...अपने से अपने कृतित्व को बचा नहीं पाए...कृष्णा सोबती की जीवनगत यौनकुंठा उनके पात्रों पर छाई रहती है।

पुरस्कार-सम्मान

1980             'साहित्य अकादमी पुरस्कार' ('ज़िन्दगीनामा पर)
1981           'शिरोमणी पुरस्कार'
1982           'हिन्दी अकादमी अवार्ड'
1996           'साहित्य अकादमी फ़ेलोशिप'
1999           'कछा चुडामणी सम्मान'
इसके अतिरिक्त इन्हें 'मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार' भी प्राप्त हो चुका हैं।

दीप्ति खण्डेलवाल (1930)

कहानी-संग्रह

  • कड़वे सच (1975)
  • धूप के अहसास (1976)
  • वह तीसरा (1976)
  • सलीब पर (1977)
  • दो पल की छाँव (1978)
  • नारी मन (1979)
  • औरत और बातें (1980)

शनिवार, 24 दिसंबर 2016

सुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ

       (1904-1948)

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कविता-संग्रह
  •  मुकुल़
  • त्रिधारा
कहानी-संग्रह
  • बिखरे मोती (1932, भग्नावशेष, होली, पापीपेट, मंझलीरानी, परिवर्तन, दृष्टिकोण, कदम के फूल, किस्मत, मछुये की बेटी, एकादशी, आहुति, थाती, अमराई, अनुरोध, व ग्रामीणा कुल 15 कहानियां)
  • उन्मादिनी (1934, उन्मादिनी, असमंजस, अभियुक्त, सोने की कंठी, नारी हृदय, पवित्र ईर्ष्या, अंगूठी की खोज, चढ़ा दिमाग, व वेश्या की लड़की कुल 9 कहानियां)
  • सीधे साधे चित्र (1947, इसमें कुल 14 कहानियां) सुभद्रा कुमारी चौहान ने कुल 46 कहानियां लिखी!,
जीवनी
  • 'मिला तेज से तेज' (1970, सुधा चौहान)
डायरी
  • बन्दिनी की डायरी (सुधा चौहान)।

महादेवी वर्मा (1907 –1987)

काव्य
गद्य
विविध संकलन
  • स्मारिका
  • स्मृति चित्र
  • संभाषण
  • संचयन
  • दृष्टिबोध
पुनर्मुद्रित संकलन
निबंध

 

गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

हिंदी के संत कवि

हिंदी के संत कवि


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1398-1518 कबीर  बीजक
1398-1448 रैदास  रविदास की वाणी
1469-1538 गुरुनानक  जपूजी, असादीवार, रहिदास, सोहिला
1455-1543  हरिदास निरंजनी अष्टपदी, जोगग्रंथ, हंसप्रबोध ग्रंथ
1554-1603 दादूदयाल हरडेवाणी अंगवधू
1574-1682  मलूकदास ज्ञानबोध, रतनखान भक्ति विवेक भक्तवच्छावली, राम अवतार लीला ब्रज लीला, ध्रुवचरित, सुखसागर
1596-1689  सुन्दरदास ज्ञानसमुद्र, सुन्दर विलास
1540-1648 लालदास
1590-1655 बाबा लाल
15671689  संत रज्जब सब्बंगी, रज्जब वाणी 14472-1552
1563-1606 गुरु अर्जुन देव सुखमनी, बावन, अक्षरी
1472-1552  शेख फरीद

अष्टछाप के कवि कालक्रमानुसार

अष्टछाप के कवि कालक्रमानुसार

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स्मरण-सूत्र  :  कु सू प कृ गो छी च न
1525    कुम्भनदास
1535    सूरदास
1550    परमानंद दास
1553    कृष्णदास
1562    गोविंदस्वामी
1572    छीतस्वामी
1587    चतुर्भुजदास
1590    नंददास

कुम्भनदास (1525)


जन्म सन् 1468 ई. में, सम्प्रदाय प्रवेश सन् 1492 ई. में और गोलोकवास सन् 1582 ई. के लगभग हुआ था।

