गुरुवार, 26 सितंबर 2019

भारतदुर्दशा⁄BHARAT DURDASHA-2 (प्रहसन, भारतेंदु हरिश्चंद्र), NTA/UGCNET/JRF के नए सिलेबस में शामिल : Hindi Sahitya Vimarsh


भारतदुर्दशाBHARAT DURDASHA-2 (प्रहसन, भारतेंदु हरिश्चंद्र), NTA/UGCNET/JRF के नए सिलेबस में शामिल : Hindi Sahitya Vimarsh



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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास

भारतेंदु का 1875 ई. में छपा यह दुखांत नाटक, जिसे भारतेंदु ने नाट्यरासक वा लास्यरूपक कहा है। सामयिक उपादानों पर रचित इस प्रहसन में भारत की अधोगति का बहुत ही रोचक और यथार्थपरक चित्रण किया गया है। यह कुल छः अंकों का नाट्यरासक है।

प्रमुख पात्र : योगी, भारत, निर्लज्जता, आशा, सत्यानाश, संतोष, भारतदुर्दैव, रोग, आलस्य, मदिरा, भारत भाग्य।


पाँचवाँ अंक
स्थान-किताबखाना
(सात सभ्यों की एक छोटी सी कमेटी; सभापति चक्करदार टोपी पहने,
चश्मा लगाए, छड़ी लिए; छह सभ्यों में एक बंगाली, एक महाराष्ट्र,
एक अखबार हाथ में लिए एडिटर, एक कवि और दो देशी महाशय)
सभापति : (खड़े होकर) सभ्यगण! आज की कमेटी का मुख्य उदेश्य यह है कि भारतदुर्दैव की, सुुना है कि हम लोगों पर चढ़ाई है। इस हेतु आप लोगों को उचित है कि मिलकर ऐसा उपाय सोचिए कि जिससे हम लोग इस भावी आपत्ति से बचें। जहाँ तक हो सके अपने देश की रक्षा करना ही हम लोगों का मुख्य धर्म है। आशा है कि आप सब लोग अपनी अपनी अनुमति प्रगट करेंगे। (बैठ गए, करतलध्वनि)
बंगाली : (खड़े होकर) सभापति साहब जो बात बोला सो बहुत ठीक है। इसका पेशतर कि भारतदुर्दैव हम लोगों का शिर पर आ पड़े कोई उसके परिहार का उपाय सोचना अत्यंत आवश्यक है किंतु प्रश्न एई है जे हम लोग उसका दमन करने शाकता कि हमारा बोज्र्जोबल के बाहर का बात है। क्यों नहीं शाकता? अलबत्त शकैगा, परंतु जो सब लोग एक मत्त होगा। (करतलध्वनि) देखो हमारा बंगाल में इसका अनेक उपाय साधन होते हैं। ब्रिटिश इंडियन ऐसोशिएशन लीग इत्यादि अनेक शभा भ्री होते हैं। कोई थोड़ा बी बात होता हम लोग मिल के बड़ा गोल करते। गवर्नमेंट तो केवल गोलमाल शे भय खाता। और कोई तरह नहीं शोनता। ओ हुँआ आ अखबार वाला सब एक बार ऐसा शोर करता कि गवेर्नमेंट को अलबत्ता शुनने होता। किंतु हेंयाँ, हम देखते हैं कोई कुछ नहीं बोलता। आज शब आप सभ्य लोग एकत्र हैं, कुछ उपाय इसका अवश्य सोचना चाहिए। (उपवेशन)।
प. देशी : (धीरे से) यहीं, मगर जब तक कमेटी में हैं तभी तक। बाहर निकले कि फिर कुछ नहीं।
दू. देशी : ख्धीरे से, क्यों भाई साहब; इस कमेटी में आने से कमिश्नर हमारा नाम तो दरबार से खारिज न कर देंगे?
एडिटर : (खडे़ होकर) हम अपने प्राणपण से भारत दुर्दैव को हटाने को तैयार हैं। हमने पहिले भी इस विषय में एक बार अपने पत्र में लिखा था परंतु यहां तो कोई सुनता ही नहीं। अब जब सिर पर आफत आई सो आप लोग उपाय सोचने लगे। भला अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है जो कुछ सोचना हो जल्द सोचिए। (उपवेशन)
कवि : (खडे़ होकर) मुहम्मदशाह ने भाँड़ों ने दुश्मन को फौज से बचने का एक बहुत उत्तम उपाय कहा था। उन्होंने बतलाया कि नादिरशाह के मुकाबले में फौज न भेजी जाय। जमना किनारे कनात खड़ी कर दी जायँ, कुछ लोग चूड़ी पहने कनात के पीछे खड़े रहें। जब फौज इस पार उतरने लगें, कनात के बाहर हाथ निकालकर उँगली चमकाकर कहें ‘‘मुए इधर न आइयो इधर जनाने हैं’’। बस सब दुश्मन हट जायँगे। यही उपाय भारतदुर्दैव से बचने को क्यों न किया जाय।
बंगाली : (खड़े होकर) अलबत, यह भी एक उपाय है किंतु असभ्यगण आकर जो स्त्री लोगों का विचार न करके सहसा कनात को आक्रमण करेगा तो? (उपवेशन)
एडि. : (खड़े होकर) हमने एक दूसरा उपाय सोचा है, एडूकेशन की एक सेना बनाई जाय। कमेटी की फौज। अखबारों के शस्त्रा और स्पीचों के गोले मारे जायँ। आप लोग क्या कहते हैं? (उपवेशन)
दू. देशी : मगर जो हाकिम लोग इससे नाराज हों तो? (उपवेशन)
बंगाली : हाकिम लोग काहे को नाराज होगा। हम लोग शदा चाहता कि अँगरेजों का राज्य उत्पन्न न हो, हम लोग केवल अपना बचाव करता। (उपवेशन)
महा. : परंतु इसके पूर्व यह होना अवश्य है कि गुप्त रीति से यह बात जाननी कि हाकिम लोग भारतदुर्दैव की सैन्य से मिल तो नहीं जायँगे।
दू. देशी : इस बात पर बहस करना ठीक नहीं। नाहक कहीं लेने के देने न पड़ें, अपना काम देखिए (उपवेशन और आप ही आप) हाँ, नहीं तो अभी कल ही झाड़बाजी होय।
महा. : तो सार्वजनिक सभा का स्थापन करना। कपड़ा बीनने की कल मँगानी। हिदुस्तानी कपड़ा पहिनना। यह भी सब उपाय हैं।
दू. देशी : (धीरे से)-बनात छोड़कर गंजी पहिरेंगे, हें हें।
एडि. : परंतु अब समय थोड़ा है जल्दी उपाय सोचना चाहिए।
कवि : अच्छा तो एक उपाय यह सोचो कि सब हिंदू मात्र अपना फैशन छोड़कर कोट पतलून इत्यादि पहिरें जिसमें सब दुर्दैव की फौज आवे तो हम लोगों को योरोपियन जानकर छोड़ दें।
प. देशी : पर रंग गोरा कहाँ से लावेंगे?
बंगाली : हमारा देश में भारत उद्धार नामक एक नाटक बना है। उसमें अँगरेजों को निकाल देने का जो उपाय लिखा, सोई हम लोग दुर्दैव का वास्ते काहे न अवलंबन करें। ओ लिखता पाँच जन बंगाली मिल के अँगरेजों को निकाल देगा। उसमें एक तो पिशान लेकर स्वेज का नहर पाट देगा। दूसरा बाँस काट काट के पवरी नामक जलयंत्र विशेष बनावेगा। तीसरा उस जलयंत्र से अंगरेजों की आँख में धूर और पानी डालेगा।
महा. : नहीं नहीं, इस व्यर्थ की बात से क्या होना है। ऐसा उपाय करना जिससे फल सिद्धि हो।
प. देशी : (आप ही आप) हाय! यह कोई नहीं कहता कि सब लोग मिलकर एक चित हो विद्या की उन्नति करो, कला सीखो जिससे वास्तविक कुछ उन्नति हो। क्रमशः सब कुछ हो जायेगा।
एडि. : आप लोग नाहक इतना सोच करते हैं, हम ऐसे ऐसे आर्टिकिल लिखेंगे कि उसके देखते ही दुर्दैव भागेगा।
कवि : और हम ऐसी ही ऐसी कविता करेंगे।
प. देशी : पर उनके पढ़ने का और समझने का अभी संस्कार किसको है?
