बुधवार, 11 सितंबर 2019

देवरानी जेठानी की कहानी, भाग-2 (हिन्दी का प्रथम उपन्यास, पं. गौरीदत्‍त शर्मा), NTA NET/JRF के नए पाठ्यक्रम में शामिल : HindiSahitya Vimarsh

देवरानी जेठानी की कहानी, भाग-2 (हिन्दी का प्रथम उपन्यास, पं. गौरीदत्‍त शर्मा), NTA NET/JRF के नए पाठ्यक्रम में शामिल : HindiSahitya Vimarsh



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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास

प्रमुख पात्र 
सर्वसुख-मेरठ का अग्रवाल बनिया
मुंशी टिकत नारायण तथा हरसहाय काबलीशहर के अमीर
सर्वसुख की संतानबड़ी बेटी का नाम पार्वती, छोटी का नाम सुखदेई, बड़े बेटे का नाम दौलत राम, छोटे का नाम छोटे-छोटे पुकारने के कारण छोटे पड़ गया।

एक बिरिया ऐसा माँदा हुआ कि सबने आस छोड़ दी थी। बकरी के दूध से आराम हुआ था। और एक दिन छोटे लाल आपने साहब की चिट्ठी लिखवा के बड़े डाक्‍टर के पास भी नन्‍हे को ले गया था। डाक्‍टर ने कहा कि जब बच्‍चे के दाँत निकलते हों उसको जंगलों और मैदानों की बहुत सबेरे रोज-रोज हवा खिलायी जाय। इससे अच्‍छी और कोई दवा नहीं है।
छोटेलाल ने अपने नौकर को हुक्‍म दिया कि जब तक गडूलना बने, नन्‍हे को गोद में ले के गोलक बाबू के बाग तक रोज हवा खिला लाया कर।
और नन्‍हे जब दो वर्ष का हुआ गडूलने में बैठा कर सूर्य्य कुण्‍ड तक भेजने लगे और बहुत करके लाला छोटेलाल आप भी गडूलने के साथ जाया करें थे। इससे नन्‍हें का सब रोग जाता रहा और शरीर में बल आया।
रात को दोनों स्‍त्री-पुरुष उसे खिलाते और बड़े मगन होते। जब छोटेलाल कहता आओ नन्‍हे मेरे पास आओ। वह चट चला जाता और जब उसकी माँ कहती आओ हमारे पास आओ हम चीजी देंगे वह न आता। तब दोनों हँस पड़ते। और कभी माँ की खाट पै से बाप की खाट पै चला जाता और कभी रोके फिर चला आता। यह दोनों उसका तमाशा देखा करें थे। जब छोटेलाल किसी प्रकार के संदेह में होता यह चाचा-चाचा कह के उससे लिपट जाता उसका सन्‍देह जाता रहता। और उसे गोद में उठा के खिलाने लगता। और कभी कहता कि नन्‍हें को अँग्रेजी पढ़ाके रुड़की कालेज में भेजेंगे और इंजिनियर बनावेंगे। उसकी घरवाली कहती कि नहीं इस्‍कू तो तुम व‍कील बनाना। मेरा ताऊ आगरे में वकील है। हजारों रुपये महीने की आमदनी है और घर के घर है किसी का नौकर नहीं।
एक दिन बड़े लाला बाहर चबूतरे पर पोते और पोती को खिला रहे थे। जो कोई लाला का मिलापी उधर जाता लाला कहते सलाम कर भाई यह भी तेरे चाचा हैं। नन्‍हें अपने सिर पर हाथ रख लेता। वह हँस पड़ते और कहते जीते रहो।
इतने में दिल्‍ला पाँडे आए। पहिले लाला ने आप पालागन की फिर लड़के से बोले कि हाथ जोड़ पालागन कर, यह हमारे पुरोहित हैं।
उन्‍होंने कहा सुखी रहो लाला और फिर बोले, सर्बसुख जी, यह लड़का बड़ा बुद्धिमान और भाग्‍यवाला होगा क्‍योंकि इसके छीदे दाँत हैं, चौड़ा माथा है और हँसमुख है। इसकी सगाई बड़े घर की लेना।
लाला ने कहा देखो महाराज, तुम्‍हारी दया चाहिए। परमेश्‍वर ने बुढ़ापे में यह सूरत दिखाई है। कहीं जीवे सगाई बधाई तो पीछे हैं।
पाँडेजी ने कहा लाला साहब, दौलत राम की लड़की दुबली क्‍यों है?
उन्‍होंने कहा महाराज, माँदी थी, और चुप हो रहे।
अब दौलतराम की लड़की तीन वर्ष की हो गई थी और जब दो ही वर्ष की थी एक दिन दौलतराम की बहु उसे छोटी दिल्‍ली और बड़ी दिल्‍ली दिखला रही थी और घू-घू माँऊ के खिला रही थी अर्थात कभी उछालती और लपकती और कभी पैरों पर बिठा के उसे नीचे करती। इससे लौंडिया की हँसली उतर गई। रोयी और चिल्‍लायी बहुत। वह तो सिबिया की चाची एक पड़ौसन थी। उसे बुलाया। उसने आके चढ़ायी।
एक बिरियाँ ऐसा ही और हुआ था कि यह अपनी लौंडिया को खशखश बराबर नित अफयून दिया करे थी। वह इसलिए कि वह अपने काम धंधे में लगी रही थी, वा चर्ख-पूनी किया करती। लौंडिया नशे में खटोले पर पड़ी हुई खेला करती। एक दिन लौंडिया का जी अच्‍छा नहीं था। रोवे बहुत थी। उसने जाना कि इसका नशा उतर गया है, चने बराबर और दे दी। थोड़ी देर पीछे मुँह में झाग-झाग हो गए। हुचकी भरने लगी। यह हाल देख सुखदेई की माँ ने दौलत राम को दुकान से बुलवाया। वह हकीम जी को लाया। तब उन्‍होंने रद्द करने की दवा दी। उससे कुछ आराम पड़ा और लौंडिया मरती-मरती बची।
दौलत राम की बहु की भनेली जिसका नाम नथिया था, कोट पर रहे थी और कभी-कभी इसके पास आया करे थी। उसका मालिक साहब लोगों में कपड़े की फेरी-फिरा करे था। (दीनानाथ कपड़े वाले की दूकान पर नौकर था।) जब सायंकाल को सारे दिन का हारा-थका घर आता, नून-तेल का झीकना ले बैठती। कभी कहती मुझे गहना बना दे, रोती-झींकती, लड़ती-भिड़ती, उसे रोटी न करके देती। कहती कि फलाने की बहु को देख, गहने में लद रही है। उसका मालिक नित नयी चीज़ लावै है। मेरे तो तेरे घर में आके भाग फूट गए। वह कहता, अरी भागवान, जाने भगवान रोटियों की क्‍यों कर गुजारा करे है। तुझे गहने-पाते की सूझ रही है?