1468-1583 कुम्भनदास भक्तन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पनहिया टूटी बिसरि गयो हरि नाम।
जाको मुख देखे दुख लागे ताको करन करी परनाम।
कुम्भनदास लाला गिरिधर बिन यह सब झूठो धाम।



अष्टछाप के कवियों में सबसे पहले कुम्भनदास ने महाप्रभु वल्लभाचार्य से पुष्टिमार्ग में दीक्षा ली थी। इन्हें मधुरभाव की भक्ति प्रिय थी और इनके रचे हुए लगभग 500 पद उपलब्ध हैं।

परिचय

राजा मानसिंह ने इन्हें एक बार सोने की आरसी और एक हज़ार मोहरों की थैली भेंट करनी चाही थी परन्तु कुम्भनदास ने उसे अस्वीकार कर दिया था।
प्रसिद्ध है कि एक बार अकबर ने इन्हें फ़तेहपुर सीकरी बुलाया था। सम्राट की भेजी हुई सवारी पर न जाकर ये पैदल ही गये और जब सम्राट ने इनका कुछ गायन सुनने की इच्छा प्रकट की तो इन्होंने गाया :
भक्तन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पनहिया टूटी बिसरि गयो हरि नाम।
जाको मुख देखे दुख लागे ताको करन करी परनाम।
कुम्भनदास लाला गिरिधर बिन यह सब झूठो धाम।
कुंभनदास के सात पुत्र थे। परन्तु गोस्वामी विट्ठलनाथ के पूछने पर उन्होंने कहा था कि वास्तव में उनके डेढ़ ही पुत्र हैं क्योंकि पाँच लोकासक्त हैं, एक चतुर्भुजदास भक्त हैं और आधे कृष्णदास हैं, क्योंकि वे भी गोवर्धन नाथ जी की गायों की सेवा करते हैं। कृष्णदास को जब गायें चराते हुए सिंह ने मार डाला। श्रीनाथजी का वियोग सहन न कर सकने के कारण ही कुम्भनदास गोस्वामी विट्ठलनाथ के साथ द्वारका नहीं गये थे और रास्ते से लौट आये थे।

मधुर-भाव की भक्ति

कुम्भनदास को निकुंजलीला का रस अर्थात् मधुर-भाव की भक्ति प्रिय थी और इन्होंने महाप्रभु से इसी भक्ति का वरदान माँगा था। कुम्भनदास ने गाया था-
रसिकिनि रस में रहत गड़ी।
कनक बेलि वृषभान नन्दिनी स्याम तमाल चढ़ी।।
विहरत श्री गोवर्धन धर रति रस केलि बढ़ी ।।

रचनायें

  • कुम्भनदास के पदों की कुल संख्या, जो 'राग-कल्पद्रुम' 'राग-रत्नाकर' तथा सम्प्रदाय के कीर्तन-संग्रहों में मिलते हैं, 500 के लगभग हैं।
  • कुम्भनदास के पदों का एक संग्रह 'कुम्भनदास' शीर्षक से श्रीविद्या विभाग, कांकरोली द्वारा प्रकाशित हुआ है।
  1. अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय : डा. दीनदयाल गुप्त
  2. अष्टछाप परिचय : श्रीप्रभुदयाल मीत्तल।


गुरुवार, 10 नवंबर 2016

सर्वरस निरूपक ग्रंथ और ग्रंथाकार (रीतिकाल)

