1. नक्सलबाड़ी (धूमिल की कविता NTA/UGCNET/JRF के नए पाठ्यक्रम
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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास
'सहमति.....
नहीं, यह समकालीन शब्द नहीं है
इसे बालिग़ों के बीच
चालू मत करो'
—जंगल से जिरह करने के बाद
उसके साथियों ने उसे
समझाया कि भूख
का इलाज नींद के पास
है !
मगर इस बात से वह
सहमत नहीं था
विरोध के लिए सही
शब्द टटोलते हुए
उसने पाया कि वह अपनी
ज़ुबान
सहुआइन की जांघ पर
भूल आया है;
फिर भी हकलाते हुए
उसने कहा—
'मुझे अपनी कविताओं के लिए
दूसरे प्रजातंत्र
की तलाश है',
सहसा तुम कहोगे और
फिर एक दिन—
पेट के इशारे पर
प्रजातंत्र से बाहर
आकर
वाजिब ग़ुस्से के
साथ अपने चेहरे से
कूदोगे
और अपने ही घूँसे
पर
गिर पड़ोगे।
क्या मैंने ग़लत कहा? आख़िरकार
इस ख़ाली पेट के सिवा
तुम्हारे पास वह कौन-सी
सुरक्षित
जगह है, जहाँ खड़े
होकर
तुम अपने दाहिने हाथ
की
साज़िश के ख़िलाफ़
लड़ोगे?
यह एक खुला हुआ सच
है कि आदमी—
दाएँ हाथ की नैतिकता
से
इस क़दर मजबूर होता
है
कि तमाम उम्र गुज़र
जाती है मगर गाँड
मगर सिर्फ बायाँ हाथ
धोता है।
और अब तो हवा भी बुझ
चुकी है
और सारे इश्तिहार
उतार लिए गए हैं
जिनमें कल आदमी—
अकाल था। वक़्त के
फ़ालतू हिस्से में
छोड़ी गई फ़ालतू कहानियाँ
देश-प्रेम के हिज्जे
भूल चुकी हैं,
और वह सड़क—
समझौता बन गई है
जिस पर खड़े होकर
कल तुम ने संसद को
बाहर आने के लिए आवाज़
दी थी
नहीं, अब वहाँ कोई
नहीं है
मतलब की इबारत से
होकर
सब के सब व्यवस्था
के पक्ष में
चले गए हैं। लेखपाल
की
भाषा के लम्बे सुनसान
में
जहाँ पालो और बंजर
का फ़र्क़
मिट चुका है चन्द
खेत
हथकड़ी पहने खड़े
हैं।
और विपक्ष में—
सिर्फ़ कविता है।
सिर्फ़ हज्जाम की
खुली हुई 'क़िस्मत' में एक उस्तुरा—
चमक रहा है।
सिर्फ़ भंगी का
एक झाड़ू हिल रहा है
नागरिकता का हक़
हलाल करती हुई
गंदगी के ख़िलाफ़
और तुम हो विपक्ष
में
बेकारी और नींद से
परेशान।
और एक जंगल है—
मतदान के बाद ख़ून
में अँधेरा
पछींटता हुआ।
(जंगल मुख़बिर है)
उसकी आँखों में
चमकता हुआ भाईचारा
किसी भी रोज़ तुम्हारे
चेहरे की हरियाली को
बेमुरव्वत चाट सकता
है।
ख़बरदार!
उसने तुम्हारे परिवार
को
नफ़रत के उस मुक़ाम
पर ला खड़ा किया है
कि कल तुम्हारा सबसे
छोटा लड़का भी
तुम्हारे पड़ोसी का
गला
अचानक,
अपनी स्लेट से काट
सकता है।
क्या मैंने ग़लत कहा?
आखिरकार..... आखिरकार.....
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