परिन्दे
(कहानी, निर्मल वर्मा, NTANET/JRF के पाठ्यक्रममें शामिल) : : HindiSahitya Vimarsh
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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास
निर्मल वर्मा लिखित कहानी 'परिन्दे' NTA/NET/JRF
के पाठ्यक्रम में शामिल है। अतः परीक्षार्थियों के लाभार्थ यहाँ
प्रस्तुत की जा रही है—
पात्र : लतिका, करीमुद्दीन, जूली, सुधा, हेमन्ती, डॉ. मुकर्जी, मि. ह्यूबर्ट, मिस वुड, फादर एल्मण्ड, मेजर गिरीश नेगी।
अँधेरे गलियारे में
चलते हुए लतिका ठिठक गयी। दीवार का सहारा लेकर उसने लैम्प की बत्ती बढ़ा दी। सीढ़ियों
पर उसकी छाया एक बैडौल कटी-फटी आकृति खींचने लगी। सात नम्बर कमरे में लड़कियों की बातचीत
और हँसी-ठहाकों का स्वर अभी तक आ रहा था। लतिका ने दरवाज़ा खटखटाया। शोर अचानक बंद
हो गया। “कौन है?"
लतिका चुप खड़ी रही।
कमरे में कुछ देर तक घुसर-पुसर होती रही, फिर दरवाज़े की चिटखनी के खुलने का स्वर आया। लतिका कमरे की देहरी से कुछ आगे बढ़ी,
लैम्प की झपकती लौ में लड़कियों के चेहरे सिनेमा
के परदे पर ठहरे हुए क्लोजअप की भाँति उभरने लगे। “कमरे में अँधेरा क्यों कर रखा है?" लतिका के स्वर में हल्की-सी झिड़की का आभास था।
“लैम्प में तेल ही ख़त्म हो
गया, मैडम!" यह सुधा का कमरा
था, इसलिए उसे ही उत्तर देना पड़ा।
होस्टल में शायद वह सबसे अधिक लोकप्रिय थी, क्योंकि सदा छुट्टी के समय या रात को डिनर के बाद आस-पास के
कमरों में रहनेवाली लड़कियों का जमघट उसी के कमरे में लग जाता था। देर तक गप़-शप,
हँसी-मज़ाक़ चलता रहता। “तेल के लिए करीमुद्दीन से क्यों नहीं कहा?" “कितनी बार कहा मैडम, लेकिन उसे याद रहे तब तो।"
कमरे में हँसी की
फुहार एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गयी। लतिका के कमरे में आने से अनुशासन की जो घुटन
घिर आयी थी वह अचानक बह गयी। करीमुद्दीन होस्टल का नौकर था। उसके आलस और काम में टालमटोल
करने के क़िस्से होस्टल की लड़कियों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आते थे। लतिका को हठात
कुछ स्मरण हो आया। अँधेरे में लैम्प घुमाते हुए चारों ओर निगाहें, दौड़ाईं। कमरे में चारों ओर घेरा बनाकर वे बैठी
थीं— पास-पास एक-दूसरे से सटकर। सबके चेहरे परिचित थे,
किन्तु लैम्प के पीले मद्धिम प्रकाश में मानो कुछ
बदल गया था, या जैसे वह उन्हें
पहली बार देख रही थी। “जूली, अब तक तुम इस ब्लॉक में क्या कर रही हो?"
जूली खिड़की के पास
पलँग के सिरहाने बैठी थी। उसने चुपचाप आँखें नीची कर ली। लैम्प का प्रकाश चारों ओर
से सिमटकर अब केवल उसके चेहरे पर गिर रहा था। “नाइट रजिस्टर पर दस्तख़त कर दिये?" “हाँ, मैडम।" “फिर...?"