एक न सुनती। रात-दिन क्‍लेश रखती। वह दु:खी होकर निकल गया और अपनी चिट्ठी भी नहीं भेजी।
एक दिन वह अपनी भनेली से मिलने आई थी। वह तो घर नहीं थी, छोटेलाल की बहु के पास चली गई। उसने बड़े आदर सम्‍मान से उसे बिठाया और पूछा कि तुम्‍हारा क्‍या हाल है? उसने सारी विपता अपनी कही और यह भी कहा कि मैंने सुना है कि बसन्‍ती का चाचा (बाप) जैपुर में लक्ष्‍मीचन्‍द सेठ की दूकान पर मुनीम है। तुम मेरी तर्फ से एक ऐसी चिट्ठी लिख दो कि वह हमको वहाँ बुला ले, वा आप यहाँ चला आए और जैसा मेरा हाल है उसके लिखने में कुछ संदेह मत करो। मैं जीते जी तुम्‍हारा गुण नहीं भूलूँगी। छोटेलाल की बहु ने यह चिट्ठी लिखी—
स्‍वस्ति श्री सर्वोपरि विराजमान सकल गुण निधान बसंती के लालाजी बसन्‍ती की चाची की राम-राम बंचना। जिस दिन से तुम यहाँ से गए हो बाल-बच्‍चे मारे-मारे फिरे हैं। तन पै कपड़ा नहीं। पेट की रोटी नहीं। कोई बात नहीं पूछता कि तुम कौन हो। लोग अपने बच्‍चे को मेले-ठेले, सैर-तमाशे दिखलाते फिरे हैं और तुम्‍हारे बच्‍चे गलियों में डकराते फिरे हैं। मेरी विपता का कुछ हाल मत पूछो। पाँच वर्ष तो इतने कठिन मालूम नहीं दिये, परन्‍तु इस काल में जो कुछ था सब बेच खाया। और यह मुझसे खोटी मति स्त्रियों के पास बैठने से ऐसा हुआ। जैसा मैंने किया, वैसा मैंने पाया। अब मेरी पहिली सी बुद्धि नहीं रही। मेरा अपराध क्षमा करो और हमको वहाँ बुला लो या तुम यहाँ चले आओ। आगे और क्‍या लिखूँ? चिट्ठी लिखी आश्विन बदि 4, सं 1926
जब ये चिट्ठी उसके पास पहुँची सुनते ही रो पड़ा और फिर वहाँ से आके अपने सारे कुटुम्‍ब को जैपुर ले गया।
दौलत राम की लड़की तीन वर्ष की थी कि एक लड़का हुआ। उसका खुशी हुई, परन्तु छोटेलाल की बहु बड़ी मगन हुई और कहने लगी कि हे भगवान तैंने मेरी ऊपर बड़ी दया की। जो लौंडिया-सिवाल होती तो मुझे काहे को जीने देती।
उस लड़के नाम कन्‍हैया रक्‍खा। जो कोई पूछती री लौंडा राजी है।
अच्‍छे-बिच्‍छे को कहती कि नित माँदा रहे है। दूध नहीं पीता।
किसी के सामने दूध नहीं पिलाती, न उसको दिखलाती। गोद में ढँक के बैठ जाती इसलिए कि कभी नज़र न लग जाय। नित टोने-टोट‍के, गंडे-तावीज करती रहे थी। जो कोई स्‍याना-दिवाना आता, इससे रुपया-धेली मार ले जाता अर्थात् जो मूर्ख स्त्रियों के काम हैं, और उनसे किसी प्रकार का लाभ नहीं है, किन्‍तु बड़ी हानि है, सब करती और अपनी देवरानी को सुना-सुना और स्त्रियों से कहती कि बहिन, बेटा तो हुआ है जो वैरी जीने देंगे।
जब छोटेलाल की बहु माँदी ही थी कि एक लड़का और हुआ। उसका नाम मोहन रक्‍खा और उसको धा को इस कारण दे दिया कि बीमारी में बच्‍चे की माँ का दूध सुख गया था। इधर उसका इलाज होने लगा, उधर मोहन धा के पलने लगा। धा का दो रुपये महीना कर दिया और यह कह दिया कि जब लड़के को तुझसे लेंगे राजी कर देंगे।
वह मल्‍याने गाँव में शहर से दो कोस अन्‍तर से रहे थी। तीज-त्‍यौहार के दिन आती, त्‍यौहारी ले जाती और जब कभी छोटेलाल वा उसका लाला घर होते, चौअन्‍नी वा अठन्‍नी धा को दे देते और उसकी लल्‍लो-पत्‍तो कर देते कि घबराइयो मत, इस घर से तुझे बहुत कुछ मिलेगा।
और वह धा जाटनी थी उसका जाट लाला की दुकान पर पैंठ के दिन घी बेचने आया करे था। सो लाला उससे भी कह दिया करें थे कि भाई हमारे-तुम्‍हारे घर की सी बात है, और वह लौंडा तुम्‍हारा ही है। उसको राजी रखना।
छोटेलाल की बहु को तो जब ही आराम हो गया था। पाँचवे वर्ष लड़के को धा से लेने की सलाह ठहरी।
ए‍क दिन मुहूर्त्‍त दिखलाके उस जाट से कह दिया कि फलाने दिन तुम दोनों चार घड़ी दिन चढ़े लड़के को लेके चले आओ। वह आ गए। पच्‍चीस रुपये और दोनों जाटनी और जाट को पाँचों कपड़े और एक रुपया उसकी भंगन आदि को देके छोटेलाल की बहु ने जाटनी की गोद में से लड़के को अपनी गोद में ले लिया। उसकी सास ने कहा बहिन तेरे लायक तो कुछ है नहीं। तुम्‍हें जो दें सो थोड़ा। आगे तेरा घर है, भगवान इसकी उमर लगावे। तुझे बहुत कुछ देगा।
बहु की गोद में लड़का रोने लगा ओर कहने लगा कि मैं तो अपनी माँ के पास जाऊँगा।
