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यशपाल (जन्म : 3 दिसम्बर, 1903 ई., फ़ीरोज़पुर छावनी;
मृत्यु : 26 दिसंबर, 1976) हिन्दी के यशस्वी कथाकार और निबन्ध
लेखक हैं।
धर्मयुद्ध (यशपाल रचित कहानी)
श्री कन्हैयालाल के पारिवारिक क्षेत्र में घटी धर्म-युद्ध की घटना की बात कहने
से पहले कुछ भूमिका की आवश्यकता है इसलिए कि ग़लत-फ़हमी न हो। कुरुक्षेत्र में जो धर्मयुद्ध
हुआ था उसमें शस्त्रों का यानि गांधीवाद के दृष्टिकोण से पाशविक बल का ही प्रयोग किया
गया था।
कुरुक्षेत्र में जो धर्मयुद्ध हुआ था उसमें शस्त्रों का यानि
गांधीवाद के दृष्टिकोण से पाशविक बल का ही प्रयोग किया गया था। यों तो सतयुग से लेकर
द्वापर तक धर्मयुद्ध का काल रहा है। वह युग आध्यात्मिक और नैतिकता का काल था। सुनते हैं कि
उस काल में लोग बहुत शांतिप्रिय और संतुष्ट थे परन्तु सभी
सदा सशस्त्र रहते थे। न्याय-अन्याय और उचित-अनुचित का प्रश्न जब भी उठता तो निर्णय
शस्त्रों के प्रयोग और रक्तपात से ही होता था। झगड़ा चाहे भाइयों में रहा हो
या देव-दानवों में या पति पत्नी में...जैसाकि ऋषि जमदग्नि का अपनी पत्नी से या ऋषियों
के समाज में... जैसा कि ब्रह्मर्षि वशिष्ठ और राजर्षि विश्वामित्र में।
इधर ज्यों-ज्यों मानव समाज में आध्यात्मिकता का ह्रास होता गया, लोग निःशस्त्र रहने लगे।
झगड़े तो होते ही रहे, होते ही हैं; परन्तु निःशस्त्र होने के कारण लोग नैतिक शक्ति का प्रयोग
करने लगे। शस्त्रों के बिना नैतिक शक्ति से न्याय और धर्म
के लिए लड़ने का संघर्ष करने की विधि का नाम कालान्तर में सत्याग्रह पड़ गया। सत्याग्रह
को ही हम वास्तव में धर्मयुद्ध कह सकते हैं क्योंकि युद्ध की इस विधि में मनुष्य पाशविक
बल से नहीं बल्कि आत्म-बलिदान से या धर्म बल से ही न्याय की प्रतिष्ठा का यत्न करता
है। श्री कन्हैयालाल के पारिवारिक क्षेत्र में विचारों का संघर्ष धर्मयुद्ध
की विधि से ही हुआ था।
कुछ परिचय श्री कन्हैयालाल का भी आवश्यक है। यों तो कन्हैयालाल की स्थिति हमारे
दफ़्तर के सौ-सौ रुपये माहवार पाने वाले दूसरे बाबुओं के समान ही थी, परन्तु उनके व्यवहार
में दूसरे सामान्य बाबुओं से भिन्नता थी।
सौ सवासौ रुपये का मामूली आर्थिक आधार होने पर भी उनके व्यवहार में एक बड़प्पन
और उदारता थी, जैसी ऊंचे स्तर के बड़े-बाबू लोगों में होती है। वे दस्तखत करते थे ‘के. लाल’ और
हाथ मिलाते तो ज़रा कलाई को झटक कर होंठों पर मुस्कराहट आ जाती-हाउ डू यू डू (कहिये
क्या हाल है) और पूछ बैठते, ह्वाट कैन आई डू फ़ॉर यू! (आपके लिए क्या करता सकता हूं!)’
दफ़्तर के कुछ तुनक मिजाज लोग के. लाल के ‘व्हाट कैन आई डू फ़ॉर यू (आपके लिए मैं
क्या कर सकता हूं)’ प्रश्न
पर अपना अपमान भी समझ बैठते और कुछ उनकी इस उदारता का मज़ाक़ उड़ा कर उन्हें ‘बॉस’
(मालिक) पुकारने लगे लेकिन के. लाल के व्यवहार में दूसरों का अपमान करने की भावना नहीं
थी। दूसरे को क्षुद्र बनाये बिना ही वे स्वयं बड़प्पन अनुभव करना चाहते थे। इसके लिए
हमसे और हमारे पड़ोसी दीना बाबू से कभी किसी प्रतिदान की आशा न होने पर भी उन्होंने
कितनी ही बार हमें कॉफ़ी-हाउस में कॉफ़ी पिलाई और घर पर भी चाय और शरबत से सत्कार किया।
लाल की इस सब उदारता का मूल्य हम इतना ही देते थे कि उन्हें अपने से अधिक बड़ा आदमी
और अमीर स्वीकार करते रहते। दफ़्तर के चपरासी लाल का आदर लगभग
बड़े साहब के समान ही करते थे। लाल के आने पर उनकी साइकिल थाम लेते और छुट्टी के समय
साइकिल को झाड़-पोंछ कर आगे बढ़ा देते। कारण यह कि लाल कभी पान या सिगरेट का पैकेट
मंगाते तो कभी कभार रुपये में से शेष बचे दाम चपरासी को बख्शीश में दे देते।
हम लोग तो इस दफ़्तर में तीन चार बरस से काम कर रहे थे; पचहत्तर रुपये पर काम आरम्भ करके
सवासौ तक पहुंच गये थे। दफ़्तर की साधारण सालाना तरक़्क़ी के अतिरिक्त कोई सुनहरा भविष्य
सामने था नहीं। वह आशा भी नहीं थी कि हमें कभी असिस्टेंट या मैनेजर बन जाना है, परन्तु
के. लाल शीघ्र ही किसी ऐसी तरक़्क़ी की आशा में थे। तीन-चार मास पूर्व ही वे किसी बड़े
आदमी की सिफ़ारिश से दफ़्तर में आये थे। प्रायः बड़े आदमियों से मिलने-जुलने की बात
इस भाव से करते कि अपने समान आदमियों की ही बात कर रहे हों। अक्सर कह देते ग्राहम ऐण्ड
ग्रिण्डले के दफ़्तर से उन्हें चार सौ का ऑफ़र है अभी सोच रहे हैं....या मैकेंजी एण्ड
विनसन उन्हें तीन सौ तनख़्वाह और बिक्री पर तीन प्रतिशत मय फर्स्ट क्लास किराये के
देने के लिए तैयार है, लेकिन सोच रहे हैं....
हमारे दफ़्तर में उन्हें लोहे की सलाखों और चादरों के ऑर्डर बुक करने का काम दिया
गया था। इस ड्यूटी के कारण उन्हें दफ़्तर के समय की पाबन्दी कम रहती, घूमने फिरने का समय मिलता
रहता और वे अपने आप को साधारण बाबुओं से भिन्न समझते। इस काम में कम्पनी को कोई विशेष
सफलता उनके आने से नहीं हुई थी, इसलिए शीघ्र ही कोई तरक़्क़ी पा जाने की लाल की आशा
हमें बहुत सार्थक नहीं जान पड़ रही थी। परन्तु लाल को अपने उज्ज्वल भविष्य पर अडिग
विश्वास था। ऊंचे दर्जे के ख़र्च से बढ़ते क़र्ज़े की चिन्ता के कारण उनके माथे पर
कभी तेवर नहीं देखे गये और न उनके चाय, और सिगरेट ऑफ़र प्रस्तुत करने में कोई कमी देखी गयी।
उन्हें ज्योतिषी द्वारा बताये अपनी हस्तरेखा के फल पर दृढ़ विश्वास था।
जैसे जंगल में आग लग जाने पर बीहड़ झाड़-झंखार में छिपे जानवरों को मैदानों की
ओर भागना पड़ता है और टुच्चे-टुच्चे शिकारियों की भी बन आती है वैसे ही पिछले युद्ध
के समय महान् राष्ट्रों को परस्पर संहार के लिए साधारण पदार्थों की अपरिचित आवश्यकता
हो गयी थी। सर्वसाधारण जनता तो अभाव से मरने लगी, परन्तु व्यापारी समाज की बन आयी।
अब हमारी मिल को ग्राहक और एजेण्ट ढूंढ़ने नहीं पड़ रहे थे, बल्कि ग्राहक और एजेण्टों
से पीछा छुड़ाना पड़ रहा था। लाल का काम सरल हो गया। उनका काम था मिल के लोहे का कोटा
बांटना और मिल के लिए लाभ की प्रतिशत दर बढ़ाना।
दस्तूरन तो के. लाल की तनख़्वाह में कोई अन्तर नहीं आया, परन्तु अब वे साइकिल पर
पांव चलाते दफ़्तर आने के बजाय तांगे या रिक्शा पर आते दिखाई देते। तांगे वाले की ओर
रुपया फेंककर बाक़ी रेजगारी के लिए नहीं, बल्कि उनके सलाम का जवाब देने के लिए ही उसकी
ओर देखते। कई बार उनके मुख से सेकेण्ड हेन्ड ‘शेवरले’ या ‘वाक्सहाल’ गाड़ी का ट्रायल
लेने जाने की बात भी सुनाई दी। अब वे चार-चार, पांच-पांच आदमियों को कॉफ़ी हाउस
ले जाने लगे और उम्मुक्त उदारता से पूछते-
“व्हाट बुड यू लाइक टु हैव? (क्या शौक़ कीजिएगा)’’
अपने घर पर भी अब वे अधिक निमंत्रण देने लगे। उनके घर जाने पर भी हर बार कोई न
कोई नयी चीज़ दिखाई देती। कमरे का आकार बढ़ नहीं सकता था, इसलिए वह फर्नीचर और सामान से अटा
जा रहा था। जगह न रहने पर कुर्सियां सोफ़ाओं के पीछे रख दी गयी थीं और टी टेबलें कॉर्नर
टेबलें और पेग टेबलें मेजों और सोफ़ाओं के नीचे दबानी पड़ रही थीं। मेहमानों के सत्कार
में भी अब केवल चायदानी या शरबत का जग ही सामने नहीं आता था। के. लाल तराशे हुए बिल्लौर
का डिकेण्टर उपेक्षा से उठाकर आग्रह करते-
“हैव ए डैश आफ़ ह्विस्की! (एक दौर ह्विस्की का हो जाय?)’’
धन्यवाद सहित नकारात्मक उत्तर दे देने पर भी वे अपनी उदारता को समेटने के लिए तैयार
न थे; आग्रह
करते-तो रम लो। अच्छा गिमलेट।’’
युद्ध के दिनों में कुछ समय वैकाइयों (W. A. C. A. I.) की भी बहार आई थी। सर्वसाधारण लोग
बाज़ार में जवान, चुस्त बेझिझक छोकरियों के दलों को देख कर हैरान थे, जैसे नीलगायों का कोई दल नगर
की सीमा में फांद आया हो। सामर्थ्य रखने वाले लोग प्रायः इनकी संगति का प्रदर्शन कर
गौरव अनुभव करते थे। ऐसी तीन चार हंसमुखियां के. लाल साहब की महफ़िल में भी शोभा बढ़ाने
लगीं।
श्री के. लाल के माता-पिता अपेक्षाकृत रुढ़िवादी हैं। आचार-व्यवहार
के सम्बन्ध में उनकी धारणा धर्म पाप और पुण्य के विचारों से बंधी है। अपने एक मात्र
पुत्र की सांसारिक समृद्धि से उन्हें सन्तोष और गौरव अनुभव होता था, परन्तु उसकी आचार
सम्बन्धी उच्छृंखलता से अपना धर्म और परलोक बिगड़ जाने की बात की भी वे उपेक्षा न कर
सकते थे। एक दिन माता-पिता और पुत्र की आचार सम्बन्धी धारणाओं में परस्पर-विरोध के
कारण धर्मयुद्ध ठन गया।
