(23 अगस्त, 1938-2008 ई., लखनऊ जनपद, उत्तर प्रदेश)
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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद
इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद
इलियास
• ''जब आप स्वयं को पहचानना चाहते हैं तो आपको समय और
स्थिति से रू-ब-रू होना होता है — और अपने समय और स्थिति
से आमने-सामने होने के लिये एक विधा या अनुशासन पर्याप्त नहीं होता — मुझे लगता है।... जितनी अलग-अलग प्रक्रियाओं से
मैं स्वयं को सम्पृक्त करता हूँ उतना ही अपने को ज्यादा समझ पाता हूँ और जितना स्वयं
को समझता हूँ उतना ही जीवन को अधिक जान पाता हूँ।'' —नंदकिशोर आचार्य
''शिक्षा की पहली जिम्मेदारी
शिक्षार्थी के प्रति है कि कैसे उसे एक अच्छे, सद्गुण सम्पन्न, रचनात्मक व्यक्ति के रूप में विकसित किया जाय जिस
से कि वह अपनी अन्तर्निहित भावनाओं को मूर्त कर सके।'' —नंदकिशोर आचार्य
• ''प्रत्येक साहित्यकार किसी न किसी धारणा या अध्यात्म
विशेष से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होकर रचना करता है उसकी विधा काव्य
हो या गद्य। अध्यात्म केवल अपने ही देश के सौन्दर्यशास्त्रीय मंथन से अणु प्राप्त नहीं
करता वरन् जिन-जिन देशों के रचनाकर्म या भावों या विचारों के सम्पर्क में आता है, उनका भी कुछ-न-कुछ प्रभाव प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप
में होता है। इसलिए भारतीय व पाश्चात्य दोनों ही दर्शनों में विद्यमान आध्यात्मिक तत्वों
को अपने चिंतन का आधार बनाते हुए सहज सरल रूप में समाज के समक्ष प्रस्तुत किया गया
है।'' —नंदकिशोर आचार्य
• अनुभूत्यात्मक अन्वेषण है साहित्य। —नंदकिशोर आचार्य
• उत्कृष्ट साहित्य
वही है जो जीवन की बहुरंगी जटिलता में से गुज़रकर ही किसी मूल्य की सिद्धि करता है।
— नंदकिशोर आचार्य
• ''काल रचता है पर संहार
भी करता है। साहित्य केवल रचता है, और इस रचने में काल
का संहार नहीं करता बल्कि उसे उस आत्म में रूपान्तरित कर देता है जो उसका मूल स्त्रोत
है और जैसा हाइडेगर कहते हैं — स्त्रोत ही तो गन्तव्य
है।'' —नंदकिशोर आचार्य
• ''कविता और दर्शन में शायद यही सब से महत्वपूर्ण अन्तर
है कि दर्शन पीड़ा का समाधान किसी अवधारणा में तलाश करता है जब कि कविता बल्कि कला-मात्र
में पीड़ा की अनुभूति में ही समाधान अन्तर्निहित है।'' —नंदकिशोर आचार्य
• स्वतन्त्रता के अन्वेषी थे अज्ञेय। —नंदकिशोर आचार्य
• विरचनात्मक निर्मिति है पाठ। —नंदकिशोर आचार्य
• अभेद साधना है संस्कृति। —नंदकिशोर आचार्य
• सृजन एक संवेदनात्मक अन्वेषण है। —नंदकिशोर आचार्य
• ''हक़ीक़त ये है ग़ाज़ी
मलिक कि इस मुल्क में हुकूमत ख़ास-ओ-आम पर सवारी का ही नाम है। इन्हें हुकूमत से जुड़कर
ही अपने वजूद का एहसास होता है।'' —'जिल्ले सुब्हानी' नाटक में हसन का कथन
• ''इससे सार्थक मौत क्या
होगी मेरी कि कोई हिन्दू मुझे मार दे— इसलिये कि मैं मुसलमान
को बचा रहा हूं। मैं जानता हूं बादशाह ख़ान, डॉ.. अंसारी या डॉ..
