अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की गद्य-पद्य रचनाएँ : Hindi Sahitya Vimarsh
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अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (15 अप्रैल, 1865-16 मार्च, 1947, निजामाबाद, आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत)। अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने निज़ामाबाद
के प्रसिद्ध विद्वान कवि सुमेरसिंह के उपनाम 'हर सुमेर' के अनुकरण पर अपना उपनाम 'हरिऔध'
रखा।
कवि सम्राट 'हरिऔध' जी का
महाकाव्य 'प्रियप्रवास' हिंदी खड़ी बोली
का प्रथम महाकाव्य है और वे खड़ी बोली के प्रथम महाकवि हैं। इस कृति को 1938 ई.
में 'मंगलाप्रसाद पुरस्कार' प्राप्त हुआ। 'मंगलाप्रसाद पुरस्कार' काशी के एक प्रसिद्ध मंगला
प्रसाद परिवार द्वारा इलाहाबाद स्थित हिंदी साहित्य सम्मेलन के माध्यम से साहित्य के
क्षेत्र में विशेष योगदान देने वाले व्यक्ति को प्रदान किया जाता है, जिसकी स्थापना
पुरुषोत्तम दास टंडन ने की थी।
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की सम्पूर्ण रचनाएँ
• श्रीकृष्ण शतक (1882 ई.,
प्रथम रचना, ब्रजभाषा में)
• रसिक रहस्य (1899 ई.)
• प्रेमाम्बुवारिधि (1900 ई., ब्रजभाषा में, इसमें श्रीकृष्ण की महिमा और उनके
सौन्दर्य का वर्णन और गोपियों की विरह वेदना का मर्मस्पर्शी चित्रण)
• प्रेम प्रपंच (1900 ई.)
• प्रमाम्बुप्रश्रवण (1901 ई.)
• प्रेमाम्बुप्रवाह (1901 ई.,
ब्रजभाषा में, इसमें श्रीकृष्ण की महिमा और उनके सौन्दर्य का वर्णन और गोपियों की विरह
वेदना का मर्मस्पर्शी चित्रण)
• प्रेमपुष्पहार (1904 ई.)
• उदबोधन (1906 ई.)
• काव्योपवन (1909 ई.)
• कर्मवीर (1916 ई.)
• ऋतुमुकुर (1917 ई.)
• चोखेचौपदे (1924 ई.)
• पद्यप्रसून (1925 ई.)
• पद्यप्रमोद (1927 ई.)
• बोलचाल (1928 ई.)
• रसकलश (1931 ई., ब्रजभाषा
में, नायिकाभेद-ग्रंथ, पति-प्रेमिका, परिवार-प्रेमिका, जाति-प्रेमका, लोक-प्रेमिका,
देश-प्रेमिका, इत्यादि नवीन भोदों का
उल्लेख; साथ ही श्रीकृष्ण की महिमा और उनके सौन्दर्य का वर्णन और गोपियों की विरह वेदना
का मर्मस्पर्शी चित्रण)
• फूल-पत्ते (1935 ई.)
• कल्पलता (1937 ई.)
• ग्राम-गीत (1938 ई.)
• बालक कवितावली (1939 ई.)
• हरिऔध सतसई (1940 ई.)
• मर्मस्पर्श (1956 ई.)
• पवित्र पर्व
• दिव्य दोहावली
प्रबंधकाव्य
• प्रियप्रवास (1914 ई., 17
सर्गों में विभाजित, पहले इस ग्रंथ का नाम ब्रजांगनाविलाप
था, प्रियप्रवास की कथावस्तु का आधार श्रीमद्भागवत का दशम स्कंध है और स्वयं कवि ने इसे महकाव्य कहा है।)
• पारिजात (1936 ई., 15 सर्ग में विभाजित, धार्मिक और
आध्यात्मिक विषयों पर आधारित, दार्शनिक तत्त्वों के आधार पर सर्गों का नामकरण — दृश्यजगत्,
अन्र्जगत्. सांसारिकता, स्वर्ग, कर्म-विपाक, प्रलय-प्रपंच, सत्य का स्वरूप,
परमानन्द इत्यादि, स्वयं कवि ने इसे महकाव्य कहा है।)
• वैदेही वनवास (1940 ई., 18
सर्ग, वाल्मीकि रामायण पर आधारित, राम के द्वारा सीता के निर्वासन की कथा का वर्णन,
स्वयं कवि ने इसे महकाव्य कहा है।)
मुक्तक काव्य
चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, कल्पलता, बोलचाल, पारिजात, हरिऔध
सतसई।
नाटक
• प्रदुम्न विजय (1893 ई., व्यायोग)
• रुक्मणी परिणय (1894 ई.)
