कोसी का घटवार (कहानी, शेखर जोशी, NTA/NET/JRF के पाठ्यक्रम में शामिल) : HindiSahitya Vimarsh
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अवैतनिक सम्पादक : मुहम्मद
इलियास हुसैन
सहायक सम्पादक : शाहिद इलियास
शेखर जोशी लिखित कहानी 'कोसी का घटवार' हवालदार धरमसिंह और
लक्षमा की प्रेमकहानी है, जो आर्थिक विषमता के कारण एक नहीं
हो पाते। यह आँचलिक कहानी है, जो पाठक को अन्त तक बाँधे रखती है। यह कहानी NTA/NET/JRF के पाठ्यक्रम में शामिल है। अतः
परीक्षार्थियों के लाभार्थ यहाँ प्रस्तुत की जा रही है—
पात्र : हवालदार धरमसिंह, लछमा,
बुढ्ढे नरसिंह प्रधान, सोबनियाँ का लड़का, सिपाही किसनसिंह, रामसिंह।
अभी खप्पर में एक-चौथाई से भी
अधिक गेहूँ शेष था। खप्पर में हाथ डालकर उसने व्यर्थ ही उलटा-पलटा और चक्की के
पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को झाड़कर एक ढेर बना दिया। बाहर आते-आते उसने
फिर एक बार और खप्पर में झाँककर देखा, जैसे यह जानने के लिए कि इतनी देर में कितनी पिसाई हो चुकी
है,
परन्तु अन्दर की मिक़दार में कोई विशेष अन्तर नहीं आया था।
खस्स-खस्स की ध्वनि के साथ अत्यन्त धीमी गति से ऊपर का पाट चल रहा था। घट का प्रवेश-द्वार
बहुत कम ऊँचा था, ख़ूब नीचे
तक झुककर वह बाहर निकला। सर के बालों और बाँहों पर
आटे की एक हलकी सफ़ेद परत बैठ गई थी।
खम्भे का सहारा लेकर वह
बुदबुदाया, ''जा, स्साला! सुबह से अब तक दस पंसेरी भी नहीं हुआ। सूरज कहाँ का
कहाँ चला गया है। कैसी अनहोनी बात!''
बात अनहोनी तो है ही। जेठ बीत
रहा है। आकाश में कहीं बादलों का नाम-निशान ही नहीं। अन्य वर्षों अब तक लोगों की
धान-रोपाई पूरी हो जाती थी, पर इस साल
नदी-नाले सब सूखे पड़े हैं। खेतों की सिंचाईं तो दरकिनार, बीज की क्यारियाँ सूखी जा रही हैं। छोटे नाले-गूलों के किनारे
के घट महीनों से बन्द हैं। कोसी के किनारे हैं गुसाईं का यह घट। पर इसकी भी चाल
ऐसी कि लद्दू घोड़े की चाल को मात देती हैं।
चक्की के निचले खंड में
छिच्छर-छिच्छर की आवाज़ के साथ पानी को काटती हुई मथानी चल रही थी। कितनी धीमी आवाज़!
अच्छे खाते-पीते ग्वालों के घर में दही की मथानी इससे ज़्यादा शोर करती है। इसी
मथानी का वह शोर होता था कि आदमी को अपनी बात नहीं सुनाई देती और अब तो भले नदी
पार कोई बोले, तो बात यहाँ सुनाई दे
जाय।
छप्प ..छप्प ..छप्प ..पुरानी फ़ौजी
पैंट को घुटनों तक मोड़कर गुसांईं पानी की गूल के अन्दर चलने लगा। कहीं कोई सूराख़-निकास
हो,
तो बन्द कर दे। एक बून्द पानी भी बाहर न जाए। बून्द-बून्द
की क़ीमत है इन दिनों। प्रायः आधा फर्लांग चलकर वह बाँध पर पहुँचा। नदी की पूरी
चौड़ाई को घेरकर पानी का बहाव घट की गूल की ओर मोड़ दिया गया था। किनारे की
मिट्टी-घास लेकर उसने बाँध में एक-दो स्थान पर निकास बन्द किया और फिर गूल के
किनारे-किनारे चलकर घट पर आ गया।
अन्दर जाकर उसने फिर पाटों के
वृत्त में फैले हुए आटे को बुहारकर ढेरी में मिला दिया। खप्पर में अभी थोडा-बहुत
गेहूँ शेष था। वह उठकर बाहर आया।
दूर रास्ते पर एक आदमी सर पर
पिसान रखे उसकी ओर जा रहा था। गुसांईं ने उसकी सुविधा का ख़याल कर वहीं से आवाज़
दे दी,
''हैं हो! यहाँ लम्बर देर में आएगा। दो दिन
का पिसान अभी जमा है। ऊपर उमेदसिंह के घट में देख लो।''
उस व्यक्ति ने मुड़ने से पहले
एक बार और प्रयत्न किया। ख़ूब ऊँचे स्वर में पुकारकर वह बोला,''ज़रूरी है, जी!
पहले हमारा लम्बर नहीं लगा दोगे?''
गुसांईं होंठों-ही-होठों में
मुस्कराया, स्साला कैसे चीख़ता है, जैसे घट की आवाज़ इतनी हो कि मैं सुन न सकूँ! कुछ कम ऊँची आवाज़
में उसने हाथ हिलाकर उत्तर दे दिया, ''यहाँ ज़रूरी का भी बाप रखा है, जी! तुम ऊपर चले जाओ!''
