मेरे राम का मुकुटभीग रहा है (1974, विद्यानिवास मिश्र, NTANET/JRF के SYLLABUS में सम्मिलित) : Hindi Sahitya Vimarsh
मेरे राम का मुकुट भीग रहा है' (1974)
hindisahityavimarsh.blogspot.in
iliyashussain1966@gmail.com
Mobile : 9717324769
अवैतनिक सम्पादक
: मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद
इलियास
महीनों से मन बेहद-बेहद
उदास है। उदासी की कोई ख़ास वजह नहीं, कुछ तबीयत ढीली, कुछ आसपास के तनाव
और कुछ उनसे टूटने का डर, खुले आकाश के नीचे
भी खुलकर साँस लेने की जगह की कमी, जिस काम में लगकर
मुक्ति पाना चाहता हूँ, उस काम में हज़ार बाधाएँ;
कुल ले-देकर उदासी के लिए इतनी बड़ी चीज़ नहीं बनती।
फिर भी रात-रात नींद नहीं आती। दिन ऐसे बीतते हैं, जैसे भूतों के सपनों की एक रील पर दूसरी रील चढ़ा दी गई हो और
भूतों की आकृतियाँ और डरावनी हो गई हों। इसलिए कभी-कभी तो बड़ी-से-बड़ी परेशानी करने
वाली बात हो जाती है और कुछ भी परेशानी नहीं होती, उल्टे ऐसा लगता है, जो हुआ, एक सहज क्रम में हुआ;
न होना ही कुछ अटपटा होता और कभी-कभी बहुत मामूली-सी
बात भी भयंकर चिन्ता का कारण बन जाती है।
अभी दो-तीन रात पहले
मेरे एक साथी संगीत का कार्यक्रम सुनने के लिए नौ बजे रात गए, साथ में जाने के लिए मेरे एक चिरंजीव ने और मेरी
एक मेहमान, महानगरीय वातावरण में पली
कन्या ने अनुमति माँगी। शहरों की आजकल की असुरक्षित स्थिति का ध्यान करके इन दोनों
को जाने तो नहीं देना चाहता था, पर लड़कों का मन भी
तो रखना होता है, कह दिया, एक-डेढ़ घंटे सुनकर चले आना।
रात के बारह बजे।
लोग नहीं लौटे। गृहिणी बहुत उद्विग्न हुईं, झल्लायीं; साथ में गए मित्र
पर नाराज़ होने के लिए संकल्प बोलने लगीं। इतने में ज़ोर की बारिश आ गई। छत से बिस्तर
समेटकर कमरे में आया। गृहिणी को समझाया, बारिश थमेगी, आ जाएँगे,
संगीत में मन लग जाता है, तो उठने की तबीयत नहीं होती, तुम सोओ, ऐसे बच्चे नहीं हैं। पत्नी किसी तरह शान्त होकर सो गईं,
पर मैं अकुला उठा। बारिश निकल गई, ये लोग नहीं आए। बरामदे में कुर्सी लगाकर राह जोहने
लगा। दूर कोई भी आहट होती तो, उदग्र होकर फाटक की
ओर देखने लगता। रह-रहकर बिजली चमक जाती थी और सड़क दिप जाती थी। पर सामने की सड़क पर
कोई रिक्शा नहीं, कोई चिरई का पूत नहीं।
एकाएक कई दिनों से मन में उमड़ती-घुमड़ती पँक्तिया गूँज गईं—
"मोरे राम के भीजे
मुकुटवा
लछिमन के पटुकवा
मोरी सीता के भीजै
सेनुरवा
त राम घर लौटहिं।"
(मेरे राम का मुकुट
भीग रहा होगा, मेरे लखन का पटुका
(दुपट्टा) भीग रहा होगा, मेरी सीता की माँग
का सिन्दूर भीग रहा होगा, मेरे राम घर लौट आते।)
बचपन में दादी-नानी
जाँते पर वह गीत गातीं, मेरे घर से बाहर जाने
पर विदेश में रहने पर वे यही गीत विह्वल होकर गातीं और लौटने पर कहतीं— 'मेरे लाल को कैसा
वनवास मिला था।' जब मुझे दादी-नानी
की इस आकुलता पर हँसी भी आती, गीत का स्वर बड़ा मीठा
लगता। हाँ, तब उसका दर्द नहीं छूता। पर
इस प्रतीक्षा में एकाएक उसका दर्द उस ढलती रात में उभर आया और सोचने लगा, आने वाली पीढ़ी पिछली पीढी की ममता की पीड़ा नहीं
समझ पाती और पिछली पीढ़ी अपनी सन्तान के सम्भावित संकट की कल्पना मात्र से उद्विग्न
हो जाती है। मन में यह प्रतीति ही नहीं होती कि अब सन्तान समर्थ है, बड़ा-से-बड़ा संकट झेल लेगी। बार-बार मन को समझाने
की कोशिश करता, लड़की दिल्ली विश्वविद्यालय
के एक कॉलेज में पढ़ाती है, लड़का संकट-बोध की
कविता लिखता है, पर लड़की का ख़याल
आते ही दुश्चिन्ता होती, गली में जाने कैसे
तत्व रहते हैं! लौटते समय कहीं कुछ हो न गया हो और अपने भीतर अनायास अपराधी होने का
भाव जाग जाता, मुझे रोकना चाहिए
था या कोई व्यवस्था करनी चाहिए थी, पराई लड़की (और लड़की
तो हर एक पराई होती है, धोबी की मुटरी की
तरह घाट पर खुले आकाश में कितने दिन फहराएगी, अन्त में उसे गृहिणी बनने जाना ही है) घर आई, कहीं कुछ हो न जाए!