(हरिऔध जी के नाटकों को 'दृश्य
बंध-संवाद-काव्य' कहा गया है।)
उपन्यास
• प्रेमकान्ता
(1894 ई., प्रथम उपन्यास)
• ठेठ हिन्दी का ठाठ या देवबाला
(1899 ई.)
• अधखिला फूल (1907 ई.)
आलोचना
• हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास
(1930 ई.)
• विभूतिमती ब्रजभाषा
• साहित्य सन्दर्भ
संपादन
• कबीर वचनावली (1917 ई., भूमिका)
ललित निबंध
• संदर्भ सर्वस्व
आत्मकथा
• इतिवृत्त
अनुवाद
• वेनिस का बाँका
• रिपवान विकिल
• नीति-निबंध
• उपदेश-कुसुम
• विनोद-वाटिका
• स्फुट काव्य-संग्रह
पुरस्कार/सम्मान
1922 ई. हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति
1934 ई. हिंदी साहित्य सम्मेलन के चौबीसवें अधिवेशन,
दिल्ली के सभापति
1937 ई. नागरी प्रचारिणी
सभा,
आरा की ओर से डॉ. राजेंदप्रसाद द्वारा अभिनंदन ग्रंथ भेंट (12 सितंबर 1937 ई.)
1938 ई. 'प्रियप्रवास' पर 'मंगलाप्रसाद पुरस्कार'
काव्य-पंक्तियाँ
• पुत्र-वियोग में व्यथित
यशोदा का करुण चित्र देखिए—
प्रिय प्रति वह मेरा प्राण
प्यारा कहाँ है?
दुःख जल निधि डूबी का सहारा
कहाँ है?
लख मुख जिसका मैं आजलौं जी
सकी हूँ।
वह ह्रदय हमारा नैन तारा कहाँ
है? —प्रियप्रवास
• हरिऔध जी ने श्रीकृष्ण को
ईश्वर रूप में न दिखा कर, आदर्श मानव और लोक-सेवक के रूप में चित्रित किया है।
उन्होंने स्वयं श्रीकृष्ण के मुख से कहलवाया है—
विपत्ति से रक्षण सर्वभूत का,
सहाय होना असहाय जीव का।
उबारना संकट से स्वजाति का,
मनुष्य का सर्व प्रधान धर्म
है। —प्रियप्रवास
• राधा का अपने प्रियतम कृष्ण
के वियोग का दुख सह कर भी लोक-हित की कामना करती हैं—
प्यारे जीवें जग-हित करें, गेह चाहे न आवें। —प्रियप्रवास
• कृष्ण के वियोग में ब्रज के
वृक्ष भी रोते हैं—
फूलों-पत्तों सकल पर हैं
वादि-बूँदें लखातीं,
रोते हैं या विपट सब यों
आँसुओं की दिखा के। —प्रियप्रवास
• संध्या का एक सुंदर दृश्य
देखिए—
दिवस का अवसान समीप था,
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु शिखा पर थी जब राजती,
कमलिनी-कुल-वल्लभ का प्रभा। —प्रियप्रवास
• राधा का रूप-वर्णन करते समय
उनकी भाषा देखिए—
रूपोद्याम प्रफुल्ल प्रायः
कलिका राकेंदुबिंबानना,
तन्वंगी कलहासिनी सुरसिका
क्रीड़ा-कला पुत्तली।
शोभावारिधि की अमूल्य मणि-सी
लावण्यलीलामयी,
श्रीराधा मृदुभाषिणी मृगदृगी माधुर्यसन्मूर्ति
थी। —प्रियप्रवास
• भ्रमण ही करते सबने उन्हें
सकल का लक्खा सप्रसन्नता।
रजनि भी उनकी कटती रही,
स-विधि-रक्षण में ब्रज-लोक
के।
लख अपार प्रसार गिरींद्र में,
ब्रज-धराधिप के प्रिय-पुत्र
का,
सकल लोग लगे कहने उसे
रख लिया उंगली पर श्याम ने। —प्रियप्रवास
• बावरी ह्वै जाती बार-बार कहि
वेदन को
विलखि-विलखि जो विहारथल रोती ना।
पीर उठे हियरो हमरो टूक टूक होत,
ध्याइ प्राणनाथ जो कसक निज खोती
ना।
प्यारे हरिऔध के पधारे परदेस दोऊ,
नैन नसि जात जो समन संग सोती ना।
तनु जारी जातो न अँसुआ ढरत ऊधौ
प्राण कढ़ि जातो जो प्रतीत उर
होती ना। —प्रेममाम्बुप्रवाह
