हवाई अड्डे पर विदा౼ अज्ञेय
उड़
गया गरजता यन्त्र-गरुड़
बन
बिन्दु, शून्य में पिघल गया।
पर
साँप? लोटता डसता छोड़ गया वह उसे
यहीं पर
आँखों
के आगे धीर-धीरे सब धुँधला होता आता है-
मैदान,
पेड़, पानी, गिरि, घर, जन-संकुल।
(अरी ओ करुणा प्रभामय से)
हांगकांग, 25 जनवरी, 1958
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