सबने कहा यही तेरी माँ है वह न माना और जाटनी की गोद में आ गया और कहने लगा कि माँ घर को चल।
जाटनी आँसू भर लायी और कहने लगी बेटा यही तेरी माँ है और यही तेरा घर है।
सुखदेई की माँ ने कहा बीबी, दो चार दिन अभी तू यहीं रह। जब पर्च जायेगा अपने घर चली जाइयो।
यह सब जानते है कि छोटे बेटे पर बहुत प्‍यार होता है, और पुत्र से प्‍यारा क्‍या है? जिसके घर में इतना धन-दौलत हो उसके लाड़-प्‍यार का क्‍या ठिकाना है?
जब छोटेलाल दफ्तर से आता बाहर से ही पुकारता बेटा मोहन!
वह भी घर में से भाग जाता और बाप के हाथ में से रूमाल छीन कर ले आता। उसमें कभी दालसेंवी और कभी बालूशाही और इमर्ती पाता और माँ को दे देता। माँ बड़े को तो दादी का लाडला बतलाती और छोटे को आप ऐसा चाहती कि आठों पहर अपनी ऑंखो के सामने रखती। किसी का भरोसा न करती। जहाँ आप जाती उसे साथ ले जाती। थोड़े ही दिन में उसे सौ तक गिनती सिखला दी। नागरी के सारे अक्षर बतला दिये।
नन्‍‍हे की अवस्‍था सात वर्ष की थी जब उसे पाँडे के यहाँ मुहूर्त्‍त कराके अंग्रेजी पढ़ने को मदर्से में बिठला दिया था।
नन्‍हे की सगाई कई जगह से आई पर छोटेलाल और उसकी बहु ने फेर-फेर दी और यह कहा जब पंदरह-सोलह वर्ष का होगा तब बिवाह-सगाई करेंगे।
बाबा-दादी ने कहा यह तुम क्‍या गजब करे हो? जब स्‍याना हो जायगा, कौन बिवाह-सगाई करेगा? लोग कहेंगे कि यह जाति में खोटे होंगे जो अब तक बिवाह नहीं हुआ।
लाचार इनको बुलन्‍द शहर की सगाई रखनी पड़ी और जिस दिन सगाई ली गई और नन्‍‍हे टीका करवा के उठा दौलतराम की बहु उसी समय बाहर से आग लायी। चक्‍की पीसने बैठी। सिर धोया और अपनी मरी माँ को याद कर बहुत रोई।
सबने बुरा कहा और दौलतराम भी बहुत गुस्‍सा हुआ।
छोटेलाल की बहु की मामा की बेटी दिल्‍ली से मेरठ में बिवाही हुई आई थी। उसकी बेटी जब नौ वर्ष की थी कोयल में शिवलाल बनिये के बेटे से बिवाही गई थी और उसके भी एक ही बेटा था।
एक दिन कोठे पर खड़ा पतंग उड़ा रहा था और पेच लड़ा रहा था। ऊपर को दृष्टि थी, आगे जो बढ़ा, धड़ाम दे तिमंजिले पर से नीचे आ रहा और पत्‍थर पर गिरा। हड्डियों का चकनाचूर हो गया। सिर में बहुत चोट लगी। दो दिन जिया तीसरे दिन मर गया।
सो दिल्‍ली वाली की लौंडिया दस वर्ष की अवस्‍था में विधवा हो गई थी। किरपी नाम था। बड़ी भोली-भोली लौंडिया थी। ऊपर को निगाह उठा के नहीं देखी थी। अपनी मासी से विष्‍णु सहस्‍त्रनाम पढ़ लिया था। नित पाठ किया करे थी और जाप करे थी। कथा-वार्त्‍ता सुनती रहे थी। कार्तिक और माघ न्‍हाती। चन्‍द्रायण के व्रत करती। माँ ने तुलसी का बिवाह और अनन्‍त चौदस का उद्दापन करवा दिया था। जगन्‍नाथ और बद्रीनाथ के दर्शन भी कर आई थी। कभी-कभी अपनी माँ के पास मासी से मिलने आया करे थी।
वह इसे देख-देख बड़ी दु:खी होती और अपनी बहिन से कहती कि देखो इस लौंडिया ने देखा ही क्‍या है? यह क्‍या जानेगी कि मैं भी जगत में आई थी। किसी के जी की कोई क्‍या जाने है। इसके जी में क्‍या-क्‍या आती होगी। इसके साथ की लौंडियें अच्‍छा खावे हैं, पहिने हैं। हँसे हैं, बोले हैं। गावें हैं, बजावे हैं। क्‍या इसका जी नहीं चाहता होगा? सात फेरो की गुनहगार है। पत्‍थर तो हमारी जाति में पड़े हैं। मुसलमानों और साहब लोगों में दूसरा बिवाह हो जाय है और अब तो बंगालियों में भी होने लगा। जाट, गूजर, नाई, धोबी, कहार, अहीर आदियों में तो दूसरे बिवाह की कुछ रोक-टोक नहीं। आगे धर्मशास्‍त्र में भी लिखा है कि जिस स्‍त्री का उसके पति से सम्‍भाषण नहीं हुआ हो और बिवाह के पीछे पति का देहान्‍त हो जाय तो वहाँ पुनर्बिवाह योग्‍य है अर्थात् उस स्‍त्री का दूसरा बिवाह कर देने से कुछ दोस नहीं।
वह सुन के कहने लगी फिर क्‍या कीजिये, बहिन। लौकिक के बिरुद्ध भी तो नहीं किया जाता।
दौलतराम की लौंडिया मुलिया ने कनागतों में गोबर की साँझी बनाई, दीवे बले मुहल्‍ले की लौंडिये इखट्टी हो जातीं और यह गीत गातीं।
साँझी री क्‍या ओढ़े क्‍या पहिनेगी।
काहें का सीस गुँदावेगी?
