बुधवार, 20 जून 2018

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के परीक्षोपयोगी कथन



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सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन

Ä ''विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य साहित्य की परम्परा का प्रवर्तन नाटक से हुआ।'' उपर्युक्त कथन किस साहित्यकार का है?
1. हजारी प्रसाद द्विवेदी 2. रामचन्द्र शुक्ल 3. बच्चनसिंह 4. रामस्वरूप चतुर्वेदी    
Ä  "इस वेदना को लेकर उन्होंने ह्रदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखीं, जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक वे वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना, यह नहीं कहा जा सकता।" आचार्य रामचंद्र शुक्ल (महादेवी वर्मा के बारे में) 
Ä      ''इनकी रहस्यवादी रचनाओं को देख चाहेतो यह कहें कि इनकी मधुवर्षा के मानस प्रचार के लिए रहस्यवाद का परदा मिल गया अथवा यों कहें कि इनकी सारी प्रणयानूभूति ससीम पर से कूदकर असीम पर जा रही।''  (जयशंकर प्रसाद के बार में)
Ä     कबीर की अपेक्षा ख़ुसरो का ध्यान की भाषा की ओर अधिक था।
Ä     जायसी के श्रृंगार में मानसिक पक्ष प्रधान है, शारीरिक गौण हैं।  
Ä     'इसमें कोई सन्देह नहीं कि कबीर को राम नाम रामानन्द जी से ही प्राप्त हुआ पर आगे चलकर कबीर के राम रामानन्द से भिन्न हो गए।'  
Ä     भारतेन्दु ने जिस प्रकार हिन्दी गद्य की भाषा का परिष्कार किया, उसी प्रकार काव्य की ब्रजभाषा का भी।
Ä     काव्य की पूर्ण अनुभूति के लिए कल्पना का व्यापार कवि और श्रोता दोनों के लिए अनिवार्य  है।
Ä     वैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है।
Ä     काव्यानुभूति की जटिलता चित्तवृत्तियों की संख्या पर निर्भर नहीं, बल्कि संवादी-विसंवादी वृत्तियों के द्वन्द्व पर आधारित है।
Ä     आधुनिक काल में गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान घटना है।
Ä     करुणा दुखात्मक वर्ग में आनेवाला मनोविकार है
Ä     नाद सौन्दर्य से कविता की आयु बढ़ती है।
Ä     भक्ति धर्म की रसात्मक अनुभूति है।
Ä     करुणा सेंत का सौदा नहीं है।
'Ä     प्रकृति के नाना रूपों के साथ केशव के हृदय का सामंजस्य कुछ भी न था।'
Ä     'विरुद्धों का सामंजस्य कर्मश्रेत्र का सौन्दर्य है।'
 Ä    हिन्दी रीति-ग्रंथों की परम्परा चिन्तामणि त्रिपाठी से चली। अतः रीतिकाल का आरम्भ उन्हीं से मानना चाहिए।
Ä     हरिश्चन्द्र का प्रभाव भाषा और साहित्य दोनों पर बड़ा गहरा पड़ा। उन्होंने जिस प्रकार गद्य की भाषा को परिमार्जित करके उसे बहुत चलता, मधुर और स्वच्छ रूप दिया, उसी प्रकार हिन्दी साहित्य को भी नए मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया।
Ä     सौन्दर्य की वस्तुगत सत्ता होती है, इसलिए शुद्ध सौन्दर्य नाम की कोई चीज़ नहीं होती।
Ä     यह सूचित करने की आवश्यकता नहीं है कि न तो सूर का अवधी पर अधिकार था और न जायसी का ब्रजभाषा पर।
Ä     धर्म का प्रवाह कर्म, ज्ञान और भक्ति इन तीन  धाराओं में चलता है। इन तीनों के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा से रहता है। किसी एक के भी अभाव से वह विकलांग रहता है।
Ä    "इनकी भाषा ललित और सानुप्रास होती थी।" (चिंतामणि त्रिपाठी के बारे में)
Ä     "भाषा चलती होने पर भी अनुप्रासयुक्त होती थी।" (बेनी के बारे में)
Ä      "इस ग्रंथ को इन्होंने वास्तव में आचार्य के रूप में लिखा है, कवि के रूप में नहीं।" (महाराजा जसवंत सिंह के ग्रंथ 'भाषा भूषण' के बारे में) 
Ä      "इसका एक-एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है।"
Ä      "इसमें तो रस के ऐसे छींटे पड़ते हैं जिनसे हृदय-कलिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है।"  (बिहारी और बिहारी सतसई के बारे में)
Ä      "जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समाहार शक्ति जितनी अधिक होगी उतनी ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा।" (बिहारी और बिहारी सतसई के बारे में)
Ä      "बिहारी की भाषा चलती होने पर भी साहित्यिक है।"  
Ä    "कविता उनकी श्रृंगारी है, पर प्रेम की उच्च भूमि पर नहीं पहुंचती, नीचे ही रह जाती है।" (बिहारी और बिहारी सतसई के बारे में)
Ä      "भाषा इनकी बड़ी स्वाभाविक, चलती और व्यंजना पूर्ण होती थी।" (मंडन के बारे में) 
Ä      "इनका सच्चा कवि हृदय था।" (मतिराम के बारे में)
Ä      "रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में पद्माकर को छोड़ और किसी कवि में मतिराम की-सी चलती भाषा और सरल व्यंजना नहीं मिलती।"
भूषण के बारे में
Ä      "उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिंदू जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गई।"
Ä      "भूषण के वीर रस के उद्गार सारी जनता के हृदय की संपत्ति हुए।"
Ä      "जिसकी रचना को जनता का हृदय स्वीकार करेगा उस कवि की कीर्ति तब तक बराबर बनी रहेगी, जब तक स्वीकृति बनी राहेगी।"
Ä      "शिवाजी और छत्रसाल की वीरता का वर्णनों को कोई कवियों की झूठी ख़ुशामद नहीं कह सकता।"
Ä      "वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं।"  
सुखदेव मिश्र के बारे में 
Ä      "छंदशास्त्र पर इनका-सा विशद निरूपण और किसी कवि ने नहीं किया है।" 
देव के बारे में
Ä      " ये आचार्य और कवि दोनों रूपों में हमारे सामने आते हैं।"
Ä      "कवित्वशक्ति और मौलिकता देव में खूब थी पर उनके सम्यक स्फूर्ण में उनकी रुचि विशेष प्रायः बाधक हुई है।"
