सुदामा पांडेय 'धूमिल' की रचनाएँ
'धूमिल' (1936-1975 ई.) जनसरोकार के
कुशल चितेरे हैं । ''उनकी कविता हत्यारों के ख़िलाफ़ एक
लड़ाई है । उनके दोनों काव्य-संग्रहों౼ 'संसद से सड़क तक' (1972 ई.) और 'कल सुनाना मुझे' (1977 ई.) ౼ में हत्यारों को अनेक रूप-रंगों में देखा जा सकता है।''1
धूमिल का एक और काव्य-संग्रह है౼ 'सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र' । 'कल सुनाना मुझे' और 'सुदामा पांडेय का
प्रजातंत्र'౼ ये दोनों संग्रह कवि की मृत्यु
के बाद छपे हैं ।
धूमिल विद्रोही पीढ़ी के कवि हैं । उनकी कविताएं एक ओर व्यक्तिगत
और सामूहिक, सामाजिक और राजनितिक विद्रूपताओं,
विसंगतियों और विषमताओं के कारण उत्पन्न दुख-दर्द, उत्पीड़नजनित त्रासद स्थिति और
जीवन के सड़ांध को तीव्रता से उभारने में सक्षम हैं, तो दूसरी ओर स्थिति के विषमता
के ख़िलाफ़ विद्रोह और आक्रोश को ज़ोरदार अंदाज़ में व्यक्त करती हैं । धूमिल के
साहित्य-जगत् में आने से पहले आलोचना कहानी-केन्द्रित थी, लेकिन धूमिल के आते ही
यह कविता केन्द्रित हो गई । काशीनाथ सिंह के शब्दों में౼
''धूमिल के आने तक आलोचना का मुंह कहानी की ओर था । वह आया
और आलोचना का मुंह कविता की ओर कर दिया । अपनी ओर कर लिया । अकेले आलोचना का ही
नहीं, कवि भी घूम गए । धूमिल ने अकविता, भूखी कविता, रसशानी कविता, दैनिक कविता
आदि की लालसाओं को पहरा कर दिया और मुंछों पर गुर्रा देता रहा౼ उस पट्ठे की तरह जो अखाड़े में चुनौती देते हुए धूम रहा हो कि जो चाहे
आए, हाथ मिलाए।''2
धूमिल ने अपनी कविता के द्वारा राजनीतिक, सामाजिक तथा
आर्थिक विषमता पर तीव्र प्रहार किया है । डॉ. कुसुम राय ने धूमिल की अचूक प्रहारक
क्षमता और विषय-वैविध्य पर लिखा है౼
''धूमिल की कविता अपने निर्भय परिवेश की आलोचनात्मक पहचान
करती है । अधिकांश कविता प्रजातंत्रीय व्यवस्था में घुसे अप्रजातंत्रीय तत्वों के
परिणामस्वरूप शोषित, उपेक्षित जनता की मोह भंग मानसिकता नहीं, बल्कि तथाकथित 'सुराजियों' के असली, भयावह चेहरों से हमारा साक्षात्कार कराती है, जिनकी बदौलत हमारी
आज़ादी तीन थके हुए रंगों को ढोने वाले पहिए में तब्दील हो रही है और प्रजातंत्र౼ एक ऐसा तमाशा, जिसकी जान मदारी की भाषा है, 'संसद-भवन' प्रवंचना-भवन बनता
जा रहा है, क्योंकि रोटी से खेलने वाले 'बिचौलिए' संसद भवन में बड़ी-बड़ी
कुर्सियों पर विराजमान हैं । राजनैतिक ढोंग, छल, पाखंड और उसकी मानव-विरोधी हरकतों
पर धूमिल की कविता प्रहार करती है।''3
धूमिल जनता की भाषा में दीन-हीनों, वंचितों, पीड़ितों
इत्यादि के दुख-दर्द का सजीव चित्रण करते हैं और उनकी आवाज़ हुकूमत तक पहुंचाने की
हर मुम्किन कोशिश करते हैं । भले ही हुकूमत गूंगी-बहरी की तरह मूक दर्शक बनी देखती
रहे ।
उनके शहर में सूर्यास्त, मकान एवं आदमी, शहर का व्याकरण, नगरकथा, मोचीराम, पटकथा, रोटी और संसद, मुनासिब कार्रवाई, कविता, प्रौढ़ शिक्षा, लोकतंत्र ताज़ा ख़बर, संदर्भ, गांव, समाजवाद, देश-प्रेम मेरे लिए, अकाल-दर्शन, क़िस्सा जनतंत्र, नक्सलवादी इत्यादि धूमिल की ऐसी कविताएं हैं, जिनमें धूमिल आम
आदमी की ज़िन्दगी की हक़ीक़ी तस्वीर पेश करते हैं । यह कहना ज़्यादा सही होगा कि उनकी
कविता के लफ़्ज़-लफ़्ज़ से आम आदमी के
दुख-दर्द टपकते हैं ।
आज की विकट परिस्थिति में आम आदमी को रोज़मर्रा की
बुनियादी ज़रूरतों की चीज़ें भी मयस्सर नहीं हो पा रही हैं। नेता उनकी रोटी पर भी
राजनीति कर रहे हैं, बल्कि छीना-झपटी कर रहे हैं और बिचौलिए तो कमाल ही कर रहे हैं
। धूमिल का कमाल देखिए౼
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं -
यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है।
आज अपने देश में 'एकता' और 'दया' के नाम पर जो कुछ हो रहा
है, उसके बारे में धूमिल कहते हैं౼
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
आज अपराधी तत्वों और चरित्रहीनों की पांचों उंगलियां घी
में हैं । वे मज़े कर रहे हैं౼
….और जो चरित्रहीन है
उसकी रसोई में पकने वाला चावल
कितना महीन है ।
कहा जाता है कि 'संसद देश की धड़कन को प्रतिबिंबित करने वाला
दर्पण है।' लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपनी ईमानदारी पर
मलाल क्यों है?౼
मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद౼
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?
