बुधवार, 15 फ़रवरी 2017

नागार्जुन : प्रगतिशील त्रयी के कवि-2

जन्म : 30 जून 1911 (गाँव सतलखामधुबनी, बिहार) मृत्यु : 5 नवंबर 1998 (ख्वाजा सरायदरभंगा, बिहार)
प्रेमचंद की परंपरा के उपन्यासकार नागार्जुन ने मिथिला अंचल को अपने उपन्यासों का विषय बनाया । उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था, परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं।

hindisahityavimarsh.blogspot.in
iliyashussain1966@gmail.com
Mobile : 9717324769
अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन

सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास

कविता-संग्रह : अपने खेत में, युगधारा (1952 ई.)सतरंगे पंखों वाली, तालाब की मछलियां, खिचड़ी विपल्व देखा हमने, हजार-हजार बाहों वालीपुरानी जूतियों का कोरस, तुमने कहा थाआखिर ऐसा क्या कह दिया मैंनेइस गुबार की छाया में, ओम मंत्रमैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा, भूल जाओ पुराने सपनेरत्नगर्भ, भूमिजा।
उपन्यास :रतिनाथ की चाची’(1948), बलचनवा’ (1952) नई पौध’ (1953) (नागार्जुन ने स्वय़ं इसका मैथिली में नवतुरियानाम से अनुवाद किए), बाबा बटेसरनाथ (1954, गाँव के एक पुराने बट वृक्ष का मानवीय प्रतिरूप),दुखमोचन’ (1956) वरुण के बेटे’ (1957), हीरक जयन्ती (अभिनन्दन) (1958), कुम्भीपाक’ (1960), उग्रतारा’ (1963), जमुनिया के बाबा’(इमरतिया) (1967-68) पारो, आसमान में चाँद तारे, गरीब दास (1990),  ‘बाबा बटेसरनाथ
व्यंग्य : अभिनंदन
निबंध संग्रह : अन्न हीनम क्रियानाम
मैथिली रचनाएँ : चित्रा पत्रहीन नग्न गाछ (कविता-संग्रह), पारो, नवतुरिया (उपन्यास)।
बांग्ला रचनाएँ :  मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा (हिन्दी अनुवाद)
नागार्जुन रचना संचयन  : ऐसा क्या कह दिया मैंने
पुरस्कार
नागार्जुन को साहित्य अकादमी पुरस्कार से उनकी ऐतिहासिक मैथिली रचना पत्रहीन नग्न गाछ के लिए 1969 में नवाजा गया था। उन्हें साहित्य अकादमी ने 1994 में साहित्य अकादमी फेलो के रूप में नामांकित कर सम्मानित भी किया था।
कविताएँ
कवितांश
कविता अकाल और उसके बाद
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
खिचड़ी विप्लव देखा हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
अब भी खत्म नहीं होगा क्या
पूर्णक्रांति का भ्रांति विलास।
पांच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूंखार
गोली खाकर एक मर गया, बाकी बच गए चार
चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश निकाला मिला एक को, बाकी बच गए तीन
तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाकी बच गए दो
दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया एक गद्दी से, बाकी बच गया एक
एक पूत भारतमाता का, कंधे पर था झंडा
पुलिस पकड़ कर जेल ले गई, बाकी बच गया अंडा !
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँबहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्तसंकुचित स्वकी आपाधापी के निषेधार्थ अविवेकी भीड़ की भेड़िया-धसानके खिलाफ अंध-बधिर व्यक्तियोंको सही राह बतलाने के लिए अपने आप को भी व्यामोहसे बारंबार उबारने की ख़ातिर प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ!
कविता पैने दाँतोंवालीकी ये पंक्तियाँ देखिए