Ä      "रीतिकाल के कवियों में ये बड़े ही प्रगल्भ और प्रतिभासंपन्न कवि थे, इसमें संदेह नहीं।" 
श्रीपति के बारे में
Ä      "श्रीपति ने काव्य के सब अंगों का निरूपण विशद रीति से किया है।"
भिखारी दास के बारे में
Ä      "इनकी रचना कलापक्ष में संयत और भावपक्ष में रंजनकारिणी है।"
पद्माकर के बारे में
Ä      "ऐसा सर्वप्रिय कवि इस काल के भीतर बिहारी को छोड दूसरा नहीं हुआ है। इनकी रचना की रमणीयता ही इस सर्वप्रियता का एकमात्र कारण है।"
ग्वाल कवि के बारे में
Ä      "रीतिकाल की सनक इन में इतनी अधिक थी कि इन्हें 'यमुना लहरी' नामक देव-स्तुति में भी नवरस और षट् ऋतु सुझाई पड़ी है।" 
Ä      "षट् ऋतुओं का वर्णन इन्होंने विस्तृत किया है पर वही श्रृंगारी उद्दीपन के ढंग का।"
Ä       "ग्वाल कवि ने देशाटन अच्छा किया था और उन्हें भिन्न-भिन्न प्रांतों की बोलियों का अच्छा ज्ञान हो गया था।"  
 आदिकाल के सम्बन्ध में
Ä      "इन कालों की रचनाओं की विशेष प्रवृत्ति के अनुसार ही उनका नामकरण किया गया है।"
Ä      "हिन्दी  साहित्य का आदिकाल संवत् 1050 से लेकर संवत् 1375 तक अर्थात महाराज भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय के कुछ पीछे तक माना जा सकता है।"
Ä      "जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह 'भाषा' या 'देशभाषा' ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गई तब उसके लिए 'अपभ्रंश' शब्द का व्यहार होने लगा।"
Ä      "नाथपंथ के जोगियों की भाषा  'सधुक्कड़ी भाषा' थी।"
Ä      "सिद्धों की उद्धृत रचनाओं की भाषा 'देशभाषा' मिश्रित अपभ्रंश या 'पुरानी हिन्दी ' की काव्य भाषा है।"
Ä      "सिद्धो में 'सरह' सबसे पुराने अर्थात विक्रम संवत् 690 के हैं।"
Ä      "कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार 'साखी' और 'बानी' शब्द मिले उसी प्रकार साखी और बानी के लिए बहुत कुछ सामग्री और 'सधुक्कड़ी' भाषा भी।"
Ä      "वीरगीत के रूप में हमें सबसे पुरानी पुस्तक 'बीसलदेवरासो' मिलती है।"
Ä      "बीसलदेवरासो में 'काव्य के अर्थ में रसायण शब्द' बार-बार आया है। अतः हमारी समझ में इसी 'रसायण' शब्द से होते-होते 'रासो' हो गया है।"
Ä      "बीसलदेव रासो में आए 'बारह सै बहोत्तरा' का स्पष्ट अर्थ 1212 है।"
Ä      बीसलदेव रासो के बारे में आचार्य शुक्ल ने कहा है, "यह घटनात्मक काव्य नहीं है, वर्णनात्मक है।" 
Ä      बीसलदेव रासो के बारे में आचार्य शुक्ल ने कहा है, "भाषा की परीक्षा करके देखते हैं तो वह साहित्यिक नहीं है, राजस्थानी है।" 
Ä      "अपभ्रंश के योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो साहित्यिक रूप था वह 'डिंगल' कहलाता था।"
Ä      चन्दरबरदाई के बारे में आचार्य शुक्ल ने कहा है, "ये हिन्दी  के 'प्रथम महाकवि' माने जाते हैं और इनका 'पृथ्वीराज रासो' हिन्दी  का 'प्रथम महाकाव्य' है।"
Ä      पृथ्वीराज रासो के बारे में आचार्य शुक्ल ने कहा है, "भाषा की कसौटी पर यदि ग्रंथ को कसते हैं तो और भी निराश होना पड़ता है क्योंकि वह बिल्कुल बेठिकाने हैं उसमें व्याकरण आदि की कोई व्यवस्था नहीं है।"
Ä      "विद्यापति के पद अधिकतर श्रृंगार के ही है जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण है।"
Ä      "विद्यापति को कृष्ण भक्तों की परम्परा में न समझना चाहिए।"
Ä      "मोटे हिसाब से वीरगाथाकाल महाराज हम्मीर की समय तक ही समझना चाहिए।"  
Ä      "कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों की कट्टरता को दूर करने का जो प्रयास किया। वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं।"
Ä      "इस कहानी के द्वारा कवि ने प्रेममार्ग के त्याग और कष्ट का निरूपण करके साधक के भगवत प्रेम का स्वरूप दिखाया है।" (कुतबन कृत मृगावती के बारे में)
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, मलिक मुहम्मद जायसी के गुरु थे शेख मोहिदी (मुहीउद्दीन)
Ä      "प्रेमगाथा की परम्परा में पद्मावत सबसे प्रौढ़ और सरस है।"
Ä      "यहीं प्रेममार्गी सूफी कवियों की प्रचुरता की समाप्ति समझनी चाहिए।" (शेख नबी के बारे में)
Ä      "सूफ़ी आख्यान काव्यों की अखंडित परम्परा की यहीं समाप्ति मानी जा सकती है।" (नूर मुहम्मद कृत अनुराग बांसुरी के बारे में)
Ä      "नूर मुहम्मद को हिन्दी  भाषा में कविता करने के कारण जगह-जगह इसका सबूत देना पड़ा है कि वे इस्लाम के पक्के अनुयायी थे।"
Ä      "इस परम्परा में मुसलमान कवि हुए हैं। केवल एक हिन्दू मिला है।" (आचार्य शुक्ल ने किसकी तरफ़ इशारा किया है सूरदास की तरफ़)       
Ä      "जनता पर चाहे जो प्रभाव पड़ा हो पर उक्त गद्दी के भक्त शिष्यों ने सुन्दर-सुन्दर पदों द्वारा जो मनोहर प्रेम संगीत धारा बहाई उसने मुरझाते हुए हिंदू जीवन को सरस और प्रफुल्लित किया।" श्री बल्लभाचार्य जी के लिए
Ä      "सूर की बड़ी भारी विशेषता है नवीन प्रसंगों की उद्भावना।"
Ä      "ये बड़े भारी कृष्णभक्त और गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के बड़े कृपापात्र शिष्य थे।" (रसखान के बारे में)
Ä      "इन भक्तों का हमारे साहित्य पर बड़ा भारी उपकार है।" (कृष्णभक्त कवियों के लिए)
Ä      आचार्य शुक्ल ने केशवदास को भक्ति काल में सम्मिलित किया है।    
Ä      रामचरितमानस को 'लोगों के हृदय का हार' कहा है। (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने)
Ä      "गोस्वामी जी की भक्ति पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता।"
Ä      "रामचरितमानस में तुलसी केवल कवि रूप में ही नहीं, उपदेशक के रूप में भी सामने आते हैं।"
