रमेशचंद्र
शाह को साहित्य अकादमी पुरस्कार
उपन्यास ‘विनायक’ पर मिला वर्ष 2014 का
पुरस्कार
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी पद्मश्री रमेशचंद्र शाह को
हिन्दी के लिए उनके उपन्यास ‘विनायक’ पर वर्ष 2014 का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया।
श्री शाह का जन्म 1937 में उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा
में हुआ था। उनकी इंटर तक की शिक्षा अल्मोड़ा में हुई। आगे की शिक्षा
इलाहाबाद और आगरा में पूरी करने के बाद वह 1961 में हमीदिया महाविद्यालय (भोपाल) में अंग्रेज़ी के अध्यापक
नियुक्त हुये और 1997 में वहीं से
अंग्रेज़ी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए। बाद में निराला सृजन पीठ के
निदेशक भी रहे। स्वयं डॉक्टर शाह के अनुसार, ‘गोबर गणेश’ का अगला हिस्सा उन्होंने पाठकों के अनुरोध पर ‘विनायक’ के रूप में लिखा है। ‘विनायक’ पर ही उन्हें वर्ष 2014 का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया।
पद्मश्री रमेशचंद्र
शाह ने हिन्दी साहित्य की गद्य और पद्य दोनों विधाओं में लिखा है, बहुत कुछ लिखा
है और बहुत ख़ूब लिखा है। कहानी, कविता, उपन्यास, निबन्ध, समालोचना, नाटक,
यात्रा-वृत्तान्त, डायरी इत्यादि से हिन्दी साहित्य के भंडार को भरा है। एक
समीक्षक के अनुसार, ‘उनकी
कविताओं में गंभीरता और विनोद वृत्ति, सामाजिकता और निजता, अत्यधिक एकाग्रता और फिर भी उसके साथ एक चंचलता-पर्युत्सुकता, आसक्ति और अनासक्ति मानो एक साथ सक्रिय
रहते हैं। बाद में ये
तत्त्व शाह की गद्य रचनाओं में आने लगे।’
रमेशचंद्र शाह कविता को एक ऐसी कला मानते हैं, जिसकी सारी सामग्री मनुष्य
की अपने को अभिव्यक्त करने की छटपटाहट से ही उपजती है। ‘कछुए की पीठ पर’ शीर्षक कविता-संग्रह में प्राणवन्त कविता
के बारे में वे कहते हैं—
‘ज़िन्दा
कविता/ सन्निपात का पुल है/ इस बेख़बर बहाव में/ भीगने से इनकार करते हुए/ मेरी
निगाह ठहर जाती है/ सड़क के आरपार/ लेटी हुई/ छाया पर।’
आज का समय काव्य-रचना के अनुकूल नहीं है। ऐसे कठिन और
कवि-विमुख समय में कविता लिखना बहुत कठिन काम है—
‘सरल हुआ
जाता उतना ही/ लिखना कविता/ एक सरल कवि-समय बना है/ कवच और आयुध अमोघ/ कुछ काल-कूट
कवियों का/ कौन किसे समझाए/ ऐसे कठिन और कवि-विमुख समय में-/ सरल नहीं होती है
कविता किसी काल की।’
‘सपने में
वायसराय’ शीर्षक
कविता में एक अंग्रेज़ वायसराय कवि से कहता है—
‘हमने ही तो
राज-काज तुमको सिखलाया/ हमने ही तो/ देश तुम्हारा कितना, क्या तुमको जतलाया/ तुम्हीं बताओ— कब थे
इतने एक/ हज़ारों बरसों के अपने अतीत में?/ राष्ट्र-प्रेम, एकता और संप्रभुता.../ हां-हां, अखंडता तक/ नहीं हमीं से सीखे क्या तुम?/ रेल, तार, अख़बार, विश्वविद्यालय... सब तो/ हमने तुमको दिए, और, ...बदले में थोड़ी/ स्वतंत्रता ही तो ली- जिसका यों
भी वैसे/ कोई मतलब ख़ास तुम्हारे लिए नहीं था।/ सच पूछो, तो/ स्वतंत्रता का मूल्य/ हमीं ने तुमको
पहचनवाया।’
‘चोटियाँ’ शीर्षक कविता में विचारों और
बिम्ब-प्रतिबिम्बों का मणिकांचन प्रयोग मन को मोह लेता है। देखिए—
चोटियाँ/रहने के लिए नहीं होतीं/और घाटियाँ/सिर्फ़ बहने के
लिए होती हैं।चोटियाँ/गल-गल कर/घाटियों तक पहुंचती हैं।
घाटियाँ/कल-कल कर/उन्हीं का स्वर गुँजाती हैं।
दोनों से अलग/दोनों की सुनता मैं/इस भूगोल का क्या करूँ?
जो न रहने की बात जानता है/न बहने की;
जो जानता है सिर्फ़ अपने/दहने को, सहने को।
पुरस्कार मिलने पर एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि
यह पुरस्कार उन्हें देर से मिला। उनका संकेत शायद इस ओर था कि यदि यह पुरस्कार उनकी
साहित्यकार पत्नी ज्योत्ना मिलन (19 जुलाई 1941—5 मई 2014) के निधन
से पहले मिलता तो उन्हें और अधिक ख़ुशी होती।
पुरस्कार एवं सम्मान
भवानीप्रसाद
मिश्र पुरस्कार, आचार्य
नंददुलारे वाजपेयी पुरस्कार,
वीर सिंह देव
पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार (कोलकाता) का कृति सम्मान, मध्य प्रदेश साहित्य परिषद् सम्मान, मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग का शिखर सम्मान (1987-88), राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार, व्यास सम्मान (2001, ‘आलोचना का पक्ष’ पर), पद्मश्री सम्मान (2004), साहित्य अकादमी पुरस्कार (2014), गजानन माधव मुक्तिबोध राष्ट्रीय साहित्य सम्मान (2015) इत्यादि।
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