अज्ञेय (nta/ugc net/jrf syllabus) की काव्य-पंक्तियां
#हम हैं द्वीप, हम धरा नहीं, हम बहते नहीं हैं, क्योंकि बहना रेत होना है।
#मौन भी अभिव्यंजना है। जितना तुम्हारा सच है, उतना ही कहो।
#दुख सबको मांजता है।
#मैं ही हूं वह पदाक्रांत रिरियाता कुत्ता।
#एक क्षण क्षण में प्रवहमान व्याप्त संपूर्णता वंचना है चांदनी सित।
#उड़ चल हारिल, लिए हाथ में यही अकेला ओछा तिनका।
#नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है। (कलगी बाजरे की)
#बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच। (कलगी बाजरे की)
#कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है। (कलगी बाजरे की)
#शब्द जादू हैं-
मगर क्या समर्पण कुछ नहीं है ? (कलगी बाजरे की)
#आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह ! (असाध्य वीणा)
#हठ-साधना यही थी उस साधक की --
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला। (असाध्य वीणा)
#मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी। (असाध्य वीणा)
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला। (असाध्य वीणा)
#मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी। (असाध्य वीणा)
#सब उदग्र, पर्युत्सुक,
जन मात्र प्रतीक्षमाण ! (असाध्य वीणा)
#राजन! पर मैं तो
कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी। (असाध्य वीणा)
जन मात्र प्रतीक्षमाण ! (असाध्य वीणा)
#राजन! पर मैं तो
कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी। (असाध्य वीणा)
#गा तू :
तेरी लय पर मेरी साँसें
भरें, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पायें। (असाध्य वीणा)
#तू गा :
मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा
स्मृति का
श्रुति का -- (असाध्य वीणा)
तेरी लय पर मेरी साँसें
भरें, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पायें। (असाध्य वीणा)
#तू गा :
मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा
स्मृति का
श्रुति का -- (असाध्य वीणा)
#समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था --
काँपी थी उँगलियाँ।
अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा
:
किलक उठे थे स्वर-शिशु। (असाध्य वीणा)
#सहसा वीणा झनझना उठी --
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी
झलक गयी --
रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया
। (असाध्य वीणा)
#अवतरित हुआ संगीत
स्वयम्भू
जिसमें सीत है अखंड
ब्रह्मा का मौन
अशेष प्रभामय । (असाध्य वीणा)
#ईर्ष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता
सभी पुराने लुगड़े-से झड़ गये, निखर आया था जीवन-कांचन
धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा । (असाध्य वीणा)
सभी पुराने लुगड़े-से झड़ गये, निखर आया था जीवन-कांचन
धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा । (असाध्य वीणा)
#सब अंधकार के कण हैं ये ! आलोक एक है
प्यार अनन्य ! उसी की
विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को,
थिरक उसी की छाती पर उसमें छिपकर सो जाती है
आश्वस्त, सहज विश्वास भरी। (असाध्य वीणा)
प्यार अनन्य ! उसी की
विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को,
थिरक उसी की छाती पर उसमें छिपकर सो जाती है
आश्वस्त, सहज विश्वास भरी। (असाध्य वीणा)
#सबने भी अलग-अलग संगीत सुना। (असाध्य वीणा)
#बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुशबू।
किसी एक को नयी वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि।
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी। (असाध्य वीणा)
किसी एक को नयी वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि।
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी। (असाध्य वीणा)
#उसे युद्ध का ढाल :
इसे सझा-गोधूली की लघु टुन-टुन --
उसे प्रलय का डमरू-नाद। (असाध्य वीणा)
इसे सझा-गोधूली की लघु टुन-टुन --
उसे प्रलय का डमरू-नाद। (असाध्य वीणा)
#श्रेय नहीं कुछ मेरा :
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था --
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था :
वह तो सब कुछ की तथता थी (असाध्य वीणा)
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था --
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था :
वह तो सब कुछ की तथता थी (असाध्य वीणा)
#महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सबमें गाता है। (असाध्य वीणा)
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सबमें गाता है। (असाध्य वीणा)
#धीर, आश्वस्त, अक्लांत—
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार... (कितनी नावों में कितनी बार)
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार... (कितनी नावों में कितनी बार)
#आओ बैठें
इसी ढाल की हरी घास पर। (हरी घास पर क्षण भर)
#आओ, बैठो
तनिक और सट कर, कि हमारे बीच स्नेह-भर का व्यवधान रहे, बस,
नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की। (हरी घास पर क्षण भर)
#नमो, खुल खिलो, सहज मिलो
अन्त:स्मित, अन्त:संयत हरी घास-सी। (हरी घास पर क्षण भर)
#पौधे, लता दोलती, फूल, झरे पत्ते, तितली-भुनगे,
फुनगी पर पूँछ उठा कर इतराती छोटी-सी चिड़िया-
और न सहसा चोर कह उठे मन में-
प्रकृतिवाद है स्खलन
क्योंकि युग जनवादी है। (हरी घास पर क्षण भर)
#क्षण-भर हम न रहें रह कर भी :
सुनें गूँज भीतर के सूने सन्नाटे में किसी दूर सागर की लोल लहर की
जिस की छाती की हम दोनों छोटी-सी सिहरन हैं-
जैसे सीपी सदा सुना करती है। (हरी घास पर क्षण भर)
#मसजिद के गुम्बद के पीछे सूर्य डूबता धीरे-धीरे,
झरने के चमकीले पत्थर, मोर-मोरनी, घुँघरू,
सन्थाली झूमुर का लम्बा कसक-भरा आलाप,
रेल का आह की तरह धीरे-धीरे खिंचना, लहरें। (हरी घास पर क्षण भर)
इसी ढाल की हरी घास पर। (हरी घास पर क्षण भर)
#आओ, बैठो
तनिक और सट कर, कि हमारे बीच स्नेह-भर का व्यवधान रहे, बस,
नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की। (हरी घास पर क्षण भर)
#नमो, खुल खिलो, सहज मिलो
अन्त:स्मित, अन्त:संयत हरी घास-सी। (हरी घास पर क्षण भर)
#पौधे, लता दोलती, फूल, झरे पत्ते, तितली-भुनगे,
फुनगी पर पूँछ उठा कर इतराती छोटी-सी चिड़िया-
और न सहसा चोर कह उठे मन में-
प्रकृतिवाद है स्खलन
क्योंकि युग जनवादी है। (हरी घास पर क्षण भर)
#क्षण-भर हम न रहें रह कर भी :
सुनें गूँज भीतर के सूने सन्नाटे में किसी दूर सागर की लोल लहर की
जिस की छाती की हम दोनों छोटी-सी सिहरन हैं-
जैसे सीपी सदा सुना करती है। (हरी घास पर क्षण भर)
#मसजिद के गुम्बद के पीछे सूर्य डूबता धीरे-धीरे,
झरने के चमकीले पत्थर, मोर-मोरनी, घुँघरू,
सन्थाली झूमुर का लम्बा कसक-भरा आलाप,
रेल का आह की तरह धीरे-धीरे खिंचना, लहरें। (हरी घास पर क्षण भर)
#आँधी-पानी,
नदी किनारे की रेती पर बित्ते-भर की छाँह झाड़ की
अंगुल-अंगुल नाप-नाप कर तोड़े तिनकों का समूह,
लू,
मौन। (हरी घास पर क्षण भर)
#हम अतीत के शरणार्थी हैं;
स्मरण हमारा-जीवन के अनुभव का प्रत्यवलोकन-
हमें न हीन बनावे प्रत्यभिमुख होने के पाप-बोध से। (हरी घास पर क्षण भर)
#आओ बैठो : क्षण-भर :
यह क्षण हमें मिला है नहीं नगर-सेठों की फैयाजी से।
हमें मिला है यह अपने जीवन की निधि से ब्याज सरीखा। (हरी घास पर क्षण भर)
#झिझक न हो कि निरखना दबी वासना की विकृति है! (हरी घास पर क्षण भर)
#और रहे बैठे तो लोग कहेंगे
धुँधले में दुबके प्रेमी बैठे हैं। (हरी घास पर क्षण भर)
#नहीं सुनें हम वह नगरी के नागरिकों से
जिन की भाषा में अतिशय चिकनाई है साबुन की
किन्तु नहीं है करुणा। (हरी घास पर क्षण भर)
यह क्षण हमें मिला है नहीं नगर-सेठों की फैयाजी से।
हमें मिला है यह अपने जीवन की निधि से ब्याज सरीखा। (हरी घास पर क्षण भर)
#झिझक न हो कि निरखना दबी वासना की विकृति है! (हरी घास पर क्षण भर)
#और रहे बैठे तो लोग कहेंगे
धुँधले में दुबके प्रेमी बैठे हैं। (हरी घास पर क्षण भर)
#नहीं सुनें हम वह नगरी के नागरिकों से
जिन की भाषा में अतिशय चिकनाई है साबुन की
किन्तु नहीं है करुणा। (हरी घास पर क्षण भर)
#यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो। (यह दीप अकेला)
#यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
यह गोरस : जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
इस को भी शक्ति को दे दो। (यह दीप अकेला)
है गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो। (यह दीप अकेला)
#यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
यह गोरस : जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
इस को भी शक्ति को दे दो। (यह दीप अकेला)
#जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो। (यह दीप अकेला)
इस को भक्ति को दे दो। (यह दीप अकेला)
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