Ä      "प्रेम और श्रृंगार का ऐसा वर्णन जो बिना किसी लज्जा और संकोच के सबके सामने पढ़ा जा सके, गोस्वामी जी का ही है।"
Ä      "हम निसंकोच कह सकते हैं कि यह एक कवि ही हिन्दी को प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है।" (तुलसीदास के लिए)      
रामप्रसाद निरंजनी के बारे में
Ä      ​ "अब तक पाई गई पुस्तकों में यह "भाषा योगवासिष्ठ" ही सबसे पुराना है, जिसमें गद्य अपने परिष्कृत रूप में दिखाई पड़ता है।"
Ä      "भाषा योगवासिष्ठ को परिमार्जित गद्य की प्रथम पुस्तक और रामप्रसाद निरंजनी को प्रथम प्रौढ़ गद्य लेखक मान सकते हैं।"
इंशा अल्ला ख़ाँ के बारे में
Ä      "जिस प्रकार वे अपनी अरबी-फारसी मिली हिन्दी  को ही उर्दू कहते थे, उसी प्रकार संस्कृत मिली हिन्दी  को भाखा।"
Ä      "आरंभिक काल के चारों लेखकों में इंशा की भाषा सबसे चटकीली, मटकीली, मुहावरेदार और चलती है।"
Ä      'अपनी कहानी का आरम्भ ही उन्होंने इस ढंग से किया है, जैसे लखनऊ के भाँड़ घोड़ा कुदाते हुए महफ़िल में आते हैं।' (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इंशा अल्ला ख़ाँ के बारे मे)     
राजा लक्ष्मणसिंह
Ä      "असली हिन्दी  का नमूना लेकर उस समय राजा लक्ष्मणसिंह ही आगे बढ़े।"
 हरिश्चंद्र के बारे में
Ä      "इससे भी बड़ा काम उन्होंने यह किया कि साहित्य को नवीन मार्ग दिखाया और वे उसे शिक्षित जनता के सहचर्य में ले आए।"
Ä      "प्रेमघन में पुरानी परम्परा का निर्वाह अधिक दिखाई पड़ता है।" यहां पुरानी परम्परा से मतलब भाषा से हैं। (प्रेमघन के बारे में)
Ä      "विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य साहित्य की परम्परा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ।" 
Ä      "अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास पहले-पहले हिन्दी  में लाला श्रीनिवास दास का परीक्षा गुरु निकला था।" (श्रीनिवास दास के परीक्षा गुरु के बारे में)
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
Ä      हरिश्चन्द्र की भाषा को 'हरिश्चन्द्री हिन्दी' कहा है शुक्ल जी ने।
Ä      "वे सिद्ध वाणी के अत्यन्त सरल हृदय कवि थे।" 
Ä      "प्राचीन और नवीन का ही सुन्दर सामंजस्य भारतेन्दु की कला का विशेष माधुर्य है।"  
Ä      "अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के बल से एक ओर तो वे पद्माकर, द्विजदेव की परम्परा में दिखाई पड़ते थे, दूसरी ओर बंग देश के मायकेल एवं हेमचन्द्र की श्रेणी में।"
Ä      "श्रीयुत पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पहले पहल विस्तृत आलोचना का रास्ता निकाला।"
उपन्यासकार
Ä      "आलस्य का जैसा त्याग उपन्यासकारों में देखा गया है वैसा और किसी वर्ग के हिन्दी  लेखकों में नहीं।"
बाबू देवकीनंदन खत्री के बारे में
Ä      "पहले मौलिक उपन्यास लेखक जिनके उपन्यासों की सर्वसाधारण में धूम हुई काशी के बाबू देवकीनन्दन खत्री थे।"
Ä      "ये वास्तव में घटना-प्रधान कथानक या क़िस्से हैं जिनमें जीवन के विविध पक्षों के चित्रण का कोई प्रयत्न नहीं, इससे ये साहित्य कोटि में नहीं आते हैं।
Ä      "उन्होंने साहित्यिक हिन्दी ना लिखकर हिन्दुस्तानी लिखी जो केवल इसी प्रकार की हल्की रचनाओं में काम दे सकती है।" 
पंडित किशोरीलाल गोस्वामी के बारे में
Ä      "उपन्यासों का ढेर लगा देने वाले दूसरे मौलिक उपन्यासकार पंडित किशोरीलाल गोस्वामी हैं, जिनकी रचनाएँ साहित्य कोटि में आती है।"
Ä      "साहित्य की दृष्टि से उन्हें हिन्दी  का पहला उपन्यासकार कहना चाहिए।"
हिन्दी की पहली मौलिक कहानी
Ä      "यदि 'इन्दुमती' किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है, तो हिन्दी की यही पहली मौलिक कहानी ठहरती है। इसके उपरान्त 'ग्यारह वर्ष का समय', फिर 'दुलाई वाली' का नंबर आता है।"
निबन्ध गद्य की कसौटी
Ä      "यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है, तो निबन्ध गद्य की कसौटी है।"
Ä      "भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबन्धों में ही सबसे अधिक सन्भव होता है।" 
गुलेरी और 'उसने कहा था' के बारे में
Ä      आचार्य शुक्ल ने 'उसने कहा था' कहानी को अद्वितीय कहानी माना है।
Ä      "इसके पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर, भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यन्त  निपुणता के साथ सम्पुटित है। घटना इसकी ऐसी है जैसे बराबर हुआ करती है, पर उसमें भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झांक रहा है केवल झाँक रहा है, निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा है।"
Ä      "इसकी घटनाएं ही बोल रही है, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं।"
Ä      "यह बेधड़क कहा जा सकता है कि शैली कि जो विशिष्टता और अर्थगर्भित वक्रता गुलेरी जी में मिलती है और किसी लेखक में नहीं।"
Ä      आचार्य शुक्ल ने महावीर प्रसाद द्विवेदी के लेखों को "बातों का संग्रह" कहा है।
Ä      "द्विवेदी जी के लेखों को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक़्ल के पाठकों के लिए लिख रहा है।"
Ä      "पंडित गोविंदनारायण मिश्र के गद्य को समास अनुप्रास में गुँथे शब्द-गुच्छों का एक अटाला समझिए।"
Ä      "उनके (पंडित जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी के) अधिकांश लेख भाषण मात्र हैं, स्थायी विषयों पर लिखे हुए निबन्ध  नहीं।" 
Ä      "इन पुस्तकों (महावीर प्रसाद द्विवेदी की आलोचनात्मक पुस्तकों) को एक मुहल्ले में फैली बातों से दूसरे मुहल्ले वालों को कुछ परिचित कराने के प्रयत्न के रूप में समझना चाहिए, स्वतंत्र समालोचना के रूप में नहीं।"