लतिका का स्वर कड़ा हो आया। जूली सकुचाकर खिड़की
से बाहर देखने लगी। जब से लतिका इस स्कूल में आयी है, उसने अनुभव किया है कि होस्टल के इस नियम का पालन डाँट-फटकार
के बावजूद नहीं होता। “मैडम, कल से छुट्टियाँ शुरू हो जायेंगी, इसलिए आज रात हम सबने मिलकर..." और सुधा पूरी
बात न कहकर हेमन्ती की ओर देखते हुए मुस्कराने लगी। “हेमन्ती के गाने का प्रोग्राम है, आप भी कुछ देर बैठिए न।"
लतिका को उलझन मालूम
हुई। इस समय यहाँ आकर उसने इनके मज़े को किरकिरा कर दिया। इस छोटे-से-हिल-स्टेशन पर
रहते उसे ख़ासा अर्सा हो गया, लेकिन कब समय पतझड़
और गर्मियों का घेरा पार कर सर्दी की छुट्टियों की गोद में सिमट जाता है, उसे कभी याद नहीं रहता। चोरों की तरह चुपचाप वह
देहरी से बाहर को गयी। उसके चेहरे का तनाव ढीला पड़ गया। वह मुस्कराने लगी। “मेरे संग स्नो-फॉल देखने कोई नहीं ठहरेगा?"
“मैडम, छुट्टियों में क्या आप घर नहीं जा रही हैं?" सब लड़कियों की आँखे उस पर जम गयीं। “अभी कुछ पक्का नहीं है-आई लव द स्नो-फॉल!"
लतिका को लगा कि यही
बात उसने पिछले साल भी कही थी और शायद पिछले से पिछले साल भी। उसे लगा मानो लड़कियाँ
उसे सन्देह की दृष्टि से देख रही है, मानो उन्होंने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया। उसका सिर चकराने लगा, मानो बादलों का स्याह झुरमुट किसी अनजाने कोने से
उठकर उसे अपने में डुबा लेगा। वह थोड़ा-सा हँसी, फिर धीरे-से उसने सर को झटक दिया। “जूली, तुमसे कुछ काम है,
अपने ब्लॉक में जाने से पहले मुझे मिल लेना— वेल गुड नाइट!" लतिका ने अपने पीछे दरवाज़ा बंद कर दिया।
“गुड नाइट मैडम, गुड नाइट,
गुड नाइट..." गलियारे की सीढ़ियाँ न उतरकर
लतिका रेलिंग के सहारे खड़ी हो गयी। लैंप की बत्ती को नीचे घुमाकर कोने में रख दिया।
बाहर धुन्ध की नीली तहें बहुत घनी हो चली थीं। लॉन पर लगे हुए चीड़ के पत्तों की सरसराहट
हवा के झोंकों के संग कभी तेज, कभी धीमी होकर भीतर
बह आती थी। हवा में सर्दी का हल्का-सा आभास पाकर लतिका के दिमाग़ में कल से शुरू होनेवाली
छुट्टियों का ध्यान भटक आया। उसने आँखें मूँद लीं। उसे लगा कि जैसे उसकी टाँगें बाँस
की लकड़ियों की तरह उसके शरीर से बँधी हैं, जिसकी गाँठें धीरे-धीरे खुलती जा रही हैं। सिर की चकराहट अभी
मिटी नहीं थी, मगर अब जैसे वह भीतर
न होकर बाहर फैली हुई धुन्ध का हिस्सा बन गयी थी।
सीढ़ियों पर बातचीत
का स्वर सुनकर लतिका जैसे सोते से जगी। शॉल को कन्धों पर समेटा और लैम्प उठा लिया।
डॉ. मुकर्जी मि. ह्यूबर्ट के संग एक अंग्रेज़ी धुन गुनगुनाते हुए ऊपर आ रहे थे। सीढ़ियों