कविता क्या है ? धूमिल इसको 'आदमी होने की तमीज़' कहते हैं౼
कविता
भाषा में
आदमी होने की
तमीज़ है ।
और धूमिल कविता को एक सार्थक वक्तव्य कहते हैं౼
एक सही कविता
पहले
एक सार्थक वक्तव्य होती है ।
लेकिन आज के हालात में कविता की भूमिका बदल गयी है౼
कविता
घेराव में
किसी बौखलाये हुये
आदमी का संक्षिप्त एकालाप है ।
तथा
कविता
शब्दों की अदालत में
अपराधियों के कटघरे में
खड़े एक निर्दोष आदमी का
हलफ़नामा है ।
धूमिल की कविता 'मोचीराम' में जातिवादी समाज का यथार्थपरक चित्रण है౼
वह हँसते हुये बोला౼
बाबूजी, सच कहूँ౼मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये, हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।.....
इन सबके बावजूद कवि को पूरी उम्मीद है कि एक न एक दिन संकट
के बादल छंटेंगे, अच्छे दिन आएंगे और आम लोगों की ज़िन्दगी ख़ुशहाल हो जाएगी౼
‘अब कोई आदमी
कपड़ों की लाचारी में
अपना रंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब कोई दवा के अभाव में
घुट-घुटकर नहीं मरेगा
अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा
अब कोई किसी को नंगा नहीं करेगा
अब यह ज़मीन है
आसमान अपना है
जैसा पहले हुआ करता था
मैं इन्तिज़ार करता रहा।
धूमिल लोकतंत्र को मदारी की भाषा कहते हैं । वह कहते हैं౼
अपने यहां जनतंत्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान मदारी की भाषा है।
नेता जनता के मसले पर गोल-मोल जवाब देते हैं। मसले को उलझान-सुलझाने
में वे माहिर होते हैं। वे हर शंका और सवाल का एक ही जवाब देते हैं। फिर भी जनता
बार-बार उन नेताओं को चुनने को मजबूर हैं౼
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का एक ही जवाब था।
और आलेख के अन्त में धूमिल की शिल्प-चेतना और भाषा की
ख़ूबी पर दो साहित्येतिहासकारों की
सम्मतियां पेश हैं । पहली सम्मति डॉ. कुसुम राय की है । धूमिल की शिल्प-चेतना के
संबंध में वह लिखती हैं, ''काव्य-चेतना के साथ ही शिल्प-चेतना में भी धूमिल साठोत्तरी
कवियों के लिए 'प्रतिमान' रहे हैं । शब्दों को खोलकर रखने की कला धूमिल की काव्य-भाषा की प्रमुख
विशेषता है । सपाटबयानी, संबोधनात्मक शैली तथा सार्थक शब्दों की तलाश उनकी अपनी
विशेषताएं हैं।''4
और दूसरी सम्मति डॉ. बच्चन सिंह की है । धूमिल की भाषा की
ख़ूबी गिनाते हुए वह लिखते हैं౼
''वस्तु के बदलाव के साथ धूमिल ने कविता
को नई भाषा और नए मुहावरे दिए हैं जो विपक्ष का पक्ष प्रस्तुत करने में पूर्णतः
समर्थ है, 'क्योंकि बनिया की भाषा तो सहमति की भाषा है।' बनिया भाषा के निषेध के
साथ लोरियों की गंधवती भाषा भी उसे ग्राह्य नहीं और न रूमान की हरी-भरी शब्दावली।.....धूमिल
की भाषा में सचेतता है, बदलाव का उपक्रम है और कर्म की प्रेरणा है।''5
1. डॉ. बच्चन सिंह, आधुनिक साहित्य का इतिहास
2. हिन्दी साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास,
खण्ड-3, पृ. 578
3. हिन्दी साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास,
खण्ड-3, पृ. 579
4. हिन्दी साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास,
खण्ड-3, पृ. 580
5. आधुनिक साहित्य का इतिहास, पृ. 300
मुहम्मद इलियास हुसैन
+91-9717324769
iliyashussain1966@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें