सिक्का बदल गया (कृष्णासोबती) : Hindi Sahitya Vimarsh
hindisahityavimarsh.blogspot.in
iliyashussain1966@gmail.com
Mobile : 9717324769
अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद
इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास
(कृष्णा सोबती :
18 फरवरी 1925-25 जनवरी 2019)
देश-विभाजन की त्रासदी
को आधार बनाकर लिखी गई कहानी 'सिक्का बदल गया' में कृष्णा सोबती ने एक अकेली, असहाय, बूढ़ी धनाढ्य विधवा नारी की शोचनीय दशा, पराधीनता और विवशता का यथार्थपरक
और मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। इसमें विभाजन के कटु सत्य को उचित तथ्यों के साथ तथा
विभाजन से उत्पन्न दारुण परिस्थितियों का मार्मिक चित्रण तो किया ही गया है, मानवीय
संबंधों और मूल्यों में आए विघटन का भी चित्रण हुआ है। ज़माना बदल गया है, सिक्का बदल गया है।
कृष्णा सोबती की कहानियों
में सर्वाधिक चर्चित एवं प्रसिद्ध कहानी 'सिक्का बदल गया' का प्रकाशन अज्ञेय द्वारा सम्पादित पत्रिका 'प्रतीक' में 1948 ई. में हुआ।
पात्र : शाहनी, शाहजी, शेरा, हसैना, दाऊद ख़ाँ, पटवारी बेगू,
नवाब बीबी, जैलदार, जैना और इस्माईल।
खद्दर की चादर ओढ़े,
हाथ में माला लिए शाहनी जब दरिया के किनारे पहुंची
तो पौ फट रही थी। दूर-दूर आसमान के परदे पर लालिमा फैलती जा रही थी। शाहनी ने कपड़े
उतारकर एक ओर रक्खे और 'श्रीराम, श्रीराम' करती पानी में हो ली। अंजलि भरकर सूर्य देवता को नमस्कार किया,
अपनी उनीदी आंखों पर छींटे दिये और पानी से लिपट
गयी!
चनाब का पानी आज भी
पहले-सा ही सर्द था, लहरें लहरों को चूम
रही थीं। वह दूर सामने काश्मीर की पहाड़ियों से बर्फ़ पिघल रही थी। उछल-उछल आते पानी
के भंवरों से टकराकर कगारे गिर रहे थे, लेकिन दूर-दूर तक बिछी रेत आज न जाने क्यों
ख़ामोश लगती थी ! शाहनी ने कपड़े पहने, इधर-उधर देखा, कहीं किसी की परछाई
तक न थी। पर नीचे रेत में अगणित पांवों के निशान थे। वह कुछ सहम-सी उठी !
आज इस प्रभात की मीठी
नीरवता में न जाने क्यों कुछ भयावना-सा लग रहा है। वह पिछले पचास वर्षों से यहां नहाती
आ रही है। कितना लम्बा अरसा है! शाहनी सोचती है, एक दिन इसी दुनिया के किनारे वह दुलहिन बनकर उतरी थी। और आज...आज
शाहजी नहीं, उसका वह पढ़ा-लिखा
लड़का नहीं, आज वह अकेली है, शाहजी की लम्बी-चौड़ी हवेली में अकेली है। पर नहीं
यह क्या सोच रही है वह सवेरे-सवेरे! अभी भी दुनियादारी से मन नहीं फिरा उसका ! शाहनी
ने लम्बी सांस ली और 'श्री राम,
श्री राम', करती बाजरे के खेतों से होती घर की राह ली। कहीं-कहीं लिपे-पुते
आँगनों पर से धुआँ उठ रहा था। टनटन बैलों, की घंटियाँ बज उठती हैं। फिर भी...फिर भी कुछ बंधा-बंधा-सा लग रहा है। 'जम्मीवाला' कुआँ भी आज नहीं चल रहा। ये शाहजी की ही असामियाँ हैं। शाहनी
ने नज़र उठायी। यह मीलों फैले खेत अपने ही हैं। भरी-भरायी नई फ़सल को देखकर शाहनी किसी
अपनत्व के मोह में भीग गयी। यह सब शाहजी की बरकतें हैं। दूर-दूर गाँवों तक फैली हुई
ज़मीनें, ज़मीनों में कुएँ सब अपने
हैं। साल में तीन फ़सल, ज़मीन तो सोना उगलती
है। शाहनी कुएँ की ओर बढ़ी, आवाज़ दी,
''शेरे, शेरे, हसैना, हसैना...।''
शेरा शाहनी का स्वर
पहचानता है। वह न पहचानेगा ! अपनी माँ जैना के मरने के बाद वह शाहनी के पास ही पलकर
बड़ा हुआ। उसने पास पड़ा गंडासा 'शटाले' के ढेर के नीचे सरका दिया। हाथ में हुक्का पकड़कर
बोला, ''ऐ हैसैना-सैना...।'' शाहनी की आवाज़ उसे
कैसे हिला गयी है ! अभी तो वह सोच रहा था कि उस शाहनी की ऊँची हवेली की अंधेरी कोठरी
में पड़ी सोने-चांदी की सन्दूक़चियाँ उठाकर...कि तभी 'शेरे शेरे...। शेरा ग़ुस्से से भर गया। किस पर निकाले अपना क्रोध?
शाहनी पर ! चीख़कर बोला, ''ऐ मर गयीं एँ एब्ब तैनू मौत दे।''
हसैना आटेवाली कनाली
एक ओर रख, जल्दी-जल्दी बाहिर निकल आयी,
''ऐ आयीं आँ क्यों छावेले (सुबह-सुबह)
तड़पना एँ?''
अब तक शाहनी नज़दीक
पहुँच चुकी थी। शेरे की तेज़ी सुन चुकी थी। प्यार से बोली, ''हसैना, यह वक़्त लड़ने का है? वह पागल है तो तू
ही जिगरा कर लिया कर।''
''जिगरा !''
हसैना ने मान भरे स्वर में कहा, ''शाहनी, लड़का आख़िर लड़का ही है। कभी शेरे से भी पूछा है कि मुँह अंधेरे ही क्यों गालियाँ
बरसाई हैं इसने?'' शाहनी ने लाड़ से हसैना
की पीठ पर हाथ फेरा, हँसकर बोली, ''पगली, मुझे तो लड़के से बहू प्यारी है ! शेरे।''
''हाँ, शाहनी !''
''मालूम होता है,
रात को कुल्लूवाल के लोग आये हैं यहाँ?''
शाहनी ने गम्भीर स्वर में कहा।
शेरे ने ज़रा रुककर,
घबराकर कहा, ''नहीं शाहनी...'' शेरे के उत्तर की अनसुनी कर शाहनी ज़रा चिन्तित स्वर से बोली, ''जो कुछ भी हो रहा है, अच्छा नहीं। शेरे, आज शाहजी होते तो शायद कुछ बीच-बचाव करते। पर...'' शाहनी कहते-कहते रुक गयी। आज क्या हो रहा है। शाहनी को लगा जैसे
जी भर-भर आ रहा है। शाहजी को बिछुड़े कई साल बीत गये, परपर आज कुछ पिघल रहा है शायद पिछली स्मृतियाँ...आँसुओं को रोकने
के प्रयत्न में उसने हसैना की ओर देखा और हल्के-से हँस पड़ी। और शेरा सोच ही रहा है,
क्या कह रही है शाहनी आज! आज शाहनी क्या,
कोई भी कुछ नहीं कर सकता। यह होके रहेगा, क्यों
न हो? हमारे ही भाई-बन्दों से सूद
ले-लेकर शाहजी सोने की बोरियां तोला करते थे। प्रतिहिंसा की आग शेरे की आँखों में उतर
आयी। गंड़ासे की याद हो आयी। शाहनी की ओर देखा नहीं-नहीं, शेरा इन पिछले दिनों में तीस-चालीस क़त्ल कर चुका है, पर पर
वह ऐसा नीच नहीं...सामने बैठी शाहनी नहीं, शाहनी के हाथ उसकी आँखों में तैर गये। वह सर्दियों की रातें कभी-कभी शाहजी की डाँट
खाके वह हवेली में पड़ा रहता था। और फिर लालटेन की रोशनी में वह देखता है, शाहनी के ममता भरे हाथ दूध का कटोरा थामे हुए ''शेरे-शेरे, उठ, पी ले।'' शेरे ने शाहनी के झुर्रियाँ पड़े मुँह की ओर देखा तो शाहनी धीरे
से मुस्करा रही थी। शेरा विचलित हो गया। ''आख़िर शाहनी ने क्या बिगाड़ा
है हमारा?'' शाहजी की बात शाहजी
के साथ गयी, वह शाहनी को ज़रूर
बचाएगा। लेकिन कल रात वाला मशवरा! वह कैसे मान गया था फ़िरोज़ की बात ! ''सब कुछ ठीक हो जाएगा सामान बाँट लिया जाएगा !''