शालू ओढूँगी मसरु पहनूँगी।
सोने का सीस गूँदाऊँगी।
जब गीत गा लेतीं लौंडियों को चौले बाटे जाते। नन्‍हे और मोहन भी कभी-कभी लौंडियों के पास चले जाते और उनके साथ गीत गाते।
उसकी माँ कहती ना मुन्‍ना, लौंडे लौंडियों के गीत नहीं गाते हैं।
एक दिन बड़ा भाई तो चला आया था छोटा भाई वहीं बैठा रहा। नींद जो आयी, पड़के सो गया। जब लौंडिये गीत गा के चली गयीं और मोहन घर नहीं गया तो उसकी माँ आई। देखे तो धरती पर पड़ा सोवे है। गोद में उठा के ले गई। घर जाकर देखा तो एक हाथ में कड़ा नहीं और चोटी के बाल कतरे हुए हैं।
उसने अपनी सास से कहा। बहुतेरी कोस-कटाई हुई। भगवान जाने किसने लिया और यह काम किसने किया क्‍योंकि बाहर से बड़ी लौंडियें भी तो आई थीं। परन्‍तु दौलतराम की बहु का नाम हुआ और निस्‍सन्‍देह यह थी भी खोटी।
जब कभी लौंडे लौंडिया के साथ खेलते हुई ताई-ताई करते इसके घर जाते, मुँह से न बोलती। माथे में तील बल डाल लेती। भला बालकों में क्‍या बैर विषवाद है? यह तो भगवान के जीव हैं। इनसे तो सबको मीठा बोलना चाहिए।
जब कभी लौंडिया मुलिया दीदी के पास जाती, चाची पुकार लेती। प्‍यार करके अपने पास बिठाती। जो चीज़ लौंडो को खिलाती पहिले इसको देती और बेटों को बराबर चाहती। लौंडिया को अपने हाथ से गुडि़या बना दी थी। कातने का रंगीन चर्खा मँगा दी थी और लौंडियों के साथ इसको भी सीना सिखलाती। और एक-एक दो-दो अक्षर बतलाती जाती।
सब लौंडी-लारों को दुकान से पैसा-पैसा रोज मिला करे था। दौलत राम की बहु ने एक गुल्‍लक बना रक्खी थी सो कन्‍हैया और मुलिया के पैसे उसी में गेरती जाती। वर्ष दिन पीछे जो गुल्‍लक को तोड़ा तो उसमें ग्‍यारह रुपये ।=)।। के पैसे निकले। सो मुलिया की झाँवर बना दीं। इन बातों में तो बड़ी चतुर थी। और भी इसने इसी प्रकार से सौ रुपये जोड़ लिये थे और वह ब्‍याजू दे रक्‍खे थे।
छोटेलाल की बहु ने एक पैसा भी नहीं जोड़ा था। जो लौंडे लाये, सब खर्च करा दिये। इस कारण केवल जोड़ने और जमा करने के विषय में दौलत राम की बहु सराहने योग्‍य थी।
एक दिन मोहन संध्‍या समय खेलते-खेलते घर में से बाहर चला आया। दिवाली के दिन थे। एक जुआरी ने (जो देखने में भला आदमी दीख पड़े था) आते ही मोहन को गोद में उठा लिया और कहा कि तेरे बाबा ने तुझे खाँड़ के खिलौने देने को बुलाया है और आज बाजार में बड़ा तमाशा होगा।
यह बालक ही तो था। बोला मैं अपनी माँ से पूछ आऊँ। उसने कहा मैं तेरी माँ से पूछ आया हूँ। तुझे तमाशा दिखा के छोड़ जाऊँगा। जाड़ा-जाड़ा कहके उसे अपनी चादर में दुबका लिया और जंगल को ले गया। अँधेरी रात थी। चिम्‍मन तिवाड़ी के बाग में ले जा के उससे बोला कि तुम मुझे अपना गहना दे दो।
वह रोने लगा। फिर उसने कहा जो रोवेगा तो गला घोंट के कुएं में गेर दूँगा।
तुम जानो अपनी जान सबको प्‍यारी है। बेचारा बालक डर गया और चुप हो रहा। उसने इसके कड़े, बाली और तगड़ी उतार ली और बायें हाथ की उँगली में जो सोने की अँगूठी थी उसकू ऐसा दॉंतो से किचकिचा कर खेंचा कि उँगली में लहू निकलने लगा। फिर इस निर्दयी ने उस बालक से पूछा कि तू मुझे पहिचाने भी है?
