शनिवार, 7 अक्तूबर 2017

लाला भगवानदीन का काव्य

लाला भगवानदीन का काव्य

(जन्म- सन 1866, फ़तेहपुर, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 1930)
प्रस्तुति : मुहम्मद इलियास हुसैन
सम्पर्क-सूत्र : 9717324769
डॉ॰ श्यामसुन्दर दास तथा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के लाला भगवानदीन प्रमुख सहयोगी रहे थे। उन्होने हिन्दी शब्दसागर के निर्माण में सहायक सम्पादक के रूप में महान योगदान दिया।
काव्य संग्रह : नवीन बीन, नदी में दीन (नदीम-ए-दीन), वीर क्षत्राणी, वीर बालक, वीर पंचरत्न, दीन ग्रंथावली (सम्पूर्ण काव्य)
है। ‘वीर पंचरत्न’ वीरतापूर्ण काव्य संग्रह है।
टीका-ग्रंथ : बिहारी बोधिनी (बिहारी सतसई), केशव कौमुदी (रामचन्द्रिका, कविप्रिया, रसिकप्रिया), प्रियाप्रकाश, सूक्ति सरोवर , कवितावली' की प्रामाणिक टीकाएँ भी इन्होंने लिखीं।
सम्पादित कृतियां : सूर पंचरत्न, केशव पंचरत्न, ठाकुर ठसक
अलंकार ग्रंथ : अलंकार मंजूषा
शब्द-शक्ति संबंधी ग्रंथ : व्यंगार्थ मंजूषा
स्वर्गीय लाला भगवानदीन[सम्पादन]
उनकी कविताओं के दोनों तरह के नमूने नीचे देखिए౼
सुनि मुनि कौसिक तें साप को हवाल सब,
बाढ़ी चित करुना की अजब उमंग है।
पदरज डारि करे पाप सब छारि,
करि नवल सुनारि दियो धामहू उतंग है।
'दीन' भनै ताहि लखि जात पतिलोक,
ओर उपमा अभूत को सुझानों नयो ढंग है।

कौतुकनिधान राम रज की बनाय रज्जु,
पद तें उड़ाई ऋषिपतिनीपतंग है
वीरों की सुमाताओं का यश जो नहींगाता।
वह व्यर्थ सुकवि होने का अभिमान जनाता
जो वीरसुयश गाने में है ढील दिखाता।
वह देश के वीरत्व का है मान घटाता
सब वीर किया करते हैं सम्मान कलम का।
वीरों का सुयशगान है अभिमान कलम का
''खड़ीबोली की कविताओं का तर्ज़ उन्होंले प्रायः मुंशियाना ही रखा था। भक्ति और श्रृंगार की पुराने ढंग की कविताओं में उक्ति चमत्कार भी वे अच्छा लाते थे।'' ౼रामचन्द्र शुक्ल
- "एक बिहारी पर चार-चार बिहारियों - मिश्र बन्धु श्यामबिहारी, गणेश बिहारी, शुकदेव बिहारी और चौथे कृष्णबिहारी का धावा देखकर बेचारा हिन्दी समाज घबड़ा गया है ।"౼ लाला भगवानदीन
लाला भगवानदीन स्वच्छन्दतावादी काव्यधारा को विरोधस्वरूप 'छोकरावाद' कहते थे।
हिंदी साहित्य के इतिहास में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने देव और बिहारी विवाद को के प्रसंग को 'साहित्यिक झगड़ा' कहा है ।
"देव कवि महाकवि नहीं है, क्योंकि उन्होंने उच्च भावों का उद्बोधन नहीं किया, समाज, देश या धर्म को कविता द्वारा लाभ नहीं पहुँचाया और मानव चरित्र को उन्नत नहीं किया । वह भी यदि महाकवि या कविरत्न माना जा सकेगा, तो प्रत्येक प्रांत में सैंकड़ों महाकवि और कवि रत्न निकल आवेंगे ।"౼ महावीरप्रसार द्विवेदी
"छोटे छंद में आवश्यक बातें न छोड़ते हुए उक्ति कैसे निभाई जाती है, यह चमत्कार बिहारीलाल में है तथा बड़े छंद में अनेक परन्तु भाव और भाषा के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले कथनों के साथ, भाव विकास कैसे पाता है, यह अपूर्वता देवजी की कविता में है ।" ౼कृष्णबिहारी मिश्र
"क्या संस्कृत, क्या प्राकृत, क्या हिन्दी - सभी से बिहारीलाल ने भाव-हरण किए हैं । सूर और केशव की उक्तियाँ उड़ाने में तो बिहारीलाल को संकोच ही नहीं होता था ।" ౼कृष्णबिहारी मिश्र
"वे (देव) धन-लोलुपता के कारण द्वार-द्वार और देश-देश में मारे फिरते थे । ------- देव को तो हम भिक्षुक कवि कह सकते हैं, बिहारी राजकवि और कविराज थे ।" ౼कृष्णबिहारी मिश्र
"हो सकता है कि शर्माजी ने भी बहुत से स्थलों पर बिहारी का पक्षपात किया हो, पर उन्होंने जो कुछ किया है, वह एक अनूठे ढंग से किया है । उनके पक्षपात का भी साहित्यिक मूल है ।" आचार्य रामचंद्र शुक्ल
"अच्छा हुआ कि 'छोटे-बड़े' के इस भद्दे झगड़े की ओर अधिक लोग आकर्षित नहीं हुए ।" आचार्य रामचंद्र शुक्ल
डॉ. नगेन्द्र के अनुसार - "स्वभाव से देव की अपनी व्यक्तिगत आस्था एकनिष्ठ प्रेम में ही थी । एक तरह से कहा जा सकता है कि उनका प्रेम विषयक दृष्टिकोण बिहारी, मतिराम पद्माकर आदि शुद्ध रीतिवादी कवियों और दूसरी ओर घनानंद, ठाकुर, बोधा आदि रीतिमुक्त एकनिष्ठ प्रेमी कवियों का मध्यवर्ती था ।"

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