सोमवार, 2 दिसंबर 2019

चित्रावली (1613 ई.) के रचयिता समान (USMAAN : THE HINDI POET) : आचार्य रामटंद्र शुक्ल की दृष्टि में


चित्रावली (1613 ई.) के रचयिता समान (USMAAN :THE HINDI POET) : आचार्यरामटंद्र शुक्ल की दृष्टि में

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ये जहाँगीर के समय में वर्तमान थे और गाजीपुर के रहनेवाले थे। इन्होंने अपना उपनाम 'मान' लिखा है। ये शाह निजामुद्दीन चिश्ती की शिष्य परंपरा में हाजी बाबा के शिष्य थे। उसमान ने सन् 1022 हिजरी अर्थात् 1613 ईसवी में 'चित्रावली' नाम की पुस्तक लिखी। पुस्तक के आरंभ में कवि ने स्तुति के उपरांत पैगंबर और चार खलीफों की, बादशाह (जहाँगीर) की तथा शाह निजामुद्दीन और हाजी बाबा की प्रशंसा लिखी है।
कवि ने 'योगी ढूँढ़न खंड' में काबुल, बदख्शाँ, खुरासन, रूस, साम, मिस्र, इस्तंबोल, गुजरात, सिंहलद्वीप आदि अनेक देशों का उल्लेख किया है। सबसे विलक्षण बात है जोगियों का अंग्रेजों के द्वीप में पहुँचना
बलंदीप देखा अंगरेजा । तहाँ जाइ जेहि कठिन करेजा।।
ऊँच नीच धान संपत्ति हेरा । मद बराह भोजन जिन्ह केरा।।
कवि ने इस रचना में जायसी का पूरा अनुकरण किया है।.....कहानी बिल्कुल कवि की कल्पित है, जैसा कि कवि ने स्वयं कहा है
कथा एक मैं हिए उपाई। कहत मीठ और सुनत सोहाई।।
कथा का सारांश यह है
नेपाल के राजा धरनीधर पँवार ने पुत्र के लिए कठिन व्रत पालन करके शिव पार्वती के प्रसाद से 'सुजान' नामक एक पुत्र प्राप्त किया। सुजानकुमार एक दिन शिकार में मार्ग भूल देव (प्रेत) की मढ़ी में जा सोया। देव ने आकर उसकी रक्षा स्वीकार की। एक दिन वह देव अपने एक साथी के साथ रूपनगर की राजकुमारी चित्रावली की वर्षगाँठ का उत्सव देखने के लिए गया और अपने साथ सुजानकुमार को भी लेता गया। और कोई उपयुक्त स्थान न देख देवों ने राजकुमार को राजकुमारी की चित्रसारी में ले जाकर रखा और आप उत्सव देखने लगे। कुमार राजकुमारी का चित्र टँगा देख उस पर आसक्त हो गया और अपना भी एक चित्र बनाकर उसी की बगल में टाँग कर सो रहा। देव लोग उसे उठा कर फिर उसी मढ़ी में रख आए। जागने पर कुमार को चित्रवाली घटना स्वप्न सी मालूम हुई, पर हाथ में रंग लगा देख उसके मन में घटना के सत्य होने का निश्चय हुआ और वह चित्रावली के प्रेम में विकल हो गया। इसी बीच में उसके पिता के आदमी आकर उसको राजधानी में ले गए। पर वहाँ वह अत्यंत खिन्न और व्याकुल रहता। अंत में अपने सहपाठी सुबुद्धि नामक एक ब्राह्मण के साथ वह फिर उसी मढ़ी में गया और वहाँ बड़ा भारी अन्नसत्र खोल दिया।