उसने कहा नहीं।
यह सुन और उसे एक गढ़े में धक्‍का दे चंपत हुआ।
उधर जब दीवे बल गये और मोहन घर नहीं आया तो वहाँ तला-बेली पड़ी।
दादी मुहल्‍ले के लौंडों के घर पूछने गई। उन्‍होंने कहा वह एक आदमी के साथ तमाशा देखने दुकान गया है।
दुकान को आदमी दौड़ाया वहाँ कहाँ था? यह ख़बर सुनते ही लाला और दौलतराम दोनों उठे चले आये और छोटेलाल भी घर आ गया।
मुहल्‍ले और सारे शहर में ढूँढ़ फिरे। कहीं कुछ पता न लगा। फिर यह सलाह ठहरी कि कोतवाली में लिखवाओ और ढँढोरा पिटवाओ। इसमें पहर भर रात जाती रही। स्त्रियें रोवें और चिल्‍लायें। कभी गंगाजी का प्रशाद और कभी हनूमान के बाह्यण बोले। मर्दों के मुँह फक्‍क पड़ रहे। औरतों पर गुस्‍से हों कि लौंडे को इन्‍होंने खोया कि क्‍यों गहना पहनाया था? मोहन के जान इनके गहने ने ली।
अब सबको यही सन्‍देह हुआ कि किसी ने गहने की लालच गला घोंट के कुएं में गेर दिया।
बड़े लाला ने जमादार के कहने से पाँच सात पल्‍लेदार बुलवा, मशालें जलवा, सब दरवाजों से बाहर लोगों को देखने भेजा। बागों और मंदिरों के कुओं में काँटे डाल-डाल सब जगह देखा। जब चिम्‍मन तिवाड़ी के बाग में पहुँचे उस मशाल के साथ दौलतराम था। कुएं को देख जुहीं आगे बढ़े और गढ़े के पास को निकले तो दौलतराम के कान में किसी बालक के सुबकने का शब्‍द सुनाई दिया।
उसने कहा ठहरो और इस गढ़े में देखो।
देखा तो एक ओर बालक सुबक रहा है उसी समय हुसैनी पल्‍लेदार कूद पड़ा और मोहन-मोहन कह उसे उठा लिया और ऊपर ले आया।
देखा तो सारा शरीर लहुलुहान हो रहा है। इसका कारण यह था कि उस गढ़े में एक कीकड़ का पेड़ था। जब उस निर्दयी ने धक्‍का दिया था तो वह कॉंटों पर जाकर गिरा था फिर उसे घर ले आये। बाबा ने देखते ही छाती से लगा लिया।
लोगों ने कहा लाला साहब मोहन का तो नया जन्‍म हुआ है। लाला ने पूछा मुन्‍ना तुझे कौन ले गया था।
उसने सारा हाल बतलाया और कहा कि मै उसे पहिचानता नहीं।
लोग बोले ये ही बात अच्‍छी हुई। फिर मोहन को घर में भेज दिया।
माँ दादी गले लगाके बहुत रोयी। इतने में छोटेलाल भी जो मशाल ले के ढूँढ़ने गया था आन पहुँचा और मोहन को देख बड़ा आनन्‍द हुआ। दौलतराम की बहु सबके सामने कहने लगी कि अब मेरे जी में जी आया है। भगवान ने बड़ी दया की। परन्‍तु मन की बात परमेश्‍वर ही जाने।
लाला ने सब लड़की-बालों के कड़े-बाली उतरवा दिये और कह दिया कि फिर कोई नहीं पहनाने पावे।
अगले दिन पाँच रुपये के लड्डू मुहल्‍ले और बिरादरी में बॉंटे गये और कुछ दान-पुन्‍न भी कराया।
दौलत राम की लड़की का सम्‍बन्‍ध अतरौली में चुन्‍नीलाल कसेरे के बेटे से हुआ था।
उन्‍हीं दिनों किसी ने लाला सर्वसुखजी से कहा कि लाला जी तुमने कहाँ सगाई कर दी। वह तो तुम्‍‍हारी बराबरी के नहीं है। बरात भी हलकी लावेंगे।
उन्‍होंने यह उत्‍तर दिया था कि भाई मैंने तो घर-वर दोनों अच्‍छे देख लिए हैं। उनका बड़ा कुटुम्‍ब है। सादा चलन है। लड़का लिखा-पढ़ा है। दूकान का कारबार अपने हाथ से करे है और बड़ा चतुर है। रुपया-पैसा किसी की जाति नहीं। ऊपर की टीप-टाप अच्‍छी नहीं होती। मनुष्‍य को चाहिए कि जितनी चादर देखे उतने पाँव पसारे। मुझे यह बात अच्‍छी नहीं लगती। जैसे और हमारे बनिये हाट-हवेली गिर्वी रखके वा दूकान में से हजार दो हजार रुपये जो बड़ी कठिनाई से पैदा किये हैं, बिवाह में लगाकर बिगड़ जाते हैं।
अब मुलिया का बिवाह फुलैरा दोज का ठहर गया। दिन के दिन बराती आयी।
जब बरात चढ़ ली और जनवासे में जा ठहरी, गाड़ीवानों को भूसा दिलवा दिया गया। इक्‍कावन रुपये नकद, सोने के पाँच गहने, तीन सौ रुपये की मालियत, पाँच बरतन, जरी का जामा, एक घोड़ा और पालकी यहाँ से खेत में गया। जब खेत देके लौटे तो यह कहते आये कि लाला साहब जीमने की जल्‍दी करो। दस बजे से पहिले के फेरे हैं। ऐसा न हो कि लगन टल जाय।
जब बरात जीमने को आयी तो नौशा इसलिए नहीं आया कि क्‍वारे नाते नहीं जिमाते हैं। सत पकवानी हुई थी। सबने प्रसन्‍न होकर खाया और जब जीम चुके, मँढे के नीचे फेरों को बैठ गए।
दिलाराम पाँडे और एक ब्राह्मण ने जो समधियों की ओर था, मिलकर बिवाह करा दिया। फेरों पर से उठ के भूर बाँटी और फिर समधी जनवासे में चले गए।
जब कोई पहर भर दिन चढ़ा, बरात में से लड़कों को बुला भेजा कि बस्‍यावल जीम जाओ। दोपहर पीछे बेटी वाले के यहाँ से नौतनी गई। रात को बराती ताशे बजवाते जाजकियों से गवाते, अनार और माहताबी छोड़ते जीमने आए।