धूप में पसरकर लेटी है मोटी-तगड़ी,
अधेड़, मादा सुअर
जमना-किनारे मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में पसरकर लेटी है
वह भी तो मादरे हिंद की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनोंवाली!
जो नहीं हो सके पूर्ण-काम मैं उनको करता हूँ प्रणाम जिनकी सेवाएँ अतुलनीय पर विज्ञापन से रहे दूर प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके कर दिए मनोरथ चूर-चूर! - उनको प्रणाम!
अपने खेत में हल चला रहा हूँ इन दिनों बुआई चल रही है इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही मेरे लिए बीज जुटाती हैं हाँ, बीज में घुन लगा हो तो अंकुर कैसे निकलेंगे! जाहिर है बाजारू बीजों की निर्मम छँटाई करूँगा खाद और उर्वरक और सिंचाई के साधनों में भी पहले से जियादा ही चौकसी बरतनी है मकबूल फिदा हुसैन की चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक हमारी खेती को चौपट कर देगी! जी, आप अपने रूमाल में गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!
कवि-सम्मेलनों में बहुत जमते हैं हम। समझ गए ना? बहुत विकट काम है कवि-सम्मेलन में कविता सुनाना। बड़े-बड़ों को, तुम्हारा, क्या कहते हैं, हूट कर दिया जाता है। हम कभी हूट नहीं हुए। हर तरह का माल रहता है, हमारे पास। यह नहीं जमेगा, वह जमेगा। काका-मामा सबकी छुट्टी कर देते हैं हम….। समझ गए ना?
 मंत्र कविता
ओं भैरो, भैरो, भैरो,
ओं बजरंगबली
ओं बंदूक का टोटा, पिस्तौल की नली
ओं डालर, ओं रूबल, ओं पाउंड
ओं साउंड, ओं साउंड, ओं साउंड
ओम् ओम् ओम् ओम्
धरती, धरती, धरती, व्योम् व्योम व्योम्
ओं अष्टधातुओं की ईंटों के भट्ठे
ओं महामहिम, महामहो, उल्लू के पट्ठे
ओं दुर्गा दुर्गा दुर्गा तारा तारा तारा
ओं इसी पेट के अंदर समा जाए सर्वहारा
हरि: ओं तत्सत् हरि: ओं तत्सत्
नागार्जुन का मानना था कि वह जनवादी हैं। जो जनता के हित में है वही मेरा बयान है। मैं किसी विचारधारा का समर्थन करने के लिए पैदा नहीं हुआ हूं। मैं ग़रीब, मज़दूर, किसान की बात करने के लिए ही हूं। उन्होंने ग़रीब को ग़रीब ही माना, उसे किसी जाति या वर्ग में विभाजित नहीं किया। तमाम आर्थिक अभावों के बावजूद उन्होंने विशद लेखन कार्य किया।
कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ। नागार्जुन के काव्य में व्यक्तियों के इतने व्यंग्यचित्र हैं कि उनका एक विशाल अलबम तैयार किया जा सकता है। नामवर सिंह
नागार्जुन जैसा प्रयोगधर्मा कवि कम ही देखने को मिलता है, चाहे वे प्रयोग लय के हों, छंद के हों, विषयवस्तु के हों।  नामवर सिंह
बलचनमा
 बलचनमा में मिथिला के ग्रामीण जीवन का उत्कट यथार्थ अपनी सम्पूर्ण प्रखरता में चित्रित हुआ है । एक पात्र विशेष की, उसकी आत्मकथा के रूप में प्रस्तुत कहानी है पर वह पात्र बलचलमासम्पूर्ण निम्नवर्ग का प्रतीत बन गया है । बलचनमा सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधि पात्र है ।
 ‘बलचनमाकेवल इसलिए उल्लेखनीय उपन्यास नहीं है कि उसमें कृषक-मजदूरों के अत्याचार और शोषण की सही तस्वीर है, वरन् इसलिए भी कि उसमें नागार्जुन ने ज़मींदारों से किसानों के संघर्ष की शुरुआत की कहानी लिखी हैं ।
पात्र : मोहनबाबू, बलचनमा की  माँ, फूलबाबू, राघेबाबू ।
वरुण के बेटे