पर अँधेरा था और ह्यूबर्ट को बार-बार अपनी छड़ी से रास्ता टटोलना पड़ता था। लतिका ने
दो-चार सीढ़ियाँ उतरकर लैम्प को नीचे झुका दिया। “गुड ईवनिंग डॉक्टर, गुड ईवनिंग मि. ह्यूबर्ट!" “थैंक यू मिस लतिका" - ह्यूबर्ट के स्वर में कृतज्ञता का भाव था। सीढ़ियाँ
चढ़ने से उनकी साँस तेज हो रही थी और वह दीवार से लगे हुए हाँफ रहे थे। लैम्प की रोशनी
में उनके चेहरे का पीलापन कुछ ताँबे के रंग जैसा हो गया था।
“यहाँ अकेली क्या कर रही हो मिस लतिका?" - डॉक्टर ने होंठों के भीतर से सीटी बजायी। “चेकिंग करके लौट रही थी। आज इस वक्त ऊपर कैसे आना
हुआ मिस्टर ह्यूबर्ट?" ह्यूबर्ट ने मुस्कराकर
अपनी छड़ी डॉक्टर के कन्धों से छुला दी — “इनसे पूछो, यही मुझे ज़बर्दस्ती
घसीट लाये हैं।"
“मिस लतिका, हम आपको निमन्त्रण
देने आ रहे थे। आज रात मेरे कमरे में एक छोटा-सा-कन्सर्ट होगा जिसमें मि. ह्यूबर्ट
शोपाँ और चाइकोव्स्की के कम्पोजीशन बजायेंगे और फिर क्रीम कॉफी पी जायेगी। और उसके
बाद अगर समय रहा, तो पिछले साल हमने
जो गुनाह किये हैं उन्हें हम सब मिलकर कन्फ्रेंस करेंगे।" डॉक्टर मुकर्जी के चेहरे
पर भारी मुस्कान खेल गयी। “डॉक्टर, मुझे माफ़ करें, मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है।"
“चलिए, यह ठीक रहा। फिर तो आप वैसे
भी मेरे पास आतीं।" डॉक्टर ने धीरे-से लतिका के कंधों को पकड़कर अपने कमरे की
तरफ़ मोड़ दिया। डॉक्टर मुकर्जी का कमरा ब्लॉक के दूसरे सिरे पर छत से जुड़ा हुआ था।
वह आधे बर्मी थे, जिसके चिह्न उनकी
थोड़ी दबी हुई नाक और छोटी-छोटी चंचल आँखों से स्पष्ट थे। बर्मा पर जापानियों का आक्रमण
होने के बाद वह इस छोटे से पहाड़ी शहर में आ बसे थे। प्राइवेट प्रैक्टिस के अलावा वह
कान्वेन्ट स्कूल में हाईजीन-फिजियालोजी भी पढ़ाया करते थे और इसलिए उनको स्कूल के होस्टल
में ही एक कमरा रहने के लिए दे दिया गया था। कुछ लोगों का कहना था कि बर्मा से आते
हुए रास्ते में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी, लेकिन इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता,
क्योंकि डॉक्टर स्वयं कभी अपनी पत्नी की चर्चा नहीं करते।
बातों के दौरान डॉक्टर
अक्सर कहा करते हैं — “मरने से पहले मैं एक दफा बर्मा ज़रूर जाऊँगा" - और तब एक
क्षण के लिए उनकी आँखों में एक नमी-सी छा जाती। लतिका चाहने पर भी उनसे कुछ पूछ नहीं
पाती। उसे लगता कि डॉक्टर नहीं चाहते कि कोई अतीत के सम्बन्ध में उनसे कुछ भी पूछे
या सहानुभूति दिखलाये। दूसरे ही क्षण अपनी गम्भीरता को दूर ठेलते हुए वह हँस पड़ते