Ä      "यद्यपि द्विवेदी जी ने हिन्दी  के बड़े-बड़े कवियों को लेकर गम्भीर साहित्य समीक्षा का स्थायी साहित्य नहीं प्रस्तुत किया, पर नई निकली पुस्तकों की भाषा आदि की खरी आलोचना करके हिन्दी साहित्य का बड़ा भारी उपकार किया। यदि द्विवेदी जी न उठ खड़े होते तो जैसी अव्यवस्थित व्याकरण विरुद्ध और उटपटांग भाषा चारों ओर दिखाई पड़ती थी, उसकी परम्परा जल्दी ना रुकती। उसके प्रभाव से लेखक सावधान हो गए और जिनमें भाषा की समझ और योग्यता थी उन्होंने अपना सुधार किया।"
Ä      आचार्य शुक्ल ने 'मिश्रबन्धु विनोद' को बड़ा 'भारी इतिवृत्त संग्रह' कहा है।
प्रसाद और प्रेमी के बारे में
Ä      "प्रसाद जी ने अपना क्षेत्र प्राचीन हिन्दू काल के भीतर चुना और प्रेमी जी ने मुस्लिम काल के भीतर। प्रसाद के नाटकों में स्कन्दगुप्त श्रेष्ठ है और प्रेमी के नाटकों में रक्षाबन्धन।"
Ä      "केवल प्रो. नगेंद्र की 'सुमित्रानन्दन पन्त' पुस्तक ही ठिकाने की मिली।" 
अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध के बारे में
Ä      "काव्य अधिकतर भावव्यंजनात्मक और वर्णनात्मक है।"
Ä      "गुप्त जी (मैथिलीशरण गुप्त) वास्तव में सामंजस्यवादी कवि है; प्रतिक्रिया का प्रदर्शन करने वाले अथवा मद में झूमाने वाले कवि नहीं हैं। सब प्रकार की उच्चता से प्रभावित होने वाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह दोनों इनमें है।" 
Ä      "उनका (पंडित सत्यनारायण कविरत्न का) जीवन क्या था; जीवन की विषमता का एक छाँटा हुआ दृष्टान्त था।"
Ä      "उसका (छायावाद का) प्रधान लक्ष्य काव्य-शैली की ओर था, वस्तु विधान की ओर नहीं। अर्थभूमि या वस्तुभूमि का तो उसके भीतर बहुत संकोच हो गया।"  
Ä      "हिन्दी कविता की नई धारा का प्रवर्तक इन्हीं को विशेषतः श्री मैथिलीशरण गुप्त और श्री मुकुटधर पांडेय को समझना चाहिए।"
Ä      "असीम और अज्ञात प्रियतम के प्रति अत्यन्त  चित्रमय भाषा में अनेक प्रकार के प्रेमोद्गारों तक ही काव्य की गतिविधि प्रायः बन्ध गई।" 
 Ä     "छायावाद शब्द का प्रयोग रहस्यवाद तक ही न रहकर काव्य-शैली के सन्बन्ध में भी प्रतीकवाद (सिंबालिज्म) के अर्थ में होने लगा।"
Ä      "छायावाद को चित्रभाषा या अभिव्यंजन-पद्धति कहा है।''
Ä      "छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका सम्बन्ध काव्य वस्तु से होता है अर्थात जहाँ कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यन्त चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। छायावाद शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य-शैली या पद्धति विशेष की व्यापक अर्थ में हैं।"
Ä      "छायावाद का सामान्यतः अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन।"
Ä      "छायावाद का केवल पहला अर्थात मूल अर्थ लिखकर तो हिन्दी काव्य-क्षेत्र में चलने वाली सुश्री महादेवी वर्मा ही हैं।"
Ä      "पन्त, प्रसाद, निराला इत्यादि और सब कवि प्रतीक-पद्धति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए।"
Ä      "अन्योक्ति-पद्धति का अवलम्बन भी छायावाद का एक विशेष लक्षण हुआ।"
Ä      "छायावाद का चलन द्विवेदी काल की रूखी इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था।"
Ä      "लाक्षणिक और व्यंजनात्मक पद्धति का प्रगल्भ और प्रचुर विकास छायावाद की काव्य-शैली की असली विशेषता है।"
Ä      "छायावाद की प्रवृत्ति अधिकतर प्रेमगीतात्मक है।"
Ä      शुक्ल जी जयशंकर प्रसाद की कृति 'आंसू' को 'श्रृंगारी विप्रलम्भ' कहा है।
Ä      "यद्यपि यह छोटा है, पर इसकी रचना बहुत सरस और हृदयग्राहिणी है और कवि की भावुकता का परिचय देती है।" (नरोत्तमदास की कृति सुदामा चरित के लबारे में)
सूरदास के बारे में
Ä      "वात्सल्य के क्षेत्र में जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बन्द आँखों से किया, इतना किसी और कवि ने नहीं। इन क्षेत्रों का तो वे कोना-कोना झाँक आए।"  
घनानन्द
Ä      आचार्य शुक्ल में घनानन्द को 'साक्षात रस मूर्ति' कहा है।
Ä      "प्रेम मार्ग का ऐसा प्रवीण और वीर पथिक तथा ज़बांदानी का दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ।"
Ä      "भाषा के लक्षक एवं व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है, इसकी पूरी परख इन्हीं को थी।"
देव
Ä      "रीतिकाल के कवियों में यह बड़े ही प्रतिभा सम्पन्न कवि थे।"
बोधा
Ä      आचार्य शुक्ल के अनुसार बोधा एक रसिक कवि थे।
रीति काल का आरम्भ और चिन्तामणि
Ä      हिन्दी रीति ग्रंथों की अखंड परम्परा एवं रीति काल का आरम्भ आचार्य शुक्ल चिन्तामणि से मानते हैं।
Ä      शुक्ल ने प्रथम आचार्य चिन्तामणि को माना है।
केशवदास
Ä      केशव को 'कठिन काव्य का प्रेत' शुक्ल ने उनकी क्लिष्टता के कारण कहा है।
Ä      "आलोचना का कार्य है, किसी साहित्यिक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गुण और अर्थव्यवस्था का निर्धारण करना।"
Ä      "हिन्दी के पुराने कवियों को समालोचना के लिए सामने लाकर मिश्र बन्धुओं ने बेशक बड़ा ज़रूरी काम किया, उनकी बातें समालोचना कही जा सकती है या नहीं, यह दूसरी बात है।"
Ä      "आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी के गौरव थे। समीक्षा क्षेत्र में उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी न उनके जीवनकाल में था, न अब कोई उनके समकक्ष आलोचक है। आचार्य शब्द ऐसे ही कर्त्ता साहित्यकारों के योग्य हैं।" (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी)