        वरुण के बेटेउपन्यास में नागार्जुन ने बिहार के मछुओं की संघर्ष की गाथा को प्रस्तुत किया है। इसमें एक निर्धन मछुआ मधुआ के जीवन-संघर्षों की कहानी है ।       
पात्र : मोहन माँझी, खुरखुन, माधुरी आदि तो मुख्य हैं । नारी चेतना की नई छवि हमें अनपढ़ माधुरी में दिखलाई पड़ती है । वरुण के बेटेमें श्रमदान की कृतिमता पर व्यंग्य किया गया है। कोसी के किनारे श्रमदानियों के महत्व के कारण जंगल में मंगल हो जाता है ।
मोहन मांझी आजादी का सपना देखता है। वह कहता है कि "गढ़्पोखर का उद्धार होगा आगे चलकर और तब मलाही-गोढ़ीयारी के ग्रामांचल मछली-पालन व्यवसाय का आधुनिक केन्द्र हो जायेगा।" लेकिन ऐसा नहीं होता है। जमींदार धीरे-धीरे पोखर और चारागाहों की मर्यादाओं को मिटाने में सफल हो जाता है। इसके बाद जमींदारों के विरुद्ध आंदोलन जनतांत्रिक ढंग से शुरू हो जाता है। कुल मिलाकर कहा जाय तो इस उपन्यास में आजादी के बाद के भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों में मछुओं की जागरूकता को केन्द्र में रखा गया है।
कुम्भीपाक
कुम्भीपाक नारी पात्र इंदिरा, भुवन, चंपा आदि जैसी शोषित और प्रताड़ित महिलाओं की समस्याओं को यथार्थवादी दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किए है।
उग्रतारा
उग्रतारा तत्कालीन समय की नारी समस्याओं से जुड़े सवालों को रखा गया है। इसमें विधवा-विवाह की समस्याओं को नई दृष्टिकोण से देखा गया है। उगनीइस उपन्यास की प्रमुख नायिका है जिसका जीवन संघर्ष से भरा हुआ है।
इमरतिया, जमनिया के बाबा का ही परिवर्तित और परिष्कृत रूप है। बाबा ने इस उपन्यास में धार्मिक स्थलों, मठों के कुकृत्यों का पर्दाफ़ाश कर तत्कालीन समय के मठों के बुनियादी कमज़ोरियों को उठाकर जनता में जागृति लाने का प्रयास है।
बाबा बटेसरनाथ
उपन्यास बाबा बटेसरनाथअद्भुत फंतासी का सृजन करता है। यहाँ एक इच्छाधारी बाबा है जो बरगद भी बन जाता है और इनसान भी। बाबा कहता भी है, ''बेटा, मैं न तो भूत हूँ, न प्रेत। मैं इस बरगद का मानव रूप हूँ। ‘‘बाबा बटेसर नाथ’’ के दुसाध (निम्न जाति) के अपने आदि वीर पुरुष के प्रेमगीत में दीखता है- ‘‘उमर बीत गई/बाल पकने लगे/पिछले बारह वर्षों से/इस आंचल में गाँठ बाँध रखी है मैंने/आने का लेता है तो भी नहीं नाम/ निठुर मेरा दुसाध.../राजा सल्हेस प्रीतम मेरे/तेरे नाम पर गांठ बाँध रखी है/ अपने आँचल में मैंने/ओ निठुर! निर्मोही!!’’ गीत के ये पद जैकिसन ने आज तक नहीं सुने थे। यह तो उसे मालूम था कि सलहेस दुसाधों का वीर पुरुष था, महराज। कुसुम दोना उसकी प्रेयसी थी। लेकिन सलहेस के बारे में गाए जाने वाले पद इतने मार्मिक हो सकते हैं, जैकिसुन को इसकी कोई कल्पना नहीं थी।’’
दुखमोचन
नागार्जुन अपनी हर कथा में स्त्री-विमर्श करते हैं, सायास करते हैं, पूरी प्रतिबद्धता के साथ। विधवा विवाह पर जोर देते हैं। बेमेल विवाह का विरोध करते हैं.और स्त्री स्वातंत्र्य की वकालत करते हैं। नागार्जुन का दुखमोचनउपन्यास स्त्री-विमर्श पर आधारित उपन्यास है। दुखमोचन में नागार्जुन में विधवा माया विधुर कपिल से विवाह करना चाहती है। लड़की ब्राह्मण और लड़का राजपूत है।
1911 ई .  में  शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवालफ़ैज एवं नागार्जुन पैदा हुए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें