(20 अगस्त 1917౼9 दिसम्बर 2007)
(त्रिलोचन शास्त्री का जन्म 20 अगस्त 1917 उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के कटघरा चिरानी पट्टी में और मृत्यु 9 दिसम्बर 2007 को
ग़ाजियाबाद में हुआ था।)
त्रिलोचन शास्त्री का मूल नाम वासुदेव
सिंह था। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी
में एम.ए. और लाहौर से संस्कृत में
शास्त्री की उपाधि प्राप्त की थी।
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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
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आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के तीन स्तंभ हैं౼ त्रिलोचन शास्त्री, नागार्जुन व शमशेर बहादुर सिंह।
त्रिलोचन शास्त्री हिंदी के अतिरिक्त उर्दू,
अरबी और फारसी भाषाओं के निष्णात ज्ञाता थे। एक बार भोपाल पुस्तक मेले में एक
सांस्कृतिक सभा में उन्होंने कहा था कि जब कभी मुझे तीव्र गति में लिखना होता है
तो उर्दू में लिखता हूँ। हिंदी-उर्दू के कई शब्दकोषों की योजना से जुडे़ रहे और पत्रकारिता
के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे। उन्होंने प्रभाकर, वानर, हंस, आज, समाज जैसी
पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया।
त्रिलोचन शास्त्री 1995 से 2001
तक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। उन्होंने गीत, सॉनेट, ग़ज़ल, बरवै, रुबाई, काव्य-नाटक, प्रबंध कविता, कुंडलियां, बरवै, मुक्त छंद, चतुष्पदी
इत्यादि छंदों में अपने व्यापक अनुभव को शब्दबद्ध किया। सॉनेट उनका प्रिय छंद है। उन्हें
हिंदी सॉनेट (चतुष्पदी) का साधक माना जाता है। वह आधुनिक हिंदी कविता में सॉनेट के
जन्मदाता थे। उन्होंने इस छंद को भारतीय परिवेश में ढाला और लगभग 550 सॉनेट की रचना की। हिंदी में सॉनेट को विजातीय माना जाता था। लेकिन
त्रिलोचन ने इसका भारतीयकरण किया। इसके लिए उन्होंने रोला छंद को आधार बनाया तथा
बोलचाल की भाषा और लय का प्रयोग करते हुए चतुष्पदी को लोकरंग में रंगने का काम
किया। इस छंद में उन्होंने जितनी रचनाएं कीं, संभवत: स्पेंसर,
मिल्टन और शेक्सपीयर जैसे कवियों ने भी नहीं कीं। सॉनेट के जितने भी
रूप-भेद साहित्य में किए गए हैं, उन सभी को त्रिलोचन ने
आजमाया। त्रिलोचन शास्त्री के 17 कविता संग्रह प्रकाशित हुए।
कविता-संग्रह
·
धरती (1945),
·
गुलाब और बुलबुल (1956),
·
दिगंत (1957),
·
ताप के ताए हुए दिन (1980),
·
शब्द (1980),
·
उस जनपद का कवि हूँ (1981)
·
अरधान (1984),
·
तुम्हें सौंपता हूँ (1985),
·
अमोला (1990)
·
मेरा घर (2002)
·
चैती (1987)
·
अनकहनी भी कहनी है
·
जीने की कला (2004)
·
सबका अपना आकाश
·
फूल नाम है एक
संपादन
मुक्तिबोध की कविताएँ, मानक
अंग्रेजी-हिंदी कोश (सह संपादन)
कहानी संग्रह
- देशकाल
- सोलह आने
डायरी
- दैनंदिनी
कविताएँ
- अगर चांद मर जाता
- अनोखी यह परिचित मुस्कान
- अस्वस्थ होने पर
- आँसू बाँधे है मैंने गठरिया में
- आछी के फूल
- आदमी की गंध
- आरर-डाल
- उठ किसान ओ
- उनका हो जाता हूँ
- उषा आ रही है
- उस जनपद का कवि हूँ
- एक मधु मुसकान से लिख दो
- एक लहर फैली अनन्त की
- एक विरोधाभास त्रिलोचन है
- कठिन यात्रा
- कब कटी है आँसुओं से राह जीवन की
- कर्म की भाषा
- कला के अभ्यासी
- कातिक का पयान
- कुहरे में भोपाल
- कोई दिन था जबकि हमको भी बहुत कुछ याद था
- खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार
- खो गई थी गूँज