मन फिर घूम गया कौसल्या
की ओर, लाखों-करोड़ों कौसल्याओं की
ओर, और लाखों करोड़ों कौसल्याओं
के द्वारा मुखरित एक अनाम-अरूप कौसल्या की ओर, इन सबके राम वन में निर्वासित हैं, पर क्या बात है कि मुकुट अभी भी उनके माथे पर बँधा है और उसी
के भीगने की इतनी चिन्ता है? क्या बात है कि आज
भी काशी की रामलीला आरम्भ होने के पूर्व एक निश्चित मुहुर्त में मुकुट की ही पूजा सबसे
पहले की जाती है? क्या बात है कि तुलसीदास
ने 'कानन' को 'सत अवध समाना' कहा और चित्रकूट में
ही पहुँचने पर उन्हें 'कलि की कुटिल कुचाल'
दीख पड़ी? क्या बात है कि आज भी वनवासी धनुर्धर राम ही लोकमानस के राजा
राम बने हुए हैं? कहीं-न-कहीं इन सबके
बीच एक संगति होनी चाहिए।
अभिषेक की बात चली,
मन में अभिषेक हो गया और मन में राम के साथ राम
का मुकुट प्रतिष्ठित हो गया। मन में प्रतिष्ठित हुआ, इसलिए राम ने राजकीय वेश में उतारा, राजकीय रथ से उतरे, राजकीय भोग का परिहार किया, पर मुकुट तो लोगों
के मन में था, कौसल्या के मातृ-स्नेह
में था, वह कैसे उतरता, वह मस्तक पर विराजमान रहा और राम भीगें तो भीगें,
मुकुट न भीगने पाए, इसकी चिन्ता बनी रही। राजा राम के साथ उनके अंगरक्षक लक्ष्मण
का कमर-बन्द दुपट्टा भी (प्रहरी की जागरूकता का उपलक्षण) न भीगने पाए और अखण्ड सौभाग्यवती
सीता की माँग का सिन्दूर न भीगने पाए, सीता भले ही भीग जाएँ। राम तो वन से लौट आए, सीता को लक्ष्मण फिर निर्वासित कर आए, पर लोकमानस में राम की वनयात्रा अभी नहीं रूकी।
मुकुट, दुपट्टे और सिन्दूर के भीगने
की आशंका अभी भी साल रही है। कितनी अयोध्याएँ बसीं, उजड़ीं, पर निर्वासित राम
की असली राजधानी, जंगल का रास्ता अपने
काँटों-कुशों, कंकड़ों-पत्थरों की
वैसी ही ताजा चुभन लिये हुए बरकरार है, क्योंकि जिनका आसरा साधारण गँवार आदमी भी लगा सकता है, वे राम तो सदा निर्वासित ही रहेंगे और उनके राजपाट को सम्भालने
वाले भरत अयोध्या के समीप रहते हुए भी उनसे भी अधिक निर्वासित रहेंगे, निर्वासित ही नहीं, बल्कि एक कालकोठरी में बन्द जिलावतनी की तरह दिन बिताएँगे।
सोचते-सोचते लगा की
इस देश की ही नहीं, पूरे विश्व की एक
कौसल्या है; जो हर बारिश में विसूर
रही है— 'मोरे राम के भीजे मुकुटवा' (मेरे राम का मुकुट
भीग रहा होगा)। मेरी सन्तान, एश्वर्य की अधिकारिणी
सन्तान वन में घूम रही है, उसका मुकुट,
उसका ऐश्वर्य भीग रहा है, मेरे राम कब घर लौटेंगे; मेरे राम के सेवक का दुपट्टा भीग रहा है, पहरुए का कमरबन्द भीग रहा है, उसका जागरण भीग रहा है, मेरे राम की सहचारिणी सीता का सिन्दूर भीग रहा है, उसका अखण्ड सौभाग्य भीग रहा है, मैं कैसे धीरज धरूँ? मनुष्य की इस सनातन नियति से एकदम आतंकित हो उठा ऐश्वर्य और
निर्वासन दोनों साथ-साथ चलते हैं। जिसे एश्वर्य सौंपा जाने को है, उसको निर्वासन पहले से बदा है। जिन लोगों के बीच