राजकुमारी चित्रावली भी उसका चित्र देख प्रेम में विह्वल हुई और उसने अपने नपुंसक भृत्यों को, जोगियों के वेष में राजकुमार का पता लगाने के लिए भेजा। इधर एक कुटीचर ने कुमारी की माँ हीरा से चुगली की और कुमार का वह चित्र धो डाला गया। कुमारी ने जब यह सुना तब उसने उस कुटीचर का सिर मुंड़ाकर उसे निकाल दिया। कुमारी के भेजे हुए जोगियों में से एक सुजान कुमार के उस अन्नसत्रा तक पहुँचा और राजकुमार को अपने साथ रूपनगर ले आया। वहाँ एक शिवमंदिर में उसका कुमारी के साथ साक्षात्कार हुआ। पर ठीक इसी अवसर पर कुटीचर ने राजकुमार को अंधा कर दिया और एक गुफा में डाल दिया जहाँ उसे एक अजगर निगल गया। पर उसके विरह की ज्वाला से घबराकर उसने उसे चट उगल दिया। वहीं पर एक वनमानुष ने उसे एक अंजन दिया जिससे उसकी दृष्टि फिर ज्यों की त्यों हो गई। वह जंगल में घूम रहा था कि उसे एक हाथी ने पकड़ा। पर उस हाथी को एक पक्षिराज ले उड़ा और उसने घबराकर कुमार को समुद्रतट पर गिरा दिया। वहाँ से घूमता फिरता कुमार सागरगढ़ नामक नगर में पहुँचा और राजकुमारी कँवलावती की फुलवारी में विश्राम करने लगा। राजकुमारी जब सखियों के साथ वहाँ आई तब उसे देख मोहित हो गई और उसने उसे अपने यहाँ भोजन के लिए बुलवाया। भोजन में अपना हार रखवाकर कुमारी ने चोरी के अपराध में उसे कैद कर लिया। इस बीच सोहिल नाम का कोई राजा कँवलावती के रूप की प्रशंसा सुन उसे प्राप्त करने के लिए चढ़ आया। सुजानकुमार ने उसे मार भगाया। अंत में सुजानकुमार ने कँवलावती से, चित्रावली के न मिलने तक समागम न करने की प्रतिज्ञा करके विवाह कर लिया। कँवलावती को लेकर कुमार गिरनार की यात्रा के लिए गया।
इधर चित्रावली के भेजे एक जोगी दूत ने गिरनार में उसे पहचाना और चट चित्रावली को जाकर संवाद दिया। चित्रावली का पत्र लेकर वह दूत फिर लौटा और सागरगढ़ में धुईं लगाकर बैठा। कुमार सुजान उस जोगी की सिद्धि सुन उसके पास आया और उसे जानकर उसके साथ रूपनगर गया। इसी बीच वहाँ पर सागरगढ़ के एक कथक ने चित्रावली के पिता की सभा में जाकर सोहिल राजा के युद्ध के गीत सुनाए; जिन्हें सुन राजा को चित्रावली के विवाह की चिंता हुई। राजा ने चार चित्रकारों को भिन्न भिन्न देशों के राजकुमारों के चित्र लाने को भेजा। इधर चित्रावली का भेजा हुआ वह जोगी दूत सुजान कुमार को एक जगह बैठाकर उसके आने का समाचार कुमारी को देने आ रहा था। एक दासी ने वह समाचार द्वेषवश रानी से कह दिया और वह दूत मार्ग ही में कैद कर लिया गया। दूत के न लौटने पर सुजानकुमार बहुत व्याकुल हुआ और चित्रावली का नाम ले लेकर पुकारने लगा। राजा ने उसे मारने के लिए मतवाला हाथी छोड़ा, पर उसने उसे मार डाला। इस पर राजा उस पर चढ़ाई करने जा रहा था कि इतने में भेजे हुए चार चित्रकारों में से एक चित्रकार सागरगढ़ से सोहिल के मारने वाले राजकुमार का चित्र लेकर आ पहुँचा। राजा ने जब देखा कि चित्रावली का प्रेमी वही सुजानकुमार है तब उसने अपनी कन्या चित्रावली के साथ उसका विवाह कर दिया।