- गद्य-वद्य कुछ लिखा करो
- गाओ
- गान बन कर प्राण
- ग़ालिब
- गीतमयी हो तुम
- घर वापसी
- चंचल पवन प्राणमय बंधन
- चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती
- चाँदनी रात, नीरव तारे
- चारों ओर घोर बाढ़ आई है
- जीवन का एक लघु प्रसंग
- जीवन का एक लघु प्रसंग
- जीवन स्मृति के पथ
- जो है सो है
- झापस
- टूटा हृदय
- तरुण से
- तुम्हे सौंपता हूँ
- तुम्हें जब मैंने देखा
- तुलसी बाबा
- त्रिलोचन चलता रहा
- दीप जलाओ
- दु:खों की छाया
- दुनिया का सपना
- धर्म की कमाई
- न जाने हुई बात क्या
- नगई महरा
- नदी : कामधेनु
- नागार्जुन
- नीला आकाश कह सकता है
- पयोद और धरणी
- परिचय की गाँठ
- पवन शान्त नहीं है
- पावन मंसूबा
- प्रकाश के रंग
- प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट निकली है
- प्रसन्न ताल
- प्राणों का गान
- फूल मुझे ला दे बेले के
- फूल, तुम खिल कर झरोगे
- फेरू
- बरसाती ऊषा, तू जा
- बादल घिर आए
- बादलों में लग गई है आग दिन की
- बिल्ली के बच्चे
- भाषा की लहरें
- भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
- मधुमालती
- मुझे बुलाता है पहाड़
- मैं तुम्हारा बन गया तो
- मैं तुम्हें फिर फिर पुकारूँ
- यह सुगंध मेरी है
- याद रहेगा
- राका आई
- लहरों में साथ रहे कोई
- वही त्रिलोचन है
- शरद का यह नीला आकाश
- संध्या ने मेघों के कितने चित्र बनाए
- सब का अपना आकाश
- सह जाओ आघात प्राण, नीरव सह जाओ
- सारनाथ
- सॉनेट का पथ
- सो गया था दीप
- स्निग्ध श्याम घन की छाया है
- स्नेह मेरे पास है
- हम साथी
- हाथों के दिन आएँगे
- हृदय की लिपि
अवधी रचनाएँ
पुरस्कार व सम्मान
त्रिलोचन शास्त्री को 1989-90 में हिंदी अकादमी ने शलाका सम्मान से सम्मानित किया था। हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हे 'शास्त्री' और 'साहित्य रत्न' जैसे उपाधियों से सम्मानित किया जा चुका है। 1982 में ताप के ताए हुए दिन के लिए उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला था।
इसके अलावा उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी समिति पुरस्कार, हिंदी संस्थान सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, शलाका सम्मान, भवानी प्रसाद मिश्र राष्ट्रीय पुरस्कार, सुलभ साहित्य अकादमी सम्मान, भारतीय भाषा परिषद सम्मान इत्यादि से भी सम्मानित किया गया था।ॉ
त्रिलोचल शास्त्री के कथन
और उनकी काव्य पंक्तियाँ
- भाषा में जितने प्रयोग होंगे वह उतनी ही समृद्ध होगी।౼त्रिलोचन
- ''जनता की भाषा यदि कवि नहीं लिख रहा है तो वह किसका कवि
होगा। कवि को जनता से जुड़ना चाहिए। तुलसीदास हैं,
मीरा हैं,
रैदास हैं,
कबीर हैं,
दादू साहब हैं। ये सब भाषा के
द्वारा ही जनता के जीवन से जुड़े।'' ౼त्रिलोचन
- ''सारनाथ, जब जी करता है हो आता हूँ। वहाँ अकेलापन और अकेलेपन की
चुहल भी है। प्रायः छुट्टियाँ वहीं कहीं निर्जन में पढ़ते-लिखते या सोचते गुज़ार
देता हूँ। मेरे मन में भी अथाह दुःख है। उसे सूम के धन की तरह छिपाए रहता हूँ।
लगता है शायद यह मेरी भूल हो।'' ౼ 18-3-1963 को डॉ.
प्रेमलता वर्मा के नाम लिखे एक पत्र में त्रिलोचन
- उस जनपद का कवि हूं/जो भूखा दूखा है
नंगा है अनजान है कला नहीं जानता
कैसी होती है वह क्या है वह नहीं मानता
- बातों ही बातों में अचानक/भीतर की प्राणवायु सब बाहर निकाल
कर
एक बात उसने कही/जीवन की पीड़ा भरी
बाबू, इस महँगी के मारे किसी तरह
अब तो
और नहीं जिया जाता/और कब तक चलेगी लड़ाई यह?