— एक सूखी, बूझी हुई हँसी।
होम-सिक्नेस ही एक
ऐसी बीमारी है जिसका इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं है। छत पर मेज़-कुर्सियाँ डाल दी
गईं और भीतर कमरे में परकोलेटर में कॉफी का पानी चढ़ा दिया गया। “सुना है अगले दो-तीन वर्षों में यहाँ पर बिजली का
इन्तिज़ाम हो जायेगा" —डॉक्टर ने स्प्रिट लैम्प जलाते
हुए कहा। “यह बात तो पिछले दस सालों
से सुनने में आ रही है। अंग्रेज़ों ने भी कोई लम्बी-चौड़ी स्कीम बनायी थी, पता नहीं उसका क्या हुआ" — ह्यूबर्ट ने कहा। वह आराम कुर्सी पर लेटा हुआ बाहर लॉन की ओर
देख रहा था।
लतिका कमरे से दो
मोमबत्तियाँ ले आयी। मेज़ के दोनों सिरों पर टिकाकर उन्हें जला दिया गया। छत का अँधेरा
मोमबत्ती की फीकी रोशनी के इर्द-गिर्द सिमटने लगा। एक घनी नीरवता चारों ओर घिरने लगी।
हवा में चीड़ के वृक्षों की साँय-साँय दूर-दूर तक फैली पहाड़ियों और घाटियों में सीटियों
की गूँज-सी छोड़ती जा रही थी। “इस बार शायद बर्फ़
जल्दी गिरेगी, अभी से हवा में एक
सर्द ख़ुश्की-सी महसूस होने लगी है" — डॉक्टर का सिगार अँधेरे में
लाल बिन्दी-सा चमक रहा था। “पता नहीं,
मिस वुड को स्पेशल सर्विस का गोरखधन्धा क्यों पसन्द
आता है। छुट्टियों में घर जाने से पहले क्या यह जरूरी है कि लड़कियाँ फादर एल्मण्ड
का सर्मन सुनें?" — ह्यूबर्ट ने कहा।
डॉक्टर को फादर एल्मण्ड
एक आँख नहीं सुहाते थे। लतिका कुर्सी पर आगे झुककर प्यालों में कॉफी उँडेलने लगी। हर
साल स्कूल बन्द होने के दिन यही दो प्रोग्राम होते हैं — चैपल में स्पेशल
सर्विस और उसके बाद दिन में पिकनिक। लतिका को पहला साल याद आया जब डॉक्टर के संग पिकनिक
के बाद वह क्लब गयी थी। डॉक्टर बार में बैठै थे। बार रूम कुमाऊँ रेजीमेण्ट के अफ़सरों
से भरा हुआ था। कुछ देर तक बिलियर्ड का खेल देखने के बाद जब वह वापिस बार की ओर आ रहे
थे, तब उसने दायीं ओर क्लब की
लाइब्रेरी में देखा— मगर उसी समय डॉक्टर मुकर्जी
पीछे से आ गये थे। मिस लतिका, यह मेजर गिरीश नेगी
है।" बिलियर्ड रूम से आते हुए हँसी-ठहाकों के बीच वह नाम दब-सा गया था। वह किसी
किताब के बीच में उँगली रखकर लायब्रेरी की खिड़की से बाहर देख रहा था। “हलो डॉक्टर" — वह पीछे मुड़ा। तब
उस क्षण...
उस क्षण न जाने क्यों
लतिका का हाथ काँप गया और कॉफी की कुछ गर्म बूँदें उसकी साड़ी पर छलक आयी। अँधेरे में
किसी ने नहीं देखा कि लतिका के चेहरे पर एक उनींदा रीतापन घिर आया है। हवा के झोंके
से मोमबत्तियों की लौ फड़कने लगी। छत से भी ऊँची काठगोदाम जानेवाली सड़क पर यू.पी.