सर्वरस निरूपक ग्रंथ और ग्रंथाकार

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1.  बलभद्र मिश्र : रसविलास (लगभग सं. 1640 वि. )
2. केशवदास : रसिकप्रिया (सं. 1648 वि. )
3. ब्रजपति भट्ट : रंगनाथ माधुरी (सं. 1680 वि. )
4. तोष : सुधानिधि (सं. 1691 वि.)
5. तुलसीदास : रसकल्लोल ( सं. 1711 वि. )
6. गोपाल राम : रससागर (सं. 1726 वि.)
7. सुखदेव मिश्र : रसरत्नाकर, रसार्णव (सं. 1730 लगभग वि. )
8. देव : भावविलास (सं, 1746 वि.)
9. श्रीनिवास : रससागर (सं. 1750 वि. )
10. लोकनाथ चौबे : रसतरंग (सं. 1760 वि. )
11. बेनीप्रसाद : रसश्रृंगार समुद्र (सं. 1765 वि.)
12. श्रीपति : रससागर (सं. 1770 वि. )
13. याक़ूबख़ां : रसभूषण (सं. 1775 वि. )
14. भिखारीदास : रससारांश (सं. 1791 वि.)
15. रसलीन : रसप्रबोध (सं. 1798 वि.)
16. गुरुदत्तसिंह (भूपति) : रसरत्नाकर रसदीप (सं. 18वीं शती का अंत)
17. रघुनाथ : काव्यकलाधर (सं. 1802 वि. )
18. उदयनाथ कवीन्द्र : रसचन्द्रोदय (सं. 1804 वि.)
19. शम्भूनाथ : रसकल्लोल, रसतरंगिणी (सं. 1806 वि.)
20. समनेस : रसिकविलास (सं. 1827 वि.)
21. शिवनाथ : रसवृष्टि (सं. 1828 वि.)
22. दौलतराम उजियारे : रसचन्द्रिका, जुगलप्रकाशवत् (सं. 1837 वि.)
23. रामसिंह : रसनिवास (सं. 1839 वि.)
24. सेवादास : रसदर्पण (सं. 1840 वि.)
25. बेनीबंदीजन : रसविलास (सं. 1849 वि.)
26. पद्माकर : जगतविनोद (सं. 1867 वि.)
27. बेनीप्रवीण : नवरसतरंग (सं. 1874 वि.)
28. करन कवि : रसकल्लोल (सं. 1890 वि.)
29. नवीन : रसतरंग (सं. 1899 वि.)
30. चन्द्रशेखर : रसिकविनोद (सं. 1903 वि.)
31. ग्वाल कवि : रसरंग (सं. 1904 वि.)

सर्वरस निरूपक ग्रंथ और ग्रंथाकार (रीतिकाल)

शनिवार, 24 सितंबर 2016

केदारनाथ सिंह की कविता में परंपरा और आधुनिकता का सुन्दर समन्वय

मुहम्मद इलियास हुसैन
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग,
रामेश्वर यादव मनिहारी महाविद्यालय, मनिहारी, कटिहार (बिहार)

सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉo केदारनाथ सिंह (20 नवम्बर 1934-19 मार्च 2018) का काव्य अर्थ, रंग और स्वीकृति का एक अनुपम कोलाज और उनका दृष्टिकोण आधुनिक सौन्दर्यशास्त्र के प्रति संवेदनशीलता के साथ पारंपरिक ग्रामीण समुदायों के आचार-विचारों और क्रिया-कलापों का यथार्थपरक का चित्रांकन प्रस्तुत करता है । श्रीसिंह की कविताओं के माध्यम से हमें अनुप्रास एवं काव्यात्मक गीत की दुर्लभ संगति मिलती है। उन्होंने अपनी कविताओं में यथार्थ एवं गल्प को एक समान रूप से समाहित किया है । सुप्रसिद्ध साहित्यकार मुरलीलाधर मंडलोई के शब्दों मे, "केदानरनाथ सिंह की कविताओं में परंपरा और आधुनिकता का सुन्दर ताना-बाना है । यथार्थ और फ़ंतासी, छंद और छंदेतर की महीन बुनावट उनके काव्य-शिल्प में एक अलग रंग भरती है ।" 
अज्ञेय द्वारा संपादित सप्तक-श्रृंखला तार सप्तक (1943), दूसरा सप्तक (1951), तीसरा सप्तक (1959) और चौथा सप्तक (1979) का हिन्दी साहित्य के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इन चारों सप्तकों में अज्ञेय ने कुल अट्ठाईस कवियों को स्थान दिया, जिनमें डॉo केदानरनाथ सिंह भी शामिल थे।  डॉo सिंह की कविताएं तीसरा सप्तकमें संकलित हैं।
शब्दों के साधक डॉo केदारनाथ सिंह शब्द-शक्ति के ह्रास, समय की ख़ामोशी और नियम-उपनियम के टूटते हुए बन्धन पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं
शब्द सारे धुल हैं, व्याकरण सारे ढोंग
किस क़द्र ख़ामोश हैं चलते हुए लोग ।
उनके काव्य में स्थानीय और वैश्विक भाव-बोध का सुन्दर चित्रांकन मिलता है। एक पुरबिहा का आत्मकथ्यकविता की अंतिम पंक्तियां देखिएµ
इस समय मैं यहां हूं
पर ठीक इसी समय
बग़दाद में जिस दिल को
चीर गई गोली
वहां भी हूं
हर गिरा ख़ून
अपने अंगोछे से पोंछता
मैं वही पुरबिहा हूं
जहां भी हूं ।