Ä      भारतीय काव्यालोचन शास्त्र का इतना गम्भीर और स्वतंत्र विचारक हिन्दी  में तो दूसरा हुआ ही नहीं, अन्यान्य भारतीय भाषाओं में भी हुआ है या नहीं, ठीक नहीं कह सकते, शायद नहीं हुआ।" (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी)
Ä      आज तक की हिन्दी समीक्षा में शुक्ल जी आधार स्तम्भ है। (डॉक्टर भगवतस्वरूप मिश्र)
Ä      'छायावाद' को 'श्रृंगारी कविता' आचार्य शुक्ल ने कहा है।
Ä      आचार्य शुक्ल "रस को हृदय की मुक्तावस्था" मानते हैं।
Ä      "जिस प्रकार आत्मा की मुक्त अवस्था ज्ञान दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्त अवस्था रस दशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती है, उसे कविता कहते हैं।"  (कविता क्या है)
Ä      शुक्ल ने काव्य को कर्मयोग एवं ज्ञानयोग के समकक्ष रखते हुए 'भावयोग' कहा, जो मनुष्य के हृदय को मुक्तावस्था में पहुँचाता है।
Ä    'शुक्ल जी भारतीय पुनरूत्थान युग की उन परिस्थितयों की उपज थे, जिन्होंने राजनीति में महात्मा गांधी, कविता में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जयशंकर प्रसाद आदि को उत्पन्न किया।' नामवर सिंह
Ä    कविता का उद्देश्य हृदय को लोक-सामान्य की भावभूमि पर पहुंचा देना है।
Ä    प्रत्यय बोध, अनुभूति और वेगयुक्त प्रवृत्ति इन तीनों के गूढ़ संश्लेषण का नाम भाव है।
Ä    भ्रमरगीत का महत्व एक बात से और बढ़ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरूपण बड़े ही मार्मिक ढंग से हृदय की अनुभूति के आधार पर तर्क पद्धति पर नहीं किया है।
Ä    'भक्ति के लिए ब्रह्म का सगुण होना अनिवार्य हैं।'
Ä      "तुलसीदास उत्तरी भारत की समग्र जनता के हृदय मंदिर में पूर्ण प्रेम प्रतिष्ठा के साथ विराज रहे हैं।"
Ä      ''इनका हृदय कवि का, मस्तिष्क आलोचक का और जीवन अध्यापक का था।" (आचार्य शुक्ल के लिए)
Ä      "हिन्दी  समीक्षा को शास्त्रीय और वैज्ञानिक भूमि पर प्रतिष्ठित करने में शुक्ल जी ने युग प्रवर्तक का कार्य किया है। उनका यह कार्य हिन्दी के इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेगा।" (नन्ददुलारे वाजपेयी)
Ä     'रस मीमांसा' में आचार्य शुक्ल ने स्पष्ट लिखा है, "अध्यात्म शब्द की मेरी समझ में काव्य या कला के क्षेत्र में कहीं कोई ज़रूरत नहीं है।" इसी प्रकार जब वे धार्मिक अन्धविश्वासों का खण्डन करते हैं, तो उनका लहजा कबीर की तरह आक्रामक दिखाई देता है, "ईश्वर साकार है कि निराकार, लम्बी दाढ़ी वाला है कि चार हाथ वाला, अरबी बोलता है कि संस्कृत, मूर्ति पूजने वालों से दोस्ती रखता है कि आसमान की ओर हाथ उठाने वालों से, इन बातों पर विवाद करने वाले अब केवल उपहास के पात्र होंगे। इसी प्रकार सृष्टि के जिन रहस्यों को विज्ञान खोल चुका है, उनके सम्बन्ध  में जो पौराणिक कथाएँ और कल्पनाएँ (छः दिनों में सृष्टि की उत्पत्ति, आदम-हौवा का जोड़ा, चौरासी लाख योनि, आदि) हैं, वे अब काम नहीं दे सकतीं।" वस्तुतः शुक्ल जी ने विकासवाद के सिद्धान्त के तहत साहित्य को व्यक्ति के सामाजिक जीवन से अविछिन्न बताते हुए उसके समाजोन्मुख रूप पर बल दिया। अपनी इसी भूमिका में उन्होंने लिखा, "विकास परम सत्य है, बड़े महत्व का सिद्धान्त है। सामाजिक उन्नति के लिए हमारे प्रयत्न इसलिए रचित हैं कि हम समष्टि के अंग हैं, अंग भी ऐसे कि चेतन हो गए हैं। अतः समष्टि में उद्देश्य-विधान का अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि हम उसके एक अंग होकर अपने-आपमें उसका अनुभव करते हैं।"
Ä     'रस मीमांसा' में शुक्ल जी ने लिखा, "दीन और असहाय जनता को निरन्तर पीड़ा पहुँचाते चले जाने वाले क्रूर आततायियों को उपदेश देने, उनसे दया की भिक्षा माँगने और प्रेम जताने तथा उनकी सेवा-सुश्रूषा करने में ही कर्तव्य की सीमा नहीं मानी जा सकती... मनुष्य के शरीर में जैसे दक्षिण और वाम दो पक्ष हैं, वैसे ही उसके हृदय के भी कोमल और कठोर, मधुर और तीक्ष्ण, दो पक्ष हैं और बराबर रहेंगे। काव्य-कला की पूरी रमणीयता इन दोनों पक्षों के समन्वय के बीच मंगल या सौंदर्य के विकास में दिखाई पड़ती है।"
Ä     "ऐसी तुच्छ वृत्तिवालों का अपवित्र हृदय कविता के निवास के योग्य नहीं। कविता देवी के मंदिर ऊँचे, खुले, विस्तृत और पुनीत हृदय हैं। सच्चे कवि राजाओं की सवारी, ऐश्वर्य की सामग्री में ही सौंदर्य नहीं ढूँढ़ा करते, वे फूस के झोपड़ों, धूल-मिट्टी में सने किसानों, बच्चों के मुँह में चारा डालते पक्षियों, दौड़ते हुए कुत्तों और चोरी करती हुई बिल्लियों में कभी-कभी ऐसे सौंदर्य का दर्शन करते हैं, जिसकी छाया महलों और दरबारों तक नहीं पहुँच सकती।"
Ä     "मनुष्य लोकबद्ध प्राणी है। उसकी अपनी सत्ता का ज्ञान तक लोकबद्ध है। लोक के भीतर ही कविता क्या किसी कला का प्रयोजन और विकास होता है।"
Ä     "कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य की भावभूमि पर ले जाती है। इस भूमि पर पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता ही नहीं रहता। वह अपनी सत्ता को लोकसत्ता में लीन किए रहता है।"
Ä     "रीतिग्रंथों की बदौलत रसदृष्टि परिमित हो जाने से उसके संयोजक विषयों में से कुछ तो उद्दीपन में डाल दिए गए और कुछ भावक्षेत्र से निकाले जाकर अलंकार के खाते में हाँक दिए गए। ...हमारे यहाँ के कवियों को रीतिग्रंथों ने जैसा चारों ओर से जकड़ा, वैसा और कहीं के कवियों को नहीं। इन ग्रंथों के कारण उनकी दृष्टि संकुचित हो गई, लक्षणों की कवायद पूरी करके वे अपने कर्तव्य की समाप्ति मानने लगे। वे इस बात को भूल चले की किसी वर्णन का उद्देश्य श्रोता के हृदय पर प्रभाव डालना है।"
