शनिवार, 30 जुलाई 2022

संस्मरण : उस्ताद शायर अबुल मुजाहिद 'ज़ाहिद' की याद

 संस्मरण : उस्ताद शायर अबुल मुजाहिद 'ज़ाहिद' की याद

∆ मुहम्मद इलियास हुसैन


पांच-छ: साल पहले की बात है। भारतीय उपमहाद्वीप में उर्दू के मशहूर शायर अल्लामा अबुल मुजाहिद 'ज़ाहिद' साहब ने एक लाइब्रेरी को भेंटस्वरूप दी गई पुस्तक के अंतिम पृष्ठ पर अपने सुंदर और सुपाठ्य अक्षरों में लिखा था : 

75 साल का मैं हो गया हूं क्या कम-कम ज़्यादा हो गया हूं

उमंगे हैं न कोई आरज़ू है बज़ाहिर जागता हूं सो गया हूं

साहित्य संगम, दिल्ली की एक गोष्ठी में उन्होंने पढ़ा था :

जाने कब टूट जाऊं टहनी से 

ज़र्द पत्ता हूं, थरथराता हूं बर्फ़ का एक पुतला है इंसां

घुलता जाए, घुलता जाए

 मौलाना अबुल मुजाहिद 'ज़ाहिद' साहब लंबी बीमारी के बाद कुछ स्वस्थ होकर अलीगढ़ से दिल्ली आए थे, तो मैंने पूछा था, "मौलाना! अब कैसी तबीयत है?" उन्होंने कहा था, "एक रोग (मौत) के अलावा सारे रोगों ने मेरे जिस्म में आशियाना बना लिया है।"

फिर जब दिल्ली से अलीगढ़ वापस जाने लगे तो मैंने उनसे पूछा था, "दिल्ली फिर कब आएंगे?" उन्होंने कहा, "सेहत ने इजाज़त दी तो इंशाअल्लाह मार्च में आऊंगा।"

और मार्च में मौलाना दिल्ली तो नहीं आ सके; हां, 6 मार्च 2009 को जुम्मा के दिन सुबह 11:00 बजे वहां ज़रूर चले गए, जहां से कोई कभी वापस नहीं आता। वह इस संसार रूपी वृक्ष की टहनी से टूटकर हमेशा-हमेशा के लिए हमसे बिछड़ गए, सदा-सर्वदा के लिए सो गए। आह, बर्फ़ का वह पुतला घुल-घुल कर जल में विलीन हो गया, मिट्टी का पुतला मिट्टी में मिल गया। इन्ना लिल्लाहि व

 इन्ना इलैहि राजिऊन (हम अल्लाह ही के हैं और अल्लाह ही की ओर लौट कर जाने वाले हैं)। 

मौलाना प्रत्येक अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में अपने किरदार का दामन मज़बूती से थामे रहे, कलियों की भांति मुस्कुराते रहे।

जीने का यह सलीक़ा बहुत कम लोगों को आता है :

मिसले-गुल तुम रहो शगुफ़्ता जबीं

मुस्कुराते रहो कली की तरह

अपनी तलवार की धार न गिरा

अपने ग़म को यूं निभाने का सलीक़ा भी किसे

फूल फिर भी हंस रहा है चाक दामां ही सही।

मौलाना का जन्म 28 जून 1928 को लखीमपुरखीरी (यूपी) में हुआ। आगे चलकर रामपुर (यूपी) में बस गए थे और ओरिएंटल कॉलेज रामपुर से फ़ाज़िल (एम.ए. के समकक्ष) की डिग्री हासिल की थी। इसके साथ ही अन्य कई डिग्रियां भी हासिल की थीं। 

वास्तव में मौलाना मर्दे-मुजाहिद थे, आजीवन जीवन-संघर्ष में जुटे रहे :

मेरे बस में क़ियाम है न ख़िराम

सत्हे-दरिया में एक तिनका हूं

हम तो दुनिया से भर पाए फूल लुटाए पत्थर खाए

हम तो ठहरे धूप के राही

हां, तुम जाओ साए साए

मेरी आशाओं का दीपक जलता जाए बुझता जाए

 मेहनत का फल मीठा होता है। जो कांटों भरे रास्ते पर चलकर जीवन-यात्रा पूरी करता है, वही आख़िर में मनोरम, सुवासित एवं आनंददायक पुण्य-लोक प्राप्त करता है :

जो कांटों से चल कर आए

वो फूलों को हाथ लगाए

 मौलाना यूं तो मौजूदा नज़रियाती अदब (विचारधारापरक साहित्य) के रहनुमा और पेशवा थे, परंतु फिर भी किसी तरह की हदबंदी के क़ाइल नहीं थे :