हमारे प्रधानमंत्री ने तो आज स्वच्छ भारत अभियान चलाया है, लेकिन केदारनाथ सिंह बहुत पहले ही इस ज़रूरत को महसूस कर चुके हैं। उनका मानना है कि हमारे विश्व-समाज का सर्वांग प्रदूषित हो चुका है और हमारा अंतःकरण भी रोगग्रस्त हो गया है। अतः जितना जल्दी हो सके, इलाज करवा लिया जाए। कवि कहता हैµ
इतनी गर्द भर गई है दुनिया में
कि हमें ख़रीद लाना चाहिए एक झाड़ू
आत्मा के गलियारों के लिए
और चलाना चाहिए दीर्घ एक अभियान
अपने सामने की नाली से
उत्तरी ध्रुवान्त तक । (तालस्ताय और साइकिल)

काले धन की चर्चा पहले से होती रही है, लेकिन जबसे केन्द्र में वर्तमान सरकार आई है, उसने काले धन का पहाड़ ही सिर पर उठा लिया है, लेकिन उसकी बेचैनी का, बौखलाहट का कोई नतीजा निकलता नहीं दीखता, क्योंकि काले धन के कजरौटे में प्रायः हर दल  के कर्णधारों के हाथ बुरी तरह सने हुए हैं। इसलिए कवि के शब्दों में, सब कुछ काला हो चुका है, यहां तक कि युगबोध भीµ
काली मिट्टी
काली नदियां, काला धन
सूख रहे हैं सारे बन
काली बहसें, काला न्याय
ख़ाली मेज़ पी रही चाय
काले अक्षर काली रात
कौन करे अब किससे बात
काली जनता काला क्रोध
काला-काला है युगबोध।

दुनिया भर में जबसे उदारीकरण की हवा चली है, उससे सर्वाधिक लाभ पूंजीपति वर्ग को हुआ है। इस वर्ग की पांचों अंगुलियां घी में हैं और यह वर्ग सतत् चांदी काट रहा है। पूरी दुनिया में ताप और ऊर्जा’ (आग और पानी !) का खेल-खेलकर पृथ्वी पर ही नहीं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर इस सम्पन्न सौदागर का एकाधिकार होता जा रहा है। कवि इस बात से ख़ूब अच्छी तरह वाक़िफ़ हैµ
मैं उसे इसलिए भी जानता हूं
कि वह ब्रह्माण्ड का
सबसे सम्पन्न सौदार है
जो मेरी पृथ्वी के साथ
ताप और उإर्जा का तिजारत करता है
ताकि उसका मोइबाल
होता रहे चार्ज ।

एक वृहत्तर भारत(भारत, बांगलादेश और पाकिस्तान) का सपना भी कवि देखता है, परन्तु कवि को यह सपना साकार होता नहीं दीखता। इसी लिए इस सपने को वह अपने भीतर बसी एक पागल स्त्री का सपना मानता है, क्योंकि इन तीनों देशों के राजनेता शायद इसे साकार होना नहीं देना चाहते । कुर्सी का जो सवाल है । बर्लिन की टूटी दीवार को देखकरकविता में कवि-मन की वह पागल स्त्री चीख़-पुकारकर तीनों देशों के आम बाशिन्दों से पूछती हैµ
पर मुझे लगता है
मेरे भीरत की वह पागल स्त्री
अब एक दीवार के आगे खड़ी है
और चीख़ रही हैµ
यह दीवार
आखि़र यह दीवार
कब टूटेगी ?