आज मैं अकेला हूँ
(1)
आज मैं अकेला हूँ
अकेले रहा नहीं जाता।
(2)
जीवन मिला है यह/रतन मिला है यह
धूल में/कि/फूल में/मिला है/तो/मिला है यह
मोल-तोल इसका/अकेले कहा नहीं जाता
(3)
सुख आये दुख आये/दिन आये रात आये/फूल में/कि/धूल में
आये/जैसे/जब आये/सुख दुख एक भी/अकेले सहा नहीं जाता
(4)
चरण हैं चलता हूँ/चलता हूँ चलता हूँ/फूल में/कि/धूल में
चलता/मन/चलता हूँ/ओखी धार दिन की/अकेले बहा नहीं जाता।
- आदमी वह आदमीयत जिसमें है
आदमी को देखकर पू-पू न कर
बन जा फूल, फल, मलयज, प्रकाश
पथिक से तूफ़ान-सा हू-हू न कर।
- रस जीवन का जीवन से सींचा
दिये ह्रदय के भाव, उपेक्षित थी जो भाषा
उसको आदर दिया, मरुस्थल मन का सींचा
- तुलसी बाबा, भाषा मैंने तुमसे सीखी
मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो
- कोई समझ न पाए अगर तुम्हारी बोली
तो उस बोली का मतलब क्या, मौन भला है?
- धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण
सुन पढ़कर, जपता है नारायण नारायण।
- बड़े-बड़े शब्दों में बड़ी-बड़ी बातों को
कहने की आदत औरों में है पर मेरा/ढर्रा अलग गया है
- व्यक्ति से/समाज को पकड़ता है
जैसे फूल खिलता है/उसका पराग किसी और जगह पड़ता है
फूल की दुनिया बन जाती है।
- गीत संगीत उन्हें किसलिए सुनाते हो
उनको दो जून कभी मिलता है खाना भी नहीं।
- आज जो रूप सरे राह देखकर ठहरे
कल वही ऐसी छुअन होगी कि लट जाएगा
यह जो मुस्कान का परदा है त्रिलोचन वह तॉ
काल की एक ही फटकार में फट जाएगा।
- चल रही हवा धीरे-धीरे/सीरी-सीरी
उड़ रहे गगन में झीने-झीने/कजरारे चंचल बादल
छिपते-छिपते जब तब तारे उज्ज्वल-झलमल
चाँदनी चमकती है गंगा बहती जाती है।
- ले के उपहार चैत घर-घर में/बात बिगड़ी बना रहा है फिर
फूल ऋतुराज को मिले/मन भी नए विश्वास पा रहा है फिर
- शीश पर फूल फल जो लेता है/दूसरों को ही सौंप देता है
छाया अपनी लिए सदा तत्पर/वृक्ष ही बस पदार्थ चेता है।
- खिड़की पै जो गौरैया चहचहाती है
जीवन के गान अपने वह सुनाती है।
जाने कहाँ-कहाँ दिन में जा-जा कर
प्राणों की लहर पंखों में भर लाती है।
- बरखा मेघ-मृदंग थाप पर/लहरों से देती है जी भर
रिमझिम-रिमझिम नृत्य-ताल पर/पवन अथिर आए
दादुर, मोर, पपीहे बोले, धरती ने सोंधे स्वर खोले
मौन समीर तरंगित हो ले।
- कवि है नहीं त्रिलोचन अपना सुख-दुःख गाता
रोता है वह, केवल अपना सुख-दुःख गाना
और इसी से इस दुनिया में कवि कहलाना
देखा नहीं गया।
- क्यों मैंने पाया है इतना परम कलेजा
जो दुःख कभी किसी का नहीं देख सकता है
आँखें भर-भर आती हैं, यह मन थकता है
- सचमुच, सचमुच मेरे पास नहीं है पैसा
वह पैसा जिससे दुनिया-धंधा होता है,
तो क्या, दिल तो है, ऐसा दिल जिससे दिल का
ठीक-ठीक प्रतिबिंब उतर आता है, जैसा
दर्पण में तब-तब होता है, क्यों रोता है?
पैसे वाला रह जाता है केवल छिलका।
- घमा गए थे हम/फिर नंगे पाँव भी जले थे
मगर गया पसीना, जी भर बैठे जुड़ाए
लोटा-डोर फाँसकर जल काढ़ा/पिया
भले चंगे हुए/हवा ने जब तब वस्त्र उड़ाए।
- वह उदासीन बिल्कुल अपने से,
अपने समाज से है, दुनिया को सपने से अलग नहीं मानता
उसे कुछ भी नहीं पता दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची, अब समाज में
- वे विचार रह गए वहीं हैं जिनको ढोता
चला जा रहा है वह, अपने आँसू बोता
विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।
- ढाकों के पातों को/पाली की मर्यादा देकर पहला घेरा
तोड़ दिया।
- ये दिन न भुला ऽ ऽ ऽ ऽ ना। और सनेही/नींबू के फूले,
बेला के फूले
कहीं किसी बारी में भूले भूले/विलग मत जा ऽ ऽ ऽ ना। ओ सनेही
मंजर गए आम। कोयलिया न बोली/बाटों के अपने। हाथ उठाए धरती।
बसंत सखी को बुलाए/पेड़ हैं सब काम/कोयलिया न बोली।
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