मुझको हदबंदियां क़बूल नहीं 

कुल ज़मीं मेरे घर का आंगन है

 दुनिया की चमक-दमक के बारे में मौलाना ने कहा है :

चमक-दमक सब शबाब तक है

यह धूप बस आफ़ताब तक है

 यह बात आदमी के जिस्म पर, सांसारिक चमक-दमक पर शत-प्रतिशत चरितार्थ होती है, परंतु मौलाना ने 'तगो-ताज़' (काव्य-संग्रह, 1957 ई.), 'खिलती कलियां' (बच्चों की नज़्में, 1957 ई.), 'यदे-बैज़ा' (काव्य-संग्रह, 1998 ई.) इत्यादि कई अमर काव्य-संग्रह का जो ख़ज़ाना आने वाली नस्लों के लिए विरासत के रूप में छोड़ा है, उन संग्रहों के बारे में यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि उनकी की चमक-दमक और रौशनी समय के साथ बढ़ती ही जाएगी, इंशाअल्लाह। इससे नई नस्ल रौशनी हासिल करती रहेगी।

 हिंदी में तो गुरु-शिष्य परंपरा प्रायः मरणासन्न है, लेकिन उर्दू में यह परंपरा आज भी ज़िंदा है। अबुल मुजाहिद 'ज़ाहिद' साहब अरबी, फ़ारसी और उर्दू के मशहूर विद्वान थे। वे 'शायरों के उस्ताद' थे। उदीयमान लेखकों और शायरों के लिए प्रेरणा-स्रोत थे। मौलाना के शागिर्दों की बड़ी संख्या मौजूद है। इन पंक्तियों के लेखक ने उर्दू के छोटे-बड़े अनेक शायरों को अपनी रचनाओं की इस्लाह (सुधार) उनसे करवाते देखा है। वे इन पंक्तियों के लेखक से अक्सर कहा करते थे, "इलियास साहब, लिखिए और लिखते रहिए, कुछ भी लिखिए, लिखते-लिखते ही लिखना आता है।"

जो पारखी नज़र वाले होते हैं, उनकी नज़र हमेशा सर्वोत्तम वस्तु पर होती है।

 मौलाना भी बड़ी गहरी पारखी नज़र वाले थे। तभी तो उन्होंने कहा है : 

चमन में फूल और भी हैं लेकिन 

मेरी नज़र सत्हे-गुलाब तक है 

समाज और देश-दुनिया के मौजूदा हालात पर मौलाना की गहरी नज़र थी। उनके शे'र देखिए :

वह तो धुआं था जलते घरों का 

लोग ये समझते बादल छाए

सोचता हूं कि आज का इंसां

आदमी है कि आदमी की तरह

 कोई उठकर लगाता आदमीयत को गले

कोई हिंदू ही सही, कोई मुसलमां ही सही

बिंब-प्रतिबिंब, प्रतीक और मानवीकरण जैसे अलंकार मौलाना की उंगलियों के इशारे पर नाचते हैं। देखिए उन्होंने अपने मौजूदा समाज तथा देश-दुनिया की भयावह स्थिति का सजीव और सरस वर्णन किया है। दानवता की आग में धू-धू जलती मानवता का बिंब और प्रतीक के माध्यम से कितना सुंदर और सजीव चित्रण किया है :

आग का ये रक्स ये फूलों के जलते पैरहन 

तुम गुलसितां इसको कहते हो गुलसितां ही सही।

 सच कड़वा होता है और इसे तो वहां 'करेला नीम चढ़ा' माना जाता है, जहां झूठों का बोलबाला हो। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि आज पूरी दुनिया में निरंतर झूठ का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, हर जगह झूठ का बोलबाला क़ायम होता जा रहा है, झूठ ने मानो सच का रूप ले लिया है और सच बोलने वालों को तथाकथित शांति-रक्षकों द्वारा मारा और दबाया जा रहा है :

मैं कि एक सच हूं और मीठा हूं

फिर भी लोगों को तल्ख़ लगता हूं 

झूठों की नगरी में ज़ाहिद जो सच बोले मारा जाए।

 मौलाना कहते हैं कि इससे घबराने की ज़रूरत नहीं है। जो ज़िंदा क़ौमें होती हैं, समस्याएं उनकी पहचान होती हैं। ये उनके बढ़ते क़दमों को रोक नहीं पातीं : 

मस्अले ज़िंदा क़ौमों की पहचान हैं

मुर्दा क़ौमौं के कोई मसाइल नहीं।

मौलाना अबुल मुजाहिद 'ज़ाहिद' साहब अपनी अंतिम सांस तक उर्दू भाषा और साहित्य की सेवा में लगे रहे।

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