सोमवार, 9 अक्तूबर 2017

पं. रामनरेश त्रिपाठी (1889-1962 ई.) की रचनाएँ


पं. रामनरेश त्रिपाठी (1889-1962 ई.) की रचनाएँ

प्रस्तुति : मुहम्मद इलियास हुसैन
सम्पर्क-सूत्र : 9717324769

त्रिपाठीजी के चार काव्य-संग्रह : कविता विनोद (1914 ई.), मिलन (1918 ई., देशभक्ति, प्रकृति-चित्रण और नीति-निरूपण संबंधी कवितओं का संग्रह), क्या होमरूल लोगे (1918), पथिक (1921 ई., काल्पनिक कथाश्रित प्रेमाख्यानक खण्ड-काव्य, दक्षिण भारत के रम्य दृश्यों का बहुत विस्तृत समावेश और गाँधीवाद का प्रभाव), मानसी (1927 ई., काल्पनिक कथाश्रित प्रेमाख्यानक खण्ड-काव्य) स्वप्न (1929 ई., काल्पनिक कथाश्रित प्रेमाख्यानक खण्ड-काव्य, उत्ताराखंड और कश्मीर की सुषमा का वर्णन, 'छायावाद' का रंग कहीं-कहीं इसके भीतर झलक मारता है)।
उपन्यास : वीरांगना (1911 ई.), वीरबाला (1911 ई.), मारवाड़ी और पिशाचिनी (1918 ई.), लक्ष्मी (1924 ई.)
नाटक : सुभद्रा (1924 ई.), जयन्त (1933 ई.), प्रेमलोक (1934 ई.)
आलोचनात्मक ग्रंथ : तुलसीदास (1942 ई.), तुलसी और उनकी कविता (1942 ई.), रामचरितमानस की टीका, हिन्दी साहित्य का इतिहास
संस्मरण : तीस दिन मालवीय जी के साथ (1942 ई.)
त्रिपाठीजी के काव्य में देशभक्ति का स्वर ही प्रमुख है। स्वदेशभक्ति की जो भावना भारतेंदु के समय से चली आती थी उसे सुंदर कल्पना द्वारा रमणीय और आकर्षक रूप त्रिपाठीजी ने ही प्रदान किया।
रामनरेश त्रिपाठी की काव्य-पंक्तियाँ౼
प्रभु आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिए।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हम से कीजिए।
लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें।
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक, वीर-व्रत-धारी बनें। (पथिक)
सच्चा प्रेम वही है जिसकी, तृप्ति आत्म-बलि पर हो निर्भर।
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर।।
देश-प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित।
आत्मा के विकास से जिसमें, मनुष्यता होती है विकसित। (पथिक)
उसी समय कमनीय एक स्वर्गीय किरण सी बामा।
कवि के स्वप्न समान, विश्व के विस्मय सी अभिरामा। (पथिक)
तुम अपने सुख के प्रबंध के हो न पूर्ण अधिकारी।
यह मनुष्यता पर कलंक है प्रिय बन्धु,तुम्हारी
पराधीन रहकर अपना सुख शोक न कह सकता है।
यह अपमान जगत् में केवल पशु ही सह सकता है। (पथिक)
सर्वोपरि उन्नत मन की-सी लक्षित अचल ऊँचाई।
एक घड़ी को भी न किसी के लिए हुई सुखदाई। (स्वप्न)
हुई निविड़ तम में प्रभात-बेला-सी जागृत आशा। (स्वप्न)
दुख को पका हृदय निशि-वासर, आश्रित चिन्ता पर था।
कहीं शब्द से छू न जाय, हर घड़ी उन्हें यह डर था। (स्वप्न)
प्रिय की सुधिसी ये सरिताएँ, ये कानन कांतार सुसज्जित।
मैं तो नहीं किंतु है मेरा हृदय किसी प्रियतम से परिचित।
जिसके प्रेमपत्र आते हैं प्राय: सुखसंवाद सन्निहित (स्वप्न)
इसी प्रकार के प्रश्न उसे व्याकुल करते रहते हैं और कभी कभी वह सोचता है ౼
इसी तरह की अमित कल्पना के प्रवाह में मैं निशिवासर,
बहता रहता हूँ विमोहवश; नहीं पहुँचता कहीं तीर पर।
रात दिवस ही बूँदों द्वारा तन घट से परिमित यौवन जल,
है निकला जा रहा निरंतर, यह रुक सकता नहीं एक पल। (स्वप्न)
कभी कभी उसकी वृत्ति रहस्योन्मुख होती है, वह सारा खेल खड़ा करने वाले उस छिपे हुए प्रियतम का आकर्षण अनुभव करता है और सोचता है कि मैं उसके अन्वेषण में क्यों न चल पड़ूँ। उसकी प्रिया सुमना उसे दिन-रात इस प्रकार भावनाओं में ही मग्न और अव्यवस्थित देखकर कर्म मार्ग पर स्थिर हो जाने का उपदेश देती है౼
सेवा है महिमा मनुष्य की, न कि अति उच्च विचार द्रव्य बल।
मूल हेतु रवि के गौरव का है प्रकाश ही न कि उच्च स्थल
मन की अमित तरंगों में तुम खोते हो इस जीवन का सुख (स्वप्न)
उधर वसंत उसके वियोग में प्रकृति के खुले क्षेत्र में अपनी प्रेम वेदना की पुकार सुनाता फिरता है, पर सुमना उस समय प्रेमक्षेत्र से दूर थी౼
अर्द्ध निशा में तारागण से प्रतिबिंबित अति निर्मल जलमय।
नीलझील के कलित कूल पर मनोव्यथा का लेकर आश्रय
नीरवता में अंतस्तल का मर्म करुण स्वर लहरी में भर।
प्रेम जगाया करता था वह विरही विरह गीत गा गा कर
भोजपत्र पर विरहव्यथामय अगणित प्रेमपत्र लिख लिखकर।
डाल दिए थे उसने गिरि पर, नदियों के तट पर, वनपथ पर
पर सुमना के लिए दूर थे ये वियोग के दृश्य कदंबक।
और न विरही की पुकार ही पहुँच सकी उसके समीप तक (स्वप्न)
'जो देश की रक्षा करे वही राजा' उसको राज्य सौंप देता है। उसी समय सुमना भी उसके सामने प्रकट हो जाती है।
घन पर बैठ बीच में बिचरूँ, यही चाहता मन है
सिंधुविहंग तरंग पंख को फड़का कर प्रतिक्षण में।
है निमग्न नित भूमि अंड के सेवन में, रक्षण में (पथिक)
चारु चंद्रिका से आलोकित विमलोदक सरसी के तट पर,
बौरगंधा से शिथिल पवन में कोकिल का आलाप श्रवण कर।
और सरक आती समीप है प्रमदा करती हुई प्रतिध्वनि;
हृदय द्रवित होता है सुनकर शशिकर छूकर यथा चंद्रमणि
किंतु उसी क्षण भूख प्यास से विकल वस्त्र वंचित अनाथगण,
'हमें किसी की छाँह चाहिए' कहते चुनते हुए अन्नकण,
आ जाते हैं हृदय द्वार पर, मैं पुकार उठता हूँ तत्क्षण ,
हाय! मुझे धिाक् है जो इनका कर न सका मैं कष्टनिवारण।
उमड़-घुमड़ कर जब घमंड से उठता है सावन में जलधार,
हम पुष्पित कदंब के नीचे झूला करते हैं प्रतिवासर।
तड़ित्प्रभा या घनगर्जन से भय या प्रेमोद्रेक प्राप्त कर,
वह भुजबंधान कस लेती है, यह अनुभव है परम मनोहर।
किंतु उसी क्षण वह गरीबिनी, अति विषादमय जिसके मँहपर,
घुने हुए छप्पर की भीषण चिंता के हैं घिरे वारिधार,
जिसका नहीं सहारा कोई, आ जाती है दृग के भीतर,
मेरा हर्ष चला जाता है एक आह के साथ निकल कर (स्वप्न)
प्रतिक्षण नूतन भेष बनाकर रंगबिरंग निराला।
रवि के सम्मुख थिरक रही है नभ में वारिदमाला
नीचे नील समुद्र मनोहर ऊपर नील गगन है।
मेरे लिए खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू।
मैं बाट जोहता था तेरी किसी चमन में।
बनकर किसी के ऑंसू मेरे लिए बहा तू।
मैं देखता तुझे था माशूक के वदन में (फुटकल)
इस प्रकार त्रिपाठीजी स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) के प्रकृत पथ पर नज़र आते हैं।

1 टिप्पणी:

  1. मैं अमृत की जय : माखनलाल चतुर्वेदी



    मैं अमृत की जय, मरण का भय नहीं हूं,

    नियति हूं, निर्माण हूं, बलिदान हूं मैं, ज़िन्दगी हूं, साधना हूं, ज्ञान हूं मैं....



    ये पंक्तियां माखनलाल चतुर्वेदी की कविता प्रश्न हंसकर कह उठा से उद्धृत हैं।







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