Ä     "केशव को कवि हृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता भी न थी, जो एक कवि में होनी चाहिए। ...प्रबंधकाव्य रचना के योग्य न तो केशव में अनुभूति ही थी, न शक्ति। ...वे वर्णन वर्णन के लिए करते थे, न कि प्रसंग या अवसर की अपेक्षा से। ...केशव की रचना को सबसे अधिक विकृत और अरुचिकर करने वाली वस्तु है आलंकारिक चमत्कार की प्रवृत्ति, जिसके कारण न तो भावों की प्रकृत व्यंजना के लिए जगह बचती है, न सच्चे हृदयग्राही वस्तुवर्णन के लिए।"
Ä     "छायावाद नाम चल पड़ने का परिणाम यह हुआ कि बहुत से कवि रहस्यात्मकता, अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र, वस्तुविन्यास की विश्रृंखलता, चित्रमयी भाषा और मधुमयी कल्पना को ही साध्य मानकर चले। शैली की इन विशेषताओं की दूरारूढ़ साधना में ही लीन हो जाने के कारण अर्थभूमि के विस्तार की ओर उनकी दृष्टि न रही। विभावपक्ष या तो शून्य अथवा अनिर्दिष्ट रह गया। इस प्रकार प्रसरोन्मुख काव्यक्षेत्र बहुत कुछ संकुचित हो गया।"
Ä     "पन्तजी की रहस्यभावना स्वाभाविक है, साम्प्रदायिक (डागमेटिक) नहीं। ऐसी रहस्यभावना इस रहस्यमय जगत् के नाना रुपों को देख प्रत्येक सहृदय व्यक्ति के मन में कभी-कभी उठा करती है। ...'गुंजन' में भी पन्तजी की रहस्यभावना अधिकतर स्वाभाविक पथ पर पाई जाती है।"
Ä     "जगत अनेक रूपात्मक है और हमारा हृदय अनेक भावात्मक है।"
Ä     "अध्यात्म शब्द की मेरी समझ में काव्य या कला के क्षेत्र में कोई ज़रूरत नहीं है। ...इस आनन्द शब्द ने काव्य के महत्व को बहुत कुछ कम कर दिया है... उसे नाच-तमाशे की तरह बना दिया है।"
Ä     "करुण रस प्रधान नाटक के दर्शकों के आँसुओं के सम्बन्ध में यह कहना कि आनन्द में भी तो आँसू आते हैं, केवल बात टालना है। दर्शक वास्तव में दुख का ही अनुभव करते हैं। हृदय की मुक्त दशा में होने के कारण वह दुख भी रसात्मक होता है।"
Ä     "जैसे वीरकर्म से पृथक वीरत्व कोई पदार्थ नहीं, वैसे ही सुंदर वस्तु से अलग सौंदर्य कोई पदार्थ नहीं।"
Ä     "सौन्दर्य न तो मात्र चेतना में होता है और न ही सिर्फ़ वस्तु में, दोनों के सम्बन्ध  से ही सौन्दर्यानुभूति होती है।"
Ä     'विफलता में भी एक निराला विषण्ण सौन्दर्य होता है।'
Ä     रामविलास शर्मा ने सही लिखा है कि "प्राचीन साहित्यशास्त्री स्थायी भावों को रसरूप में प्रकट करके साहित्यिक प्रक्रिया का अंत निष्क्रियता में कर देते थे। शुक्ल जी ने भाव की मौलिक व्याख्या करके निष्क्रिय रस-निष्पत्ति की जड़ काट दी है।"
Ä     रामस्वरूप चतुर्वेदी ने शुक्लजी के बारे में लिखा है, "आचार्य का विषय प्रतिपादन जैसा गुरु गम्भीर है उसके बीच उनका सूक्ष्म व्यंग्य और तीव्र तथा पैना हो गया है, घनी-बड़ी मूँछों के बीच हल्की मुस्कान की तरह।"
Ä    "यह एक कवि ही हिन्दी को प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफ़ी है।" (तुलसीदास के लिए)
Ä    "इसमें कोई सन्देह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को सम्भाला जो नाथ पंथियों के प्रभाव से प्रेम भाव और भक्ति रस से शुन्य, शुष्क पड़ता जा रहा था।"
Ä  आचार्य शुक्ल के अनुसार सिद्धों की उद्धृत रचनाओं की भाषा प्लीज भाषा मिश्रित अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी की काव्य भाषा है।
आचार्य शुक्ल और रामविलास शर्मा
Ä      'सूरसागर' में जगह-जगह दृष्टिकूट वाले पद मिलते हैं। यह भी विद्यापति का अनुकरण है।
Ä      शब्द-शक्ति, रस और अलंकार, ये विषय-विभाग काव्य-समीक्षा के लिए, इतने उपयोगी हैं कि इनको अन्तर्भूत करके संसार की नई-पुरानी सब प्रकार की कविताओं की बहुत ही सूक्ष्म, मार्मिक और स्वच्छ आलोचना हो सकती है।  (काव्य में अभिव्यंजनावाद, चिन्तामणि, भाग-2)
Ä      हमें अपनी दृष्टि से दूसरे देशों के साहित्य को देखना होगा, दूसरे देशों की दृष्टि से अपने साहित्य को नहीं।              (चिन्तामणि, भाग-2)
Ä      हृदय की अनुभूति ही साहित्य में रस और भाव कहलाती है।  (चिन्तामणि, भाग-2)
Ä      हृदय के प्रभावित होने का नाम ही रसानुभूति है।  (चिन्तामणि, भाग-2)
Ä      जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञाल-दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रस-दशा कहलाती है।   (रस मीमांसा)
Ä      यह सब आलोचना अधिकतर बहिरंग बातों तक ही रही। भाषा के गुण-दोष, रस, अलंकार आदि की समीचीनता इन्हीं सब परम्परागत विषयों तक पहुँचीं। स्थायी साहित्य में परिगणित होने वाली समालोचना जिसमें किसी कवि की अंतर्वृत्ति का सूक्ष्म व्यवच्छेदन होता है, उसकी मानसिक प्रवृत्ति की विशेषताएँ दिखार्इ जाती हैं, बहुत कम दिखार्इ पड़ी। (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
Ä      भाषा के लक्ष्य एवं व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है इसकी पूरी परख घनानन्द को ही थी।
Ä      इनके दोहे क्या हैं, रस के छोटे-छोटे छींटे हैं। (बिहारी के बारे में आचार्य शुक्ल)
Ä      आचार्य शुक्ल ने छायावाद को 'अभिव्यंजनावाद का विलायती संस्करण माना है।
Ä      यदि प्रबंध काव्य एक विस्तृत वनस्थली है, तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता।
Ä      हिन्दी साहित्य में कविता के क्षेत्र में जो स्थान 'निराला' का रहा और उपन्यास के क्षेत्र में जो स्थान 'प्रेमचन्द' का रहा, आलोचना के क्षेत्र में वही स्थान 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' का है। (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिन्दी  आलोचना, डॉ. रामविलास शर्मा)
Ä      भाव उनके लिए मन की वेगयुक्त अवस्था विशेष है, प्रत्यक्ष बोध अनुभूति और वेगयुक्त प्रवृत्ति इन तीनों के गुण संश्लेष का नाम भाव है। मुक्त हृदय मनुष्य अपनी सत्ता को लोक सत्ता में लीन किए रहता है। लोक हृदय के लीन होने की दशा का नाम रसदशा है। (रस मीमांसा)
Ä      काव्य के सम्बन्ध में भाव और कल्पना ये दो शब्द बराबर सुनते-सुनते कभी-कभी यह जिज्ञासा होती है कि ये दोनों समकक्ष हैं या इनमें कोर्इ प्रधान है। यह प्रश्न या इसका उत्तर ज़रा टेढ़ा है, क्योंकि रस-काल के भीतर इनका युगपद अन्योन्याश्रित व्यापार होता है। (चिन्तामणि, भाग-2) 
Ä      इसके लिए सूक्ष्म विश्लेषण-बुद्धि और मर्म-ग्राहिणी प्रज्ञा अपेक्षित है। (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
जायसी का विरह-वर्णन हिन्दी  साहित्य में एक अद्वितीय वस्तु है। (जायसी ग्रंथावली की भूमिका)
Ä      प्रबन्ध क्षेत्र में तुलसीदास का जो सर्वोच्च आसन है, उसका कारण यह है कि वीरता, प्रेम आदि जीवन का कोई एक ही पक्ष न लेकर तुलसी ने संपूर्ण जीवन को लिया है| जायसी का क्षेत्र तुलसी की अपेक्षा में परिमित है, पर प्रेम वेदना उनकी अत्यन्त  गूढ़ है। (जायसी ग्रंथावली की भूमिका)
Ä      यह शील और शील का, स्नेह और स्नेह का तथा नीति और नीति का मिलन है। इस मिलन के संघटित उत्कर्ष की दिव्य प्रभा देखने योग्य, यह झाँकी अपूर्व है। (गोस्वामी तुलसीदास)
Ä      शुक्ल जी ने तुलसी और जायसी के समकक्ष ही सूरदास को माना है। यदि हम मनुष्य जीवन के संपूर्ण क्षेत्रा को लेते हैं तो सूरदास की दृष्टि परिमित दिखार्इ पड़ती है, पर यदि उनके चुने हुए क्षेत्रों (श्रृंगार तथा वात्सल्य) को लेते हैं, तो उनके भीतर उनकी पहुँच का विस्तार बहुत अधिक पाते हैं। उन क्षेत्रों में इतना अंतर्दृष्टि विस्तार और किसी कवि का नहीं है। (भ्रमरगीत-सार की भूमिका)
Ä      किसी साहित्य में केवल शहर की भद्दी नक़ल से अपनी उन्नति या प्रगति नहीं की जा सकती। बाहर से सामग्री आए ख़ूब आए, परन्तु वह कूड़ा-करकट के रूप में न इकटठी हो जाए। उसकी कड़ी परीक्षा हो, उस पर व्यापक दृष्टि से विवेचन किया जाय, जिससे हमारे साहित्य के स्वतंत्र और व्यापक विकास में सहायता पहुँचे। (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
Ä      हिन्दुओं के स्वातंत्र्य के साथ वीर गाथाओं की परम्परा भी काल के अँधेरे में जा छिपी है| अंतः पर गहरी उदासी छा गयी थी ...... हृदय की अन्य वृत्तियों (उत्साह आदि) के रंजनकारी रूप भी यदि वे चाहते तो कृष्ण में ही मिल जाते, पर उनकी ओर वे न बढे| भगवान के यह व्यक्त स्वरूप यद्यपि एक देशीय थे केवल प्रेम था पर उस समय नैराश्य के कारण जनता के हृदय में जीवन की ओर से एक प्रकार की जो अरुची सी उत्पन्न हो रही थी उसे हटाने में वह उपयोगी हुआ।
Ä      आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने गीत गोविंदके पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी। (विद्यापति के सम्बन्ध  में)
Ä      प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की शिक्षित जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरुप में भी परिवर्तन होता चला जाता है| आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना हीहिन्दी  साहित्य का इतिहासकहलाता है। (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
Ä     इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर को 'राम नाम' रामानन्द जी से ही प्राप्त हुआ। पर आगे चलकर कबीर के 'राम' रामानन्द के 'राम' से भिन्न हो गए।
Ä     ने जिस प्रकार हिन्दी  गद्य की भाषा का परिष्कार किया, उसी प्रकार काव्य की ब्रज भाषा का भी।
 Ä    काव्य की पूर्ण अनुभूति के लिए कल्पना का व्यापार कवि और श्रोता दोनों के अनिवार्य है।
Ä     'सूरसागर' में जगह-जगह दृष्टिकूट वाले पद मिलते हैं। यह भी विद्यापति का अनुकरण है।
Ä     हृदय के प्रभावित होने का नाम ही रसानुभूति है। (चिन्तामणि, भाग-2)
Ä     जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रस-दशा कहलाती है। (रस मीमांसा)
Ä     यह सब आलोचना अधिकतर बहिरंग बातों तक ही रही। भाषा के गुण-दोष, रस, अलंकार आदि की समीचीनता इन्हीं सब परम्परागत विषयों तक पहुँचीं। स्थायी साहित्य में परिगणित होने वाली समालोचना जिसमें किसी कवि की अंतर्वृत्ति का सूक्ष्म व्यवच्छेदन होता है, उसकी मानसिक प्रवृत्ति की विशेषताएँ दिखार्इ जाती हैं, बहुत कम दिखार्इ पड़ी। (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
Ä     भाषा के लक्ष्य एवं व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है इसकी पूरी परख घनानन्द को ही थी।
Ä     इनके दोहे क्या हैं, रस के छोटे-छोटे छींटे हैं। (बिहारी के बारे में आचार्य शुक्ल)
Ä     आचार्य शुक्ल ने छायावाद को 'अभिव्यंजनावाद का विलायती संस्करण माना है।
Ä     यदि प्रबन्ध काव्य एक विस्तृत वनस्थली है, तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता।
Ä     हिन्दी साहित्य में कविता के क्षेत्र में जो स्थान 'निराला' का रहा और उपन्यास के क्षेत्र में जो स्थान 'प्रेमचंद' का रहा, आलोचना के क्षेत्रा में वही स्थान 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' का है। (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिन्दी  आलोचना, डॉ. रामविलास शर्मा)
Ä     भाव उनके लिए मन की वेगयुक्त अवस्था विशेष है, प्रत्यक्ष बोध् अनुभूति और वेगयुक्त प्रवृत्ति इन तीनों के गुण संश्लेष का नाम भाव है। मुक्त âदय मनुष्य अपनी सत्ता को लोक सत्ता में लीन किए रहता है। लोक हृदय के लीन होने की दशा का नाम रस दशा है। (रस मीमांसा)
Ä     काव्य के सम्बन्ध में भाव और कल्पना ये दो शब्द बराबर सुनते-सुनते कभी-कभी यह जिज्ञासा होती है कि ये दोनों समकक्ष हैं या इनमें कोर्इ प्रधान है। यह प्रश्न या इसका उत्तर ज़रा टेढ़ा है, क्योंकि रस-काल के भीतर इनका युगपद अन्योन्याश्रित व्यापार होता है। (चितांमणि, भाग-2) 
इसके लिए सूक्ष्म विश्लेषण-बुद्धि और मर्म-ग्राहिणी प्रज्ञा अपेक्षित है। (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
Ä     जायसी का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य में एक अद्वितीय वस्तु है। (जायसी ग्रंथावली)
Ä     प्रबन्ध क्षेत्र में तुलसीदास का जो सर्वोच्च आसन है, उसका कारण यह है कि वीरता, प्रेम आदि जीवन का कोई एक ही पक्ष न लेकर तुलसी ने संपूर्ण जीवन को लिया है| जायसी का क्षेत्र तुलसी की अपेक्षा में परिमित है, पर प्रेम वंदना उनकी अत्यन्त  गूढ़ है। (जायसी ग्रंथावली की भूमिका)
Ä     यह शील और शील का, स्नेह और स्नेह का तथा नीति और नीति का मिलन है। इस मिलन के संघटित उत्कर्ष की दिव्य प्रभा देखने योग्य, यह झाँकी अपूर्व है। (गोस्वामी तुलसीदास)
Ä     शुक्ल जी ने तुलसी और जायसी के समकक्ष ही सूरदास को माना है। यदि हम मनुष्य जीवन के संपूर्ण क्षेत्र को लेते हैं तो सूरदास की दृष्टि परिमित दिखार्इ पड़ती है, पर यदि उनके चुने हुए क्षेत्रों (श्रृंगार तथा वात्सल्य) को लेते हैं, तो उनके भीतर उनकी पहुँच का विस्तार बहुत अधिक पाते हैं। उन क्षेत्रों में इतना अंतर्दृष्टि विस्तार और किसी कवि का नहीं है। (भ्रमरगीत सार की भूमिका)
Ä     किसी साहित्य में केवल शहर की भददी नक़ल से अपनी उन्नति या प्रगति नहीं की जा सकती। बाहर से सामग्री आए ख़ूब आए, परन्तु वह कूड़ा-करकट के रूप में न इकटठी हो जाए। उसकी कड़ी परीक्षा हो, उस पर व्यापक दृष्टि से विवेचन किया जाय, जिससे हमारे साहित्य के स्वतंत्र और व्यापक विकास में सहायता पहुँचे। (हिन्दी  साहित्य का इतिहास)
Ä     हिन्दुओं के स्वातंत्र्य के साथ वीर गाथाओं की परम्परा भी काल के अँधेरे में जा छिपी है| अंतः पर गहरी उदासी छा गयी थी ...... हृदय की अन्य वृत्तियों (उत्साह आदि) के रंजनकारी रूप भी यदि वे चाहते तो कृष्ण में ही मिल जाते, पर उनकी ओर वे न बढे| भगवान के यह व्यक्त स्वरुप यद्यपि एकदेशीये थे केवल प्रेम था पर उस समय नैराश्य के कारण जनता के हृदय में जीवन की ओर से एक प्रकार की जो अरुची सी उत्पन्न हो रही थी उसे हटाने में वह उपयोगी हुआ।
Ä     आध्यात्मिक रंग के चश्में आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने गीत गोविंद के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी। (विद्यापति के सम्बन्ध  में)
Ä     प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की शिक्षित जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरुप में भी परिवर्तन होता चला जाता है| आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना हीहिन्दी  साहित्य का इतिहास कहलाता है। (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
 Ä    उनकी (अध्यापक पूर्णसिंह की) लाक्षणिकता हिन्दी  गद्य साहित्य में नयी चीज थी।......भाषा और भाव की एक नयी विभूति उन्होंने सामने रखी। वक्तृत्वकला का ओज एवं प्रवाह तथा चित्रात्मकता व मूर्तिमत्ता, इनकी शैली के दो विशिष्ट गुण हैं। ----- संक्षेप में अतिअल्पमात्रा में निबंधों का लेखन करते हुए भी अध्यापक पूर्णसिंह ने हिन्दी  निबन्धकला के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
Ä     रामचन्द्र शुक्ल से सर्वत्र सहमत होना सम्भव नहीं। ..... फिर भी शुक्ल जी प्रभावित करते हैं। नया लेखक उनसे डरता है, पुराना घबराता है, पंडित सिर हिलाता है। वे पुराने की ग़ुलामी पसन्द नहीं करते और नवीन की ग़ुलामी तो उनको एकदम असह्य है। शुक्ल जी इसी बात में बड़े हैं और इसी जगह उनकी कमज़ोरी है। (आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी)

Ä     भारतीय काव्यलोचनशास्त्र का इतना गम्भीर और स्वतंत्र विचारक हिन्दी में तो दूसरा हुआ ही नहीं, अन्यान्य भारतीय भाषाओं में भी हुआ है या नहीं, ठीक से नहीं कह सकते। शायद नहीं हुआ।
(आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य की भूमिका)

Ä     ‘‘डिंगल कवियों की वीर-गाथाएँ निर्गुण सन्तों की वाणियाँ, कृष्ण भक्त या रागानुगा भक्तिमार्ग के साधकों के पद, राम-भक्त या वैधी भक्तिमार्ग के उपासकों की कविताएँ, सूफ़ी साधना से पुष्ट मुसलमान कवियों के तथा ऐतिहासिक हिन्दू कवियों के रोमांस और रीति-काव्य ये छहों धाराएँ अपभ्रंश कविता का स्वाभाविक विकास है।’’ रामचन्द्र शुक्ल

Ä     ‘‘कालदर्शी भक्त कवि जनता के हृदय को सम्भालने और लीन रखने के लिए दबी हुई भक्ति को जगाने लगे। क्रमशः भक्ति का प्रवाह ऐसा विकसित और प्रबल होता गया कि उसकी लपेट में केवल हिन्दू जनता ही नहीं आई, देश में बसने वाले सहृदय मुसलमानों में से भी न जाने कितने आ गए।’’
Ä     मंगल का विधान करने वाले दो भाव हैं।
Ä     अष्टछाप में सूरदास के पीछे इन्हीं का नाम लेना पड़ता है। इनकी रचना भी बड़ी सरस और मधुर है। इनके सम्बन्ध में यह कहावत प्रसिद्ध है कि और कवि गढ़िया नन्ददास जड़िया।’’
Ä     हिंदू हृदय और मुसलमान हृदय आमने-सामने करके अजनबीपन मिटानेवालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा।(कबीरदास के बारे में)
निम्नलिखित में से कोम-सी उक्ति निबन्धकार रामचन्द्र शुक्ल की नहीं है  ?
(A) हृदय प्रसार का स्मारक स्तम्भ काव्य है
(B) काव्य एक अखण्ड तत्त्व या शक्ति है, जिसकी गति अमर है।
(C) श्रद्धा और प्रेम के योग का भक्ति है।
(D) धर्म रसात्मक अनुभूति का नाम भक्ति है।
(ये चारों उक्तियाँ आचार्य शुक्ल जी की ही हैं।)

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