ज़ाकिर हुसैन जैसे मुसलमान ही यह करेंगे, ज़रूरत होने पर। किसी
भी सच्चे सत्याग्रही को यही करना होता है। वो सत्य की हत्या होते देखने की बजाए मृत्यु
का वरण अधिक पसंद करेगा।'' —'बापू' नाटक से
• ''तुम ने देखा होता
युवा सत्यवती का वैधव्य, अम्बा का देह त्याग, अम्बिका का दुख, अम्बालिका क अतिल-तिल
कर गलना- तो तुम समझती कि भीष्म-प्रतिज्ञा ने क्या किया है निर्दोष जीवन के साथ।'' —हस्तिनापुर नाटक से
• ''कोई भी स्त्री किसी
पुरुष को प्रेम के बिना कैसे सह सकती है? प्रेम के बिना देह
सौंप देने से बड़ा अपमान भी क्या हो सकता है किसी का।'' —हस्तिनापुर नाटक से
• ''यौवन कोई वस्त्र नहीं
है, चक्रवर्ती। वह एक अनुभव है। मेरे लिए अब वह अनुभव
एक स्मृति होगा—असहनीय स्मृति। मेरी
चेतना इस बोझ को अब नहीं झेल पायेगी टूट जायेगी।'' —'देहान्तर' नाटक
• ''तुम्हारी परिचर्या
में वात्सल्य नहीं है, मां। एक लगाव है जो
असहाय और वृद्ध पति के लिये होता है। तुम्हें लगता है कि यह बुढ़ापा चक्रवर्ती का है!
इसलिये तुम्हें इसकी सेवा करनी चाहिए। नहीं मां…तुम्हें चक्रवर्ती के साथ होना चाहिए।'' —'देहान्तर' नाटक में ययाति की
पत्नी शर्मिष्ठा से उसका पुत्र कहता है
• ''हम व्यक्ति को नहीं
पौरुष को भोगती हैं। पौरुष सनातन तत्त्व है…व्यक्ति में उसकी आंशिक अभिव्यक्ति है केवल। प्रत्येक नारी सनातन
कामना और पुरुष उसी सनातन पौरुष का माध्यम है।'' —'देहांतर' नाटक में बिन्दु का कथन
• ''धर्म गतिशील है भीष्म
! इसलिये वह सनातन है। मॄत अतीत से चिपटे रहना धर्म नहीं जड़ता है, मूढ़ता है।'' —'हस्तिनापुर' नाटक में सत्यवती भीष्म से कहती है
• ''ज़िन्दा रहने के लिये
कुछ भी जानना ज़रूरी नहीं है। जो जान लेता है वह कई बार ज़िन्दा ही मर जाता है।'' —'किमिदम् यक्षम्' नाटक में दार्शनिक का कथन
• ''आचार्य जी ने रचना, रचनाधर्मिता एवं रचनाकारों पर जिस कोण से विचार
किया है उसे एक तरह से नया भाष्य कहना असंगत न होगा।'' —कैलाश वाजपेयी
नंदकिशोर आचार्य की काव्य-पंक्तियाँ
• कितने सारे जीवन में
जीती है मृत्यु
कितनी सारी संज्ञाओं में
ज्ञापित है सर्वनाम
वह । —सर्वनाम वह
• एक कविता सुनायी
पानी ने चुपके-से
धरती को
सूरज ने सुन लिया
उस को । —नहीं हो पाया
• एक तस्वीर जीवन की बनानी है—
मृत्यु के अंकन बिना
वह पूरी कैसे हो ?
मृत्यु और जीवन—एक साथ दोनों ।
कैसे बने यह तस्वीर ? —जीवन की तस्वीर
• खोजने दो मुझको
अपने में
अपना आप—
और उसके सब नव-रूप
तुम्हारे ही कारण जो
बने रहते हैं । —जीवन की तस्वीर
• दर्पन डराता है मुझे
सँवारूँ कितना भी ख़ुद को
दिख जाता है
अपनी आँखों का मैल। —वही जल
• देखता रहूंगा बस तुम्हें
देख कर मुझे
भर आती हैं जो
तुम्हारी आँखें—
वही जल धो दे शायद उसका । —वही जल
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