वह आदमी लौट गया।
मिहल की छाँव में बैठकर
गुसांईं ने लकड़ी के जलते कुन्दे को खोदकर चिलम सुलगाई और गुड़-गुड़ करता धुआँ उड़ाता
रहा।
खस्सर-खस्सर चक्की का पाट चल
रहा था।
किट-किट-किट-किट खप्पर से
दाने गिरानेवाली चिड़िया पाट पर टकरा रही थी।
छिच्छर-छिच्छर की आवाज़ क़े
साथ मथानी पानी को काट रही थी। और कहीं कोई आवाज़ नहीं। कोसी के बहाव में भी कोई
ध्वनि नहीं। रेती-पाथरों के बीच में टखने-टखने पत्थर भी अपना सर उठाए आकाश को
निहार रहे थे। दोपहरी ढलने पर भी इतनी तेज़ धूप! कहीं चिरैया भी नहीं बोलती। किसी
प्राणी का प्रिय-अप्रिय स्वर नहीं।
सूखी नदी के किनारे बैठा
गुसांईं सोचने लगा, क्यों उस
व्यक्ति को लौटा दिया? लौट तो वह
जाता ही,
घट के अन्दर टच्च पड़े पिसान के थैलों को देखकर। दो-चार
क्षण की बातचीत का आसरा ही होता।
कभी-कभी गुसांईं को यह
अकेलापन काटने लगता है। सूखी नदी के किनारे का यह अकेलापन नहीं, ज़िन्दगी-भर साथ देने के लिए जो अकेलापन उसके द्वार पर धरना
देकर बैठ गया है, वही। जिसे
अपना कह सके, ऐसे किसी प्राणी का स्वर
उसके लिए नहीं। पालतू कुत्ते-बिल्ली का स्वर भी नहीं। क्या ठिकाना ऐसे मालिक का, जिसका घर-द्वार नहीं, बीबी-बच्चे नहीं, खाने-पीने का ठिकाना नहीं ..
घुटनों तक उठी हुई पुरानी फ़ौजी
पैंट के मोड़ को गुसांईं ने खोला। गूल में चलते हुए थोड़ा भाग भीग गया था। पर इस
गर्मी में उसे भीगी पैंट की यह शीतलता अच्छी लगी। पैंट की सलवटों को ठीक करते-करते
गुसांईं ने हुक्के की नली से मुँह हटाया। उसके होठों में बाँएँ कोने पर हलकी-सी
मुस्कान उभर आई। बीती बातों की याद गुसांईं सोचने लगा, इसी पैंट की बदौलत यह अकेलापन उसे मिला है ..नहीं, याद करने को मन नहीं करता। पुरानी,बहुत पुरानी बातें वह भूल गया है, पर हवालदार साहब की पैंट की बात उसे नहीं भूलती।
ऐसी ही फ़ौजी पैंट पहनकर हवालदार धरमसिंह आया था, लॉन्ड्री की धुली, नोकदार, क्रीजवाली
पैंट! वैसी ही पैंट पहनने की महत्वाकांक्षा लेकर गुसांईं फ़ौज में गया था। पर फ़ौज
से लौटा,
तो पैंट के साथ-साथ ज़िन्दगी का अकेलापन भी उसके साथ आ गया।
पैंट के साथ और भी कितनी
स्मृतियाँ सम्बद्ध हैं। उस बार की छुट्टियों की बात ..
कौन महीना? हाँ, बैसाख ही
था। सर पर क्रास खुखरी के क्रेस्ट वाली, काली, किश्तीनुमा
टोपी को तिरछा रखकर, फ़ौजी वर्दी
वह पहली बार एनुअल-लीव पर घर आया, तो
चीड़ वन की आग की तरह ख़बर इधर-उधर फैल गई थी। बच्चे-बूढ़े, सभी उससे मिलने आए थे। चाचा का गोठ एकदम भर गया था, ठसाठस्स। बिस्तर की नई, एकदम साफ़, जगमग, लाल-नीली धारियोंवाली दरी आँगन में बिछानी पड़ी थी लोगों को
बिठाने के लिए। ख़ूब याद है, आँगन
का गोबर दरी में लग गया था। बच्चे-बूढ़े, सभी आए थे। सिर्फ़ चना-गुड़ या हल्द्वानी के तंबाकू का लोभ
ही नहीं था, कल के शर्मीले गुसांईं
को इस नए रूप में देखने का कौतूहल भी था। पर गुसांईं की आँखें उस भीड़ में जिसे
खोज रही थीं, वह वहाँ नहीं थी।
नाला पार के अपने गाँव से
भैंस के कटया को खोजने के बहाने दूसरे दिन लछमा आई
थी। पर गुसांई उस दिन उससे मिल न सका। गाँव के छोकरे ही गुसांईं की जान को बवाल हो
गए थे। बुढ्ढे नरसिंह प्रधान उन दिनों ठीक ही कहते
थे,
आजकल गुसांईं को देखकर सोबनियाँ का
लड़का भी अपनी फटी घेर की टोपी को तिरछी पहनने लग गया है। दिन-रात बिल्ली
के बच्चों की तरह छोकरे उसके पीछे लगे रहते थे, सिगरेट-बीड़ी या गपशप के लोभ में।
एक दिन बड़ी मुश्किल से मौक़ा
मिला था उसे। लछमा को पात-पतेल के लिए जंगल जाते देखकर वह छोकरों से काँकड क़े
शिकार का बहाना बनाकर अकेले जंगल को चल दिया था। गाँव की सीमा से बहुत दूर, काफल के पेड़ के नीचे गुसांईं के घुटने पर सर रखकर, लेटी-लेटी लछमा काफल खा रही थी। पके, गदराए, गहरे
लाल-लाल काफल। खेल-खेल में काफलों की छीना-झपटी करते गुसांईं ने लछमा की मुठ्ठी भींच
दी थी। टप-टप काफलों का गाढ़ा लाल रस उसकी पैंट पर गिर गया था। लछमा ने कहा था, ''इसे यहीं रख जाना, मेरी पूरी बाँह की कुर्ती इसमें से निकल आएगी।'' वह खिलखिलाकर अपनी बात पर स्वयं ही हँस दी थी।
पुरानी बात — क्या कहा था
गुसांईं ने, याद नहीं पड़ता ..तेरे
लिए मखमल की कुर्ती ला दूँगा, मेरी
सुवा! या कुछ ऐसा ही।
पर लछमा को मखमल की कुर्ती
किसने पहनाई होगी — पहाड़ी पार के रमुवाँ ने, जो तुरी-निसाण लेकर उसे ब्याहने आया था?