उस दिन के. लाल ने अन्तरंग मित्र मि. माथुर और वैकाई में काम करने वाली उनकी पत्नी
तथा उनकी साली को ‘डिनर’ और ‘कॉकटेल’ (शराब) पार्टी के लिए निमंत्रित किया था। इस प्रकार
की पार्टियां प्रायः होती ही रहती थीं। परन्तु इस सावधानी से कि ऊपर की मंज़िल में
रसोई-चौके के काम में व्यस्त उनकी मां और संग्रहणी के रोग से जर्जर खाट पर पड़े उनके
पिता को पार्टी की बातचीत और खानपान के ढंग का आभास न हो पाता था। पार्टी के कमरे से
रसोई तक सम्बन्ध नौकर या श्रीमती लाल द्वारा ही रहता था। मिसेज
लाल सास-ससुर की धार्मिक निष्ठा की अपेक्षा अपने पति के सन्तोष को ही अपना धर्म मानती
थी। सास के निर्मम अनुशासन की अपेक्षा पति की उच्छृंखलता उनके लिए अधिक सह्य थी।
उस सन्ध्या ऊपर और नीचे की मंज़िलों का प्रबन्ध अलग-अलग रखने के प्रसंग में श्रीमती
लाल ने पति से पूछा-
“विद्या और आनन्द का क्या होगा?’’
के. लाल की बहिन विद्या अपने पति आनन्द सहित आगरे से आकर एक सप्ताह के लिए भाई
के यहां ठहरी हुई थी। बहिन और बहनोई को मेहमानों से मिलने से रोके रहना सम्भव न था।
इसमें आशंका भी थी, क्योंकि विद्या को इस कम उम्र में ही धार्मिकता का गर्व अपनी मां से कुछ कम न था।
दांत से नाखून खोंटते हुए लाल ने सलाह दी,‘‘तुम विद्या को समझा दो।’’
“यह मेरे बस का नहीं....’’ श्रीमती लाल ने दोनों हाथ उठा कर दुहाई दी,
“तुम ही आनन्द को समझा दो वही विद्या को संभाल सकता है।’’
यही तय पाया और लाल ने आनन्द को एक ओर ले जाकर उसके हाथ अपने हाथों में थाम विश्वास
और भरोसे के स्वर में समझाया,‘‘आज मेहमान आ रहे हैं...मेहमानों के लिए तो करना ही पड़ता है।
तुम तो होगे ही। अगर विद्या को एतराज़ हो तो कुछ समय के लिए टाल देना या उसे समझा दो...तुम
जैसा समझो। विद्या को पहले से समझा देना ठीक होगा। उसे शायद यह बात विचित्र जान पड़े।
माता जी के विचार और विश्वास तो तुम जानते ही हो। वह जाकर माता जी को न कुछ कह दे!’’
लाल ने मुस्कराकर अपना पूर्ण विश्वास और भरोसा प्रकट करने के लिए बहनोई के हाथ ज़रा
और ज़ोर से दबा दिये।
आनन्द ने विद्या को एक ओर बुलाकर समझाया,‘‘आजकल के ज़माने में यह सब होता ही है। भैया की मजबूरी
है...तुम जानती हो मैं तो कभी पीता नहीं। हमारी वजह से इन लोगों के मेहमानों को क्यों
परेशानी हो? तुम इतना ध्यान रखना कि माता जी को नीचे न आना
पड़े।’’ विद्या ने सुना और मानसिक आघात से चुप रह गयी।
मिस्टर माथुर, मिसेज माथुर अपनी साली के साथ ज़रा विलम्ब से पहुंचे। पार्टी शुरू हो गयी थी।
पहला पेग चल रहा था। हंसी-मज़ाक़ की दबी-दबी आवाज़ें ऊपर की मंज़िल में पहुंच रही
थीं। आनन्द कुछ देर नीचे बैठता और फिर ऊपर जाकर देख आता कि सब ठीक
है।
इस प्रकार के. लाल उर्फ़ कन्हैयालाल यह धर्मयुद्ध छल की मदद लेकर के जीत गए।