• धीरे धीरे दिन गत हुआ, पद्मिनीनाथ
डूबे।
आई दोषा, फिर गत हुई, दूसरा बार
आया।।
यों ही बीती विपुल घटिका और कई
बार बीते।
आया कोई न मधुपुर से औ न गोपाल
आए।।
• चाहे मर्द चाहे माल ही चाबा
करे,
औरतें पीती रहेंगी मांड ही।
क्यों न रडुँवे ब्याह कर ले बीसियों,
पर रहेंगी राँड सब दिन राँड ही।
• उमंगो भरा दिल किसी का न टूटे
पलट जाएँ पाँसे मगर जुग न फूटे,
कभी संग निज संगियों का न छूटे,
हमारा चलन घर हमारा न लूटे,
सगों से सगे कर न लेवें किनारा,
फटे दिल मगर घर न फूटे हमारा।
• प्यारे जीवैं पुलकित रहें औ
बनें भी उन्हीं के।
धाई नाते वदन दिखला एकदा और देवें।।
—प्रियप्रवास
• अब हृदय हुआ है और मेरे सखा
का।
अहह वह नहीं तो क्यों सभी भूल
जाते।
यह नित नव-कुंज भूमि शोभा-निधाना।
प्रति दिवस उन्हें तो क्यों नहीं
याद आती।। —प्रियप्रवास
• हृदय चरण तो मैं बढ़ा ही चुकी
हूं,
सविधि वरण की थी कामना और मेरी।
पर सफल हमें सो है न होती दिखती
दिखाती,
वह कब टलता है भाल में जो
लिखा है। —प्रियप्रवास
• विकसिता कलिका हिमपात से
तुरत ज्यों बनती अति म्लान है।
सुन प्रसंग मुकुंद प्रवास का।
मलिन ज्यों वृषभानु सुता हुई।
—प्रियप्रवास
• सरस-सुंदर सावन-मास था,
घन रहे नभ में घिर घूमते
विलसती बहुधा जिनमें रही,
छविवती उड़ती-बक-मालिका।
धहराताता गिरि-सानु समीप था,
बरसता छिति छू नव-वारि था।
घन कभी रवि-अंतिगअंशु ले,
गगन में रचता बहु-चित्र था। —प्रियप्रवास
• प्यारी आशा प्रिय मिलन की नित्य
है दूर होती।
कैसे एसे कठिन पथ का पांथ मैं
हो रहा हूं। —प्रियप्रवास
• जी से प्यारा जगत हित और लोक
सेवा जिसे है।
प्यारा सच्चा अवनितल में आत्म
त्यागी वही है। —प्रियप्रवास
• जनक नंदिनी ने दृग से आते आंसू
को रोक कहा।
प्राणनाथ सब तो सह लूंगी क्यों
जाएगा विरह सहा।।
सदा आपका चंद्रानन अवलोके ही मैं
जीती हूं।
रूप-माधुरी-सुधा तृषित चकौरिका-सम-पीती
हूं। —वैदेही वनवास
• चौपदों की भाषा का नमूना
देखिए—
नहीं मिलते आँखों वाले, पड़ा अंधेरे से है पाला।
कलेजा किसने कब थामा, देख छिलते दिल का छाला।। —दिल का छाला
• कहें क्या बात आंखों की, चाल चलती हैं मनमानी।
सदा पानी में डूबी रह, नहीं रह सकती हैं पानी।
लगन है रोग या जलन, किसी को कब यह बतलाया।
जल भरा रहता है उनमें, पर उन्हें प्यासी ही पाया। — प्यासी आँखें
उद्धरण⁄कथन
• ''इनकी यह एक सबसे बड़ी विशेषता है कि ये हिंदी के सार्वभौम
कवि हैं। खड़ी बोली, उर्दू के
मुहावरे,
ब्रजभाषा, कठिन-सरल
सब प्रकार की कविता की रचना कर सकते हैं।'' —सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
''अब मुझे केवल इतना ही कहना
है कि समय का प्रवाह खड़ीबोली के अनुकूल है, इस समय खड़ीबोली में अधिक उपकार की
आशा है। अतएव मैंने भी 'प्रियप्रवास' को खड़ीबोली में ही लिखा है..... वास्तव में
बात यह है कि यदि उसमें कान्तता और मधुरता नहीं आई है, तो यह मेरी विद्या, बुद्धि
और प्रतिभा का दोष है, खड़ीबोली का नहीं।'' —'प्रियप्रवास' भूमिका से