रहता हूँ, वे सभी मंगल नाना के नाती
हैं, वे 'मुद मंगल' में ही रहना चाहते हैं, मेरे जैसे आदमी को वे निराशावादी समझकर बिरादरी से बाहर ही रखते
हैं, डर लगता रहता है कि कहीं उड़कर
उन्हें भी दुख न लग जाए, पर मैं अशेष मंगलाकांक्षाओं
के पीछे से झाँकती हुई दुर्निवार शंकाकुल आँखों में झाँकता हूँ, तो मंगल का सारा उत्साह फीका पड़ जाता है और बन्दनवार,
बन्दनवार न दिखकर बटोरी हुई रस्सी की शक्ल में कुंडली
मारे नागिन दिखती है, मंगल-घट औंधाई हुई
अधफूटी गगरी दिखता है, उत्सव की रोशनी का
तामझाम धुओं की गाँठों का अम्बार दिखता है और मंगल-वाद्य डेरा उखाड़ने वाले अन्तिम कारबरदार
की उसाँस में बजकर एकबारगी बन्द हो जाता है।
लागति अवध भयावह भारी,
मानहुँ कालराति अँधियारी।
घोर जन्तु सम पुर
नरनारी,
डरपहिं एकहि एक निहारी।
घर मसान परिजन जनु
भूता,
सुत हित मीत मनहुँ
जमदूता।
वागन्ह बिटप बेलि
कुम्हिलाहीं,
सरित सरोवर देखि न
जाहीं।
कैसे मंगलमय प्रभात
की कल्पना थी और कैसी अँधेरी कालरात्रि आ गई है? एक-दूसरे
को देखने से डर लगता है। घर मसान हो गया है, अपने ही लोग भूत-प्रेत बन गए हैं, पेड़ सूख
गए हैं, लताएँ कुम्हला गई हैं। नदियों और सरोवरों को देखना भी दुस्सह
हो गया है। केवल इसलिए कि जिसका ऐश्वर्य
से अभिषेक हो रहा था, वह निर्वासित हो गया।
उत्कर्ष की ओर उन्मुख समष्टि का चैतन्य अपने ही घर से बाहर कर दिया गया, उत्कर्ष की, मनुष्य की ऊर्ध्वोन्मुख चेतना की यही क़ीमत सनातन काल से अदा
की जाती रही है। इसीलिए जब क़ीमत अदा कर ही दी गई, तो उत्कर्ष कम-से-कम सुरक्षित रहे, यह चिन्ता स्वाभाविक हो जाती है। राम भीगें तो भीगें,
राम के उत्कर्ष की कल्पना न भीगे, वह हर बारिश में हर दुर्दिन में सुरक्षित रहे। नर के रूप में लीला करने वाले नारायण निर्वासन की व्यवस्था झेलें, पर नर रूप
में उनकी ईश्वरता का बोध दमकता रहे, पानी की बूँदों की झालर में उसकी दीप्ति
छिपने न पाए। उस नारायण की सुख-सेज
बने अनन्त के अवतार लक्ष्मण भले ही भीगते रहें, उनका दुपट्टा, उनका अहर्निशि जागर न भीजे, शेषी नारायण के ऐश्वर्य
का गौरव अनन्त शेष के जागर-संकल्प से ही सुरक्षित हो सकेगा और इन दोनों का गौरव जगज्जननी
आद्याशक्ति के अखण्ड सौभाग्य, सीमन्त, सिन्दूर से रक्षित हो सकेगा, उस शक्ति का एकनिष्ठ प्रेम पाकर राम का मुकुट है,
क्योंकि राम का निर्वासन वस्तुत: सीता का दुहरा
निर्वासन है। राम तो लौटकर राजा होते हैं, पर रानी होते ही सीता राजा राम द्वारा वन में निर्वासित कर दी जाती हैं। राम के
साथ लक्ष्मण हैं, सीता हैं,
सीता वन्य पशुओं से घिरी हुई विजन में सोचती हैं— प्रसव की पीड़ा हो रही है, कौन इस वेला में सहारा देगा, कौन प्रसव के समय प्रकाश दिखलाएगा, कौन मुझे सँभालेगा, कौन जन्म के गीत गाएगा?
