गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

कृष्णा सोबती समस्त रचनाएँ : Hindi Sahitya Vimarsh


कृष्णा सोबती समस्त रचनाएँ : Hindi Sahitya Vimarsh

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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास

कृष्णा सोबती (18 फ़रवरी 1925-25 जनवरी 2019 ई.), इनका जन्म गुजरात शहर, पंजाब, ब्रिटिश भारत (वर्तमान पाकिस्तान के गुजरात, पंजाब प्रांत) में हुआ था।
प्रकाशित कृतियाँ
उपन्यास
सूरजमुखी अँधेरे के (1972 ई., बलात्कार की शिकार औरत की कहानी, गहन संवेदना के स्तर पर कलाकार की तीसरी आँख से परत-दर-परत तन-मन की साँवली प्यास को उकेरा गया है।)
ज़िन्दगी़नामा या ज़िंदा रुख़ (1979 ई., बीसवीं शाताब्दी के प्रथम पंद्रह वर्षों के पंजाब के किसानों-ग्रामीणों के जीवन को केंद्र में रखकर रचित उपन्यास, जिसपर लेखिका को 1980 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। आलोचकों ने इसे एक प्रामाणिक समाजनामा कहा है।)
दिलो-दानिश (1993 ई., प्रेम-मुहब्बत, सामाजिकता और जीवन के सुख-दुख की छोटी-बड़ी कथा-कहानियों का संगुम्फित विन्यास है-दिलो-दानिश)
समय सरगम (2000 ई., पुरानी और नयी सदी के दो-दो छोरों को समेटता 'समय सरगम'  जिए हुए अनुभव की तटस्थता और सामाजिक परिवर्तन से उभरा-उपजा एक मनमोहक उपन्यास।
जैनी मेहरबान सिंह (2007 ई., ज़िन्दगी के रोमांस, उत्साह, उमंग और उजास की पटकथा को कृष्णा सोबती ने गुनगुनी सादगी से इस उपन्यास में पेश किया है।)
गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान (2017 ई., यह आत्मकथात्मक उपन्यास है, जो लेखिका के जीवन की अब तक की अत्यधिक निजी गाथा है। इसमें 1947 के बंटवारे के बाद के वर्षों का हाल बयान करता है और दिल्ली से सिरोही रियासत तक के सफ़र के इर्द-गिर्द घूमता है। इसमें विभाजन की रोंगटे खड़े कर देने वाली त्रासदी का आँखों देखा हाल बयान किया गया है और बताया गया है कि सरहदों के आरपार चल रही सियासत कितनी तरह के वहशत पैदा करती है, उसने कैसे-कैसे बंटवारे कर दिए हैं।)
जाने का दर्द है (2017 ई., बंटवारे के दौरान अपने जन्म स्थान गुजरात और लाहौर को छोड़कर कृष्णा सोबती किस प्रकार दिल्ली पहुंचती हैं और कैसे हिंदुस्तान का गुजरात उन्हें आवाज़ देता है और वे पाकिस्तान के गुजरात की अपनी स्मृतियों की पोटली बांधकर पहली नौकरी के लिए सिरोही पहुंचती हैं...इसी सब की दास्तान है यह उपन्यास)
चन्ना (2019 ई., पहला उपन्यास, जो अंत में छपा)
कहानी-संग्रह
बादलों के घेरे (1980 ई.)
लम्बी कहानी
डार से बिछुड़ी (1957 ई., इसमें नारी मन की करुण-कोमल भावनाओं, आशा-आकांक्षाओं और उसके हृदय को मथते आवेग-आलोड़न का मर्मस्पर्शी वर्णन किया गया है।)
मित्रो मरजानी (1967 ई., इस उपन्यास को हिंदी साहित्य में नारी-मन के अनुसार लिखी गई बोल्ड रचनाओं में गिना जाता है। इसमें एक विवाहिता स्त्री की कामुकता का स्वच्छंद वर्णन किया गया है। हिन्दी उपन्यास-जगत् में अपनी उपस्थिति का उजास भरनेवाली 'मित्रो' ऐसी पहली नारी पात्र है, जिसकी रचना में लेखिका ने साहस, ममता और निर्ममता का सागर उड़ेल दिया है।)
यारों के यार (1968 ई., राजधानी दिल्ली के एक सरकारी दफ़्तर के वातावरण और वहाँ काम करने वाले लोगों की रग-रग के हाल का जीवन्त और सम्मोहक वर्णन।)
ऐ लड़की (1991 ई., यह कथा मृत्यु की प्रतीक्षा में एक बूढ़ी स्त्री की निर्भय जिजीविषा का महाकाव्य है और कविता के क्षेत्र से गद्य का, मृत्यु के क्षेत्र से जीवन का चुपचाप उठाकर लाया-सहेजा गया अनुपम और चित्ताकर्षक अनुभव।)
आलोचकों ने कृष्णा सोबती की 'लम्बी कहानियों' को 'उपन्यासिका' कहा गया है और उन्हें 'उपन्यास-वर्ग' में भी रखा गया है।
पहली कहानी, 'लामा' (1950 ई.)
नफ़ीसा
सिक्का बदल गया
बादलों के घेरे
बचपन
संस्मरण
हम हशमत (पहला भाग 1977 ई., दूसरा भाग-1998 ई., तीसरा भाग-2012 ई., चौथा भाग-2018 ई.)
सोबती एक सोहबत (2014 ई., यह कृति उनके बहुचर्चित कथा-साहित्य, संस्मरणों, रेखाचित्रों, साक्षात्कारों और कविताओं से एक चयन है।)
मार्फ़त दिल्ली (2018 ई., प्रस्तुत कृति में लेखिका ने आज़ादी बाद के समय की कुछ सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक छवियों को अंकित किया है। यह वह समय था जब ब्रिटिश सरकार के पराये अनुशासन से निकलकर दिल्ली अपनी औपनिवेशिक आदतों और देसी जीवन-शैली के बीच कुछ नया गढ़ रही थी। सडक़ों पर शरणार्थियों की चोट खाई टोलियाँ अपने लिए छत और रोज़ी-रोटी तलाशती घूमती थीं और देश की नई-नई सरकार अपनी ज़िम्मेदारियों से दो-चार हो रही थी। भारतीय इतिहास की कुछ निर्णायक घटनाओं को उन्होंने उनके बीच खड़े होकर देखा। आज़ादी के पहले उत्सव का उल्लास और उसमें तैरती विभाजन की सिसकियों को उन्होंने छूकर महसूस किया। बापू की अन्तिम यात्रा में लाखों आँखों की नमी से वे भीगीं। दिल्ली में हिन्दी को एक बड़ी भाषा के रूप में उभरते हुए भी देखा। इन पन्नों में उन्होंने उस दौर की कुछ यादों को ताज़ा किया है।)
लिखना है मुझे अभी कुछ।
विचार-संवाद
सोबती वैद संवाद
मुक्तिबोध : एक व्यक्तित्व सही की तलाश में (2017 ई., आत्मसमीक्षा और जगत-विवेचन के निष्ठुर प्रस्तावक मुक्तिबोध ने एक दुर्गम पथ की ओर संकेत किया, जिससे होकर हमें अनुभव और अभिव्यक्ति की सम्पूर्णता तक जाना था; क्या हम जा सके ? मानवता के विराट और सर्वसमावेशी उज्जवल स्वप्न के लगातार दूर होते जाने से कातर और क्रुद्ध मुक्तिबोध का एक अनौपचारिक पाठ है, जिसे कृष्णा सोबती ने अपने गहरे संवेदित मन से प्रस्तुत किया है।)
लेखक का जनतंत्र (2018 ई.)
रचनात्मक निबंध
शब्दों के आलोक में (2015 ई., एक पुरानी जन्म तारीख के नए पुराने मुखड़ों और कार्यकारी उभरते पाठ के रचनात्मक टुकड़ों की बन्दिश है जिसे एक जिल्द में संजोया गया है।)
यात्रा-वृत्तांत
बुद्ध का कमण्डल : लद्दाख (2013 ई., इस किताब में कृष्णा सोबती ने वहां बिताए अपने कुछ दिनों की यादें ताज़ा की हैं। लद्दाख को कई नामों से जाना जाता है जिनमें एक नाम 'बुद्ध का कमंडल' भी है। बुद्ध के कमण्डल, लद्दाख में उदय होती उषाओं, घिरती साँझों और इनके बीच फैले स्तब्धकारी सौन्दर्य के पथरीले विस्तार में टहलती चित्रों से सजी यह किताब हमें उस जगह ले जाती है जिसका इस धरती पर स्थित होना ही हमें चकित करता है।)
तिन पहाड़ (1968 ई. दार्जलिंग के एक मनमोहक यात्रा-वृत्तान्त का वर्णन)
सम्मान      एवं पुरस्कार
1999 ई.          कथा चुड़ामणी पुरस्कार
1981 ई.          साहित्य शिरोमणी सम्मान
1982 ई.          हिन्दी अकादमी अवार्ड
2000-2001 ई.     शलाका पुरस्कार
1980 ई.            साहित्य अकादमी पुरस्कार
1996 ई.          साहित्य अकादमी फेलोशिप
2017 ई.          ज्ञानपीठ पुरस्कार (भारतीय साहित्य का सर्वोच्च सम्मान)
• 2018 ई.          साहित्य अकादमी की महत्‍तर सदस्यता
• 1996-97 ई.       मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार
                 साहित्य कला परिषद पुरस्कार
कथनउद्धरण
• भारतीय साहित्य के लिए उन्होंने जो किया वह बेजोड़ है। उनके काम के ज़रिये उनका सामाजिक संदेश बिल्कुल स्पष्ट होता था। अगर हम एक लेखक को लोकतंत्र एवं संविधान का संरक्षक कह सकते हैं, तो वह सोबती थीं। वह जीवन भर बराबरी एवं न्याय के लिए लड़ती रहीं। वह सिर्फ़ हिंदी की ही नहीं, बल्कि समस्त भारतीय साहित्य की प्रख्यात लेखिका थीं। —अशोक वाजपेयी
• वह महिला सम्मान के लेखन की अगुआ थीं। — डॉ. अशोक चक्रधर
• यदि किसी को पंजाब प्रदेश की संस्कृति, रहन-सहन, चाल-ढाल, रीति-रिवाज की जानकारी प्राप्त करनी हो, इतिहास की बात  जाननी हो, वहाँ की दन्त कथाओं, प्रचलित लोकोक्तियों तथा 18वीं, 19वीं शताब्दी की प्रवृत्तियों से अवगत होने की इच्छा हो, तो 'ज़िन्दगीनामा' से अन्यत्र जाने की ज़रूरत नहीं। —डॉ. देवराज उपाध्याय
  देखिये, अधेड़ लेखक अपनी खोई हुई तन्दुरुस्ती ढूंढ़ रहे हैं. सुबह की सैर में, कुतुबख़ानों में या मयख़ानों में। क्या करें, लेखकों और उनकी रचनाओं का बीमा नहीं होता, क्योंकि लेखक संपूर्ण लेखक नहीं होता। उसका मुख्य धंधा कुछ और होता है। अधिकतर बचे-खुचे समय को ही वह लेखन में बुनता है। कर्मकांड से जो भी कर ले। आख़िर किसका समय टुकड़ों-टुकड़ों में विभाजित नहीं? —शब्दों के आलोक, कृष्णा सोबती
• कृष्णा सोबती एक ऐसी शिखर लेखिका थीं, जिन्होंने भाषा और विषय वस्तु के लिहाज़ से हिन्दी साहित्य को एक नया कथा विन्यास दिया। उन्हें अपने समय की सबसे बोल्ड लेखिका कहा जाता है।...मंडलोई ने कहा कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सबसे बड़ी पैरोकार थीं। —वरिष्ठ साहित्यकार लीलाधर मंडलोई
नारी-स्वतंत्रता और न्याय की पक्षधर लेखिका कृष्णा सोबती ने समय और समाज को केंद्र में रखकर अपनी रचनाओं में एक युग को जिया है।
किसी भी व्यक्ति के लिए, जिसकी मूल और आन्तरिक प्रेरणा सत्य है, केवल साहित्य ही एक ऐसा कवच है, जिसके भीतर वह अपनी अस्मिता को सुरक्षित रख सकता है। —कृष्णा सोबती
• अपनी रचनाओं में कृष्णा सोबती ने स्त्री जीवन की परतों और दुश्वारियों को बेहद संजीदगी के साथ खोलने का भरपूर प्रयास किया।
नारी-स्वतंत्रता और न्याय की पक्षधर लेखिका कृष्णा सोबती ने समय और समाज को केंद्र में रखकर अपनी रचनाओं में एक युग को जिया है।
• अगर उन (कृष्णा सोबती) के लेखन को लेकर कोई एक ही ख़ास बात कहने की नौबत आ पड़े तो फिर बेहिचक कहना होगा कि वे स्त्री के साहस और ईमानदार मनोविज्ञान की लेखिका हैं। वे स्त्री और व्यवस्था के संबंधों को भी जानती हैं और उसके साथ घटती आई ज्यादातियों को भी। पर सबसे ऊपर वे उसके अटूट साहस और संघर्षजीविता की भी लेखिका हैं. उनकी स्त्री न तो कभी हारती है, न हार मान लेने को कभी राजी है। प्रत्येक हार को जीत में बदल लेने वाला उसका मन उनके लेखन का आधार सत्य है। —डॉ. विजय बहादुर सिंह
उन दिनों के हिंदी संसार में अपनी देह से घबराई-सकुचाई, उसे छुपाने और उसकी कामनाओं को न दिखाने के लाख जतन करती नायिकाओं ने कृष्णा सोबती के उपन्यास 'मित्रो मरजानी' के प्रकाशन के बाद अचानक पाया कि उनके बीच एक 'मित्रो' खड़ी है जो अपनी दैहिकता को लेकर कहीं भी संकोची नहीं है, वह अपने पति से पिट भी जाती है, लेकिन उसके व्यक्तित्व की जो चमक है, उसमें जो संघर्ष का माद्दा है, वह जैसे ख़त्म होता ही नहीं। —प्रियदर्शन

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