''शाहनी, चलो तुम्हें
घर तक छोड़ आऊँ !''
शाहनी उठ खड़ी हुई।
किसी गहरी सोच में चलती हुई शाहनी के पीछे-पीछे मज़बूत क़दम उठाता शेरा चल रहा है।
शंकित-सा-इधर उधर देखता जा रहा है। अपने साथियों की बातें उसके कानों में गूंज रही
हैं। पर क्या होगा शाहनी को मारकर?
''शाहनी !''
''हां, शेरे।''
शेरा चाहता है कि
सिर पर आने वाले ख़तरे की बात कुछ तो शाहनी को बता दे, मगर वह कैसे कहे?
''शाहनी।''
शाहनी ने सिर ऊँचा
किया। आसमान धुएँ से भर गया था, ''शेरे।''
शेरा जानता है यह
आग है। जबलपुर में आज आग लगनी थी, लग गयी! शाहनी कुछ न कह सकी। उसके नाते-रिश्ते सब
वहीं हैं।
हवेली आ गयी। शाहनी
ने शून्य मन से ड्योढ़ी में क़दम रक्खा। शेरा कब लौट गया, उसे कुछ पता नहीं। दुर्बल-सी
देह और अकेली, बिना किसी सहारे के
! न जाने कब तक वहीं पड़ी रही शाहनी। दुपहर आयी और चली गयी। हवेली खुली पड़ी है। आज शाहनी
नहीं उठ पा रही। जैसे उसका अधिकार आज स्वयं ही उससे छूट रहा है! शाहजी के घर की मालकिन...लेकिन
नहीं, आज मोह नहीं हट रहा। मानो
पत्थर हो गयी हो। पड़े-पड़े सांझ हो गयी, पर उठने की बात फिर भी नहीं सोच पा रही। अचानक रसूली की आवाज़ सुनकर चौंक उठी।
''शाहनी-शाहनी,
सुनो ट्रकें आती हैं लेने?''
''ट्रकें...?''
शाहनी इसके सिवाय और कुछ न कह सकी। हाथों ने एक-दूसरे
को थाम लिया। बात की बात में ख़बर गाँव भर में फैल गयी। नवाब बीबी ने अपने विकृत कण्ठ
से कहा, ''शाहनी, आज तक कभी ऐसा न हुआ, न कभी सुना। ग़ज़ब हो गया, अंधेर पड़ गया।''
शाहनी मूर्तिवत् वहीं
खड़ी रही। नवाब बीबी ने स्नेह-सनी उदासी से कहा, ''शाहनी, हमने तो कभी न सोचा
था !''
शाहनी क्या कहे कि
उसी ने ऐसा सोचा था। नीचे से पटवारी बेगू और जैलदार की बातचीत सुनाई दी। शाहनी समझी
कि वक़्त आन पहुँचा। मशीन की तरह नीचे उतरी, पर ड्योढ़ी न लाँघ सकी। किसी गहरी, बहुत गहरी आवाज़ से पूछा, ''कौन? कौन हैं वहाँ?''
कौन नहीं है आज वहाँ?
सारा गाँव है, जो उसके इशारे पर नाचता था कभी। उसकी असामियाँ हैं जिन्हें उसने
अपने नाते-रिश्तों से कभी कम नहीं समझा। लेकिन नहीं, आज उसका कोई नहीं, आज वह अकेली है! यह भीड़ की भीड़, उनमें कुल्लूवाल के जाट। वह क्या सुबह ही न समझ गयी थी?
बेगू पटवारी और मसीत
के मुल्ला इस्माईल ने जाने क्या सोचा। शाहनी के निकट आ खड़े हुए। बेगू आज शाहनी की ओर
देख नहीं पा रहा। धीरे से ज़रा गला साफ़ करते हुए कहा, ''शाहनी, रब्ब नू एही मंज़ूर
सी।''
शाहनी के क़दम डोल
गये। चक्कर आया और दीवार के साथ लग गयी। इसी दिन के लिए छोड़ गये थे शाहजी उसे?