• वेंकटेश तिवारी ने
'सरस्वती' में लिखे अपने एक लेख में 'रसकलश' को हरिऔध का बुढभस कहा है।
• ये हिंदी के सार्वभौम कवि
हैं। खड़ी बोली, उर्दू के मुहावरे, ब्रजभाषा, कठिन सरल सब प्रकार की ये कविता कर
सकते हैं। —सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
• डॉ. गणपति चंद्रगुप्त ने
हरिऔध को 'हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास' में 'आधुनिक काल का सूरदास' कहा है।
• 'प्रियप्रवास' का मूल भाव
रति नहीं, प्रेम है।.....रति या प्रणय का आदार वासना होती है, उसका क्षेत्र सीमित
होता है और उसका आलंबन सदा भिन्न लैंगिक व्यक्ति होता है, जबकि प्रेम में वासना की
अपेक्षा भावना का प्राबल्य होता है, उसका क्षेत्र अत्यंत व्यापक होता है तथा उसका
प्रसार समलैंगिक, भिन्नलैंगिक, छोटे-बड़े
मानव, पशु-पक्षी आदि सब तक होता है।.....प्रेम के अंतर्गत प्रणय, स्नेह, भ्रातृत्व,
सख्य, मैत्री, वात्सल्य, करुणा आदि का समावेश हो जाता है। 'प्रियप्रवास' में प्रेम
के प्रायः सभी रूपों की अभिव्यक्ति मार्मिक रूप में हुई है। —गणपति चंद्रगुप्त,
हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास
• ''यह सब यह काव्य अधिकतर भाव
व्यंजनात्मक और वर्णनात्मक है। कृष्ण के चले जाने पर ब्रज की दशा का वर्णन बहुत
अच्छा है। विरह-वेदना से क्षुब्ध वचनावली प्रेम की अंतर्दशाओं की व्यंजना करती हुई
बहुत दूर तक चली चलती है। ऐसा इसके नाम से प्रकट है, इसकी कथावस्तु एक महाकाव्य या
अच्छे प्रबंधकाव्य के लिए अपर्याप्त है।'' — आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य
का इतिहास
''किन्तु न तो शैलीगत नवीनता
के कारण ही कोई काव्य महाकाव्य हो सकता है और न तो पुरानी परिपाटी का अनुसरण करने
से ही यह संभव है। महाकाव्य के लिए जीवन की जो संपूर्णता और उदात्तता अपेक्षित
होती है, उसका इसमें नितांत अभाव है।'' —डॉ. बच्चन सिंह, आधुनिक हिंदी साहित्य का
इतिहास
''शुक्ल जी से सरलतापूर्वक सहमत
नहीं हुआ जा सकता। प्रबंध-काव्य-संबंधी कुछ थोड़ी-सी रूढ़ियों को छोड़ दिया जाए तो
इस काव्य में प्रबंधत्व का दर्शन आसानी से किया जा सकता है। यह सच है कि ऊपर से
देखने पर इसका कथानक प्रवास-प्रसंग तक ही सीमित है, किन्तु हरिऔदजी ने अपने कल्पना-कौशल
द्वारा एसी सीमित क्षेत्र में श्रीकृष्ण के जीवन की झांकियां प्रस्तुत करने के अवसर
ढूंढ निकाले हैं।'' —हिंदी साहित्य कोश, भाग-2, पृ. 22
• ''इस काव्य के प्रत्येक
शब्द और प्रत्येक पंक्ति में सरसता साकार हो गई, संगीत का-सा स्वर- माधुर्य एवं पद
नूपुरों की-सी झंकार उसके प्रत्येक चरण में द्वनित हो उठी और बिना कवित्त-सवैये के,
बिना घनाक्षरी के, बिना राग-रागिनियों के और इतना ही नहीं, बिना तुक के भी उसने
छंदों में कुछ ऐसी थिरकन, कुछ ऐसा लास्य, कुछ ऐसा चमत्कार भर दिया कि वीणा के
स्वरों की भांति गुंजरित हो उठे। लगता है हरिऔधजी ने सीधी-सादी भाषा को अलंकृति,