अगले दिन जब बरी-पुरी हो ली, बिदा की ठहरी।
उस समय लाला सर्वसुख जी ने सब बरातियों के एक-ए‍क रुपये, नारियल, टीके किया। उसमें बड़ी वाह-वाह रही। इक्‍कीस तियल, एक दोशाला, ग्‍यारह बरतन,एक बड़ा भारी टोकना,कुछ रुपये नकद और पकवान आदि उस समय समधी को दिया। और कमीनों को ले-दे लाला सर्वसुख और दौलतराम ने हाथ जोड़ के कहा कि लाला साहब हमसे कुछ नहीं बन आया तुमने हमको ढक लिया।
वह बोले लाला तुमने हमारा घर भर के बाहर भर दिया।
फिर दुलहा और दुलहन को पलंग पर बिठा के धान बोये। लौंडिया रोने लगी कि मैं तो सासू के नहीं जाऊँगी। उस समय उसकी माँ, दादी और चाची समेत और जो स्त्रियें खड़ी थीं सब आँसू भर लायीं उन सबको रोते देख दौलतराम की आँखों में से भी ऑंसू निकल पड़े और कहने लगा बेटी रोवे मत, तुझे जल्‍दी बुला लेंगे। फिर लड़की और लड़के को पालकी में बिठा दिया और बुढ़ाने दरवाजे तक सब बिरादरी के आदमी बारात को पहुँचाने आए। समधियों से राम-राम कर अपने-अपने घर चले गए।
लाला सर्वसुखजी की सलाह तीन रोटी देने की थी। कहीं छोटेलाल के मुँह से निकल गई थी कि दो ही रोटी बहुत है। इस बात पर दौलतराम की बहु बहुत नाची-कूदी और कहने लगी कि छोटेलाल की गाँठ का क्‍या खर्च हो था? अभी तो मालिक बैठा है।
नन्‍हे की सगाई बुलन्‍द शहर में झुन्‍नी-मुन्‍नी के यहाँ हुई थी। वह खत्‍ती भरा करें थे। नाज का भाव जो गिरा उन्‍होंने अपनी चारों खत्‍ती बेच दीं। इसमें उनकू दो हजार रुपये बन रहे। सो उन्‍होंने यह सलाह की कि भाई लौंडिया का बिवाह कर दो। यह इसी के भाग के हैं।
बिवाह सुझवा के सर्वसुखजी को एक चिट्ठी भेजी कि सतवा तीज का बिवाह न केवल सूझे है बहुत शुभ भी है सो तुमको रखना होगा और पीछे से नाई साहे चिट्ठी लेके आवेगा।
जब यह चिट्ठी यहाँ आई लाला ने छोटेलाल और दौलतराम को उनकी माँ के सामने बुला के सलाह की। ये ही ठहरी कि रख लो। जहाँ सौ नहीं, सवाये। छोटे लाल ने कहा कि हमें अपने काम से काम है बहुत-सी टीप-टाप में कहाँ की नमूद मरी जा है।
लाला की घरवाली बोली कि कल को दो रुपये का कुसुंभ भेज देना। हम रैनी तो चढ़ा लें और गोटा किनारी लेते आना। दिन कै रह गये हैं। आगे सीना-पिरोना है।
लाला बोले यह सब काम दौलतराम कर देगा और भाई छोटेलाल कल चौधरी को बुला के पूछो तो सही कि कितने-कितने गाड़ी हो हैं।
छोटेलाल ने कहा कि पहिले सवारी लिखी जायँ कि कितनी बहिली जायँगी। तब दो जगह पूछकर किराये कर लेंगे।
दौलत राम ने कहा चबीनी तो दो दिन पहिले हो जायगी, क्‍योंकि गर्मी के दिन हैं। बहुत दिन में पकवान बुस जा है।
अगले दिन यहाँ से बुलन्‍द शहर की चिट्ठी का उत्‍तर लिख दिया गया है और थोड़े दिन पीछे वहाँ से नाई साहे चिट्ठी ले के आया। उसमें सात बान लौंडे के और पाँच बान लौंडिया के लिखे थे। तिवास के दिन सारी बिरादरी को जेवनहार हुई। जो जीवने नहीं आया, उसका परोसा घर बैठे गया। जब लौंडा घोड़ी चढ़ लिया रात को बारात चल दी और हापुड़ जा ठहरी। वहाँ लाला ने पहिले ही आदमी भेज दिये थे कि वहाँ जाकर बन्‍शीधर से कह के बाग में कढ़ाई चढ़वा दें। सो वहाँ सब सामान तैयार था।
लाला ने बरातियों से कहाँ लो भाई, न्‍हा-धो के पहिले भोजन कर लो।
रात को चबीनी बाँट के फिर चल दिये और दो पहर से पहिले बुलन्‍द शहर जा पहुँचे। शहर के बाहर से बेटीवाले के घर ख़बर करने को नाई भेज दिया। जब बारात चढ़ ली गाड़ीवानों से दाने-भूसे पर तकरार हुई। ताशेवालों और जाजकियों ने एक-एक आदमी के दो-दो परोसे माँगे। जब वार-द्वारी हो चुकी, तब नौशे को जनवासे में ले गए। और जब लौंडा फेरों पर से उठ के थापा पूजने गया, वहाँ उसने यह चार छन कहे और एक-एक छन का एक-एक रुपया लिया।
1- छन पिराकी आईयाँ और छन पिराकी जोड़ा
दूसरा छन जब कहूँगा जब ससुर देगा घोड़ा।
2- छन पिराकी आईयाँ और छन पिराकी धार।
अब का छन जब कहूँ जब सासू देंगी हार।
3- छन पिराकी आईयाँ और छन पिराकी बोता।
धौंसा लेके ब्‍याहने आया सर्वसुख का पोता।
यह सुनकर सब स्त्रियाँ हँस पड़ी और कहा तीन हुए। एक और कह दो।
4- छन पिराकी आईयाँ और छन पिराकी खुरमा
तुम्‍हारी बेटी ऐसी रक्‍खूँ जैसे आँखों में का सुरमा।।
दो रात बरात वहाँ रही और विदा होकर बराती आनन्‍दपूर्वक अपने घर आ गए।
यहाँ खोडि़ये में अर्थात विवाहवाली रात को अड़ौसन और बिरादरी की स्त्रियें इक्‍ट्ठी हुई। सबने गाया-बजाया। पैसा-पैसा बेल का दिया नाच-कूद हो रहा था कि चौधरी की बहु ने कहा-अरी दौलतराम की बहु कहाँ है?
उसकी सास बोली अपने घर पड़ी सोवे है।
उसने कहा यहाँ क्‍यों नहीं आई? कहीं लड़ी तो नहीं थी।
छोटेलाल की बहु ने कहा नहीं जी, यहाँ तो उसे किसी ने आधी बात भी नहीं कही।
वह बोली उसे मैं लाऊँ हूँ और दो चार लुगाइयों को साथ ले उसके घर पहुँची और शर्माशर्मी सोती को उठा के लायी और सबके बीच बिठा के उससे ढोलक बजवायी। वह बेचारी गाना बजाना क्‍या जाने थी।
ढोलकी के बजते ही सब लुगाई हँस पड़ीं।
वह वहाँ से उठ खड़ी हुई और रूस के अपने घर चली गई।
सबने मनाया फिर न बैठी।
अब लाला सर्वसुख जी बहुत बूढ़े हो गए थे, दूकान का काम तो बड़े बेटे दौलतराम ने सँभाल लिया था परन्‍तु लाठी ले-के ढुलकते-ढुलकते दोपहर पीछे रोटी खा के दूकान चले जाया करें थे।
छोटेलाल यह कहा करे था कि लाला जी अब तुम बैठ के भगवान का भजन करो और इस जगत की माया मोह को छोड़ो। छोटी बहु सुसरे की बड़ी टहल करे थी। बिछौना बिछाना, धोती धोना, रात को गर्म दूध करके पिलाना यह सब काम यही करे थी और अपने भनेलियों से कहती कि जी यह हमारे तीर्थ हैं। हमारे कहाँ भाग जो अपने बड़ों की टहल करें। धर्म-शास्‍त्र में लिखा है कि जो अपने बड़ों की टहल करते हैं उनके कुल की वृद्धि होती है, और स्‍वर्ग प्राप्‍त होता है।
जब कभी वह बूढ़ा दौलतराम की बहु से पानी माँगता वा और काम को कहता तो काम तो क्‍या करती, परन्तु कहती कि उत्‍ता मरता भी तो ना है। रात-दिन कान खा है।
वह कहता हाँ बहु सच है, हमारी वह कहावत है—दाँत घिसे और खुर घिसे, पीठ बोझ ना ले। ऐसे बूढ़े बैल को कौन बाँध भुस दे।
बुढि़या उतनी नहीं थक गई थी। अपना काम अपने हाथ से कर ले थी। छोटेलाल की बहु से कहा करे थी अरे तेली के बैल की तरह दिन-भर इतना मत पिले। माँदी पड़ जायगी तो हमें पानी कौन पकड़ावेगा? और बहु हमारे पक्‍के पात हैं। आज मरे कल दूसरा दिन। तेरा कच्‍चा कुनबा है।
इसी बात पर दौलतराम की बहु कहती कि देख बुढि़या दोजगन को। छोटी बहु को कैसी चाहे है?
एक दिन बैठे बिठाये बड़े लाला को ताप चढ़ आई तीसरे दिन खाँसी हो गई फिर सांस हो आया। हकीमजी को बुलाया। उन्‍होंने नाड़ी देखके कहा कि लाला सर्वसुख जी की अब रामनगर की तैयारी है। औषधी मैं बतलाये देता हूँ, पिलाओ। और लाला से बोले कि लाला सर्वसुखजी, अब अच्‍छा समय है कि भगवान की दया से बेटे-पोते मौजूद हैं।
वह बोले हकीमजी कोई ऐसी औषधी दो कि अबकी बिरियाँ मैं बच जाऊँ और दौलतराम और छोटेलाल का साझा बाँट दूँ। मैं जानू हूँ कि मेरे पीछे फ़जीता होगा।
हकीम जी तो चले गये। लाला बेटे-पोतों की ओर देख ऑंसू भर लाये। उन दोनों का जी भर आया। बेचारी बुढि़या रोने लगी।
छोटेलाल ने कहा कि लाला जी, घबराओ मत। भगवान ने चाहा तो अच्‍छे हो जाओगे।
अगले दिन गौदान कराया और गंज की दूकान पुन्‍य करके पुरोहित को दी।
पाँचवें दिन लाला का हाल बेहाल हो गया। जब नाड़ी बहुत मंद पड़ गयी गंगाजल मुँह में डालने लगे और फिर जमीन पर उतार कर पंचरत्‍न मुँह में डाला।
जब लाला काल कर गये, बेटे हाय लालाजी-लालाजी कहते हुए बाहर आन बैठे। मुरदे के चारों ओर स्त्रियाँ घिर आयीं और रोने-पीटने लगीं। बाहर जब मुहल्‍ले और बिरादरी के लोग इकट्ठे हो गए, बिमान बनाने की ठहरी। ताशेवाले और जाजकी बुलाये गये।
जब कोई मुहल्‍ले वा बिरादरी में से आता, यह कहता कि लाला सर्वसुखजी बड़े भाग्‍यवान थे जिनके बेटे-पोते मौजूद हैं। उनका आज तो खुशी का दिन है।
कोई कहता कि साहिब जहाँ मिल जायें थे पहिले से पहिले ही राम-राम कर लें थे। अच्‍छा स्‍वभाव था।
पुरोहित जी बोले कि महाराज, उन्‍होंने अपने जीते जी एक काम अच्‍छा किया इस काल में जितने कँगले आये सबको पाव-पाव भर दाने दिये।
जब दोनों भाई भद्र हो चुके, पिंजरी को उठा अन्‍दर ले गए और मुर्दे को न्‍हाला-धुला तख्तों पर रख दिया और एक दोशाला ऊपर डाल दिया और जरी की झालर ऊपर लगायी चारों ओर झंडियाँ लगायी गयीं।
एक पोते को घडि़याल बजाने को दी। शेष दोनों में से एक को शंख, दूसरे को घण्‍टा दिया। सुखदेई का बेटा शिवदयाल यहाँ मण्‍डी में मूँज बेचने आया था। नाना का मरना सुनते ही भागा आया।
लोग बोले साहेब धेवता भी आन पहुँचा। इसके हाथ में मोरछल दो।
फिर राम-राम सत्‍य कहते मुर्दे को मरघट में ले पहुँचे।
औरतें भी पीछे से सूर्य कुण्‍ड न्‍हाने गयीं। तीन दिन तक बड़े हाँसे तमाशे रहे तीसरे दिन जब उठावनी हो चुकी, दसवें दिन न्‍हान धोवन हुआ। ग्‍यारवें दिन एकादशा में अचारज को बहुत माल दिया और लाला के हुलास सूँघने की चॉंदी की डिबिया भी दे दी। तेरहवीं के दिन सारी बिरादरी की जेवनार हुई। पक्‍का परोसा किया और मुहल्‍ले में भी बॉंटा।
अगले दिन से छोटेलाल नौकरी पर जाने लगा। दौलतराम दूकान के धंधे में लग गया। बुढि़या अब सुस्‍त रहने लगी। दौलतराम की बहु के अभिमान का कुछ ठिकाना नहीं रहा। ऐसी बढ़कर बातें मारती और कहती कि जो कुछ करे है, मेरा ही मालिक करे है। और यह सारी मेरी ही मालिक की कमाई है।
जो चीज़ लाला के सामने छोटेलाल के घर दूकान से आया करे थी, आना बन्‍द हो गई। बुढि़या बहुतेरा कहती पर उसकी कौन सुने था।
बहु के सिखाये में आके दौलतराम की दृष्टि भी फिर गई।
छोटेलाल ने एक दिन अपने घर में सलाह कि की भाई तो सारा माल-मता दबा बैठा। साझा बाँटने के नाम से बात नहीं करता। अब क्‍या करें? उसने कहा सुनो जी हम क्‍या छाती पर रख कर ले जाऍंगे और आगे कौन ले गया है? बिरादरी वाले कहेंगे कि बाप के मरते ही फजीता हुआ। जब तक बुढि़या बैठी है, चुप ही रहो। आगे जो होगा देखी जायगी। भगवान का दिया हमारे यहाँ भी सब कुछ है।
बाप को मरे छह महीने बीते होंगे कि बुढि़या मर गई।
दौलत राम की बहु बोली बाप का मरना तो बड़े बेटे ने किया माँ का मरना छोटा बेटा करेगा।
चौधरी की बहु ने कहा कि दूकान तो अभी साझे में है?
उसने बोली कि हैं किसका साझा? अपना खाना अपना पीना।
बाहर मर्दो में भी यही चर्चा फैली। दौलतराम ने एक न मानी। छोटेलाल का ही खर्च उठा। माँ को बड़े गाजे बाजे के साथ निकाला। पहिले से अच्‍छी बिरादरी की जेवनहार कर दी।
जब छोटेलाल ने देखा बड़ा भाई किसी प्रकार से नहीं मानता, साझा बाँटने के नाम लड़ने को दौड़े है। एक वकील की सलाह से तकसीम की अर्जी दे दी।
इस पर जवाबदेही दौलतराम ने की कि यह सब मेरा पैदा किया हुआ है।
हाकिम ने इस मुकदमे को पंचायत में भेज दिया। पंचों ने न्‍याय की रीति से आधा बाँट दिया। दौलतराम को पंचों का कहा अंगीकार करना पड़ा क्‍योंकि उन्‍होंने समझा दिया कि जो तुम इसके न मानोगे और आगरे की सुध धरोगे तो बिगड़ जाओगे।
मण्‍डी की दूकान दौलत राम के पास रही। तिसपर भी दौलत राम की बहु कहने लगी कि हमकों पंचों ने लुटवा दिया। जिस हवेली में दोनों भाई रहें थे छोटेलाल के हिस्‍से में आई।
इस कारण दौलतराम को दूसरी हवेली में जाना पड़ा। जिस दिन दौलतराम की बहु उठ के गई चलती-चलती दो खिडकियों के किवाड़ और चौखट उतार के ले चली। जूँ ही दोवारी पहुँची चौखट से ठोकर खा के गिरी।
बोली हे भगवान उत्‍ते बैरी यहाँ भी चैन नहीं देते!
और बड़-बड़ करती चली गई।

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