कोई गीत नहीं गाता।
सीता जंगल की सूखी लकड़ी बीनती हैं, जलाकर अँजोर करती
हैं और जुड़वाँ बच्चों का मुँह निहारती हैं। दूध की तरह अपमान की ज्वाला में चित्त कूद
पड़ने के लिए उफनता है और बच्चों की प्यारी और मासूम सूरत देखते ही उस पर पानी के छीटे
पड़ जाते हैं, उफान दब जाता है।
पर इस निर्वासन में भी सीता का सौभाग्य अखण्डित है, वह राम के मुकुट को तब भी प्रमाणित करता है, मुकुटधारी राम को निर्वासन से भी बड़ी व्यथा देता
है और एक बार और अयोध्या जंगल बन जाती है, स्नेह की रसधार रेत बन जाती है, सब कुछ उलट-पलट जाता है, भवभूति के शब्दों
में पहचान की बस एक निशानी बच रहती है, दूर उँचे खड़े तटस्थ पहाड़, राजमुकुट में जड़ें
हीरों की चमक के सैकड़ों शिखर, एकदम कठोर,
तीखे और निर्मम—
पुरा यत्र स्रोत:
पुलिनमधुना तत्र सरितां
विपर्यासं यातो घनविरलभाव:
क्षितिरुहामू।
बहो: कालाद् दृष्टं
ह्यपरमिव मन्ये वनमिंद
निवेश: शैलानां तदिदमिति
बुद्धिं द्रढयति।
राम का मुकुट इतना
भारी हो उठता है कि राम उस बोझ से कराह उठते हैं और इस वेदना के चीत्कार में सीता के
माथे का सिन्दूर और दमक उठता है, सीता का वर्चस्व और
प्रखर हो उठता है।
कुर्सी पर पड़े-पड़े
यह सब सोचते-सोचते चार बजने को आए, इतने में दरवाज़े
पर हल्की-सी दस्तक पड़ी, चिरंजीवी निचली मंज़िल
से ऊपर नहीं चढ़े, सहमी हुई कृष्णा
(मेरी मेहमान लड़की) बोली— दरवाज़ा खोलिए। आँखों में
इतनी कातरता कि कुछ कहते नहीं बना, सिर्फ़ इतना कहा कि
तुम लोगों को इसका क्या अंदाज़ होगा कि हम कितने परेशान रहे हैं। भोजन-दूध धरा रह गया,
किसी ने भी छुआ नहीं, मुँह ढाँपकर सोने का बहाना शुरू हुआ, मैं भी स्वस्ति की साँस लेकर बिस्तर पर पड़ा, पर अर्धचेतन अवस्था में फिर जहाँ खोया हुआ था,
वहीं लौट गया। अपने लड़के घर लौट आए, बारिश से नहीं संगीत से भीगकर, मेरी दादी-नानी के गीतों के राम, लखन और सीता अभी भी वन-वन भीग रहे हैं। तेज़ बारिश
में पेड़ की छाया और दुखद हो जाती है, पेड़ की हर पत्ती से टप-टप बूँदें पड़ने लगती हैं, तने पर टिकें, तो उसकी हर नस-नस से आप्लावित होकर बारिश पीठ गलाने लगती है। जाने कब से मेरे राम
भीग रहे हैं और बादल हैं कि मूसलाधार ढरकाये चले जा रहे हैं, इतने में मन में एक चोर धीरे-से फुसफुसाता है,
है, राम तुम्हारे कब से हुए, तुम, जिसकी बुनाहट पहचान में नहीं आती, जिसके व्यक्तित्व के ताने-बाने तार-तार होकर अलग
हो गए हैं, तुम्हारे कहे जानेवाले कोई
भी हो सकते हैं कि वह तुम कह रहे हो, मेरे राम! और चोर की बात सच लगती है, मन कितना बँटा हुआ है, मनचाही और अनचाही
दोनों तरह की हज़ार चीज़ों में। दूसरे कुछ पतियाएँ भी, पर अपने ही भीतर परतीति नहीं होती कि मैं किसी का हूँ या कोई
मेरा है। पर दूसरी ओर यह भी सोचता हूँ कि क्या बार-बार विचित्र-से अनमनेपन में अकारण
चिन्ता किसी के लिए होती है, वह चिन्ता क्या पराए
के लिए होती है, वह क्या कुछ भी अपना
नहीं है? फिर इस अनमनेपन में ही क्या
राम अपनाने के लिए हाथ नहीं बढ़ाते आए हैं, क्या न-कुछ होना और न-कुछ बनाना ही अपनाने की उनकी बढ़ी हुई शर्त नहीं है?
