बुधवार, 13 फ़रवरी 2019

राजकुमार कुम्भज ('चौथा सप्तक' के कवि) : Hindi Sahitya Vimarsh

राजकुमार कुम्भज ('चौथा सप्तक' के कवि) : HindiSahitya Vimarsh

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Mobile : 9717324769
अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास

कविता-संग्रह
•  विचार कविता की भूमिका (1973 ई.)
•  शिविर (1975 ई.)
•  त्रयी (1976 ई.)
•  काला इतिहास (1977 ई.)
•  वाम कविता (1978 ई.)
•  चौथा सप्तक में संकलित कविताएं (1979 ई.)
कच्चे घर के लिए (1980 ई.)
•  निषेध के बाद (1981 ई.)
जलती हुई मोमबत्तियों के नीचे (1982 ई.)
•  हिंदी की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविता (1982 ई.)
•  सदभावना (1985 ई.)
•  आज की हिंदी कविता (1987 ई.)
•  नवें दशक की कविता-यात्रा (1988 ई.)
•  कितना अँधेरा है (1989 ई.)
•  झरोखा 1991 ई.)
•  मुद्दे की बात (1991 ई.)
•  मध्यांतर (1992 ई.)
•  मध्यांतर 1994 ई.)
 •  मध्यांतर (1995 ई.)
•  Hindi Poetry Today (Volume -1,2 1994 ई.)
•  छंद प्रणाम (1996 ई.)
बहुत कुछ याद रखते हुए (1998 ई.)
दृश्य एक घर है (2014 ई.)
मैं अकेला खिड़की पर (2014 ई.)
अनवरत (2015 ई.)
उजाला नहीं है उतना (2015 ई.)
•  काव्य चयनिका (2015 ई.)
जब कुछ छूटता है (2016 ई.)
बुद्ध को बीते बरस बीते (2016 ई.)
मैं चुप था जैसे पहाड़ (2016 ई.)
प्रार्थना से मुक्त (2016 ई.)
अफ़वाह नहीं हूँ मैं (2016 ई.)
जड़ नहीं हूँ मैं (2017 ई.)
शायद यह जंगल कभी घर बने ( 2017 ई.)
आग का रहस्य (2018 ई.)

व्यंग्यसंग्रह
आत्मकथ्य (2006 ई.)

काव्य-पंक्तियाँ
पता नहीं ये मुझे क्या होने लगा है
मैं जब-जब भी, अब, सच बोलने की कोशिश करता हूं
तो सचमुच हकलाने लगता हूं। मैं आजकल हकलाता क्यूं हूं ?
तब भी, बहुतै ही भूखे सोते थे अकारण ही
अब भी, बहुतै ही भूखे सो रहे हैं अकारण ही। मैं आजकल हकलाता क्यूं हूं ?
तब भी, सच हार रहा था और जीत रही थीं साज़िशें
अब भी, सच हार रहा है और जीत रही हैं साज़िशें। मैं आजकल हकलाता क्यूं हूं ?
मैं थूकना चाहता हूं सच, काल के कपाल पर
मैं मूतना चाहता हूं ख़डून, बंजर ज़मीन पर
मैं चूसना चाहता हूं तिजोरियों में जमा शब्द सभी। मैं आजकल हकलाता क्यूं हूं ?
थके-थके से शब्द हैं तो भी
थके-थके से ही हैं शब्दों के संवाहक तो भी
मैं ही नहीं एक अकेला किंतु हैं और-और भी अनेकों। थके-थके से शब्द हैं तो भी
अच्छे दिनों की याद में
शहीद हो गए कई-कई अच्छे दिन
तब जाकर पता चला
कि आए तो आए आख़िर किसके अच्छे दिन ? अच्छे दिनों की बात में
शिशुओं के शव हैं झूला झूलते हुए
स्त्रियों से बलात्कार का उत्सव है
पौरुष की नपुंसकता है, जश्न भी। इस वीराने में
और वे चार जने अभागे
जो निकले हैं रोटी की तलाश में
तलाश में ही पाए गए मिट्टी का ढेर। इस वीराने में
इसी एक वीराने में रहता था कहीं
कोई एक कवि
जो मरीज़ नहीं था मधुमेह का
किंतु पर्याप्त परहेज़ पर ही रहता था। इस वीराने में
नदी को बहने देने से ही निकलता है रास्ता
नदी में सिर्फ़ पानी ही नहीं बहता
बहती नदी में बहता है दुनिया भर का प्रेम भी। नदी को बहने दो
और जब बहती है दुनिया
तो बहती दुनिया में बहता है दुनिया भर का दुःख और सच भी। नदी को बहने दो
बर्फ़ पिघलने से ही नदी, नदी में नाव, नाव में कवि। नदी को बहने दो
मुझे एक मुट्ठी बंद थोड़ा प्रेम चाहिए
मेरी मुट्ठी समुद्र नहीं, छोटा-सा चुल्लू है। नदी को बहने दो
उड़ानों का अंत नहीं होता है
अंत के बाद भी होती हैं, होती ही हैं उड़ानें। उड़ानों का अंत नहीं होता है
उमंगों की उड़ान भरने वाले तमाम कबूतर भी
उड़ ही जाते हैं एक न एक दिन अनंत में। जो, जितना, हँसता हूँ मैं
लेकिन कविता की नहीं
कोई सुनिश्चित सीमा
कोई सुनिश्चित समय भी नहीं है
सरकारें कैसे तय करेंगी शब्दों की सीमाएं। पानी नहीं मिलेगा
सच बोलने वालों का
कोई भी आख़िरी निशां नहीं होगा
दो गज़ ज़मीं नहीं होगी
मुट्ठी भर आसमां भी नहीं होगा
फिर भी जो होगा सच होगा
सिवा सच के क्या होगा? सिवा सच के क्या होगा?
आवाज़ों का जंगल है
आवाज़ों के जंगल में आवाज़ों का आतंक है
आवाज़ों के आतंक में एक आवाज़ है मेरी भी
पहचान सको तो पहचानो। आतंक रहित आवाज़ मेरी
नेताजी का भाषण सुनना है
ईमानदार आदमी बनने का संकल्प छोड़ना है
नेताजी से भी बहुत बड़ा नेता बनना है। नेताजी का भाषण सुनना है
सौंदर्य-बोध का नया ज़माना है
सिर से पैर तक
सिर्फ़ कटवाना ही कटवाना है। नेताजी का भाषण सुनना है
नाक बची है जैसे-तैसे
वह भी काट क्यों नहीं लेते?
कंधों पर सपने
और आंखों में अंधेरे
वह भी बांट क्यों नहीं लेते?
भेड़िया बनकर आदमी की खाल ओढ़ना है
नेताजी का भाषण सुनना है
वह विनम्रता शासकीय थी
हवा में लहराते अंग्रेज़ी हथौड़े की तरह। वह एक ऐसी ही रात थी
मैं उड़ा और मैंने प्रयास किया
कि नाप लूं अपनी उड़ान में तमाम धर्मग्रंथ। वह एक ऐसी ही रात थी
मैं ढूंढता हूं अपने हिस्से का लोकतंत्र,
अपने हिस्से की आवाज़
और अपनी आवाज़। अपनी आवाज़
इन आवाज़ों में कहां है मेरे हिस्से का लोकतंत्र
मेरे हिस्से के लोकतंत्र में मेरे हिस्से की आवाज़। अपनी आवाज़
पता नहीं, पता नहीं
कि कैसा है ये एक वक़्त ऐसा और क्यों
जिसमें सुनाई नहीं देती है मेरी आवाज़। अपनी आवाज़
तांबे के ढेर पर बैठा हूं मैं
तांबे के ढेर में चमक नहीं है
लेकिन दौड़ रहा है करंट
इस पार से उस पार तक
जीवन में रोशनी के लिए। जीवन में रोशनी के लिए

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