कुछ दिनों में सागरगढ़ की कँवलावती ने विरह से व्याकुल होकर सुजानकुमार के पास हंस मिश्र को दूत बनाकर भेजा जिसने भ्रमर की अन्योक्ति द्वारा कुमार को कँवलावती के प्रेम का स्मरण कराया। इस पर सुजानकुमार ने चित्रावली को लेकर स्वदेश की ओर प्रस्थान किया और मार्ग में कँवलावती को भी साथ ले लिया। मार्ग में कवि ने समुद्र के तूफान का वर्णन किया है। अंत में राजकुमार अपने घर नेपाल पहुँचा और उसने वहाँ दोनों रानियों सहित बहुत दिनों तक राज्य किया।
जैसा कि कहा जा चुका है, उसमान ने जायसी का पूरा अनुकरण किया है। जायसी के पहले के कवियों ने पाँच पाँच चौपाइयों (अर्धालियों) के पीछे एक दोहा रखा है, पर जायसी ने सात चौपाइयों का क्रम रखा और यही क्रम उसमान ने भी रखा है। कहने की आवश्यकता नहीं, इस कहानी की रचना भी बहुत कुछ आध्यात्मिक दृष्टि से हुई है। कवि ने सुजानकुमार को एक साधक के रूप में चित्रित ही नहीं किया है, बल्कि पौराणिक शैली का अवलंबन करके उसने उसे परम योगी शिव के अंश से उत्पन्न तक कहा है। महादेव जी राजा धरनीधर पर प्रसन्न होकर वर देते हैं कि
देखु देत हौं आपन अंसा। अब तोरे होइहौं निज बंसा
कँवलावती और चित्रावली अविद्या और विद्या के रूप में कल्पित जान पड़ती हैं। सुजान का अर्थ ज्ञानवान है। साधनकाल में अविद्या को बिना दूर रखे विद्या (सत्यज्ञान) की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी से सुजान ने चित्रावली के प्राप्त न होने तक कँवलावती के साथ समागम न करने की प्रतिज्ञा की थी। जायसी की ही पद्ध ति पर नगर, सरोवर, यात्रा, दानमहिमा आदि का वर्णन चित्रावली में भी है। सरोवर क्रीड़ा के वर्णन में एक दूसरे ढंग से कवि ने 'ईश्वर की प्राप्ति' की साधना की ओर संकेत किया है। चित्रावली सरोवर के गहरे जल में यह कह कर छिप जाती है कि मुझे जो ढूँढ़ ले उसकी जीत समझी जायगी। सखियाँ ढूँढ़ती हैं और नहीं पाती हैं
सरवर ढूँढ़ि सबै पचि रहीं । चित्रिनि खोज न पावा कहीं।।
निकसीं तीर भईं बैरागी । धारे ध्यान सुख बिनवै लागी।।
गुपुत तोहिं पावहि का जानी । परगट महँ जो रहै छपानी।।
चतुरानन पढ़ि चारौ बेदू । रहा खोजि पै पाव न भेदू।।
हम अंधी जेहि आप न सूझा । भेद तुम्हार कहाँ लौं बूझा।।
कौन सो ठाउँ जहाँ तुम नाहीं । हम चख जोति न देखहिं काहीं।।
पावै खोज तुम्हार सो, जेहि दिखरावहु पंथ।
कहा होइ जोगी भए, और बहु पढ़े गरंथ॥
विरहवर्णन के अंतर्गत षट्ऋतु का वर्णन सरस और मनोहर है
ऋतु बसंत नौतन बन फूला । जहँ जहँ भौंर कुसुम रँग भूला।।
आहि कहाँ सो भँवर हमारा । जेहि बिनु बसत बसंत उजारा।।
रात बरन पुनि देखि न जाई । मानहुँ दवा देहुँ दिसि लाई।।
रतिपति दुरद ऋतुपती बली । कानन देह आइ दलमली।।
(आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, रीतिकाल, प्रकरण 2—ग्रंथकार कवि)

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