बुधवार, 18 सितंबर 2019

परिवर्तन-1 (सुमित्रनंदन पंत की लम्बी कविता), NTA/UGCNET/JRF के नए सिलेबस में सम्मिलित : Hindi Sahitya Vimarsh

परिवर्तन-1  (सुमित्रनंदन पंत की लम्बी कविता)NTA/UGCNET/JRF के नए सिलेबस में सम्मिलित : Hindi Sahitya Vimarsh

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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास

रोला छन्द में रचित सुमित्रानंदनपंत की कविता 'परिवर्तन' (अप्रैल, 1924 ई.) एक लम्बी कविता है। यह कविता उनके तीसरे काव्य-संग्रह 'पल्लव' (1928 ई.) में संकलित है। 'पल्लव' की भूमिका को समीक्षों ने 'छायादाद का घोषणापत्र' का नाम दिया है।
कविवर सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई 1900 को कौसानी, उत्तराखण्ड में और मृत्यु 28 दिसंबर, 1977 ई. प्रयाग उत्तर प्रदेश (भारत) में।

परिवर्तन
(1)
कहां आज वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगंत-छबि-जाल,
ज्योति-चुम्बित जगती का भाल?
राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार!
प्रसूनों के शाश्वत-शृंगार,
(स्वर्ण-भृंगों के गंध-विहार)
गूंज उठते थे बारंबार,
सृष्टि के प्रथमोद्गार!
नग्न-सुंदरता थी सुकुमार,
ॠद्धि औ'  सिद्धि अपार!
अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात,
कहाँ वह सत्य, वेद-विख्यात?
दुरित, दु:ख-दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा-मरण भ्रू-पात!
(2)
हाय ! सब मिथ्या बात !
आज तो सौरभ का मधुमास
शिशिर में भरता सूनी साँस !
वही मधुऋतु की गुंजित डाल
झुकी थी जो यौवन के भार,
अकिंचनता में निज तत्काल
सिहर उठती, -जीवन है भार !
आज पावस नद के उद्गार
काल के बनते चिह्न कराल
प्रात का सोने का संसार;
जला देती संध्या की ज्वाल ।
अखिल यौवन के रंग उभार
हड्डियों के हिलते कंकाल;
कचों के चिकने, काले व्याल
केंचुली, कांस, सिवार;
गूँजते हैं सबके दिन चार,
सभी फिर हाहाकार !
(3)
आज बचपन का कोमल गात
जरा का पीला पात !
चार दिन सुखद चाँदनी राल
और फिर अन्धकार, अज्ञात !
शिशिर-सा झर नयनों का नीर
झुलस देता गालों के फूल,
प्रणय का चुम्बन छोड़ अधीर
अधर जाते अधरों को भूल !
मृदुल होंठों का हिमजल हास
उड़ा जाता नि:श्वास समीर,
सरल भौंहों का शरदाकाश
घेर लेते घन, घिर गम्भीर !
शून्य सांसों का विधुर वियोग
छुड़ाता अधर मधुर संयोग;
मिलन के पल केवल दो, चार,
विरह के कल्प अपार !
अरे, ये अपलक चार-नयन
आठ-आँसू रोते निरुपाय;
उठे-रोओँ के आलिंगन
कसक उठते काँटों-से हाय !
(4)
किसी को सोने के सुख-साज
मिल गये यदि ॠण भी कुछ आज,
चुका लेता दुख कल ही व्याज,
काल को नहीं किसी की लाज !
विपुल मणि-रत्नों का छबि-जाल,
इन्द्रधनु की-सी छटा विशाल
विभव की विद्युत्-ज्वाल
चमक, छिप जाती है तत्काल;
मोतियों-जड़ी ओस की डार
हिला जाता चुपचाप बयार !
(5)
खोलता इधर जन्म लोचन,
मूँदती उधर मृत्यु क्षण, क्षण;
अभी उत्सव औ' हास-हुलास,
अभी अवसाद, अश्रु, उच्छ्वास !
अचिरता देख जगत की आप
शून्य भरता समीर नि:श्वास,
डालता पातों पर चुपचाप,
ओस के आँसू नीलाकाश;
सिसक उठता समुद्र का मन
सिहर उठते उडगन !
(7)
अहे निष्ठुर परिवर्तन!
तुम्हारा ही तांडव नर्तन
विश्व का करुण विवर्तन!
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान, पतन!
अहे वासुकि सहस्र फन!
लक्ष्य अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरंतर
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर !
शत-शत फेनोच्छ्वासित,स्फीत फुतकार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर !
मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पान्तर ,
अखिल विश्व की विवर,
वक्र कुंडल
दिग्मंडल !
(7)
अहे दुर्जेय विश्वजित !
नवाते शत सुरवर नरनाथ
तुम्हारे इन्द्रासन तल माथ;
घूमते शत-शत भाग्य अनाथ,
सतत रथ के चक्रों के साथ !
तुम नृशंस से जगती पर चढ़ अनियंत्रित ,
करते हो संसृति को उत्पीड़न, पद-मर्दित ,
नग्न नगर कर, भग्न भवन, प्रतिमाएँ खंडित
हर लेते हो विभव, कला, कौशल चिर संचित !
आधि, व्याधि, बहुवृष्टि, वात, उत्पात, अमंगल
वह्नि, बाढ़, भूकम्प, तुम्हारे विपुल सैन्य दल;
अहे निरंकुश ! पदाघात से जिनके विह्वल
हिल-हिल उठता है टल-मल
पद-दलित धरातल !
(8)
जगत का अविरत हृतकंपन
तुम्हारा ही भय सूचन ;
निखिल पलकों का मौन पतन
तु     म्हारा ही आमंत्रण !
विपुल वासना विकच विश्व का मानस-शतदल
छान रहे तुम, कुटिल काल-कृमि-से घुस पल-पल;
तुम्हीं स्वेद-सिंचित संसृति के स्वर्ण-शस्य-दल
दलमल देते, वर्षोपल बन, वांछित कृषिफल !
अये, सतत ध्वनि स्पंदित जगती का दिग्मंडल
नैश गगन-सा सकल
तुम्हारा ही समाधिस्थल !
(9)
काल का अकरुण मृकुटि विलास
तुम्हारा ही परिहास;
विश्व का अश्रु-पूर्ण इतिहास
तुम्हारा ही इतिहास ।
एक कठोर कटाक्ष तुम्हारा अखिल प्रलयकर
समर छेड़ देता निसर्ग संसृति में निर्भर;
भूमि चूम जाते अभ्र ध्वज सौध, श्रृंगवर,
नष्ट-भ्रष्ट साम्राज्य--भूति के मेघाडंबर !
अये, एक रोमांच तुम्हारा दिग्भू कंपन,
गिर-गिर पड़ते भीत पक्षि पोतों-से उडुगन;
आलोड़ित अंबुधि फेनोन्नत कर शत-शत फन,
मुग्ध भूजंगम-सा, इंगित पर करता नर्तन ।
दिक् पिंजर में बद्ध, गजाधिप-सा विनतानन,
वाताहत हो गगन
आर्त करता गुरु गर्जन ।
(10)
जगत की शत कातर चीत्कार
बेधतीं बधिर, तुम्हारे कान !
अश्रु स्रोतों की अगणित धार
सींचतीं उर पाषाण !
अरे क्षण-क्षण सौ-सौ नि:श्वास
छा रहे जगती का आकाश !
चतुर्दिक् घहर-घहर आक्रांति ।
ग्रस्त करती सुख-शांति !
(11)
हाय री दुर्बल भ्रांति !
कहाँ नश्वर जगती में शांति ?
सृष्टि ही का तात्पर्य अशांति !
जगत अविरत जीवन संग्राम,
स्वप्न है यहाँ विराम !
एक सौ वर्ष, नगर उपवन,
एक सौ वर्ष, विजन वन !
यही तो है असार संसार,
सृजन, सिंचन, संहार !
आज गर्वोन्नत हर्म्य अपार,
रत्न दीपावलि, मंत्रोच्चार;
उलूकों के कल भग्न विहार,
झिल्लियों की झनकार !
दिवस निशि का यह विश्व विशाल
मेघ मारुत का माया जाल !
(12)
अरे, देखो इस पार
दिवस की आभा में साकार
दिगंबर, सहम रहा संसार !
हाय, जग के करतार !
प्रात ही तो कहलाई मात,
पयोधर बने उरोज उदार,
मधुर उर इच्छा को अज्ञात
प्रथम ही मिला मृदुल आकार;
छिन गया हाय, गोद का बाल,
गड़ी है बिना बाल की नाल !
अभी तो मुकुट बँधा था माँथ,
हुए कल ही हलदी के हाथ;
खुले भी न थे लाज के बोल,
खिले भी चुंबन शून्य कपोल:
हाय ! रुक गया यहीं संसार
बना सिंदूर अंगार !
वात हत लतिका यह सुकुमार
पड़ी है छिन्नाधार !!
(13)
कांपता उधर दैन्य निरुपाय,
रज्जु-सा, छिद्रों का कृश काय !
न उर में गृह का तनिक दुलार,
उदर ही में दानों का भार !
भूँकता सिड़ी शिशिर का श्वान
चीरता हरे ! अचीर शरीर;
न अधरों में स्वर, तन में प्राण,
न नयनों ही में नीर !
(14)
सकल रोओं से हाथ पसार
लूटता इधर लोभ गृह द्वार;
उधर वामन डग स्वेच्छाचार
नापता जगती का विस्तार !
टिड्डियों-सा छा अत्याचार
चाट जाता संसार !
(15)
बजा लोहे के दंत कठोर
नचाती हिंसा जिह्वा लोल;
भृकुटि के कुंडल वक्र मारोर
फुहुँकता अंध रोष खोल !
लालची गीधों-से दिन-रात
नोचते रोग शोक नित गात
अस्थि-पंजर का दैत्य दुकाल,
निगल जाता निज बाल !
(16)
बहा नर शोणित मूसलाधार,
रुंड मुंडो की कर बौछार,
प्रलय घन-सा घिर भीमाकार
गरजता है दिगंत संहार !
छेड़ कर शस्त्रों की झंकार
महाभारत गाता संसार !
कोटि मनुजों के, निहत अकाल,
नयन मणेयों से जटित कराल
अरे, दिग्गज सिंहासन जाल
अखिल मृत देशों के कंकाल;
मोतियों के तारक लड़ हार
आंसुओं के श्रृंगार !
(17)
रुधिर के हैं जगती के प्रात,
चितानल के ये सायंकाल;
शून्य निःश्वासों के आकाश,
आंसुओं के ये सिंधु विशाल;
यहां सुख सरसों, शोक सुमेरु,
अरे जग है जग का कंकाल ! !
वृथा ये अरण्य चीत्कार,
शांति सुख है उस पार !

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