मुहम्मद इलियास हुसैन
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग,
रामेश्वर यादव मनिहारी महाविद्यालय, मनिहारी, कटिहार (बिहार)
सुप्रसिद्ध
साहित्यकार डॉo केदारनाथ सिंह (20 नवम्बर 1934-19 मार्च 2018) का काव्य अर्थ, रंग और स्वीकृति का एक अनुपम कोलाज और उनका दृष्टिकोण आधुनिक सौन्दर्यशास्त्र के प्रति संवेदनशीलता के साथ पारंपरिक
ग्रामीण समुदायों के आचार-विचारों और क्रिया-कलापों का यथार्थपरक का चित्रांकन प्रस्तुत
करता है । श्रीसिंह की कविताओं के माध्यम से हमें अनुप्रास एवं काव्यात्मक गीत की
दुर्लभ संगति मिलती है। उन्होंने अपनी कविताओं में यथार्थ एवं गल्प को एक समान रूप
से समाहित किया है । सुप्रसिद्ध साहित्यकार मुरलीलाधर मंडलोई के शब्दों मे, "केदानरनाथ
सिंह की कविताओं में परंपरा और आधुनिकता का सुन्दर ताना-बाना है । यथार्थ और
फ़ंतासी, छंद और छंदेतर की महीन बुनावट उनके काव्य-शिल्प में एक अलग रंग भरती है ।"
अज्ञेय द्वारा
संपादित सप्तक-श्रृंखला— तार सप्तक
(1943), दूसरा सप्तक (1951), तीसरा सप्तक (1959)
और चौथा सप्तक (1979) का हिन्दी साहित्य के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान
है। इन चारों सप्तकों में अज्ञेय ने कुल अट्ठाईस कवियों को स्थान दिया, जिनमें डॉo
केदानरनाथ सिंह भी शामिल थे। डॉo सिंह की
कविताएं ‘तीसरा सप्तक’में संकलित हैं।
शब्दों के साधक डॉo
केदारनाथ सिंह शब्द-शक्ति के ह्रास, समय की ख़ामोशी और नियम-उपनियम के टूटते हुए
बन्धन पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं—
शब्द सारे धुल हैं, व्याकरण सारे ढोंग
किस क़द्र ख़ामोश हैं चलते हुए लोग ।
उनके काव्य में स्थानीय
और वैश्विक भाव-बोध का सुन्दर चित्रांकन मिलता है। ‘एक पुरबिहा का आत्मकथ्य’कविता की अंतिम पंक्तियां देखिएµ
इस समय मैं यहां हूं
पर ठीक इसी समय
बग़दाद में जिस दिल को
चीर गई गोली
वहां भी हूं
हर गिरा ख़ून
अपने अंगोछे से पोंछता
मैं वही पुरबिहा हूं
जहां भी हूं ।
हमारे
प्रधानमंत्री ने तो आज ‘स्वच्छ भारत
अभियान’ चलाया है, लेकिन केदारनाथ सिंह बहुत पहले ही
इस ज़रूरत को महसूस कर चुके हैं। उनका मानना है कि हमारे विश्व-समाज का सर्वांग
प्रदूषित हो चुका है और हमारा अंतःकरण भी रोगग्रस्त हो गया है। अतः जितना जल्दी हो
सके, इलाज करवा लिया जाए। कवि कहता हैµ
इतनी गर्द भर गई है दुनिया में
कि हमें ख़रीद लाना चाहिए एक झाड़ू
आत्मा के गलियारों के लिए
और चलाना चाहिए दीर्घ एक अभियान
अपने सामने की नाली से
उत्तरी ध्रुवान्त तक । (तालस्ताय और साइकिल)
काले धन की चर्चा
पहले से होती रही है, लेकिन जबसे केन्द्र में वर्तमान सरकार आई है, उसने काले धन
का पहाड़ ही सिर पर उठा लिया है, लेकिन उसकी बेचैनी का, बौखलाहट का कोई नतीजा
निकलता नहीं दीखता, क्योंकि काले धन के कजरौटे में प्रायः हर दल के कर्णधारों के हाथ बुरी तरह सने हुए हैं।
इसलिए कवि के शब्दों में, सब कुछ काला हो चुका है, यहां तक कि युगबोध भीµ
काली मिट्टी
काली नदियां, काला धन
सूख रहे हैं सारे बन
काली बहसें, काला न्याय
ख़ाली मेज़ पी रही चाय
काले अक्षर काली रात
कौन करे अब किससे बात
काली जनता काला क्रोध
काला-काला है युगबोध।
दुनिया भर में
जबसे उदारीकरण की हवा चली है, उससे सर्वाधिक लाभ पूंजीपति वर्ग को हुआ है। इस वर्ग
की पांचों अंगुलियां घी में हैं और यह वर्ग सतत् चांदी काट रहा है। पूरी दुनिया
में ‘ताप और ऊर्जा’ (आग और पानी !) का खेल-खेलकर पृथ्वी पर ही नहीं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर इस ‘सम्पन्न सौदागर’ का एकाधिकार होता जा रहा है। कवि इस बात से ख़ूब अच्छी तरह वाक़िफ़ हैµ
मैं उसे इसलिए भी जानता हूं
कि वह ब्रह्माण्ड का
सबसे सम्पन्न सौदार है
जो मेरी पृथ्वी के साथ
ताप और उإर्जा का तिजारत करता है
ताकि उसका मोइबाल
होता रहे चार्ज ।
एक ‘वृहत्तर भारत’(भारत, बांगलादेश और पाकिस्तान) का सपना भी कवि देखता है, परन्तु कवि को यह सपना साकार होता नहीं दीखता। इसी लिए
इस सपने को वह अपने भीतर बसी एक पागल स्त्री का सपना मानता है, क्योंकि इन तीनों देशों के राजनेता शायद इसे साकार होना नहीं देना चाहते ।
कुर्सी का जो सवाल है । ‘बर्लिन की टूटी दीवार को देखकर’कविता में कवि-मन की वह पागल स्त्री
चीख़-पुकारकर तीनों देशों के आम बाशिन्दों से पूछती हैµ
पर मुझे लगता है
मेरे भीरत की वह पागल स्त्री
अब एक दीवार के आगे खड़ी है
और चीख़ रही हैµ
यह दीवार
आखि़र यह दीवार
कब टूटेगी ?