तार टूट जाता है,
मेरे राम का मुकुट भीग रहा है, यह भीतर से कहा पाऊँ? अपनी उदासी से ऐसा चिपकाव अपने सँकरे-से-दर्द से ऐसा रिश्ता,
राम को अपना कहने के लिए केवल उनके लिए भरा हुआ
हृदय कहाँ पाऊँ? मैं शब्दों के घने
जंगलों में हिरा गया हूँ। जानता हूँ, इन्हीं जंगलों के आसपास किसी टेकड़ी पर राम की पर्णकुटी है, पर इन उलझानेवाले शब्दों के अलावा मेरे पास कोई
राह नहीं। शायद सामने उपस्थित अपने ही मनोराज्य के युवराज, अपने बचे-खुचे स्नेह के पात्र, अपने भविष्यत् के संकट की चिन्ता में राम के निर्वासन का जो
ध्यान आ जाता है, उनसे भी अधिक एक बिजली
से जगमगाते शहर में एक पढ़ी-लिखी चन्द दिनों की मेहमान लड़की के एक रात कुछ देर से लौटने
पर अकारण चिन्ता हो जाती है, उसमें सीता का ख़याल
आ जाता है, वह राम के मुकुट या सीता के
सिन्दूर के भीगने की आशंका से जोड़े न जोड़े, आज की दरिद्र अर्थहीन, उदासी को कुछ ऐसा अर्थ नहीं दे देता, जिससे ज़िन्दगी ऊब से कुछ उबर सके?
और इतने में पूरब से हल्की उजास आती है और शहर के इस शोर-भरे
बियाबान में चक्की के स्वर के साथ चढ़ती-उतरती जँतसार गीति हल्की-सी सिहरन पैदा कर जाती
है। 'मोरे राम
के भीजै मुकुटवा' और अमचूर की तरह विश्वविद्यालयीय जीवन की नीरसता में सूखा
मन कुछ ज़रूर ऊपरी सतह पर ही सही भीगता नहीं, तो कुछ नम तो हो ही जाता है, और महीनों
की उमड़ी-घुमड़ी उदासी बरसने-बरसने को आ जाती है। बरस न पाए, यह अलग
बात है (कुछ भीतर भाप हो, तब न बरसे), पर बरसने का यह भाव जिस ओर से आ रहा है, उधर राह
होनी चाहिए। इतनी असंख्य कौसल्याओं के कण्ठ में बसी हुई जो एक अरूप ध्वनिमयी कौसल्या
है, अपनी सृष्टि
के संकट में उसके सतत उत्कर्ष के लिए आकुल, उस कौसल्या की ओर, उस मानवीय संवेदना की ओर ही कहीं राह है, घास के
नीचे दबी हुई। पर उस घास की महिमा अपरम्पार है, उसे तो आज वन्य पशुओं का राजकीय संरक्षित क्षेत्र बनाया
जा रहा है, नीचे ढँकी हुई राह तो सैलानियों के घूमने के लिए, वन्य पशुओं
के प्रदर्शन के लिए, फोटो खींचनेवालों की चमकती छवि यात्राओं के लिए बहुत ही
रमणीक स्थली बनाई जा रही है। उस राह पर तुलसी और उनके मानस के नाम पर बड़े-बड़े तमाशे
होंगे, फुलझड़िया
दगेंगी, सैर-सपाटे
होंगे, पर वह राह
ढँकी ही रह जाएगी, केवल चक्की का स्वर, श्रम का स्वर ढलती रात में, भीगती रात
में अनसोए वात्सल्य का स्वर राह तलाशता रहेगा— किस ओर राम मुड़े होंगे, बारिश से
बचने के लिए? किस ओर? किस ओर? बता दो सखी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें