गुरुवार, 21 मई 2020

अज्ञेय (nta/ugc net/jrf syllabus) की काव्य-पंक्तियां


अज्ञेय (nta/ugc net/jrf syllabus) की काव्य-पंक्तियां


#हम हैं द्वीप, हम धरा नहीं, हम बहते नहीं हैं, क्योंकि बहना रेत होना है।

#मौन भी अभिव्यंजना है। जितना तुम्हारा सच है, उतना ही कहो।

#दुख सबको मांजता है।

#मैं ही हूं वह पदाक्रांत रिरियाता कुत्ता।

#एक क्षण क्षण में प्रवहमान व्याप्त संपूर्णता वंचना है चांदनी सित।

#उड़ चल हारिल, लिए हाथ में यही अकेला ओछा तिनका।

#नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
(कलगी बाजरे की)

#बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।
(कलगी बाजरे की)

#कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है। (कलगी बाजरे की)

#शब्द जादू हैं-
मगर क्या समर्पण कुछ नहीं है
 ? (कलगी बाजरे की)
          
#आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह ! (असाध्य वीणा)

#हठ-साधना यही थी उस साधक की --
वीणा पूरी हुई
, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला। (असाध्य वीणा)

#मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
सबकी विद्या हो गई अकारथ
, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी। (असाध्य वीणा)

#सब उदग्र, पर्युत्सुक,
जन मात्र प्रतीक्षमाण
 ! (असाध्य वीणा)

#राजन! पर मैं तो
कलावन्त हूँ नहीं
, शिष्य, साधक हूँ--
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी। (असाध्य वीणा)

#गा तू :
तेरी लय पर मेरी साँसें
भरें
, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पायें। (असाध्य वीणा)

#तू गा :
मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा
स्मृति का
श्रुति का -- (असाध्य वीणा)

#समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था --
काँपी थी उँगलियाँ।
अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :
किलक उठे थे स्वर-शिशु। (असाध्य वीणा)

#सहसा वीणा झनझना उठी --
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी --
रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया । (असाध्य वीणा)

#अवतरित हुआ संगीत
स्वयम्भू
जिसमें सीत है अखंड
ब्रह्मा का मौन
अशेष प्रभामय । (असाध्य वीणा)

#ईर्ष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता
सभी पुराने लुगड़े-से झड़ गये
, निखर आया था जीवन-कांचन
धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा । (असाध्य वीणा)

#सब अंधकार के कण हैं ये ! आलोक एक है
प्यार अनन्य
 ! उसी की
विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को
,
थिरक उसी की छाती पर उसमें छिपकर सो जाती है
आश्वस्त
, सहज विश्वास भरी। (असाध्य वीणा)

#सबने भी अलग-अलग संगीत सुना। (असाध्य वीणा)

#बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुशबू।
किसी एक को नयी वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि।
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी। (असाध्य वीणा)

#उसे युद्ध का ढाल :
इसे सझा-गोधूली की लघु टुन-टुन --
उसे प्रलय का डमरू-नाद। (असाध्य वीणा)

#श्रेय नहीं कुछ मेरा :
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था --
सुना आपने जो वह मेरा नहीं
,
न वीणा का था
 :
वह तो सब कुछ की तथता थी
(असाध्य वीणा)

#महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य
, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सबमें गाता है। (असाध्य वीणा)

#धीर, आश्वस्त, अक्लांत—
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार... (कितनी नावों में कितनी बार)

#आओ बैठें
इसी ढाल की हरी घास पर। (हरी घास पर क्षण भर)

#आओ, बैठो
तनिक और सट कर
, कि हमारे बीच स्नेह-भर का व्यवधान रहे, बस,
नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की। (हरी घास पर क्षण भर)

#नमो, खुल खिलो, सहज मिलो
अन्त:स्मित
, अन्त:संयत हरी घास-सी। (हरी घास पर क्षण भर)

#पौधे, लता दोलती, फूल, झरे पत्ते, तितली-भुनगे,
फुनगी पर पूँछ उठा कर इतराती छोटी-सी चिड़िया-
और न सहसा चोर कह उठे मन में-
प्रकृतिवाद है स्खलन
क्योंकि युग जनवादी है। (हरी घास पर क्षण भर)

#क्षण-भर हम न रहें रह कर भी :
सुनें गूँज भीतर के सूने सन्नाटे में किसी दूर सागर की लोल लहर की
जिस की छाती की हम दोनों छोटी-सी सिहरन हैं-
जैसे सीपी सदा सुना करती है। (हरी घास पर क्षण भर)

#मसजिद के गुम्बद के पीछे सूर्य डूबता धीरे-धीरे,
झरने के चमकीले पत्थर
, मोर-मोरनी, घुँघरू,
सन्थाली झूमुर का लम्बा कसक-भरा आलाप
,
रेल का आह की तरह धीरे-धीरे खिंचना
, लहरें। (हरी घास पर क्षण भर)

#आँधी-पानी,
नदी किनारे की रेती पर बित्ते-भर की छाँह झाड़ की
अंगुल-अंगुल नाप-नाप कर तोड़े तिनकों का समूह
,
लू
,
मौन। (हरी घास पर क्षण भर)

#हम अतीत के शरणार्थी हैं;
स्मरण हमारा-जीवन के अनुभव का प्रत्यवलोकन-
हमें न हीन बनावे प्रत्यभिमुख होने के पाप-बोध से। (हरी घास पर क्षण भर)

#आओ बैठो : क्षण-भर :
यह क्षण हमें मिला है नहीं नगर-सेठों की फैयाजी से।
हमें मिला है यह अपने जीवन की निधि से ब्याज सरीखा। (हरी घास पर क्षण भर)

#झिझक न हो कि निरखना दबी वासना की विकृति है! (हरी घास पर क्षण भर)

#और रहे बैठे तो लोग कहेंगे
धुँधले में दुबके प्रेमी बैठे हैं। (हरी घास पर क्षण भर)

#नहीं सुनें हम वह नगरी के नागरिकों से
जिन की भाषा में अतिशय चिकनाई है साबुन की
किन्तु नहीं है करुणा। (हरी घास पर क्षण भर)

#यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो। (यह दीप अकेला)

#यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
यह गोरस
: जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
यह अंकुर
 : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत
, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
इस को भी शक्ति को दे दो। (यह दीप अकेला)

#जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो। (यह दीप अकेला)


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