रोडवेज की आख़िरी बस डाक लेकर जा रही थी। बस की हैड लाइट्स में आस-पास फैली हुई झाड़ियों
की छायाएँ घर की दीवार पर सरकती हुई ग़ायब होने लगीं।
“मिस लतिका, आप इस साल भी छुट्टियों
में यहीं रहेंगी?'' डॉक्टर ने पूछा। डॉक्टर का सवाल हवा में टँगा रहा। उसी क्षण
पियानो पर शोपाँ का नोक्टर्न ह्यूबर्ट की उँगलियों के नीचे से फिसलता हुआ धीरे-धीरे
छत के अँधेरे में घुलने लगा-मानो जल पर कोमल स्वप्निल उर्मियाँ भँवरों का झिलमिलाता
जाल बुनती हुईं दूर-दूर किनारों तक फैलती जा रही हों। लतिका को लगा कि जैसे कहीं बहुत
दूर बर्फ़ की चोटियों से परिन्दों के झुण्ड नीचे अनजान देशों की ओर उड़े जा रहे हैं।
इन दिनों अक्सर उसने अपने कमरे की खिड़की से उन्हें देखा है—धागे में बँधे चमकीले
लट्टुओं की तरह वे एक लम्बी, टेढ़ी-मेढ़ी कतार
में उड़े जाते हैं, पहाड़ों की सुनसान
नीरवता से परे, उन विचित्र शहरों
की ओर जहाँ शायद वह कभी नहीं जायेगी।
लतिका आर्म चेयर पर
ऊँघने लगी। डॉक्टर मुकर्जी का सिगार अँधेरे में चुपचाप जल रहा था। डॉक्टर को आश्चर्य
हुआ कि लतिका न जाने क्या सोच रही है और लतिका सोच रही थी—क्या वह बूढ़ी होती
जा रही है? उसके सामने स्कूल की प्रिंसिपल
मिस वुड का चेहरा घूम गया—पोपला मुँह, आँखों के नीचे झूलती हुई माँस की थैलियाँ,
ज़रा-ज़रा सी बात पर चिढ़ जाना, कर्कश आवाज में चीखना—सब उसे 'ओल्डमेड' कहकर पुकारते हैं।
कुछ वर्षों बाद वह भी हू-ब-हू वैसी ही बन जायेगी...लतिका के समूचे शरीर में झूरझूरी-सी
दौड़ गयी, मानो अनजाने में उसने किसी
गलीज वस्तु को छू लिया हो। उसे याद आया कुछ महीने पहले अचानक उसे ह्यूबर्ट का प्रेमपत्र
मिला था — भावुक याचना से भरा हुआ पत्र, जिसमें उसने न जाने क्या कुछ लिखा था, जो कभी उसकी समझ में नहीं आया। उसे ह्यूबर्ट की
इस बचकाना हरकत पर हँसी आयी थी, किन्तु भीतर-ही-भीतर
प्रसन्नता भी हुई थी। उसकी उम्र अभी बीती नहीं है, अब भी वह दूसरों को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है। ह्यूबर्ट का
पत्र पढ़कर उसे क्रोध नहीं आया, आयी थी केवल ममता।
वह चाहती तो उसकी ग़लतफ़हमी को दूर करने में देर न लगती, किन्तु कोई शक्ति उसे रोके रहती है, उसके कारण अपने पर विश्वास रहता है, अपने सुख का भ्रम मानो ह्यूबर्ट की ग़लतफ़हमी से जुड़ा है...।
ह्यूबर्ट ही क्यों,
वह क्या किसी को चाह सकेगी, उस अनुभूति के संग, जो अब नहीं रही, जो छाया-सी उस पर मँडराती रहती है, न स्वयं मिटती है, न उसे मुक्ति दे पाती
है। उसे लगा, जैसे बादलों का झुरमुट
फिर उसके मस्तिष्क पर धीरे-धीरे छाने लगा है, उसकी टाँगे फिर निर्जीव, शिथिल-सी हो गयी हैं।