(नेपथ्य में से)
भागना मत, अभी मैं आती हूँ।
(सब डरके चैकन्ने से होकर इधर उधर देखते हैं)
दू. देशी : (बहुत डरकर) बाबा रे, जब हम कमेटी में चले थे तब पहिले ही छींक हुई थी। अब क्या करें। (टेबुल के नीचे छिपने का उद्योग करता है)
(डिसलायलटी1 का प्रवेश)
सभापति : (आगे से ले आकर बड़े शिष्टाचार से) आप क्यों यहाँ तशरीफ लाई हैं? कुछ हम लोग सरकार के विरुद्ध किसी प्रकार की सम्मति करने को नहीं एकत्र हुए हैं। हम लोग अपने देश की भलाई करने को एकत्र हुए हैं।
डिसलायलटी: नहीं, नहीं, तुम सब सरकार के विरुद्ध एकत्र हुए हो, हम तुमको पकडे़ंगे।
बंगाली : (आगे बढ़कर क्रोध से) काहे को पकडे़गा, कानून कोई वस्तु नहीं है। सरकार के विरुद्ध कौन बात हम लोग बाला? व्यर्थ का विभीषिका!
डिस. : हम क्या करें, गवर्नमेंट की पालिसी यही है। कवि वचन सुधा नामक पत्र में गवर्नमेंट के विरुद्ध कौन बात थी? फिर क्यों उसे पकड़ने को हम भेजे गए? हम लाचार हैं।
दू. देशी : (टेबुल के नीचे से रोकर) हम नहीं, हम नहीं, तमाशा देखने आए थे।
महा. : हाय हाय! यहाँ के लोग बड़े भीरु और कापुरूष हैं। इसमें भय की कौन बात है! कानूनी है।
सभा. : तो पकड़ने का आपको किस कानून से अधिकार है?
डिस. : इँगलिश पालिसी नामक ऐक्ट के हाकिमेच्छा नामक दफा से।
महा. : परंतु तुम?
दू. देशी : (रोकर) हाय हाय! भटवा तुम कहता है अब मरे।
महा. : पकड़ नही सकतीं, हमको भी दो हाथ दो पैर है। चलो हम लोग तुम्हारे संग चलते हैं, सवाल जवाब करेंगे।
बंगाली : हाँ चलो, ओ का बात-पकड़ने नहीं शेकता।
सभा. : (स्वगत) चेयरमैन होने से पहिले हमीं को उत्तर देना पडे़गा, इसी से किसी बात में हम अगुआ नहीं होते।
डिस : अच्छा चलो। (सब चलने की चेष्टा करते हैं)
(जवनिका गिरती है)
छठा अंक
स्थान-गंभीर वन का मध्यभाग
(भारत एक वृक्ष के नीचे अचेत पड़ा है)
(भारतभाग्य का प्रवेश)
भारतभाग्य : (गाता हुआ-राग चैती गौरी)
जागो जागो रे भाई।
सोअत निसि बैस गँवाई। जागों जागो रे भाई ।।
निसि की कौन कहै दिन बीत्यो काल राति चलि आई।
देखि परत नहि हित अनहित कछु परे बैरि बस जाई ।।
निज उद्धार पंथ नहिं सूझत सीस धुनत पछिताई।
अबहुँ चेति, पकारि राखो किन जो कुछ बची बड़ाई ।।
फिर पछिताए कुछ नहिं ह्नै है रहि जैहौ मुँह बाई।
जागो जागो रे भाई ।।
(भारत को जगाता है और भारत जब नहीं जागता तब अनेक यत्न से फिर जगाता है, अंत में हारकर उदास होकर)
हाय! भारत को आज क्या हो गया है? क्या निःस्संदेह परमेश्वर इससे ऐसा ही रूठा है? हाय क्या अब भारत के फिर वे दिन न आवेंगे? हाय यह वही भारत है जो किसी समय सारी पृथ्वी का शिरोमणि गिना जाता था?
भारत के भुजबल जग रक्षित।
भारतविद्या लहि जग सिच्छित ।।
भारततेज जगत बिस्तारा।
भारतभय कंपत संसारा ।।
जाके तनिकहिं भौंह हिलाए।
थर थर कंपत नृप डरपाए ।।
जाके जयकी उज्ज्वल गाथा।
गावत सब महि मंगल साथा ।।
भारतकिरिन जगत उँजियारा।
भारतजीव जिअत संसारा ।।
भारतवेद कथा इतिहासा।
भारत वेदप्रथा परकासा ।।
फिनिक मिसिर सीरीय युनाना।
भे पंडित लहि भारत दाना ।।
रह्यौ रुधिर जब आरज सीसा।
ज्वलित अनल समान अवनीसा ।।
साहस बल इन सम कोउ नाहीं।
तबै रह्यौ महिमंडल माहीं ।।
कहा करी तकसीर तिहारी।
रे बिधि रुष्ट याहि की बारी ।।
सबै सुखी जग के नर नारी।
रे विधना भारत हि दुखारी ।।
हाय रोम तू अति बड़भागी।
बर्बर तोहि नास्यों जय लागी ।।
तोड़े कीरतिथंभ अनेकन।
ढाहे गढ़ बहु करि प्रण टेकन ।।
मंदिर महलनि तोरि गिराए।
सबै चिन्ह तुव धूरि मिलाए ।।
कछु न बची तुब भूमि निसानी।
सो बरु मेरे मन अति मानी ।।
भारत भाग न जात निहारे।
थाप्यो पग ता सीस उधारे ।।
तोरîो दुर्गन महल ढहायो।
तिनहीं में निज गेह बनायो ।।
ते कलंक सब भारत केरे।
ठाढ़े अजहुँ लखो घनेरे ।।
काशी प्राग अयोध्या नगरी।
दीन रूप सम ठाढी़ सगरी ।।
चंडालहु जेहि निरखि घिनाई।
रही सबै भुव मुँह मसि लाई ।।
हाय पंचनद हा पानीपत।
अजहुँ रहे तुम धरनि बिराजत ।।
हाय चितौर निलज तू भारी।
अजहुँ खरो भारतहि मंझारी ।।
जा दिन तुब अधिकार नसायो।
सो दिन क्यों नहिं धरनि समायो ।।
रह्यो कलंक न भारत नामा।
क्यों रे तू बारानसि धामा ।।
सब तजि कै भजि कै दुखभारो।
अजहुँ बसत करि भुव मुख कारो ।।
अरे अग्रवन तीरथ राजा।
तुमहुँ बचे अबलौं तजि लाजा ।।
पापिनि सरजू नाम धराई।
अजहुँ बहत अवधतट जाई ।।
तुम में जल नहिं जमुना गंगा।
बढ़हु वेग करि तरल तरंगा ।।
धोवहु यह कलंक की रासी।
बोरहु किन झट मथुरा कासी ।।
कुस कन्नौज अंग अरु वंगहि।
बोरहु किन निज कठिन तरंगहि ।।
बोरहु भारत भूमि सबेरे।
मिटै करक जिय की तब मेरे ।।
अहो भयानक भ्राता सागर।
तुम तरंगनिधि अतिबल आगर ।।
बोरे बहु गिरी बन अस्थान।
पै बिसरे भारत हित जाना ।।
बढ़हु न बेगि धाई क्यों भाई।
देहु भारत भुव तुरत डुबाई ।।
घेरि छिपावहु विंध्य हिमालय।
करहु सफल भीतर तुम लय ।।
धोवहु भारत अपजस पंका।
मेटहु भारतभूमि कलंका ।।
हाय! यहीं के लोग किसी काल में जगन्मान्य थे।
जेहि छिन बलभारे हे सबै तेग धारे।
तब सब जग धाई फेरते हे दुहाई ।।
जग सिर पग धारे धावते रोस भारे।
बिपुल अवनि जीती पालते राजनीती ।।
जग इन बल काँपै देखिकै चंड दापै।
सोइ यह पिय मेरे ह्नै रहे आज चेरे ।।
ये कृष्ण बरन जब मधुर तान।
करते अमृतोपम वेद गान ।।
सब मोहन सब नर नारि वृंद।
सुनि मधुर वरन सज्जित सुछंद ।।
जग के सबही जन धारि स्वाद।
सुनते इन्हीं को बीन नाद ।।
इनके गुन होतो सबहि चैन।
इनहीं कुल नारद तानसैन ।।
इनहीं के क्रोध किए प्रकास।
सब काँपत भूमंडल अकास ।।
इन्हीं के हुंकृति शब्द घोर।
गिरि काँपत हे सुनि चारु ओर ।।
जब लेत रहे कर में कृपान।
इनहीं कहँ हो जग तृन समान ।।
सुनि के रनबाजन खेत माहिं।
इनहीं कहँ हो जिय सक नाहिं ।।
याही भुव महँ होत है हीरक आम कपास।
इतही हिमगिरि गंगाजल काव्य गीत परकास ।।
जाबाली जैमिनि गरग पातंजलि सुकदेव।
रहे भारतहि अंक में कबहि सबै भुवदेव ।।
याही भारत मध्य में रहे कृष्ण मुनि व्यास।
जिनके भारतगान सों भारतबदन प्रकास ।।
याही भारत में रहे कपिल सूत दुरवास।
याही भारत में भए शाक्य सिंह संन्यास ।।
याही भारत में भए मनु भृगु आदिक होय।
तब तिनसी जग में रह्यो घृना करत नहि कोय ।।
जास काव्य सों जगत मधि अब ल ऊँचो सीस।
जासु राज बल धर्म की तृषा करहिं अवनीस ।।
साई व्यास अरु राम के बंस सबै संतान।
ये मेरे भारत भरे सोई गुन रूप समान ।।
सोइ बंस रुधिर वही सोई मन बिस्वास।
वही वासना चित वही आसय वही विलास ।।
कोटि कोटि ऋषि पुन्य तन कोटि कोटि अति सूर।
कोटि कोटि बुध मधुर कवि मिले यहाँ की धूर ।।
सोई भारत की आज यह भई दुरदसा हाय।
कहा करे कित जायँ नहिं सूझत कछु उपाय ।।
(भारत को फिर उठाने की अनेक चेष्टा करके उपाय निष्फल होने पर रोकर)
हा! भारतवर्ष को ऐसी मोहनिद्रा ने घेरा है कि अब इसके उठने की आशा नहीं। सच है, जो जान बूझकर सोता है उसे कौन जगा सकेगा? हा दैव! तेरे विचित्र चरित्र हैं, जो कल राज करता था वह आज जूते में टाँका उधार लगवाता है। कल जो हाथी पर सवार फिरते थे आज नंगे पाँव बन बन की धूल उड़ाते फिरते हैं। कल जिनके घर लड़के लड़कियों के कोलाहल से कान नहीं दिया जाता था आज उसका नाम लेवा और पानी देवा कोई नहीं बचा और कल जो घर अन्न धन पूत लक्ष्मी हर तरह से भरे थे आज उन घरों में तूने दिया बोलनेवाला भी नहीं छोड़ा।
हा! जिस भारतवर्ष का सिर व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, पाणिनि, शाक्यसिंह, बाणभट्ट, प्रभृति कवियों के नाममात्र से अब भी सारे संसार में ऊँचा है, उस भारत की यह दुर्दशा! जिस भारतवर्ष के राजा चंद्रगुप्त और अशोक का शासन रूम रूस तक माना जाता था, उस भारत की यह दुर्दशा! जिस भारत में राम, युधिष्ठर, नल, हरिश्चंद्र, रंतिदेव, शिवि इत्यादि पवित्र चरित्र के लोग हो गए हैं उसकी यह दशा! हाय, भारत भैया, उठो! देखो विद्या का सूर्य पश्चिम से उदय हुआ चला आता है। अब सोने का समय नहीं है। अँगरेज का राज्य पाकर भी न जगे तो कब जागोगे। मूर्खों के प्रचंड शासन के दिन गए, अब राजा ने प्रजा का स्वत्व पहिचाना। विद्या की चरचा फैल चली, सबको सब कुछ कहने सुनने का अधिकार मिला, देश विदेश से नई विद्या और कारीगरी आई। तुमको उस पर भी वही सीधी बातें, भाँग के गोले, ग्रामगीत, वही बाल्यविवाह, भूत प्रेत की पूजा जन्मपत्री की विधि! वही थोड़े में संतोष, गप हाँकने में प्रीती और सत्यानाशी चालें! हाय अब भी भारत की यह दुर्दशा! अरे अब क्या चिता पर सम्हलेगा। भारत भाई! उठो, देखो अब दुख नहीं सहा जाता, अरे कब तक बेसुध रहोगे? उठो, देखो, तुम्हारी संतानों का नाश हो गया। छिन्न-छिन्न होकर सब नरक की यातना भोगते हैं, उस पर भी नहीं चेतते। हाय! मुझसे तो अब यह दशा नहीं देखी जाती। प्यारे जागो। (जगाकर और नाड़ी देखकर) हाय इसे तो बड़ा ही ज्वर चढ़ा है! किसी तरह होश में नहीं आता। हा भारत! तेरी क्या दशा हो गई! हे करुणासागर भगवान् इधर भी दृष्टि कर। हे भगवती राज-राजेश्वरी, इसका हाथ पकड़ो। (रोकर) अरे कोई नहीं जो इस समय अवलंब दे। हा! अब मैं जी के क्या करूँगा! जब भारत ऐसा मेरा मित्र इस दुर्दशा में पड़ा है और उसका उद्धार नहीं कर सकता, तो मेरे जीने पर धिक्कार है! जिस भारत का मेरे साथ अब तक इतना संबध था उसकी ऐसी दशा देखकर भी मैं जीता रहूँ तो बड़ा वृ$तघ्न हूँ! (रोता है) हा विधाता, तुझे यही करना था! (आतंक से) छिः छिः इतना क्लैव्य क्यों? इस समय यह अधीरजपना! बस, अब धैर्य! (कमर से कटार निकालकर) भाई भारत! मैं तुम्हारे ऋण से छूटता हूँ! मुझसे वीरों का कर्म नहीं हो सकता। इसी से कातर की भाँति प्राण देकर उऋण होता हूँ। (ऊपर हाथ उठाकर) हे सव्र्वांतर्यामी! हे परमेश्वर! जन्म-जन्म मुझे भारत सा भाई मिलै। जन्म जन्म गंगा जमुना के किनारे मेरा निवास हो।
(भारत का मुँह चूमकर और गले लगाकर)
भैया, मिल लो, अब मैं बिदा होता हूँ। भैया, हाथ क्यों नहीं उठाते? मैं ऐसा बुरा हो गया कि जन्म भर के वास्ते मैं बिदा होता हूँ तब भी ललककर मुझसे नहीं मिलते। मैं ऐसा ही अभागा हूँ तो ऐसे अभागे जीवन ही से क्या; बस यह लो।
(कटार का छाती में आघात और साथ ही जवनिका पतन)

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