अद्दहमाण (अब्दुलरहमान) कृत 'संदेश रासक': Hindi Sahitya Vimarsh
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अवैतनिक सम्पादक
: मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद
इलियास
अब्दुल रहमान रचित
'संदेश रासक' एक विरह काव्य है।
इसे प्रबंध-काव्य, खंड-काव्य, दूत-काव्य विप्रलंभ श्रृंगार काव्य भी कहा गया है। कुछ
विदवानों ने इसे प्रथम नाट्यकृति और गीतिनाट्य भी कहा है। यह बारहमासा परंपरा अथवा
षड्ऋतु वर्णन का काव्य है। यह तीन प्रक्रमों में विभाजित 223 छंदों की एक छोटी-सी
रचना है। इसमें नारी हृदय की व्याकुलता अभिलाषा, दर्प, समर्पण इत्यादि का सरस
वर्णन हुआ है।
डॉ. सूर्यप्रसाद
दीक्षित ने इसे 10वीं शताब्दी की रचना माना है, जबकि डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के
अनुसार, यह 11वीं शताब्दी की रचना है। डॉ. कुसुम राय भी इसे 11वीं शताब्दी की ही
रचना मानती हैं। उनका कहना है कि व्याकरणाचार्य हेमचंद्र की रचना में अद्दहमान के
उद्धरण मिलते हैं और हेमचंद्र का जन्म 1088 ई. और मृत्यु 1242 ई. में हुई थी। अतः
सन्देश रासक को 11वीं शती का मानना ही उक्तियुक्त होगा।
अब्दुल रहमान
(अद्दहमान) का जन्म मुल्तान में हुआ था। उनके पिता का नाम मार हुसैन था।
विजय नगर (जैसलमेर)
की एक वियोगिनी नायिका स्तंभतीर्थ नगर की ओर जाने वाले एक पथिक से अपने प्रवासी पति
के लिए संदेश भेजती है। ज्यों ही उसका संदेश समाप्त होता है। वह पथिक को विदा करती
है कि दक्षिण दिशा से उसका पति आता हुआ दिखाई देता है।
विरहहिणी की
मार्मिक वियोगदशा का एक मनोरम चित्रण देखिए—
पाइय पिय
बडवानलहु विरग्गिहि उप्पन्ति।
जं सिन्तउ
थोरंगियहि जलइ पडिल्ली झन्ति।
सो सिज्जंत
विवज्जइ सासे दीउंहएहि पयच्छि।
निबउंत बाह भर
लोयणाइ धूमइण सिच्चंति।।
'संदेश रासक' में विविध छंदों का सुंदर प्रयोग हुआ है, हालांकि इसका मुख्य
छंद रासक है। इस प्रबंध काव्य में रासक के गेय रूप का पता चलता है। दोहा छंद का भी
सुंदर प्रयोग है। गाहा, पद्धरिया, रइडा, अडिल्ल और मालिनी छंद भी इसमें पर्याप्त है।
डॉ. नामवर सिंह 'संदेश रासक' की भाषा के संबंध
में कहते हैं, ''यह समझना भ्रांति है कि वह
ग्राम्य अपभ्रंश में लिखा हुआ काव्य है। वस्तुतः इसके भाव और भाषा पर नागरिकता की छाप
है। छंद विविधता और अलंकार-सज्जा दोनों दृष्टियों से 'संदेश रासक' अत्यंत परिमार्जित
रचना है।''
डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं, ''इस संदेश रासक में ऐसी करुणा है जो पाठक को बरबस
आकृष्ट कर लेती है। उपमाएँ अधिकांश में यद्यपि परंपरागत और रूढ़ भी हैं तथापि
बाह्यावृत्त की वैसी व्यंजना उसमें नहीं है जैसी आंतरिक अनुभूति की। ऋतु-प्रसंग
में बाह्यप्रकृति इस रूप में चित्रित नहीं हुई है, जिसमें आंतरिक अनुभूतियों की व्यंजना
दब जाए। प्रिय के नगर से आने वाले अपरिचित पथिक के प्रति नायिका के चित्त में किसी
प्रकार के दुराव का भाव नहीं है। वह बड़े सहज ढंग से अपनी कहानी कह जाती है। सारा वातावरण
विश्वास और घरेलूपन का है।''
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