नृत्य और संगीत की विधाओं में पारंगत करके उसे अनूठा आकर्षण और अद्भुत मोहन-शक्ति
प्रदान कर दी।'' — प्रियप्रवास के संबंध में गणपति चंद्रगुप्त, हिंदी साहित्य का
वैज्ञानिक इतिहास, पृ. 58
• ''इसकी विषय-वस्तु विचार-प्रधान,
गंभीर एवं उदात्त है, किंतु उसकी दार्शनिकता ने काव्यात्मक आवरण धारण करने में
कितनी सफलता प्राप्त की है, यह संदिग्ध है। वस्तुतः इसमें कवि के पौढ़ चिंतन एवं
गंभीर ज्ञान की अभिव्यक्ति होते हुए भी काव्य की दृष्टि से इसे अधिक सफलता नहीं
मिली। फिर भी यह रचना उपेक्षनीय नहीं है।'' —'पारिजात' पर गणपति चंद्रगुप्त, हिंदी
साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास
• ''यह काव्य तो अनेक अंशों
में 'प्रियप्रवास' की अपेक्षा सीमित तथा फलक और काव्यात्मकता मैं अपकर्षणपूर्ण है।
'वैदेही वनवास' का आदर्शवाद वाल्मिक, कालिदास तथा भवभूति के यथार्थ के विरुद्ध
पड़ता है। 'वैदेही वनवास' के सीता-राम हाड़-मांस के मनुष्य न होकर आर्यसमाजी आदर्श
के धोखे हैं।'' —डॉ बच्चन सिंह, आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-114
''उपाध्यायजी ने अपने इस काव्य
में कई जगह संस्कृत शब्दों की ऐसी लंबी लड़ी बांधी है कि हिंदी को 'है', 'था', 'किया',
'दिया' ऐसी दो-एक क्रियाओं के भीतर ही सिमट कर रह जाना पड़ा है। पर सर्वत्र यह बात
नहीं है। अधिकतर पदों में बड़े ढंग से हिंदी अपनी चाल पर चली चलती दिखाई पड़ती है।'' —रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 581
प्रमुख कविताएँ
• अनूठी बातें
• अपने को न भूलें
• अपने दुखड़े
• अभिनव कला
• अभेद का भेद
• अविनय
• आँख का आँसू
• आँसू और आँखें
• आँसू
• आती है
• आ री नींद
• आदर्श
• आशालता
• उद्बोधन
• उलहना
• एक उकताया
• एक तिनका
• एक बूँद
• एक विनय
• उलटी समझ
• एक काठ का टुकड़ा
• कमनीय कामनाएँ
• कविकीर्ति
• कुछ उलटी सीधी बातें
• कुसुम चयन
• कोयल
• कर्मवीर
• क्या होगा
• क्या से क्या
• कृतज्ञता
• खद्योत
• गौरव गान
• गुणगान
• घनश्याम
• घर देखो भालो
• चंदा मामा
• चतुर नेता
• चमकीले तारे
• चूँ चूँ चूँ चूँ म्याऊँ म्याऊँ
• जुगनू
• जगाए नहीं जागते
• जन्मभूमि
• जागो प्यारे
• चाहिए
• जीवन
• जीवन-मरण
• दमदार दावे
• दिल के फफोले
• नादान
• निराला रंग
• निर्मम संसार
• परिवर्तन
• पुण्यसलिला
• पुष्पांजलि
• पूर्वगौरव
• प्रार्थना
• प्रेम
• प्यासी आँखें
• फूल
• फूल और काँटा
• बंदर और मदारी
• बन-कुसुम
• बनलता
• बांछा
• बादल
• भगवती भागीरथी
• भारत-गगन
• भारत
• भाषा
• भोर का उठना
• मर्म-व्यथा
• मनोव्यथा
• माता-पिता
• मयंक
• माधुरी
• मांगलिक पद्य
• मतवाली ममता
• मीठी बोली
• ललना-लाभ
• ललितललाम
• लानतान
• वक्तव्य
• वर वनिता
• विकच वदन
• विबोधन
• विद्यालय
• विवशता
• विषमता
• संध्या
• सरिता
• समझ का फेर
• सेवा
• सुशिक्षा-सोपान
• स्वागत
• हमारा पतन
• हमारे वेद
• हमें चाहिए
• हमें नहीं चाहिए
• हिंदी भाषा
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