''जिसके आगे-पीछे भाई-बहिन
नहीं,
माई-बाप नहीं, परदेश में बन्दूक़ की नोक पर जान रखनेवाले को छोकरी कैसे दे
दें हम?''
लछमा के बाप ने कहा था।
उसका मन जानने के लिए गुसांईं
ने टेढे-तिरछे बात चलवाई थी।
उसी साल मंगसिर की एक ठंडी, उदास शाम को गुसांईं की यूनिट के सिपाही किसनसिंह ने क्वार्टर-मास्टर
स्टोर के सामने खड़े-खड़े उससे कहा था, ''हमारे गाँव के रामसिंह ने ज़िद की, तभी छुट्टियाँ बढ़ानी पड़ीं। इस साल उसकी शादी थी। ख़ूब
अच्छी औरत मिली है, यार!
शक्ल-सूरत भी ख़ूब है, एकदम
पटाखा! बड़ी हँसमुख है। तुमने तो देखा ही होगा, तुम्हारे गाँव के नज़दीक की ही है। लछमा-लछमा कुछ ऐसा ही
नाम है।''
गुसांईं को याद नहीं पड़ता, कौन-सा बहाना बनाकर वह किसनसिंह के पास से चला आया था, रम-डे थे उस दिन। हमेशा आधा पैग लेनेवाला गुसांईं उस दिन
पेशी करवाई थी — मलेरिया प्रिकॉशन न करने के अपराध में। सोचते-सोचते गुसांईं
बुदबुदाया, ''स्साल एडजुटेंट!''
गुसांईं सोचने लगा, उस साल छुट्टियों में घर से बिदा होने से एक दिन पहले वह मौक़ा
निकालकर लछमा से मिला था।
''गंगनाथज्यू की क़सम, जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूँगी!'' आँखों में आँसू भरकर लछमा ने कहा था।
वर्षों से वह सोचता आया है, कभी लछमा से भेंट होगी, तो वह अवश्य कहेगा कि वह गंगनाथ का जागर लगाकर प्रायश्चित ज़रूर
कर ले। देवी-देवताओं की झूठी क़समें खाकर उन्हें नाराज़ करने से क्या लाभ? जिस पर भी गंगनाथ का कोप हुआ, वह कभी फल-फूल नहीं पाया। पर लछमा से कब भेंट होगी, यह वह नहीं जानता। लड़कपन से संगी-साथी नौकरी-चाकरी के लिए
मैदानों में चले गए हैं। गाँव की ओर जाने का उसका मन नहीं होता। लछमा के बारे में
किसी से पूछना उसे अच्छा नहीं लगता।
जितने दिन नौकरी रही, वह पलटकर अपने गाँव नहीं आया। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन का
वालंटियरी ट्रांसफर लेनेवालों की लिस्ट में नायक गुसांईसिंह का नाम ऊपर आता रहा —
लगातार पंद्रह साल तक।
पिछले बैसाख में ही वह गाँव
लौटा,
पंद्रह साल बाद, रिजर्व में आने पर। काले बालों को लेकर गया था, खिचड़ी बाल लेकर लौटा। लछमा का हठ उसे अकेला बना गया।
आज इस अकेलेपन में कोई होता, जिसे गुसांईं अपनी ज़िन्दगी की किताब पढ़कर सुनाता!
शब्द-शब्द, अक्षर-अक्षर कितना देखा, कितना सुना और कितना अनुभव किया है उसने ..