समाज में अनाचार, अन्याय, मनमानी, अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन
घटती जा रही है। हर जगह चुप्पियां परसती जा रही हैंµ
चुप्पियां बढ़ती जा रही हैं
उन सारी जगहों पर
जहां बोलना ज़रूरी था ।
केदारनाथ सिंह का
काव्य कलापक्ष और भावपक्ष दोनों दृष्टियों से सफल और चित्ताकर्षक है। इसपर टिप्पणि
करते हुए डॉ॰ बच्चन सिंह कहते हैंµ
¶छायावादोत्तर कवियों में केदारनाथ सिंह सबसे अधिक सचेत कवि हैं वाक् और अर्थ
दोनों के प्रति। .......जीवन का इतना वैविध्य, प्रतिपत्तिमूलक (जेनेरिव) भाषा का
किंश्चित् जटिल, किन्तु सरस और लयात्मक प्रयोग अन्यत्र कम मिलेगा।¸ (आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास, संस्करण : 2013, पृ॰ 299)
केदारनाथ सिंह का
जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के चकिया गांव में 7 जुलाई 1934 को एक साधारण
परिवार में हुआ था। उन्होंने बनारस
विश्वविद्यालय से 1956 ई॰ में हिन्दी में एम॰ ए॰ और 1964 में पीएच॰ डी॰ डिग्री
हासिल की और फिर कई कॉलेजों में अध्यापन-कार्य किया। अन्त में, जे॰ एन॰ यू॰ में
हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद से रिटायर हुए ।
केदारनाथ सिंह को
अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा गया है। वर्ष 2013 के 49वां ज्ञानपीठ
पुरस्कार से भी उन्हें पुरस्कृत किया गया। यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले वे हिन्दी
के 10वें लेखक हैं। उन्हें कविता-संग्रह ‘अकाल में सारस’के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार (1989) के
अतिरिक्त मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, कुमार आशान
पुरस्कार (केरल), दिनकर पुरस्कार, जीवन-भारती सम्मान (उड़ीसा) और व्यास सम्मान
सहित अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार और सम्मानों से सम्मानित किया गया है।
केदारनाथ सिंह की
प्रमुख कृतियां : कविता-संग्रहµ अभी
बिल्कुल अभी (1960), ज़मीन पक रही है (1980), यहां से देखो (1983), अकाल में सारस (1988), उत्तर कबीर और अन्य कविताएं
(1995), बाघ (1996), तालस्ताय और साइकिल (2005), सृष्टि पर पहरा (2014), आलोचनाµ कल्पना और छायावाद, आधुनिक
हिन्दी कविता में बिम्बविधान, मेरे समय के शब्द, क़ब्रिस्तान में पंचायत, मेरे
साक्षात्कार (2003), सम्पादनµ ताना-बाना
(आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएं, कविता दशक, साखी
(अनियतकालिक पत्रिका), शब्द (अनियतकालिक पत्रिका)।
व्यंग्य कविताएँ
मुहम्मद इलियास हुसैन
1. बाँस और इंसान
बाँस करता है
मुक़ाबला
आँधी-तूफ़ानों का
टूटने तक
जड़ से उखड़ने तक।
लेकिन इंसान
काटने लगे हैं
एक-दूसरे की
बाँहें
कंधे से कंधा
मिलाकर
चलने के नाम पर।
2. कर्मवीर
जो अपने छल-छद्मों
से
एक अदद कुर्सी
पा जाता है
और
दिन-प्रतिदिन
अपनी मधुर वाणी
और
कुत्सित करनी का
मकड़जाल फैलाता है
राजनीति में
वही कर्मवीर
कहलाता है।