वह झटके से उठ खड़ी हुई— “डॉक्टर माफ़ करना, मुझे बहुत थकान-सी लग रही है...बिना वाक्य पूरा किये ही वह चली गयी। कुछ देर तक
टैरेस पर निस्तब्धता छायी रही। मोमबत्तियाँ बूझने लगी थीं। डॉक्टर मुकर्जी ने सिगार
का नया कश लिया — “सब लड़कियाँ एक-जैसी होती है—बेवकूफ और सेंटीमेंटल।"
ह्यूबर्ट की उँगलियों का दबाव पियानो पर ढीला पड़ता गया, अन्तिम सुरों की झिझकी-सी गूँज कुछ क्षणों तक हवा में तिरती
रही।
“डॉक्टर, आपको मालूम है,
मिस लतिका का व्यवहार पिछले कुछ अर्से से अजीब-सा
लगता है।" ह्यूबर्ट के स्वर में लापरवाही का भाव था। वह नहीं चाहता था कि डॉक्टर
को लतिका के प्रति उसकी भावनाओं का आभास-मात्र भी मिल सके। जिस कोमल अनुभूति को वह
इतने समय से सँजोता आया है, डॉक्टर उसे हँसी के
एक ठहाके में उपहासास्पद बना देगा। “क्या तुम नियति में विश्वास करते हो, ह्यूबर्ट?" डॉक्टर ने कहा। ह्यूबर्ट
दम रोके प्रतीक्षा करता रहा। वह जानता था कि कोई भी बात कहने से पहले डॉक्टर को फिलासोफाइज
करने की आदत थी। डॉक्टर टैरेस के जंगले से सटकर खड़ा हो गया। फीकी-सी चाँदनी में चीड़
के पेड़ो की छायाएँ लॉन पर गिर रही थी। कभी-कभी कोई जुगनू अँधेरे में हरा प्रकाश छिड़कता
हवा में ग़ायब हो जाता था।
“मैं कभी-कभी सोचता हूँ, इन्सान ज़िन्दा किसलिए
रहता है-क्या उसे कोई और बेहतर काम करने को नहीं मिला? हजारों मील अपने मुल्क से दूर मैं यहाँ पड़ा हूँ — यहाँ कौन मुझे जानता है, यहीं शायद मर भी जाऊँगा। ह्यूबर्ट, क्या तुमने कभी महसूस किया है कि एक अजनबी की हैसियत से परायी
ज़मीन पर मर जाना काफ़ी ख़ौफ़नाक बात है...!"
ह्यूबर्ट विस्मित-सा
डॉक्टर को देखने लगा। उसने पहली बार डॉक्टर मुकर्जी के इस पहलू को देखा था। अपने सम्बन्ध
में वह अक्सर चुप रहते थे। “कोई पीछे नहीं है,
यह बात मुझमें एक अजीब क़िस्म की बेफ़िक्री पैदा
कर देती है। लेकिन कुछ लोगों की मौत अन्त तक पहेली बनी रहती है, शायद वे ज़िन्दगी से बहुत उम्मीद लगाते थे। उसे
ट्रैजिक भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आख़िरी दम
तक उन्हें मरने का एहसास नहीं होता।" “डॉक्टर, आप किसका ज़िक्र कर
रहे हैं?" ह्यूबर्ट ने परेशान
होकर पूछा। डॉक्टर कुछ देर तक चुपचाप सिगार पीता रहा। फिर मुड़कर वह मोमबत्तियों की
बुझती हुई लौ को देखने लगा।
“तुम्हें मालूम है, किसी समय लतिका बिला
नागा क्लब जाया करती थी। गिरीश नेगी से उसका परिचय वहीं हुआ था। कश्मीर जाने से एक
रात पहले उसने मुझे सब कुछ बता दिया था। मैं अब तक लतिका से उस मुलाक़ात के बारे में
कुछ नहीं कह सका हूँ। किन्तु उस रात कौन जानता था कि वह वापस नहीं लौटेगा। और अब...अब