बेजान-सी शाहनी की ओर देखकर बेगू सोच रहा है, ''क्या गुज़र रही है शाहनी पर! मगर क्या हो सकता है! सिक्का बदल
गया है...''
शाहनी का घर से निकलना
छोटी-सी बात नहीं। गाँव का गाँव खड़ा है हवेली के दरवाज़े से लेकर उस दारे तक जिसे शाहजी
ने अपने पुत्र की शादी में बनवा दिया था। तब से लेकर आज तक सब फ़ैसले, सब मशविरे यहीं होते रहे हैं। इस बड़ी हवेली को लूट
लेने की बात भी यहीं सोची गयी थी! यह नहीं कि शाहनी कुछ न जानती हो। वह जानकर भी अनजान
बनी रही। उसने कभी बैर नहीं जाना। किसी का बुरा नहीं किया। लेकिन बूढ़ी शाहनी यह नहीं
जानती कि सिक्का बदल गया है...
देर हो रही थी। थानेदार
दाऊद ख़ां ज़रा अकड़कर आगे आया और ड्योढ़ी पर खड़ी जड़ निर्जीव छाया को देखकर ठिठक गया!
वही शाहनी है जिसके शाहजी उसके लिए दरिया के किनारे ख़ेमे लगवा दिया करते थे। यह तो
वही शाहनी है जिसने उसकी मंगेतर को सोने के कनफूल दिये थे मुँह दिखाई में। अभी उसी
दिन जब वह 'लीग' के सिलसिले में आया था तो उसने उद्दंडता से कहा
था, ''शाहनी, भागोवाल मसीत बनेगी, तीन सौ रुपया देना पड़ेगा ! '' शाहनी ने अपने उसी सरल स्वभाव से तीन सौ रुपये दिये थे। और आज...?
''शाहनी!'' ड्योढ़ी के निकट जाकर बोला, ''देर हो रही है शाहनी। (धीरे से) कुछ साथ रखना हो
तो रख लो। कुछ साथ बाँध लिया है? सोना-चांदी।''
शाहनी अस्फुट स्वर
से बोली, ''सोना-चांदी!'' ज़रा ठहरकर सादगी से कहा, ''सोना-चांदी! बच्चा वह सब तुम लोगों के लिए है। मेरा
सोना तो एक-एक ज़मीन में बिछा है।''
दाऊद ख़ां लज्जित-सा
हो गया। ''शाहनी तुम अकेली हो,
अपने पास कुछ होना ज़रूरी है। कुछ नक़दी ही रख लो।
वक़्त का कुछ पता नहीं।''
''वक़्त?'' शाहनी अपनी गीली आँखों से हँस पड़ी। ''दाऊद ख़ाँ, इससे अच्छा वक़्त देखने के लिए क्या मैं ज़िन्दा रहूँगी!''
किसी गहरी वेदना और तिरस्कार से कह दिया शाहनी ने।
दाऊद ख़ाँ निरुत्तर
है। साहस कर बोला, ''शाहनी कुछ नक़दी ज़रूरी
है।''
''नहीं बच्चा, मुझे
इस घर से'' शाहनी का गला रुंध गया ''नक़दी प्यारी नहीं।
यहाँ की नक़दी यहीं रहेगी।''
शेरा आन खड़ा गुज़रा
कि हो ना हो कुछ मार रहा है शाहनी से। ''ख़ाँ साहिब देर हो रही है।''
शाहनी चौंक पड़ी। देर
मेरे घर में मुझे देर ! आँसुओं की भँवर में न जाने कहाँ से विद्रोह उमड़ पड़ा। मैं पुरखों
के इस बड़े घर की रानी और यह मेरे ही अन्न पर पले हुए...नहीं, यह सब कुछ नहीं। ठीक है देर हो रही है पर नहीं,
शाहनी रो-रोकर नहीं, शान से निकलेगी इस पुरखों के घर से, मान से लाँघेगी यह देहरी, जिस पर एक दिन वह रानी बनकर आ खड़ी हुई थी। अपने लड़खड़ाते क़दमों
को संभालकर शाहनी ने दुपट्टे से आँखें पोछीं और ड्योढ़ी से बाहर हो गयी। बड़ी-बूढ़ियाँ
रो पड़ीं। किसकी तुलना हो सकती थी इसके साथ! ख़ुदा ने सब कुछ दिया था, मगर मगर दिन बदले, वक़्त बदले...