पर नदी किनारे यह तपती रेत, पनचक्की की खटर-पटर और मिहल की छाया में ठंडी चिलम को
निष्प्रयोजन गुड़गुड़ाता गुसांईं। और चारों ओर अन्य कोई नहीं। एकदम निर्जन, निस्तब्ध, सुनसान
—
एकाएक गुसांईं का ध्यान टूटा।
सामने पहाड़ी क़े बीच की
पगडंडी से सर पर बोझा लिए एक नारी आकृति उसी ओर चली आ रही थी। गुसांईं ने सोचा
वहीं से आवाज़ देकर उसे लौटा दे। कोसी ने चिकने, काई लगे पत्थरों पर कठिनाई से चलकर उसे वहाँ तक आकर केवल
निराश लौट जाने को क्यों वह बाध्य करे। दूर से चिल्ला-चिल्लाकर पिसान स्वीकार
करवाने की लोगों की आदत से वह तंग आ चुका था। इस कारण आवाज़ देने को उसका मन नहीं
हुआ। वह आकृति अब तक पगडंडी छोडक़र नदी के मार्ग में आ पहुँची थी।
चक्की की बदलती आवाज़ को
पहचानकर गुसांईं घट के अन्दर चला गया। खप्पर का अनाज समाप्त हो चुका था। खप्पर में
एक कम अन्नवाले थैले को उलटकर उसने अन्न का निकास रोकने के लिए काठ की चिड़ियों को
उलटा कर दिया। किट-किट का स्वर बन्द हो गया। वह जल्दी-जल्दी आटे को थैले में भरने
लगा। घट के अन्दर मथानी की छिच्छर-छिच्छर की आवाज़ भी अपेक्षाकृत कम सुनाई दे रही
थी। केवल चक्की ऊपरवाले पाट की घिसटती हुई घरघराहट का हल्का-धीमा संगीत चल रहा था।
तभी गुसांईं ने सुना अपनी पीठ के पीछे, घट के द्वार पर, इस संगीत से भी मधुर एक नारी का कंठस्वर, ''कब बारी आएगी, जी? रात की रोटी
के लिए भी घर में आटा नहीं है।''
सर पर पिसान रखे एक स्त्री
उससे यह पूछ रही थी। गुसांईं को उसका स्वर परिचित-सा लगा। चौंककर उसने पीछे मुड़कर
देखा। कपड़े में पिसान ढीला बंधा होने के कारण बोझ का एक सिरा उसके मुख के आगे आ
गया था। गुसांईं उसे ठीक से नहीं देख पाया, लेकिन तब भी उसका मन जैसे आशंकित हो उठा। अपनी शंका का
समाधान करने के लिए वह बाहर आने को मुड़ा, लेकिन तभी फिर अन्दर जाकर पिसान के थैलों को इधर-उधर रखने
लगा। काठ की चिड़ियाँ किट-किट बोल रही थीं और उसी गति के साथ गुसांईं को अपने हृदय
की धड़कन का आभास हो रहा था।
घट के छोटे कमरे में चारों ओर
पिसे हुए अन्य का चूर्ण फैल रहा था, जो अब तक गुसांईं के पूरे शरीर पर छा गया था। इस कृत्रिम सफ़ेदी
के कारण वह वृद्धि-सा दिखाई दे रहा था। स्त्री ने उसे नहीं पहचाना।
उसने दुबारा वे ही शब्द
दुहराए। वह अब भी तेज़ धूप में बोझा सर पर रखे हुए गुसांईं का उत्तर पाने को आतुर
थी। शायद नकारात्मक उत्तर मिलने पर वह उलटे पाँव लौटकर किसी अन्य चक्की का सहारा
लेती।
दूसरी बार के प्रश्न को
गुसांईं न टाल पाया, उत्तर देना
ही पडा,
''यहाँ पहले ही टीला लगा है, देर तो होगी ही।'' उसने दबे-दबे स्वर में कह दिया।
स्त्री ने किसी प्रकार की
अनुनय-विनय नहीं की। शाम के आटे का प्रबन्ध करने के लिए वह दूसरी चक्की का सहारा
लेने को लौट पड़ी।
गुसांईं झुककर घट से बाहर
निकला। मुड़ते समय स्त्री की एक झलक देखकर उसका सन्देह विश्वास में बदल गया था।
हताश-सा वह कुछ क्षणों तक उसे जाते हुए देखता रहा और फिर अपने हाथों तथा सिर पर
गिरे हुए आटे को झाड़कर एक-दो क़दम आगे बढ़ा। उसके अन्दर की किसी अज्ञात शक्ति ने
जैसे उसे वापस जाती हुई उस स्त्री को बुलाने को बाध्य कर दिया। आवाज़ देकर उसे
बुला लेने को उसने मुँह खोला, परन्तु
आवाज़ न दे सका। एक झिझक, एक असमर्थता
थी,
जो उसका मुँह बन्द कर रही थी। वह स्त्री नदी तक पहुँच चुकी
थी। गुसांईं के अन्तर में तीव्र उथल-पुथल मच गई। इस बार आवेग इतना तीव्र था कि वह
स्वयं को नहीं रोक पाया, लड़खड़ाती आवाज़
में उसने पुकारा, ''लछमा!''
घबराहट के कारण वह पूरे ज़ोर
से आवाज़ नहीं दे पाया था। स्त्री ने यह आवाज़ नहीं सुनी। इस बार गुसांईं ने
स्वस्थ होकर पुनः पुकारा, ''लछमा!''
लछमा ने पीछे मुड़कर देखा।
मायके में उसे सभी इसी नाम से पुकारते थे, यह सम्बोधन उसके लिए स्वाभाविक था। परन्तु उसे शंका शायद यह
थी कि चक्कीवाला एक बार पिसान स्वीकार न करने पर भी दुबारा उसे बुला रहा है या उसे
केवल भ्रम हुआ है। उसने वहीं से पूछा, ''मुझे पुकार रहे हैं, जी?
गुसांईं ने संयत स्वर में कहा, ''हाँ, ले आ, हो जाएगा।''
लछमा क्षण-भर रुकी और फिर घट
की ओर लौट आई।
अचानक साक्षात्कार होने का मौक़ा
न देने की इच्छा से गुसांईं व्यस्तता का प्रदर्शन करता हुआ मिहल की छाँह में चला
गया।
लछमा पिसान का थैला घट के अन्दर
रख आई। बाहर निकलकर उसने आँचल के कोर से मुँह पोंछा। तेज़ धूप में चलने के कारण
उसका मुँह लाल हो गया था। किसी पेड़ की छाया में विश्राम करने की इच्छा से उसने
इधर-उधर देखा। मिहल के पेड़ की छाया में घट की ओर पीठ किए गुसांईं बैठा हुआ था।
निकट स्थान में दाड़िम के एक पेड़ की छाँह को छोडक़र अन्य कोई बैठने लायक़ स्थान
नहीं था। वह उसी ओर चलने लगी।
गुसांईं की उदारता के कारण
ॠणी-सी होकर ही जैसे उसने निकट आते-आते कहा, ''तुम्हारे बाल-बच्चे जीते रहें, घटवारजी! बड़ा उपकार का काम कर दिया तुमने! ऊपर के घट में
भी जाने कितनी देर में लम्बर मिलता।''
आज संतति के प्रति दिए गए
आशीर्वचनों को गुसांईं ने मन-ही-मन विनोद के रूप में ग्रहण किया। इस कारण उसकी
मानसिक उथल-पुथल कुछ कम हो गई। लछमा उसकी ओर देखें, इससे पूर्व ही उसने कहा, ''जीते रहें तेरे बाल-बच्चे लछमा! मायके कब आई?''
गुसांईं ने अन्तर में घुमड़ती
आँधी को रोककर यह प्रश्न इतने संयत स्वर में किया, जैसे वह भी अन्य दस आदमियों की तरह लछमा के लिए एक साधारण
व्यक्ति हो।
दाड़िम की छाया में पात-पतेल
झाडक़र बैठते लछमा ने शंकित दृष्टि से गुसांईं की ओर देखा। कोसी की सूखी धार अचानक
जल-प्लावित होकर बहने लगती, तो भी लछमा
को इतना आश्चर्य न होता, जितना अपने
स्थान से केवल चार क़दम की दूरी पर गुसांईं को इस रूप में देखने पर हुआ। विस्मय से
आँखें फाड़कर वह उसे देखे जा रही थी, जैसे अब भी उसे विश्वास न हो रहा हो कि जो व्यक्ति उसके
सम्मुख बैठा है, वह उसका पूर्व-परिचित
गुसांईं ही है।
''तुम?'' जाने लछमा क्या कहना चाहती थी, शेष शब्द उसके कंठ में ही रह गए।
''हाँ, पिछले साल पल्टन से लौट आया था, वक़्त काटने के लिए यह घट लगवा लिया।'' गुसांईं ने ही पूछा, ''बाल-बच्चे ठीक हैं?''
आँखें ज़मीन पर टिकाए, गरदन हिलाकर संकेत से ही उसने बच्चों की कुशलता की सूचना दे
दी। ज़मीन पर गिरे एक दाड़िम के फूल को हाथों में लेकर लछमा उसकी पंखुडियों को
एक-एक कर निरुद्देश्य तोडने लगी और गुसांईं पतली सींक लेकर आग को कुरेदता रहा।
बातों का क्रम बनाए रखने के
लिए गुसांईं ने पूछा, ''तू अभी और
कितने दिन मायके ठहरनेवाली है?''
अब लछमा के लिए अपने को रोकना
असम्भव हो गया। टप्-टप्-टप्, वह
सर नीचा किए आँसू गिराने लगी। सिसकियों के साथ-साथ उसके उठते-गिरते कंधों को
गुसांईं देखता रहा। उसे यह नहीं सूझ रहा था कि वह किन शब्दों में अपनी सहानुभूति
प्रकट करे।
इतनी देर बाद सहसा गुसांईं का
ध्यान लछमा के शरीर की ओर गया। उसके गले में चरेऊ (सुहाग-चिह्न) नहीं था।
हतप्रभ-सा गुसांईं उसे देखता रहा। अपनी व्यावहारिक अज्ञानता पर उसे बेहद झुंझलाहट
हो रही थी।
आज अचानक लछमा से भेंट हो
जाने पर वह उन सब बातों को भूल गया, जिन्हें वह कहना चाहता था। इन क्षणों में वह केवल-मात्र
श्रोता बनकर रह जाना चाहता था। गुसांईं की सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि पाकर लछमा आँसू
पोंछती हुई अपना दुखड़ा रोने लगी, ''जिसका
भगवान नहीं होता, उसका कोई
नहीं होता। जेठ-जेठानी से किसी तरह पिंड छुड़ाकर यहाँ माँ की बीमारी में आई थी, वह भी मुझे छोड़कर चली गई। एक अभागा मुझे रोने को रह गया है, उसी के लिए जीना पड़ रहा है। नहीं तो पेट पर पत्थर बाँधकर
कहीं डूब मरती, जंजाल कटता।''
''यहाँ काका-काकी के साथ
रह रही हो?'' गुसांईं ने पूछा।
''मुश्किल पड़ने पर कोई
किसी का नहीं होता, जी! बाबा की
जायदाद पर उनकी आँखें लगी हैं, सोचते
हैं,
कहीं मैं हक़ न जमा लूँ। मैंने साफ़-साफ़ कह दिया, मुझे किसी का कुछ लेना-देना नहीं। जंगलात का लीसा ढो-ढोकर
अपनी गुज़र कर लूँगी, किसी की आँख
का काँटा बनकर नहीं रहूँगी।''
गुसांईं ने किसी प्रकार की
मौखिक संवेदना नहीं प्रकट की। केवल सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से उसे देखता-भर रहा।
दाड़िम के वृक्ष से पीठ टिकार लछमा घुटने मोड़कर बैठी थी। गुसांईं सोचने लगा, पंद्रह-सोलह साल किसी की ज़िन्दगी में अन्तर लाने के लिए कम
नहीं होते, समय का यह अन्तराल लछमा
के चेहरे पर भी एक छाप छोड़ गया था, पर उसे लगा, उस छाप के नीचे वह आज भी पन्द्रह वर्ष पहले की लछमा को देख
रहा है।
''कितनी तेज़ धूप है, इस साल!'' लछमा
का स्वर उसके कानों में पड़ा। प्रसंग बदलने के लिए ही जैसे लछमा ने यह बात जान-बूझकर
कही हो।
और अचानक उसका ध्यान उस ओर
चला गया,
जहाँ लछमा बैठी थी। दाड़िम की फैली-फैली अधढंकीं डालों से
छनकर धूप उसके शरीर पर पड़ रही थी। सूरज की एक पतली किरन न जाने कब से लछमा के
माथे पर गिरी हुई एक लट को सुनहरी रंगीनी में डूबा रही थी। गुसांईं एकटक उसे देखता
रहा।
''दोपहर तो बीत चुकी होगी,'' लछमा ने प्रश्न किया तो गुसांईं का ध्यान टूटा, ''हाँ, अब तो दो
बजनेवाले होंगे,'' उसने कहा, ''उधर धूप लग रही हो तो इधर आ जा छाँव में।'' कहता हुआ गुसांईं एक जम्हाई लेकर अपने स्थान से उठ गया।
''नहीं, यहीं ठीक है,'' कहकर लछमा ने गुसांईं की ओर देखा, लेकिन वह अपनी बात कहने के साथ ही दूसरी ओर देखने लगा था।
घट में कुछ देर पहले डाला हुआ
पिसान समाप्ति पर था। नम्बर पर रखे हुए पिसान की जगह उसने जाकर जल्दी-जल्दी लछमा
का अनाज खप्पर में खाली कर दिया।
धीरे-धीरे चलकर गुसांईं गुल
के किनारे तक गया। अपनी अंजुलि से भर-भरकर उसने पानी पिया और फिर पास ही एक बंजर
घट के अन्दर जाकर पीतल और अलमुनियम के कुछ बर्तन लेकर आग के निकट लौट आया।
आस-पास पड़ी हुई सूखी लकड़ियों
को बटोरकर उसने आग सुलगाई और एक कालिख पुती बटलोई में पानी रखकर जाते-जाते लछमा की
ओर मुँह कर कह गया, ''चाय का टैम
भी हो रहा है। पानी उबल जाय, तो
पत्ती डाल देना, पुड़िया में पड़ी है।''
लछमा ने उत्तर नहीं दिया। वह
उसे नदी की ओर जानेवाली पगडंडी पर जाता हुआ देखती रही।
सड़क किनारे की दुकान से दूध लेकर
लौटते-लौटते गुसांईं को काफ़ी समय लग गया था। वापस आने पर उसने देखा, एक छः-सात वर्ष का बच्चा लछमा की देह से सटकर बैठा हुआ है।
बच्चे का परिचय देने की इच्छा
से जैसे लछमा ने कहा, ''इस छोकरे को
घड़ी-भर के लिए भी चैन नहीं मिलता। जाने कैसे पूछता-खोजता मेरी जान खाने को यहाँ
भी पहुँच गया है।''
गुसांई ने लक्ष्य किया कि बच्चा
बार-बार उसकी दृष्टि बचाकर माँ से किसी चीज़ के लिए ज़िद कर रहा है। एक बार
झुंझलाकर लछमा ने उसे झिड़क दिया, ''चुप
रह! अभी लौटकर घर जाएँगे, इतनी-सी देर
में क्यों मरा जा रहा है?''
चाय के पानी में दूध डालकर
गुसांईं फिर उसी बंजर घट में गया। एक थाली में आटा लेकर वह गूल के किनारे
बैठा-बैठा उसे गूँथने लगा। मिहल के पेड़ की ओर आते समय उसने साथ में दो-एक बर्तन
और ले लिए।
लछमा ने बटलोई में दूध-चीनी
डालकर चाय तैयार कर दी थी। एक गिलास, एक एनेमल का मग और एक अलमुनियम के मैसटिन में गुसांईं ने
चाय डालकर आपस में बाँट ली और पत्थरों से बने बेढंगे चूल्हे के पास बैठकर रोटियाँ
बनाने का उपक्रम करने लगा।
हाथ का चाय का गिलास ज़मीन पर
टिकाकर लछमा उठी। आटे की थाली अपनी ओर खिसकाकर उसने स्वयं रोटी पका देने की इच्छा
ऐसे स्वर में प्रकट की कि गुसांईं ना न कह सका। वह खड़ा-खड़ा उसे रोटी पकाते हुए
देखता रहा। गोल-गोल डिबिया-सरीखी रोटियाँ चूल्हे में खिलने लगीं। वर्षों बाद
गुसांईं ने ऐसी रोटियाँ देखी थीं, जो
अनिश्चित आकार की फ़ौजी लंगर की चपातियों या स्वयं उसके हाथ से बनी बेडौल रोटियों
से एकदम भिन्न थीं। आटे की लोई बनाते समय लछमा के छोटे-छोटे हाथ बड़ी तेज़ी से घूम
रहे थे। कलाई में पहने हुए चाँदी के कड़े जब कभी आपस में टकरा जाते, तो खन्-खन् का एक अत्यन्त मधुर स्वर निकलता। चक्की के पाट
पर टकरानेवाली काठ की चिडियों का स्वर कितना नीरस हो सकता है, यह गुसांईं ने आज पहली बार अनुभव किया।
किसी काम से वह बंजर घट की ओर
गया और बड़ी देर तक खाली बर्तन-डिब्बों को उठाता-रखता रहा।
वह लौटकर आया, तो लछमा रोटी बनाकर बर्तनों को समेट चुकी थी और अब आटे में
सने हाथों को धो रही थी।
गुसांईं ने बच्चे की ओर देखा।
वह दोनों हाथों में चाय का मग थामे टकटकी लगाकर गुसांईं को देखे जा रहा था। लछमा
ने आग्रह के स्वर में कहा, ''चाय के साथ
खानी हों,
तो खा लो। फिर ठंडी हो जाएँगी।''
''मैं तो अपने टैम से ही
खाऊँगा। यह तो बच्चे के लिए ..'' स्पष्ट
कहने में उसे झिझक महसूस हो रही थी, जैसे बच्चे के सम्बन्ध में चिंतित होने की उसकी चेष्टा
अनधिकार हो।
''न-न, जी! वह तो अभी घर से खाकर ही आ रहा है। मैं रोटियाँ बनाकर
रख आई थी,''
अत्यन्त संकोच के साथ लछमा ने आपत्ति प्रकट कर दी।
''अैंऽऽ, यों ही कहती है। कहाँ रखी थीं रोटियाँ घर में?'' बच्चे ने रूआँसी आवाज़ में वास्तविक व्यक्ति की बातें सुन
रहा था और रोटियों को देखकर उसका संयम ढीला पड़ गया था।
''चुप!'' आँखें तरेरकर लछमा ने उसे डाँट दिया। बच्चे के इस कथन से
उसकी स्थिति हास्यास्पद हो गई थी, इस
कारण लज्जा से उसका मुँह आरक्त हो उठा।
''बच्चा है, भूख लग आई होगी, डाँटने से क्या फ़ायदा?'' गुसांईं ने बच्चे का पक्ष लेकर दो रोटियाँ उसकी ओर बढा दीं।
परन्तु माँ की अनुमति के बिना उन्हें स्वीकारने का साहस बच्चे को नहीं हो रहा था।
वह ललचाई दृष्टि से कभी रोटियों की ओर, कभी माँ की ओर देख लेता था।
गुसांईं के बार-बार आग्रह
करने पर भी बच्चा रोटियाँ लेने में संकोच करता रहा, तो लछमा ने उसे झिड़क दिया, ''मर! अब ले क्यों नहीं लेता? जहाँ जाएगा, वहीं अपने लच्छन दिखाएगा!''
इससे पहले कि बच्चा रोना शुरू
कर दें,
गुसांईं ने रोटियों के ऊपर एक टुकड़ा गुड़ का रखकर बच्चे के
हाथों में दिया। भरी-भरी आँखों से इस अनोखे मित्र को देखकर बच्चा चुपचाप रोटी खाने
लगा,
और गुसांईं कौतूकपूर्ण दृष्टि से उसके हिलते हुए होठों को
देखता रहा।
इस छोटे-से प्रसंग के कारण
वातावरण में एक तनाव-सा आ गया था, जिसे
गुसांईं और लछमा दोनों ही अनुभव कर रहे थे।
स्वयं भी एक रोटी को चाय में
डुबाकर खाते-खाते गुसांईं ने जैसे इस तनाव को कम करने की कोशिश में ही मुस्कराकर
कहा,
''लोग ठीक ही कहते हैं, औरत के हाथ की बनी रोटियों में स्वाद ही दूसरा होता है।''
लछमा ने करूण दृष्टि से उसकी
ओर देखा। गुसांईं हो-होकर खोखली हँसी हँस रहा था।
''कुछ साग-सब्ज़ी होती, तो बेचारा एक-आधी रोटी और खा लेता।'' गुसांईं ने बच्चे की ओर देखकर अपनी विवशता प्रकट की।
''ऐसी ही खाने-पीनेवाले की
तक़दीर लेकर पैदा हुआ होता तो मेरे भाग क्यों पड़ता? दो दिन से घर में तेल-नमक नहीं है। आज थोड़े पैसे मिले हैं, आज ले जाऊँगी कुछ सौदा।''
हाथ से अपनी जेब टटोलते हुए
गुसांईं ने संकोचपूर्ण स्वर में कहा, ''लछमा!''
लछमा ने जिज्ञासा से उसकी ओर
देखा। गुसांईं ने जेब से एक नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, ''ले, काम चलाने
के लिए यह रख ले, मेरे पास
अभी और है। परसों दफ़्तर से मनीऑर्डर आया था।''
''नहीं-नहीं, जी! काम तो चल ही रहा है। मैं इस मतलब से थोड़े कह रही थी।
यह तो बात चली थी, तो मैंने
कहा,''
कहकर लछमा ने सहायता लेने से इन्कार कर दिया
गुसांईं को लछमा का यह
व्यवहार अच्छा नहीं लगा। रूखी आवाज़ में वह बोला, ''दुःख-तकलीफ़ के वक़्त ही आदमी आदमी के काम नहीं आया, तो बेकार है! स्साला! कितना कमाया, कितना फूँका हमने इस ज़िन्दगी में। है कोई हिसाब! पर क्या फ़ायदा!
किसी के काम नहीं आया। इसमें एहसान की क्या बात है? पैसा तो मिट्टी है स्साला! किसी के काम नहीं आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी!''
परन्तु गुसांईं के इस तर्क के
बावजूद भी लछमा अड़ी रही, बच्चे के सर
पर हाथ फेरते हुए उसने दार्शनिक गंभीरता से कहा, ''गंगनाथ दाहिने रहें, तो भले-बुरे दिन निभ ही जाते हैं, जी! पेट का क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो, कम हो जाय। अपने-पराये प्रेम से हँस-बोल दें, तो वह बहुत है दिन काटने के लिए।''
गुसांईं ने ग़ौर से लछमा के
मुख की ओर देखा। वर्षों पहले उठे हुए ज्वार और तूफ़ान का वहाँ कोई चिह्न शेष नहीं
था। अब वह सागर जैसे सीमाओं में बन्धकर शान्त हो चुका था।
रुपया लेने के लिए लछमा से
अधिक आग्रह करने का उसका साहस नहीं हुआ। पर गहरे असन्तोष के कारण बुझा-बुझा-सा वह
धीमी चाल से चलकर वहाँ से हट गया। सहसा उसकी चाल तेज़ हो गई और घट के अन्दर जाकर
उसने एक बार शंकित दृष्टि से बाहर की ओर देखा। लछमा उस ओर पीठ किए बैठी थी। उसने
जल्दी-जल्दी अपने निजी आटे के टीन से दो-ढाई सेर के क़रीब आटा निकालकर लछमा के आटे
में मिला दिया और सन्तोष की एक सांस लेकर वह हाथ झाड़ता हुआ बाहर आकर बाँध की ओर
देखने लगा। ऊपर बाँध पर किसी को घूमते हुए देखकर उसने हाँक दी। शायद खेत की सिंचाई
के लिए कोई पानी तोड़ना चाहता था।
बाँध की ओर जाने से पहले वह
एक बार लछमा के निकट गया। पिसान पिस जाने की सूचना उसे देकर वापस लौटते हुए फिर
ठिठककर खड़ा हो गया, मन की बात
कहने में जैसे उसे झिझक हो रही हो। अटक-अटककर वह बोला, ''लछमा ..।''
लछमा ने सिर उठाकर उसकी ओर
देखा। गुसांईं को चुपचाप अपनी ओर देखते हुए पाकर उसे संकोच होने लगा। वह न जाने
क्या कहना चाहता है, इस बात की
आशंका से उसके मुँह का रंग अचानक फीका होने लगा। पर गुसांईं ने झिझकते हुए केवल
इतना ही कहा, ''कभी चार पैसे जुड ज़ाएँ, तो गंगनाथ का जागर लगाकर भूल-चूक की माफ़ी माँग लेना।
पूत-परिवारवालों को देवी-देवता के कोप से बचा रहना चाहिए।'' लछमा की बात सुनने के लिए वह नहीं रुका।
पानी तोड़नेवाले खेतिहार से
झगड़ा निपटाकर कुछ देर बाद लौटते हुए उसने देखा, सामनेवाले पहाड़ की पगडंडी पर सर पर आटा लिए लछमा अपने
बच्चे के साथ धीरे-धीरे चली जा रही थी। वह उन्हें पहाड़ी के मोड तक पहुँचने तक
टकटकी बाँधे देखता रहा।
घट के अन्दर काठ की चिडियाँ
अब भी किट-किट आवाज़ कर रही थीं, चक्की
का पाट खिस्सर-खिस्सर चल रहा था और मथानी की पानी काटने की आवाज़ आ रही थी, और कहीं कोई स्वर नहीं, सब सुनसान, निस्तब्ध!
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