क्या फ़र्क़ पड़ता है। लेट द डेड। डाई..." डॉक्टर की सूखी सर्द हँसी में खोखली-सी
शून्यता भरी थी।
“कौन गिरीश नेगी?" “कुमाऊँ रेजीमेंट में
कैप्टन था।" “डॉक्टर, क्या लतिका..." ह्यूबर्ट से आगे कुछ नहीं कहा
गया। उसे याद आया वह पत्र, जो उसने लतिका को
भेजा था, कितना अर्थहीन और उपहासास्पद,
जैसे उसका एक-एक शब्द उसके दिल को कचोट रहा हो।
उसने धीरे-से पियानो पर सिर टिका लिया। लतिका ने उसे क्यों नहीं बताया, क्या वह इसके योग्य भी नहीं था? “लतिका... वह तो बच्ची है, पागल! मरनेवाले के संग खुद थोड़े ही मरा जाता है।“
कुछ देर चुप रहकर
डॉक्टर ने अपने प्रश्न को फिर दुहराया। “लेकिन ह्यूबर्ट, क्या तुम नियति पर
विश्वास करते हो?" हवा के हल्के झोंके
से मोमबत्तियाँ एक बार प्रज्जवलित होकर बुझ गयीं। टैरेस पर ह्यूबर्ट और डॉक्टर अँधेरे
में एक-दूसरे का चेहरा नहीं देख पा रहे थे, फिर भी वे एक-दूसरे की ओर देख रहे थे। कान्वेंट स्कूल से कुछ
दूर मैदानों में बहते पहाड़ी नाले का स्वर आ रहा था। अब बहुत देर बाद कुमाऊँ रेजीमेंट
सेण्टर का बिगुल सुनायी दिया, तो ह्यूबर्ट हड़बड़ाकर
खड़ा हो गया। “अच्छा, चलता हूँ, डॉक्टर, गुड नाइट।"
“गुड नाइट ह्यूबर्ट...मुझे माफ़ करना, मैं सिगार ख़त्म करके उठूँगा..." सुबह बदली छायी थी। लतिका के खिड़की खोलते
ही धुन्ध का गुब्बारा-सा भीतर घुस आया, जैसे रात-भर दीवार के सहारे सरदी में ठिठुरता हुआ वह भीतर आने की प्रतीक्षा कर
रहा हो। स्कूल से ऊपर चैपल जानेवाली सड़क बादलों में छिप गयी थी, केवल चैपल का 'क्रास' धुन्ध के परदे पर
एक-दूसरे को काटती हुई पेंसिल की रेखाओं-सा दिखायी दे जाता था।
लतिका ने खिड़की से
आँखें हटाईं, तो देखा कि करीमुद्दीन
चाय की ट्रे लिये खड़ा है। करीमुद्दीन मिलिट्री में अर्दली रह चुका था, इसलिए ट्रे मेज़ पर रखकर 'अटेन्शन' की मुद्रा में खड़ा
हो गया। लतिका झटके से उठ बैठी। सुबह से आलस करके कितनी बार जागकर वह सो चुकी है। अपनी
खिसियाहट मिटाने के लिए लतिका ने कहा — “बड़ी सर्दी है आज, बिस्तर छोड़ने को जी नहीं चाहता।"
“अजी मेम साहब, अभी क्या सरदी आयी
है— बड़े दिनों में देखना कैसे दाँत कटकटाते हैं"
— और करीमुद्दीन अपने हाथों को बगलों में डाले हुए
इस तरह सिकुड़ गया जैसे उन दिनों की कल्पना मात्र से उसे जाड़ा लगना शुरू हो गया हो।
गंजे सिर पर दोनों तरफ़ के उसके बाल खिजाब लगाने से कत्थई रंग के भूरे हो गये थे। बात
चाहे किसी विषय पर हो रही हो, वह हमेशा खींचतान
कर उसे ऐसे क्षेत्र में घसीट लाता था, जहाँ वह बेझिझक अपने विचारों को प्रकट कर सके।
मिस वुड,
फादर एल्मण्ड, फादर एल्मण्ड, मेजर गिरीश नेगी,
“एक दफ़ा तो यहाँ लगातार इतनी बर्फ़ गिरी थी कि भुवाली से लेकर डाक बँगले तक सारी
सड़कें जाम हो गईं। इतनी बर्फ़ थी मेम साहब कि पेड़ों की टहनियाँ तक सिकुड़कर तनों
से लिपट गयी थी — बिलकुल ऐसे,"
और करीमुद्दीन नीचे झुककर मुर्ग़ा-सा बन गया। “कब की बात है?" लतिका ने पूछा।
“अब यह तो जोड़-हिसाब करके ही पता चलेगा, मेम साहब, लेकिन इतना याद है
कि उस वक़्त अंग्रेज़ बहादूर यहीं थे। कण्टोनमेण्ट की इमारत पर कौमी झण्डा नहीं लगा
था। बड़े जबर थे ये अंग्रेज़, दो घण्टों में ही
सारी सड़कें साफ़ करवा दीं। उन दिनों एक सीटी बजाते ही पचास घोड़ेवाले जमा हो जाते
थे। अब तो सारे शेड खाली पड़े हैं। वे लोग अपनी ख़िदमत भी करवाना जानते थे,
अब तो सब उजाड़ हो गया है"। करीमुद्दीन उदास
भाव से बाहर देखने लगा। आज यह पहली बार नहीं है जब लतिका करीमुद्दीन से उन दिनों की
बातें सुन रही है जब अंग्रेज़ बहादुर ने इस स्थान को स्वर्ग बना रखा था। “आप छुट्टियों में इस साल भी यही रहेंगी मेम साहब?"
“दिखता तो कुछ ऐसा ही है करीमुद्दीन, तुम्हें फिर तंग होना पड़ेगा।" “क्या कहती हैं मेम साहब! आपके रहने से हमारा भी
मन लग जाता है, वरना छुट्टियों में
तो यहाँ कुत्ते लोटते हैं।"
“तुम जरा मिस्त्री से कह देना कि इस कमरे की छत की मरम्मत कर जाये। पिछले साल बर्फ़
का पानी दरारों से टपकता रहता था।'' लतिका को याद आया कि पिछली सर्दियों में जब कभी बर्फ़ गिरती थी, तो उसे पानी से बचने के लिए रात-भर कमरे के कोने
में सिमटकर सोना पड़ता था।
करीमुद्दीन चाय की
ट्रे उठाता हुआ बोला — “ह्यूबर्ट साहब तो शायद कल ही चले जायें, कल रात उनकी तबीयत फिर ख़राब हो गयी। आधी रात के
वक्त मुझे जगाने आये थे। कहते थे, छाती में तकलीफ़ है।
उन्हें यह मौसम रास नहीं आता। कह रहे थे, लड़कियों की बस में वह भी कल ही चले जायेंगे।" करीमुद्दीन दरवाज़ा बन्द करके
चला गया। लतिका की इच्छा हुई कि वह ह्यूबर्ट के कमरे में जाकर उनकी तबीयत की पूछताछ
कर आये। किन्तु फिर न जाने क्यों स्लीपर पैरों में टँगे रहे और वह खिड़की के बाहर बादलों
को उड़ता हुआ देखती रही। ह्यूबर्ट का चेहरा जब उसे देखकर सहमा-सा दयनीय हो जाता है,
तब लगता है कि वह अपनी मूक-निरीह याचना में उसे
कोस रहा है — न वह उसकी ग़लतफ़हमी को दूर
करने का प्रयत्न कर पाती है, न उसे अपनी विवशता
की सफ़ाई देने का साहस होता है। उसे लगता है कि इस जाले से बाहर निकलने के लिए वह धागे
के जिस सिरे को पकड़ती है वह ख़ुद एक गाँठ बनकर रह जाता है।
बाहर बूँदाबाँदी होने
लगी थी, कमरे की टिन की छत खट-खट बोलने
लगी।
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