समाज में अनाचार, अन्याय, मनमानी, अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। हर जगह चुप्पियां परसती जा रही हैंµ
चुप्पियां बढ़ती जा रही हैं
उन सारी जगहों पर
जहां बोलना ज़रूरी था ।
केदारनाथ सिंह का काव्य कलापक्ष और भावपक्ष दोनों दृष्टियों से सफल और चित्ताकर्षक है। इसपर टिप्पणि करते हुए डॉ॰ बच्चन सिंह कहते हैंµ
छायावादोत्तर कवियों में केदारनाथ सिंह सबसे अधिक सचेत कवि हैं वाक् और अर्थ दोनों के प्रति। .......जीवन का इतना वैविध्य, प्रतिपत्तिमूलक (जेनेरिव) भाषा का किंश्चित् जटिल, किन्तु सरस और लयात्मक प्रयोग अन्यत्र कम मिलेगा।¸ (आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास, संस्करण : 2013, पृ॰ 299)
केदारनाथ सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के चकिया गांव में 7 जुलाई 1934 को एक साधारण परिवार में हुआ था।  उन्होंने बनारस विश्वविद्यालय से 1956 ई॰ में हिन्दी में एम॰ ए॰ और 1964 में पीएच॰ डी॰ डिग्री हासिल की और फिर कई कॉलेजों में अध्यापन-कार्य किया। अन्त में, जे॰ एन॰ यू॰ में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद से रिटायर हुए ।
केदारनाथ सिंह को अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा गया है। वर्ष 2013 के 49वां ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी उन्हें पुरस्कृत किया गया। यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले वे हिन्दी के 10वें लेखक हैं। उन्हें कविता-संग्रह अकाल में सारसके लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार (1989) के अतिरिक्त मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, कुमार आशान पुरस्कार (केरल), दिनकर पुरस्कार, जीवन-भारती सम्मान (उड़ीसा) और व्यास सम्मान सहित अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार और सम्मानों से सम्मानित किया गया है।

केदारनाथ सिंह की प्रमुख कृतियां : कविता-संग्रहµ अभी बिल्कुल अभी (1960), ज़मीन पक रही है (1980), यहां से देखो (1983), अकाल में सारस (1988), त्तर कबीर और अन्य कविताएं (1995), बाघ (1996), तालस्ताय और साइकिल (2005), सृष्टि पर पहरा (2014), आलोचनाµ कल्पना और छायावाद, आधुनिक हिन्दी कविता में बिम्बविधान, मेरे समय के शब्द, क़ब्रिस्तान में पंचायत, मेरे साक्षात्कार (2003), सम्पादनµ ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएं, कविता दशक, साखी (अनियतकालिक पत्रिका), शब्द (अनियतकालिक पत्रिका)।








व्यंग्य कविताएँ
मुहम्मद इलियास हुसैन

1. बाँस और इंसान

बाँस करता है मुक़ाबला
आँधी-तूफ़ानों का
टूटने तक
जड़ से उखड़ने तक।
लेकिन इंसान
काटने लगे हैं
एक-दूसरे की बाँहें
कंधे से कंधा मिलाकर
चलने के नाम पर।

2. कर्मवीर

जो अपने छल-छद्मों से
एक अदद कुर्सी
पा जाता है
और
दिन-प्रतिदिन
अपनी मधुर वाणी
और
कुत्सित करनी का
मकड़जाल फैलाता है
राजनीति में
वही कर्मवीर कहलाता है।