शाहनी ने दुपट्टे
से सिर ढाँपकर अपनी धुंधली आँखों में से हवेली को अन्तिम बार देखा। शाहजी के मरने के
बाद भी जिस कुल की अमानत को उसने सहेजकर रखा आज वह उसे धोखा दे गयी। शाहनी ने दोनों
हाथ जोड़ लिए यही अन्तिम दर्शन था, यही अन्तिम प्रणाम
था। शाहनी की आँखें फिर कभी इस ऊँची हवेली को न देखी पाएँगी। प्यार ने ज़ोर मारा सोचा,
एक बार घूम-फिर कर पूरा घर क्यों न देख आयी मैं?
जी छोटा हो रहा है, पर जिनके सामने हमेशा बड़ी बनी रही है, उनके सामने वह छोटी न
होगी। इतना ही ठीक है। बस हो चुका। सिर झुकाया। ड्योढ़ी के आगे कुलवधू की आँखों से निकलकर
कुछ बन्दें चू पड़ीं। शाहनी चल दी, ऊँचा-सा भवन पीछे खड़ा रह गया। दाऊद ख़ाँ,
शेरा, पटवारी, जैलदार और छोटे-बड़े,
बच्चे, बूढ़े-मर्द औरतें सब पीछे-पीछे।
ट्रकें अब तक भर चुकी
थीं। शाहनी अपने को खींच रही थी। गांववालों के गलों में जैसे धुंआ उठ रहा है। शेरे,
ख़ूनी शेरे का दिल टूट रहा है। दाऊद ख़ाँ ने आगे
बढ़कर ट्रक का दरवाज़ा खोला। शाहनी बढ़ी। इस्माईल ने आगे बढ़कर भारी आवाज़ से कहा, ''
शाहनी, कुछ कह जाओ। तुम्हारे मुँह से निकली असीस झूठ नहीं हो सकती!'' और अपने साफ़े से आँखों का पानी पोछ लिया। शाहनी
ने उठती हुई हिचकी को रोककर रुंधे-रुंधे से कहा, ''रब्ब तुहानू सलामत रक्खे बच्चा, ख़ुशियाँ बक्शे...।''
वह छोटा-सा जनसमूह
रो दिया। ज़रा भी दिल में मैल नहीं शाहनी के। और हमहम शाहनी को नहीं रख सके। शेरे ने
बढ़कर शाहनी के पांव छुए, ''शाहनी कोई कुछ कर
नहीं सका। राज भी पलट गया'' शाहनी ने काँपता हुआ
हाथ शेरे के सिर पर रक्खा और रुक-रुककर कहा, ''तैनू भाग जगण चन्ना!'' (ओ चा/द तेरे भाग्य जागें) दाऊद ख़ाँ ने हाथ का संकेत किया। कुछ
बड़ी-बूढ़ियाँ शाहनी के गले लगीं और ट्रक चल पड़ी।
अन्न-जल उठ गया। वह
हवेली, नई बैठक, ऊंचा चौबारा, बड़ा 'पसार' एक-एक करके घूम रहे हैं शाहनी की आँखों में! कुछ
पता नहीं ट्रक चल दिया है या वह स्वयं चल रही है। आँखें बरस रही हैं। दाऊद ख़ाँ विचलित
होकर देख रहा है इस बूढ़ी शाहनी को। कहाँ जाएगी अब वह?
''शाहनी मन में मैल
न लाना। कुछ कर सकते तो उठा न रखते! वक़्त ही ऐसा है। राज पलट गया है, सिक्का बदल गया है...''
रात को शाहनी जब कैंप
में पहुँचकर ज़मीन पर पड़ी तो लेटे-लेटे आहत मन से सोचा 'राज पलट गया है...सिक्का क्या बदलेगा? वह तो मैं वहीं छोड़ आयी।...'
और शाहजी की शाहनी
की आँखें और भी गीली हो गयीं!
आसपास के हरे-हरे
खेतों से घिरे गांवों में रात ख़ून बरसा रही थी।
शायद राज पलटा भी
खा रहा था और सिक्का बदल रहा था..
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें