नूर मुहम्मद : आचार्य रामचंद्र शुक्ल की दृष्टि में : hindi sahitya vimarsh
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ये दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के समय में थे और 'सबरहद' नामक स्थान के रहने वाले थे जो जौनपुर, आज़मगढ़ की सरहद पर है।
नूर मुहम्मद फारसी के अच्छे आलिम थे और इनका हिन्दी
काव्यभाषा का भी ज्ञान और सब सूफी कवियों से अधिक था। फारसी में इन्होंने एक दीवान
के अतिरिक्त 'रौजतुल हकायक'
इत्यादि बहुत सी किताबें लिखी थीं। इन्होंने 1157 हिजरी (संवत् 1801)
में 'इंद्रावती' नामक एक सुंदर आख्यान काव्य लिखा जिसमें कालिंजर के राजकुमार राजकुँवर और आगमपुर
की राजकुमारी इंद्रावती की प्रेम कहानी है। इसी ग्रंथ (इंद्रावती) को सूफी पद्धति का
अंतिम ग्रंथ मानना चाहिए।
'अनुराग कई दृष्टियों से विलक्षण है। पहली बात तो इसकी भाषा है जो सूफी रचनाओं से
बहुत अधिक संस्कृत गर्भित है। दूसरी बात है हिन्दी भाषा के प्रति मुसलमानों का भाव।
'इंद्रावती' की रचना करने पर शायद नूर मुहम्मद को समय समय पर यह उपालंभ सुनने को मिलता था कि
तुम मुसलमान होकर हिन्दी भाषा में रचना करने क्यों गए। इसी से 'अनुराग बाँसुरी'
के आरंभ में उन्हें यह सफाई देने की जरूरत पड़ी—
जानत है वह सिरजनहारा । जो किछु है मन मरम हमारा।।
हिंदू मग पर पाँव न राखेउँ । का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ।।
'अनुराग बाँसुरी'
का रचनाकाल 1178 हिजरी अर्थात् 1821 है। कवि ने इसकी रचना अधिक पांडित्यपूर्ण रखने का प्रयत्न किया है और विषय भी
इसका तत्वज्ञान संबंधी है। शरीर, जीवात्मा और मनोवृत्तियों को
लेकर पूरा अध्यवसित रूपक (एलेगरी) खड़ा करके कहानी बाँधी है। और सब सूफी कवियों की कहानियों
के बीच में दूसरा पक्ष व्यंजित होता है पर यह सारी कहानी और सारे पात्र ही रूपक हैं।
(आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, रीतिकाल, प्रकरण 2—ग्रंथकार कवि)
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